Saturday, 9 October 2021

फ़िदेल के लिए एक गीत / चे ग्वेवारा

फ़िदेल के लिए एक गीत / चे ग्वेवारा

आओ चलें,
भोर के उमंग-भरे द्रष्टा,
बेतार से जुड़े उन अमानचित्रित रास्तों पर
उस हरे घड़ियाल को आज़ाद कराने
जिसे तुम इतना प्यार करते हो ।

आओ चलें,
अपने माथों से
--जिन पर छिटके हैं दुर्दम बाग़ी नक्षत्र--
अपमानों को तहस--नहस करते हुए ।

वचन देते हैं
हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे ।
जब पहले ही धमाके की गूँज से
जाग उठेगा सारा जंगल
एक क्वाँरे, दहशत-भरे, विस्मय में
तब हम होंगे वहाँ,
सौम्य अविचलित योद्धाओ,
तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से डटे हुए ।

जब चारों दिशाओं में फैल जाएगी
तुम्हारी आवाज़ :
कृषि-सुधार, न्याय, रोटी, स्वाधीनता,
तब वहीं होंगे हम, तुम्हारी बग़ल में,
उसी स्वर में बोलते ।

और जब दिन ख़त्म होने पर
निरंकुश तानाशाह के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई
पहुँचेगी अपने अन्तिम छोर तक,
तब वहाँ तुम्हारे साथ-साथ,
आख़िरी भिड़न्त की प्रतीक्षा में
हम होंगे, तैयार ।

जिस दिन वह हिंस्र पशु
क्यूबाई जनता के बरछों से आहत हो कर
अपनी ज़ख़्मी पसलियाँ चाट रहा होगा,
हम वहाँ तुम्हारी बग़ल में होंगे,
गर्व-भरे दिलों के साथ ।

यह कभी मत सोचना कि
उपहारों से लदे और
शाही शान-शौकत से लैस वे पिस्सू
हमारी एकता और सच्चाई को चूस पाएँगे ।
हम उनकी बन्दूकें, उनकी गोलियाँ और
एक चट्टान चाहते हैं । बस,
और कुछ नहीं ।

और अगर हमारी राह में बाधक हो इस्पात
तो हमें क्यूबाई आँसुओं का सिर्फ़ एक
कफ़न चाहिए
जिससे ढँक सकें हम अपनी छापामार हड्डियाँ,
अमरीकी इतिहास के इस मुक़ाम पर ।
और कुछ नहीं ।

अनुवाद : नीलाभ
साभार : कविताकोश

रामविलास शर्मा को आप कितना जानते हैं? - अजय तिवारी

रामविलास शर्मा (१० अक्तूबर १९१२-२९ मई २०००) की यह थोड़ी अनपहचानी छवि है। गठा हुआ कसरती बदन, सलीक़े से पहनी हुई पैंट-क़मीज़, कमर में बेल्ट, यह सब तो ठीक, लेकिन हाथ में जलती हुई सिगरेट! तो यह जान लेने की बात है कि १९७२ तक सिगरेट पीते थे। रिटायरमेंट के बाद छोड़ी। कब पीनी शुरू की, ठीक याद नहीं; पर कम्युनिस्ट पार्टी में आने के बाद शुरू हुई और प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव बनने के बाद अधिक हो गयी, यह सही है। आगरे में रहने पर तीन या चार सिगरेट दिन में, लेकिन मीटिंगों में ज़्यादा। मीटिंगें देर रात तक चलतीं तो सिगरेट भी पूरी डिब्बी पियी जाती। 

कसरती रामविलास को पहलवान रामविलास भी कहा जाता था। दाँव लड़ाने में भी कम नहीं थे। निराला से पंजा लड़ाने का वर्णन खुद ही किया है ‘साहित्य साधना’ में। अखाड़े में कसरत के साथ साथ कुश्ती भी लड़ते रहे हैं, यह सर्वविदित है। एक बार प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में एक नामी आलोचक को किसी महिला रचनाकार ने चेतावनी दी कि उसके साथ वे लालायित व्यवहार बंद कर दें वरना वह महामंत्री रामविलास शर्मा से शिकायत कर देंगी। आलोचक अपने महत्व के गुमान में थे। नहीं माने। रामविलास जी के सामने बात आयी। उन्होंने चेतावनी दी कि अब कोई शिकायत न मिले अन्यथा यहीं दो घूँसे मारूँगा! अखाड़िया पहलवान की धमकी रंग लायी। 

