दिनकर-देसे ‘ब्रह्मपुत्र को देखा है’! : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
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(विश्व हिंदी दिवस के दिन अपने प्रिय कवि दिनकर कुमार जिनसे हठात् मुलाकात हुई और मन में गहरे धंस गए के लिए; सादर! )
साहित्य चेतस मनुष्य को परदुःखकातर और द्रवणशील बनाता है। असम प्रांत के सशक्त हिंदी-असमिया कवि दिनकर कुमार के लिखे से इस बात की तसदीक हो जाती है, जब वे कहते हैं-‘मैं कई बार बना हूँ माँझी/गाया है शोकगीत’। वे माँझी जिस नदी का हैं उसका इतिहास पुराना और सन्दर्भ ऐतिहासिक है। वे शिद्दत और शाइस्तगी से उनका हवाला हमारे सामने रख देते हैं-‘रेत पर लिखे गए सारे अक्षर/उसी तरह उजड़ते हैं जैसे उजड़ती हैं सभ्यताएँ/आहोम राजाओं को मैंने देखा है/अंजुली में जल भरकर पिंडदान करते हुए/मैंने कामरूप को देखा है/चीन का यायावर ह्वेनसांग उमानंद पर्वत पर/मिला था/उसकी आँखें भीगी हुई थी/हाथों में ढेर सारे फूल और जेब में /पुरानी पांडुलिपियाँ/ह्वेनसांग रास्ता भूल गया था’।
लोक-हृदयी कवि दिनकर तथ्य, तकनीक, विज्ञान और प्रयोग आधारित इस युग का सच जानते हैं। इसलिए वे आधुनिक सन्दर्भ देना नहीं भूलते हैं जिससे पाठक का सामान्य ज्ञान नहीं अंतर्मन संवेदित-संतुष्ट हो सके। उनकी लम्बी कविता ‘उद्गम स्थल की खोज’ का वृत्तांत देखिए-‘एक सौ मील के दायरे में जलधारा का दस हजार फीट/नीचे उतरना एक रहस्य था जिसके आधार पर/कल्पना की गई कि जरूर कहीं/विश्व का सबसे बड़ा जलप्रपात होगा/उसका नाम रखा गया ‘ब्रह्मपुत्र फाल्स’/इस काल्पनिक जल-प्रपात की खोज शुरू हो गई/वार्ड और कोडोर ने आखिरकार इस रहस्य की/खोज की/वे पहुँचे उद्गम स्थल पर/उन्होंने पहचान लिया ब्रह्मपुत्र का सम्पूर्ण गति पथ/तिब्बत से बहकर आने वाली सांगपो/अरुणाचल में दिहांग के साथ मिल जाती है/वही दिहांग असम में दिबांग और लुइत के साथ/एकाकार हो जाती है/उसका नाम रखा जाता है-ब्रह्मपुत्र’।
कवि दिनकर कुमार बोधि प्रकाशन से प्रकाशित अपने काव्य संग्रह ‘ब्रह्मपुत्र को देखा है’ में ब्रह्मपुत्र की विशालता, विराटता और प्राचीनता को देखने का दावा करते हैं, तो मन में जिज्ञासा कलोल भरती है,-‘आखिर इस कवि के पास ऐसा कौन-सा टेलीस्कोप है जो उसकी दृष्टि को इतना दूरदर्शी बना देती हैं!’ मर्मस्पर्शी चित्रण जिससे गुजरते हुए कलेजा दो-टुक हो जाता है; की वेदना देखिए-‘किस तरह एक दरिद्र किसान मनौती मानता है/प्रार्थना करता है-मनबाहु ब्रह्मपुत्र-/अगर क्रुद्ध हो गए, तो किसान के सपने बह जाते हैं/ढोर और झोपड़ी-नवजात शिशु और/बांसुरी बजाने वाला चरवाहा लड़का/ले लेते हैं जल-समाधि’।
उत्तर आधुनिक मित्रता के अपनापे में गलबहियाँ करती नई पीढ़ी क्या इस दर्द, टीस, हूक, कसक को बूझ पाएगी; यदि नहीं तो यह खतरे की निशानी है। जो नदी के खतरे के निशान पर चढ़ने से भी अधिक भयावह और त्रासद है। इन दिनों जनगाथा से उलट लिखे-पढ़े के इतिहास को ऊँट बनाकर इस-उस करवट बिठाने की जो विध-विधि अपनाई जा रही है, वह सर्वथा ग़लत है। समय रहते अपनी ग़लती में सुधार किए बिना हममें से किसी का बच पाना मुश्किल है। खेत, चरवाहे, किसान, आदिवासी, कारीगर, मजदूर, शिल्पी, लेखक, कवि इत्यादि जिनको नज़रअंदाज करना मौजूदा समय-समाज का शगल है; कुछ भी नहीं बचेगा।
