मेरा बच्चा हमीं से अनजान क्यूँ है...! : राजीव रंजन प्रसाद
हमसब छुटपन में बड़ी सफाई से लकड़ी को काँट-छाँटकर, छिल-छालकर गुली-डंडे बनाने का काम कर लिया करते थे। बच्चों के लिए जो तिपहिया गाड़ी बनती थी; क्या भली सवारी थी। छोटे-छोटे किन्तु गोलमटोल अंटों की आपसी टकराहट से दिनभर गुँजार रहता था। कबड्डी, छुआ-छुअंत, बाघ-बकरी, आइस-पाइस, असेरी-पसेरी, पिट्ठों आदि उन दिनों हमारी मासूम जरूरियात या कहें शौक का असली साधन-संसाधन थं। चार लड़कियाँ मिली नहीं कि कित्तकित्ता खेलने लगती; रस्सी फांगने-कुदने लगती थीं। बाज़ार और उपभोक्ता समाज उस समय हाशिए पर क्या; हम-सबके जेहन में था ही नहीं।
इक्कीसवीं सदी में शास्त्र का ज्ञान बढ़े हैं। शास्त्रियों की संख्या बढ़ी है। आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता को लेकर अकादमिक बहस की शुरुआत हुई है। स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श ने हालीय दशक में अपना एक मजबूत मुकाम हासिल किया है। लेकिन इस घेरे में हमारे घर और घरौंदे नहीं हैं; हमारे बच्चों के लिए सुचिंतित और सुविचारित विकल्प नहीं है। बच्चों को अब फुलझड़ी, गुब्बारे, गुड्डे-गुड्डियाँ कम लुभाते हैं। अब उनकी माँग में नकली ही सही परन्तु बंदूके, राइफल, मिशिनगन आदि प्रमुख हो चले हैं। प्रत्यक्षतः बाल-मनोविज्ञान, बाल-मन और बाल-कर्म के लिए भी एक संगठन-समवाय चाहिए जिसका भारत में इस घड़ी अकाल है। नतीजतन, बच्चे बड़ी जल्दी सयाने हो जा रहे हैं। उनका बचपना आँख झपकते बीत जा रहा है।
आजकल ‘स्मार्ट’ शब्द खूब चलन में है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, बाज़ारीकरण, ब्रांडीकरण आदि अब स्मार्टीकरण के नक़्शेकदम पर हैं। आधुनिक तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी का आपसी गणित इतना बेजोड़ है कि हर कोई डिजीटल क्रांति का राग अलाप रहा है। यद्यपि इससे फायदे बेशुमार हुए हैं तथापि स्मार्टफोन, टैबलेट, ई-रीडर्स, लैपटाॅप जैसे गैजेट्स ने नई पीढ़ी की एकाग्रता व गहरे चिंतन की स्वाभाविक क्षमता को भयानक तरीके से क्षतिग्रस्त किया है। सयाने बच्चे इस विडम्बना और त्रास का सबसे अधिक शिकार है।
दरअसल, बच्चों को लेकर हमारा नज़रिया बेहद चलताऊ है, तो रवैया बहुरूपिया है। इस दूषित नज़रिए और रवैए ने बच्चों को कार्टूनजीवी बना दिया है। उन्हें पिकाचू पसंद है। पोकेमाॅन उनका पाॅकेट मान्स्टर है जिसे जेबी दानव भी कहा जाता है। आज हमारे बच्चे हमसे नहीं हम जैसों के प्रतिरूपों से अपनापा और दोस्ताना गाँठने लगे हैं; उन्हें अधिक सम्मान की दृष्टि से देख रहे हैं और उन्हें अपने द्वारा अपनी तरह से दुलारते भी खूब हैं। यही नहीं अब उनकी बालसुलभ हरकतों में कार्टूनी पात्र एवं चरित्र परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष ढंग से स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं।