पहलवानी का असर यह था कि १९८१ में दिल्ली आने के बाद मालिश करने के लिए लोग नहीं मिलते थे। लगभग ११-१२ साल बाद जब नीरज और जसबीर त्यागी दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में एक साल आगे-पीछे एम. फ़िल में आये, तब अपने गुरु डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी के कहने पर वे समय-समय पर उनकी मालिश करने जाते थे। एक तो रामविलास जी सहज बहुत थे, दूसरे युवाओं के प्रति सदय भी थे, तीसरे नीरज-वेदप्रकाश-जसबीर आपस में मित्र थे और शालीन, प्रतिभाशाली भी। रामविलास जी इन सबको बहुत स्नेह देने लगे। 

एक बार रामविलास जी से मैंने किसी काम के लिए कहा था। शायद जनवादी लेखक संघ (जलेस) की पत्रिका ‘नया पथ’ के लिए कुछ लिखना था। उन दिनों ‘नया पथ’ का संपादन चंद्रबली सिंह करते थे। रामविलास जी जलेस के कुछ नेताओं के बर्ताव से क्षुब्ध थे। लिखने के लिए सहमत नहीं थे। मैंने उन्हें जो समय दिया था, उस दिन नीरज (अब जामिया में हिंदी के प्रोफ़ेसर) को साथ लेकर उनके घर पहुँचा। चाय के दौरान ही किसी बात पर बहस छिड़ गयी। बहस तीखी हो गयी। तर्क-वितर्क कुछ वक्र भाषा में होने लगा। जिसमें उत्तेजना मिली हुई थी। नीरज बहुत सशंकित और कुछ कुछ भयभीत हो गये। आधे घंटे की बहस के बाद मैंने कहा कि यह समस्या अभी तो सुलझने वाली नहीं है, इसपर फिर बात करेंगे; आप उठिए, काग़ज़-क़लम लाइए और लिखकर दीजिए। उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, उठे, राइटिंग पैड और फ़ाउंटेन पेन लेकर आये,  जो सामग्री देनी थी, वह लिखकर दी और फिर थोड़ी देर हँसी-मज़ाक़ हुआ और हम विदा हुए। नीरज ने बाहर आकर कहा कि वह बहुत डर गये थे। पर धीरे-धीरे वे भी समझने लगे कि बहस और मतभेद से रामविलास जी को दिक़्क़त नहीं थी। वे चालाकी और तिकड़म पसंद नहीं करते थे। 

सिगरेट पीना तो उन्होंने रिटायरमेंट के बाद छोड़ा था, चाय पीना १९९४-९५ के आसपास छोड़ी। पहले चाय बनाकर भी पिलाते थे। ख़ास तौर पर सुबह जाने पर, जब उनके पुत्र विजय मोहन शर्मा (जिनका कुछ दिनों पहले सिंगापुर में अपने बेटे के पास निधन हो गया) और संतोष भाभी अपने-अपने काम पर गये होते थे। चाय बड़े मनोयोग से और बहुत अच्छी बनाते थे। मुझे दर्जनों बार उनकी बनायी चाय पीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 

एक बार तो कहकर कि तुम्हें निराला की ‘शक्ति-पूजा’ और शेक्सपीयर के कुछ सॉनेट पढ़ाऊँगा। उस दिन हथपोई भी खिलाऊँगा। हथपोई—हाथ से पाथकर बनायी गयी मोटी रोटी। शेक्सपीयर पढ़ने का समय तो दुर्भाग्य से नहीं निकाल सका, ‘राम की शक्ति-पूजा’ पढ़ने का सौभाग्य मिला। घंटे भर में उन्होंने प्रारंभिक एक तिहाई अंश पढ़ाया। रिकॉर्डिंग तो नहीं कर पाया लेकिन नोट्स लेता गया। वे नोट्स अब भी मेरे पास हैं। उस दिन का अनुभव जैसा था, उसी के लिए “दिव्य” की अवधारणा बनी है। जितना आनंद रामविलास जी से निराला पढ़ने का था, उससे कम आनंद उन्हें आटा गूँथकर रोटी बनाते और तवे पर सेंकते हुए देखने का नहीं था। मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए इतना स्नेह कि तीखी बहस करने से लेकर निराला पढ़ाने और हथपोई खिलाने तक सब इतने सहज भाव से कि अपने को ही विश्वास न हो! 