जातिवादी मानसिकता एवं भ्रष्ट आचरण वाले लोगों की कारस्तानियों-करतूतों को छोड़ दें, तो अधिसंख्य पुरनिया बचे रहे क्योंकि उन्होंने अतीत को जिया ही नहीं उसे समुचित आदर-सम्मान भी दिया। आज की लखटकिया माहवारी वाली मुझ जैसी पीढ़ी को लानत है जो कायदे से अपने घर और परिवार को नहीं जानते, वो क्या और कहाँ जान सकेंगे ब्रह्मपुत्र की तलछटी, कछार और उसके तीर पर बसे लोगों का दुःख-दर्द, टीस-हूक, आफ़त और बेचैनी। कवि दिनकर उनको महसूसते हैं क्योंकि वे उनके बीच रहते हैं। स्त्री का आत्मा-शरीर लिए किन्तु गणिकाओं के वेश में जो आकार-आकृति ब्रह्मपुत्र से साक्षात्कार करती है, उनके लिए कवि का शब्द कितना जीवंत है, ‘ब्रह्मपुत्र का जल एक-दूसरे पर उछालती हुई गणिकाएँ/धोने की कोशिश करती हैं विवशता को/थकान को अनिद्रा को कलेजे की पीड़ा को/भूलने की कोशिश करती हैं रात भर की यंत्रणा को/नारी बनकर पैदा होने के अभिशाप को’।
ब्रह्मपुत्र को कवि ‘बाबा’ शब्द से सम्बोधित करता है, तो वह आत्मीयता के साथ पुरातनता का भी द्योतक है। यह नजदीकीपन राग-वैराग दोनों का साक्षी; उल्लास-बिछोह दोनों का गवाह है। दिनकर कुमार के कहन का ढंग तो देखिए, ‘बाबा ब्रह्मपुत्र!/मैं चाहता हूँ कि जब मैं गाऊँ तो/तुम भी मेरे संग मग्न होकर गाओ/ मेरे सीने में लहराता हुआ वैशाख/तुम्हारे चेहरे पर भी गुलाल बनकर बिखर जाए/अमलतास के लाल लपटों से खुशी के अक्षर/आसमान पर उभर जाएँ!’। स्मृति से विरत और अनुभव से खाली हम जैसे लोग सांस लेने के बावजूद हवा की गंध महसूसना नहीं जानते, धूप सेंकने के बावजूद धूप को अपने चित्त पर परावर्तित होने देना नहीं चाहते हैं। हमारे लिए हमारी कृत्रिम सजावट और बनावटीपन ही यथार्थ है, अपना सर्वस्व है। आभासी दुनिया की चुहल और फंतासी ही हमारे मनुष्य होने की निशानी है; ऐसे में दिनकर कुमार की ‘ब्रह्मपुत्र में सूर्यास्त’ कविता एकबारगी हमें झकझोरने लगती है, ‘रंगों का गुलाल/मेरे वजूद पर भी बिखर गया है/नारी की आकृति वाली पहाड़ी के नीले रेंग के साथ/लाल रंग घुल गया है/दूर बढ़ती हुई नाव सुनहली बन गई है/इस अलौकिक पल की कैद से/मैं मुक्त होना नहीं चाहता/इस रहस्यमी दृश्यावली से दूर/होकर मैं कहीं नहीं रह सकता।’
ब्रह्मपुत्र का अतीत सदानीरा रहा है। यह नदी झूठा आश्वासन या फ़रेबी दिलासा देने की आदी नहीं है। कवि समय के प्रायोजित उपक्रम और शोषण-उत्पीड़न के आधुनिक कुचक्रों के बीच नदी को असहाय जान बिफर पड़ता है, ‘एक प्राचीन नदी इस कदर तटस्थ कैसे हो सकती है/कुछ बोले बगैर विरोध जतलाए बगैर/चुपचाप कैसे बहती रह सकती है/कैसे सुन सकती है किनारे के लोगों का हाहाकार’। यह किनारा सामाजिक हाशिया है और सीमान्त का क्षेत्र भी जो कई बार अपने भूगोल के नाते भी 'बहिष्कृत भारत' मानिंद जान पड़ता है। ऐसे में नदी ही उसका बिस्तर-बिछौना, माथ-ललाट है। बकौल कवि ‘नदी समझती है मांझी की अनुभूतियों को/मौन में घुली हुई शिकायत को/सीने में पलते हुए प्रेम को विद्रोह को/नदी समझती है सबकुछ’। दिनकर यहीं नहीं रूकते जन-मन के साथ नदी के साहचर्य-सम्बन्धन को एक बीजरूप प्रदान करते हुए कहते हैं-‘नदी की जीवन कथा असल में हमारी जीवन कथा होती है।’