ऐसी नाजुक घड़ी में बच्चों के लिए सुरुचिपूर्ण और सर्जनात्मक लेखन अत्यावश्यक है। क्योंकि बच्चों के लिए लिखना बाजार और सत्ता के खि़लाफ बोलने-लिखने से कमतर नहीं है! बच्चे हमारे भविष्य की मूल कड़ी हैं। अतः वर्तमान में उनकी ओर हमारा विशेष ध्यान देना जरूरी है। आजकल अधिसंख्य माता-पिता एवं अभिभावकों की आदत-सी बन गई है, हर विचार को आँकड़ेबाजी और फार्मूलेबाजी के गणित अथवा समीकरण में फांस लेना, घसीट लेना। वे बच्चों के मेरिट इंडेक्स का ग्राफ ऊँचा अवश्य चाहते हैं; लेकिन उनके द्वारा किए गए अभ्यास अथवा सीखे हुए अनुभव को सुनने-समझने का धैर्य नहीं रख पाते है।
अफसोस! कि अपने बच्चों को लेकर, किशोरों को लेकर हम-सबके भीतर छटपटाहट और चिंताएँ अधिक हैं; किन्तु समुचित कार्रवाई कम या कहें बिल्कुल नगण्य। दरअसल, बच्चों की अंतःप्रकृति एवं मनोजागतिक अभिरचना के निर्माण में सहायक सामाजिक सोच तथा अकादमिक गतिविधियाँ पर्याप्त हरग़िज नहीं है। यानी बच्चों और किशोरों के लिए माकुल भाषा, विचार, दृष्टिकोण, माध्यम, दिशा, लक्ष्य, गतिविधि, कार्यकलाप, प्रयोग, प्रेक्षण, अनुभव, अंतःक्रिया, कल्पना, स्वप्न आदि जितने भी संस्तर शैक्षणिक एवं अकादमिक प्रविधि के रूप में मौजूद हैं, उनमें मौलिक सर्जना, स्वतंत्र निर्णय, अधिकारसम्मत ज्ञान का पूर्णतया अभाव है।
अतएव, इस बदलते समय में हमारे बच्चों का मानस कैसा तैयार हो रहा है? उनकी निर्मिति में देश, काल, परिवेश, परम्परा, संस्कृति, समाज आदि का योगदान क्या और किस तरह का है? जरा ठहरकर इस बारे में चिंतन करना अत्यावश्यक हो गया है। दरअसल, हमारे बच्चे जिस भाषा और लहजे में आजकल अपनी मांग और फरमाइश रखने लगे हैं; जिद और कभी-कभी तो अनचाहा आक्रमण तक करने लगे है; वह बेहद चिंतनीय परंतु गौरतलब है। बच्चों के बोल-बर्ताव, व्यक्तित्व-व्यवहार, पसंद-नापसंद आदि का ढर्रा बड़ी तेजी से बदला है। इस अनपेक्षित बदलाव की मुख्य वजहें क्या हैं? यह जानना जरूरी है। प्रायः बच्चों में एक ऐब समान रूप से लग चुकी है कि वे कार्टूनजीवी हो चले हैं, तो किशोरवय छोटे उम्र से ही तेज संगीत सुनने और आधुनिकतम मौज-मस्ती के ठिकानों(रेव पार्टी, डिस्कोथिक, क्लब, बार, रेस्टोरेंट इत्यादि) में बेसुध नजर आ रहे हैं।