तब लगा, मजदूर बस्ती में रहकर, मेहनतकश की तरह श्रम करते हुए बीसवीं शताब्दी की इस महान हस्ती ने जो पाया था, वह श्रम, सृजन, चिंतन, सहृदयता और दृढ़ता का एक ऐसा आचरण था जिसमें अहंमन्यता नहीं, ऐसी सहजता थी जिसे साधना से ही पाया जाता है और सामान्य लोगों के लिए जो एक आदर्श है। इस आदर्श तक पहुँचने का संघर्ष हमारा है।

Thursday, 7 October 2021

'मेरा अज़्म इतना बलन्द है के पराए शोलों का डर नहीं': बेगम अख्तर - वंदना चौबे

बेग़म अख़्तर के जन्मदिवस पर दो साल पुराना यह संक्षिप्त लेख!
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शास्त्रीयता के सिरों को अतिक्रमित करती यथार्थबोध से उपजी एक जुझारू आवाज़ बेग़म अख़्तर की!

'मेरा अज़्म इतना बलन्द है के पराए शोलों का डर नहीं'
◆◆

बेग़म अख़्तर पर बारहा लिखने का मन हुआ करता था लेकिन 'और फिर तल्ख़िए एहसास ने दिल तोड़ दिया' जैसा हाल हो गया।कमउमरी में उन्हें सिर्फ़ उनकी मक़बूलियत के कारण सुना था इसलिए ज़हन और ज़िन्दगी पर उनका कोई ख़ास असर नहीं पड़ा।
थोड़ा संगीत सीखा तो है!संगीत मर्मज्ञ नहीं हूं लेकिन बहुत बाद में लगातार और बार बार अख़्तरी को सुनते हुए सबसे पहले उनके बारे में यह मिथ टूटा कि वे मख़मली और जादुई आवाज़ की मल्लिका हैं!न मुझे वे जादुई लगती हैं न मख़मली!मेरे सुनने में वे मुझे लगभग रूखी लगती हैं!!

वे गंवई तीखी दुपहरी की गायिका हैं।उनकी गायिकी में सम्मोहक सुकून और आराम नहीं मिलता बल्कि मिलता है एक कठोर यथार्थबोध।कोठे और बैठकी के ख़्याल और ग़ज़ल गायिकी में ही नहीं लुभावनी अदाकारियों वाली ठुमरियों और दादरे तक में वे अपनी आवाज़ से अपने दिल के इर्द-गिर्द जैसे एक किला बनाती हैं।उनकी गायिकी सुनने वाले के दिल मे खिंचती तो है लेकिन उनके दिल तक पहुँचने का रास्ता रोक देती है।
बेग़म अख़्तर के समकाल और उनके आगे तलक भी बैठकी की लुभावनी गायिकी इस तरह यथार्थबोध से टकराती नज़र नहीं आती।आज भी नहीं।कलात्मक गंभीरता और पवित्रता किशोरी अमोनकर में है।एक साफ़ और गरिमामयी आवाज़!