नदी जब राग बनती है, तो गले में समा जाती है। भूपेन हजारिका के लिए ब्रह्मपुत्र ‘बूढ़ लुइत’ है। कवि के शब्दों में ‘जो हाहाकार को सुनते हुए भी/ख़ामोश रहता है’। भूपेन हजारिका की स्मृति में ब्रह्मपुत्र को याद करते हुए कवि कहता है-‘भूपेन हजारिका के गीतों में स्पंदित है/ब्रह्मपुत्र उसके विविध रंग/उसकी प्रसन्नता उसका शोक उसका क्रोध।’ दरअसल,आदमी को इंसानी रुह बख़्शने का काम नदी बड़े जतन से करती है। वह सचमुच में ‘कनेक्टिंग पीपुुल्स’ है। नदी का स्वभाव इतना ‘केयरिंग’ है कि कोई भी उसके किनारे पर सर रख कर उसका आशीष पा सकता है। ब्रह्मपुत्र के आश्रय में जो भी जाता है अपनी कुंठा, विषाद, दुःख, संताप, भूल, ग़लती सबकुछ से बरी यानी मुक्त हो जाता है। दिनकर इसीलिए यह कहने के आग्रही हैं अपनी कविता ‘नदी के पास जाऊँगा' में-‘प्रेम में डूबने के बाद/नदी के पास जाऊँगा/नदी मुझे बना देगी मोहक/मेरे अंदर की सारी कलुषता को/अपने संग बहाकर ले जाएगी’।
बतौर कवि दिनकर कुमार ब्रह्मपुत्र की नक्काशी जबर्दस्त करते हैं; उनके चित्रण और वर्णन इतने स्वाभाविक हैं कि हम सहज ही अंतरंग हो जाते हैं। देखिए, हाथ कंगन को आरसी क्या!-‘शाम होते ही इसी तरह धूसर हो जाता है चित्र/बगुलों का झुंड पंख फड़फड़ाता हुआ/इस पार से उस पार तक उड़ता जाता है/जलधारा में हिलते रहते हैं पंखों के प्रतिबिम्ब’। इन्हीं सब कारणों से ब्रह्मपुत्र जनजातीय स्मृतियों में गहरे बसा हुआ है जिसकी चेतन-अचेतन अभिव्यक्ति सायास-अनायास होते रहते हैं। कवि ने इस ओर संकेत करते हुए अपनी कविता ‘जनजातीय स्मृतियों से’ में लिखा है-‘सोनेवाल कछारी समुदाय आज भी अपने मृतक की/अंत्येष्टि करते समय गाड़ता है तांबे का एक सिक्का/चूँकि वह सारी भूमि पर तुम्हारा ही अधिकार समझता है/और इस तरह अंत्येष्टि के लिए खरीदता है/तुमसे थोड़ी सी ज़मीन/यह समुदाय अपने गाँवों के नाम किसी न किसी/उपनदी के नाम पर रखता है।/जनजातीय स्मृतियों से जुड़े हुए हो तुम ब्रह्मपुत्र।’ ब्रह्मपुत्र नदी लोकमन की धड़कन है, संगीत और आवाज है; जो हरदम अपनी ही धुन, लय, राग में बजती है; बजना जानती है। कवि दिनकर की पंक्तियाँ इसकी बानगी पेश करते हुए कहती हैं-‘शराईघाट पुल के उत्तरी छोर से/मैं देख रहा हूँ रोशनी की लकीरों को/रहस्यमयी शाम को ओढ़कर गुमसुम है शहर/स्याह जलधारा में/दूर-दूर तक फैली हुई लकीरें/इन तिलिस्मी लकीरों में ही मानो/धड़कता है मेरे शहर का हृदय’।
फिलहाल, मात्र सतरटकिया मूल्य वाले इस काव्य-संग्रह का पेपरबैक संस्करण आप खुद पढ़ें, तो मालूम चलेगा कि ब्रह्मपुत्र का रंग इतना गाढ़ा, धूसर और लालिमा लिए क्यों है! कभी-कभर नदी उदास क्यों हो जाती है? कवि दिनकर के लिए नहीं, तो ब्रह्मपुत्र के लिए तो हमारा इतना मानुष होना वाज़िब बनता है। तभी हम जान पाएँगे कि-‘किस बात की पीड़ा है जो/नदी को बेचैन रखती है/क्यों चाहती है वह/प्यार के दो मीठे बोल/थोड़ी सी हमदर्दी’।
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