हर चीज वह चाहे सामाजिक रूप से मान्य हो या अमान्य, उचित हो या अनुचित, नैतिक हो या अनैतिक, हमारे बच्चे और किशोर उनमें अंतर करना भूलते जा रहे हैं; पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की कद्रदानी, मोह और ममता में हम-सबने अपना बचपन गुजारा है; परिवार के लिए व्यक्तिगत इच्छाओं-आकांक्षाओं को समेटते हुए हम नित अपनी सोच और स्वप्न में आगे बढ़े हैं, जबकि आज के नौनिहाल उसे ठेंगा दिखा रहे हैं, हमारे सदाचरणी पाठ, अनुशासन और सहज मानवीय संस्कार तक को वे अपनी आधुनिक(?) भाषा में ‘आउटडेटेड’ बता रहे हैं। हमसब जिन पारिवारिक-सामाजिक संस्कारों पर पेट के बल लोटते थे; वे अब हमारे बच्चों अथवा किशोरों को रास नहीं आ रहे हैं। यह माज़रा तकलीफदेह है। उससे भी तकलीफ़जनक पहलू यह है कि प्रायः बच्चों की दुनिया में हमसब अपनी आत्मा के साथ नहीं, अपने पद, रुतबे और हैसियत के साथ दाखिल होना चाहते हैं।
यह घुसपैठ बच्चों की आत्मा पर चोट है। नतीजतन, पर्याप्त दुलार और लाड़-प्यार के अभाव में बच्चे खुद अपने माता-पिता और अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ दूरी बनाने लगते हैं। यह कटाव बच्चों के प्रति माता-पिता के लगाव में कमी होने का नतीजा है। बच्चों का मानस अजीबोगरीब व्यवहार करने लगता है। उनके दिमाग में अपने पैरेंटस की नकारात्मक छवि अंकित हो जाती है। वे माता-पिता को देखते ही सहम जाते हैं। लिहाजा, बच्चों और अभिभावकों के बीच संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही आगे चलकर ‘जैनरेशन गैप’ बन जाता है। हम अक्सर उन पर गुमराह और अपसंस्कृतियों का शिकार हो जाने का आरोप मढ़ते हैं; लेकिन हम अपने खि़लाफ कोई कार्रवाई या कि चार्जशीट दायर नहीं करते हैं। ऐसा क्यों? इसका जवाब बच्चों से अधिक गार्जियन के लिए मायनेपूर्ण है; क्योंकि हमारे बच्चे हम-सबकी इन्हीं छोटी-छोटी आदतों या कि व्यवहार से सर्वाधिक आहत होते हैं।
इसलिए यह समझना आवश्यक है कि जिन बातों को हम प्रायः मामूली मानकर नजरअंदाज कर देते हैं; वे मासूम और अबोध बच्चों को सबसे ज्यादा चोटिल और उनके मन-मस्तिष्क को दुखी करने वाले होते हैं। सबसे बड़ी दिक्कतदारी यह है कि बाजार और सत्ता के खिलाफ अधिसंख्य लोग बोलने, मुहिम छेड़ने, आंदोलनरत रहने की बातें पूरजोर ताकत संग कहते-सुनते हैं; लेकिन जब हम अपने घर के बच्चों का रिपोर्ट कार्ड देखते हैं, तो लाल-पिले होते हैं कि इस बार शत-प्रतिशत अंक क्यों नहीं लाए? सचाई यह है कि अब हमसब अपने बच्चों की ‘सोशल टीआरपी’ तय करने लगे हैं; उनकी योग्यता और काबिलियत का ‘प्रोफेशनल वैल्यू’ बनाने लगे हैं। आज हमारा बच्चा ‘क’ से कबूतर नहीं, ‘क’ से कंप्यूटर कहना सीख गया है; वह सहज अभिवादन की जगह औपचारिक हैलो-हाय करने लगा है? क्या हमने इस ‘वर्ड टरमिनेशन’ की आधुनिक संस्कृति पर गौर फ़रमाया है? मुख्य बात यह है कि जब हमारे बच्चे हमारी अपनी ही भाषा में रींज-भींज नहीं रहे हैं, खिल-पक नहीं रहे हैं, तो सयाने होकर वे हम-सबको वृद्धाश्रम नहीं भेजेंगे, तो क्या आठों पहर आरती उतारेंगे?
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