विविधता के आधार पर दूसरे छोर पर मैं आबिदा परवीन को देखती हूँ!सूफ़ियाने फ़लसफ़े से दुनयावी भरम को तोड़ने की मुक्त आवाज़!
बेग़म अख़्तर की आवाज़ इन दोनों छोरों को अतिक्रमित करती है।जिस ज़मीन पर वे खड़ी थीं वहाँ वे सूफ़ियाना रस्ते से वे पलायन नहीं कर सकती थीं और जिस दुनिया मे वे जी रही थीं वह कला का क्षेत्र होकर भी प्रतिष्ठित नहीं माना जाता था इसलिए सम्भ्रांत पवित्रतावाद भी उनके इर्द-गिर्द नहीं टिकता था।
उन्होंने खड़ी बैठकी तक की भी प्रस्तुतियां दी।खड़ी बैठकी में नृत्य की भंगिमा के साथ सुनने वालों तक घूम घूम कर नाच के साथ गायन पेश किया जाता था।वे न ही सूफ़ी मुक्त हो सकती थीं न ही एलीट शुचितावादी!कठोर जीवन की ज़मीन पर रिश्तेदारों और उनकी बच्चियों के परवरिश की ज़िम्मेदारी भी थी उन पर और ग़ज़ल के रंजक रूप और  शास्त्रीयता शुचितावाद से मुक्त कर किसी जगह ले जाती हैं वे।

अपनी माँ मुश्तरी बाई का रूपांतरित जीवन अख़्तरी बाई ने जिया।मां-बेटी में जाने कौन रिश्ता था कि मुश्तरी की मौत के बाद बेग़म अख़्तर दर्द और नशे के इंजेक्शन लेने लगीं।कहा जाता है कि उनके लिए बड़े बड़े आलीशान लोगों के प्रेम-प्रस्ताव आते रहे।वे जीवन को मज़े में देखतीं रहीं और हँसती रहीं , गाती रहीं क्योंकि जानती थीं कि यह प्रेम नहीं है।ये आलीशान लोग उन्हें अपनी कोठियों में एक नगीने की मानिंद सजावटी पत्थर की तरह सजाना चाहते हैं।उन्होंने किसी की दूसरी, तीसरी या चौथी बीवी बनना स्वीकार नहीं किया।बाद में किन्हीं विधुर वकील साहब से उन्होंने शादी की लेकिन अपनी स्वतंत्र तबीयत की वजह से परिवार में वह रह न पायीं।गायिकी की खोज ,दोस्ताने, महफिलें और शराब-सिगरेट की लत ने उन्हें सांसारिक स्थिरता न दी।परिवार में रहकर वे जान गईं कि स्वतंत्र-चेतना की क़ीमत देनी होती है।

कहीं कभी पढा था और यूट्यूब पर देखा है कि 13 साल की उम्र में बेग़म अख़्तर के साथ किसी राजा ने ज़बरदस्ती की।रेप अटेम्प्ट किया और उस छोटी उम्र में ही उन्हें उन्हें एक बेटी हुई लेकिन बहुत बाद तक बेग़म उस बच्ची को अपनी बहन बताती रहीं।आधिकारिक रूप से इस घटना की कोई पुष्टि नहीं मिलती।यतीन्द्र मिश्र द्वारा संपादित किताब 'अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना' में कुछ पुराने गुणीजनों के लेख हैं।वहां भी ऐसा कोई उल्लेख नही है।उनके जीवन पर आधारित दूरदर्शन के कार्यक्रमों और विविध भारती के आर्काइव्स में भी कोई उल्लेख नहीं है। कहना चाहती हूँ कि यदि यह घटना सत्य है तो यतीन्द्र मिश्र  जी के संपादकीय या लेख में या कहीं तो इसका उल्लेख होना चाहिए और यदि यह घटना निर्मूल है तो यूट्यूब और ऐसे दूसरे माध्यमों पर एक आपत्ति नोट भेजी जानी चाहिए।यह यतीन्द्र जी को देखना चाहिए।

जीवन के अनुभवों से  अख़्तरी का जीवन कठोर तरीके से बदल गया।रियाज़ी तो वे थीं लेकिन पारम्परिक- बनावटी रियाज़ उन्होंने कभी नहीं किया।
अर्से बाद किसी फ़नकार से गायिकी की इतनी सच्ची और कसी हुई परिभाषा दी कि गायिकी के लिए रियाज़ से ज़्यादा ज़रूरी चीज़ 'तासीर' और 'सचाई'।बेग़म अख़्तर कहती हैं-  'इंसान ईमानदार हो तो उसके गाने में तासीर पैदा होती है।गाने पर असर ईमान से पड़ता है।सच बोलने, मेहनत करने, दिल पर बोझ न रखने और दिल मे सफ़ाई रखने से सुर सच्चे लगते हैं और आवाज़ खुलती है।'

अपने सुनने-समझने के आधार पर मेरा यह  मानना है कि बेग़म अख़्तर ख़रज और 'गमक' तो लेती हैं लेकिन 'मीड़' उनकी गायिकी में बेहद कम है और यह मुझे मुग्ध करता है।छोटी-छोटी मीड़ लेती हैं।लम्बी मीड़ लगाना सब पर अच्छा नहीं लगता।उसमे बनावटी होने का ख़तरा रहता है।बेग़म की गायिकी में 'मीड़' उनके गले की ख़राश और ख़लिश है।
ग़ालिब की ज़बाँ में 'ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता'
इस ख़लिश को बरक़रार रखने के लिए दर्द को बेग़म ने लाइलाज किया।गाती हुई वे अद्भुत ढंग से स्वाभाविक होती हैं।दुनियायावी आत्मस्थ!
ग़ालिब को जितना बेहतर और वैचारिक ऊंचाई से बेग़म अख़्तर ने गाया वैसा शायद किसी ने नहीं गाया।

उनके गाए दादरों के बोल एक ओर लुभावने और दूसरी ओर विरही हैं।किसी और गले में ज़रा सी असावधानी से वे सस्ती-लोकप्रियता में तब्दील हो सकती थीं।बेग़म ने ग़ज़लों में ही नहीं.. ठुमरी-दादरे में विरह की पुकार में दर्प और मनोरंजक आस्वादन वाले आकर्षक बंदिशों में अपनी गायिकी के बल पर गंभीरता भरी है।ऐसी गम्भीरता जो एक ख़ास किस्म के कलावाद से अलग है।एक दादरा जिसे सैकड़ो बार सुना है! 
'मोर बलमुआ परदेसिया मोर'
कई-कई बार सुना ..सिर्फ़ 'परदेसिया' और 'मोर' के बीच लगने वाले सुर के लिए। 
सिर्फ़ इसी सुर पर शास्त्रीयता जैसे बिखर जाती है और  ठेठ 'लोक' रूपाकार ले लेता है।

अख़्तरी बाई ने कला के लिए 'उस्तादी' मेहनत नहीं की इसलिए ऊपरी सुर लगाने में उनका गला टूटता था.. आवाज़ ख़राश देती थी लेकिन ऐसे शास्त्रीय दोषों की चिंता उन्होंने नहीं की।छोटी बहरें वे ख़ूब मन से गाती हैं।आज तो 'ख़राश' एक ग्लैमर बन चुका है।सोच-समझकर ख़राश बनाई जाती है लेकिन बेग़म के समय यह बड़ा दुर्गुण था।बाद में इसी ख़राश उन्हें मौलिकता दी।
'दीवाना बनाना है दीवाना बना दे' ग़ज़ल में गले की टूट और ख़राश सुनने बड़े बड़े गुणी आते थे और उनके मुरीद  होते थे।

भावना में बहते हुए भरे मन को एक आंतरिक गाढ़ापन बेग़म को सुनकर मिल सकता है।इस रूप में ऐसी कठोर, निस्संग और निर्लिप्त गायिकी कम हुआ करती है।बेग़म अख़्तर की आवाज़ में  कलावादी सम्मोहन नहीं है जो आपको बेवजह बहा ले जाए।भावना के साथ वह एक निस्संग सम्बल देती है इसलिए बेग़म को सुनते बहुत भावुक नहीं हुआ जा सकता।उनकी आवाज़ भीतर स्थिर करती है।तकलीफ़ देती हुई अपनी आवाज़ से जैसे धूप में खड़ा रखती हैं; फिर बाहर निकाल लाती है, आगे बढ़ा देती है!बहलाती और पुचकारती नहीं है !भटकाती नहीं है।इस अर्थ में एक स्तर पर बेग़म अख्तर की गायिकी वैचारिक गायिकी की ओर जाती है।
कठोर उत्तर भारतीय पितृसत्ता के शिकंजे में कोठी की गायिकी कला को इस दर्ज़े पर पहुँचाना उन्हें भारत के दुर्लभ उस्तादों की श्रेणी में खड़ा करता है।

उनके क़रीबी रहे सलीम किदवई द्वारा खींची एक अच्छी तस्वीर!

Wednesday, 6 October 2021

यह लौंगलता है: आवेश तिवारी

यह है लौंगलता। इसका नाम पहले अमृत रखा जाना था लेकिन बाद में किसी मनचले ने लौंगलता रख दिया। गुनांचे हमने दो बरस से नही खाया।


 देश मे सबसे अच्छी लौंगलता यूपी के चंदौली जिले में रेलवे स्टेशन के बाहर मिलती रही। लौंगलता की खासियत इसके भीतर भरा खोया और उसमे मिला लौंग होता है।

 प्रेमिका को खिला दो तो कभी धोखा नही देगी पत्नी को खिला दो कभी कोई सवाल नही पूछेगी। महिलाएं ,पुरुषों के सामने इसे नही खाती। पुरुष, मित्रों के साथ कम खाते हैं।

लौंगलता की एक खासियत और है यह पत्ते पर लकड़ी के चम्मच से आंख बन्द करके खाने में ही मजा देता है। आंख खोल करके खाएंगे सूक्ष्म आनंद से वंचित रह जाएंगे।

लौंगलता वैसे तो बनारस में  बीएचयू गेट पर भी मिलता रहा लेकिन वो गड्ड होता था।

लौंगलता समोसा के फूफा का बेटा है। दोनों को साथ लिया जाना सुंदर है।

लौंगलता ख़ाकर पानी नही पीना चाहिए। थोड़ी देर टहलिए और एक नींद सो जाइये। अच्छा लगेगा।

Tuesday, 5 October 2021

देवव्रत मजूमदार : एक शख्सियत- चंचल बीएचयू

- तुम भूमिहार हो ? 
      - भूमिहार होना गलती है ? आपके पास अनेक भूमिहार हैं ,और आपकी  खूब छनती है । 
        - अबे !  हमे  तुम्हारी जाति से नही मतलब बस यूं ही । कहकर देबू दा उन मूछों पर ताव देने लगे जो अभी तक उगी ही नही थी । यह उनकी अलग की अदा थी । देबू का मतलब देवव्रत मजूमदार ।
( उन्हें हमारे भूमिहार होने का भरम इसलिए हुआ कि हमारी पुस्तैनी जमींदारी की कुछ जमीन लेने के लिए गांव से कुछ लोग विश्विद्यालय आये थे । ये लोग हमें गांव में, हमे हमारे परिवार को राय साहब बोलते हैं । राय साहब हमारी जाति नही उपाधि है )
     काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ का पूर्व अध्यक्ष । अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का हीरो , युवाजनों का अलम्बरदार । शुरुआती दिनों में हम देबू दा के साथ तो हो चुके थे ,लेकिन बेबाकी और  बे तकुल्फ़ी तक पहुचने में थोड़ा वक्त लगा । मोहन प्रकाश 
( छात्र संघ के अध्यक्ष हुए फिर कांग्रेस के सचिव बने , प्रवक्ता हैं , ) से हमारी जमती और छनती थी ।  विषयांतर है पर संक्षेप में - जब हम बनारस पहुंचे 71 में तबतक समाजवादी युवजन सभा दो फांक हो चुकी थी । बनारस सयुस और हैडराबक़द सयुस । बनारस गुट के नेता थे भाई मार्कण्डेय  सिंह और हैदराबाद गुट के नेता थे मोहन सिंह लेकि  बनारस में हैदराबाद गुट का नेतृत्व देबू दा ही करते थे । हम काशी विद्यापीठ के छात्र थे इसी बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह ने एक फरमान जारी कर छात्र संघ भंग  कर दिया ।  आंदोलन शुरू हुआ और हम जेल चले गए । जेल तो अनगिनत लोग गए लेकिन  हम चर्चा में इसलिए आये कि मुख्यमंत्री चरण सिंह के मंच पर चढ़ कर उनसे माइक खींच लेना और  उन्हें जनतंत्र का हत्यारा कहना , मीडिया में कुछ ज्यादा ही जगह दे दिया । शुक्र की सरकार गिर गयी और नई सरकार आयी पंडित कमलापति त्रिपाठी की । पंडित जी ने छात्रनेताओं पर से मुकदमे हटा लिए हम जेल से छूटे । 
एक दिन भाई मार्कण्डेय सिंह जो उस समय काशी विश्व विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे विद्यापीठ आये और हमे लेकर विश्व विद्यालय चले गए । उसी दिन उन्हें जापान जाना था वे पंद्रह दिन के लिए विदेश रवाना हुए और हम BHU आ गए । खेल किया मोहन प्रकाश जी ने हमे इतना नजदीक कर लिए कि भाई मार्कण्डेय खेमे को यह लग गया कि चंचल फंसा मोहन के जाल में । बहरहाल हम मोहन से मजूमदार तक पहुंचे । 
    एक दिन हमने पांडे जी (रामवचन पांडे )  से पूछा - देबू दा बात बात में अपनी मूछ ऐंठते रहते हैं लेकिन मूछ तो है नही ? 
   - मार्कण्डेय सिंह को देखा है न ? वो इंसान है कि लेलैंड की ट्रक ? सिगरेट सुलगाया नही  कि लगते है एक्सीलेटर  छोड़ने ? यह प्रकृति के मनोविज्ञान  का असर है । मार्कण्डे जितना खींचते हैं उससे ज्यादा छोड़ते हैं , नही समझे ?  अगर।कोई मार्कण्डे के साथ आधा  घन्टा भी रह ले तो वह समाजवाद समाजवाद बोलने लगेगा । बिष्मार्क  हो मुसोलनी आधे घंटे में सब समाजवादी बन जांयगे और अगर कहीं रात भर मार्कण्डे के साथ गुजारनी पड़ जाय तो बिलिब्रान्ट, जार्ज या राजनारायण भी समाजवाद को सल्यूट देकर भाग खड़े होंगे । और वह बेंगाली ? ऐसा भविष्य गढनेवाला इस पृथ्वी पर नही मिलेगा । उसे मालूम हौ एक दिन इसी जगह से मूछ निकलेगी ,जहां वह ताव देता रहता है । वह जिसके कंधे पर हाथ रखदे , समझो वह आजीवन किसी काम का नही रहेगा , केवल राजनीति करेगा । यह बंगाली उसे कहीं  भी पहुंचा सकता है । 
     - दोनो के बीच का रिश्ता ? 
      - हाल्ट । हाल्ट बुझते हो ? बरटेंड रसेल की फिलासफी  है दोनो एक ही हैं फर्क है दोनो के बीच एक  गैप है उसे हाल्ट कहते हैं । 
  दो साल के अंदर हम देबू दा के प्रिय लोंगो में हो गए । बनारस और आसपास यह मुहावरा चल पडा ,-
   देबू दा की तिकड़ी के तीन खम्बे - राधे,  चंचल , मोहन प्रकाश । आपातकाल लगा हम जेल गए तो वहां भी देबू दा हाजिर । गजब की जिंदगी रही । देबू दा बरगद था । सारे अंधड़ , बवंडर खुद झेलता था लेकिन अपनी साख में जुम्बिश तक नही होने दिया । 
        आप याद रहोगे  देबू दा । भुलाए जाते हैं खोखले ओहदे , तामझाम की तरक्की और पखण्डी दम्भ । मजूमदार तो जीते जी शख्सियत बन गया था , मजूमदार घर घर , सड़क दर सड़क मुहावरा हो चुका था । ये मुहावरे , ये शख्सियतें लम्बी उम्र लेकर चलते है    इन्हें पीढियां जिंदा रखती हैं ।

देवब्रत मजूमदार की याद में : सुरेश प्रताप

स्मृति
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देवब्रत मजूमदार की याद में
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मैं उस देवब्रत मजूमदार यानी दादा को जानता हूं जो नब्बे के दशक में बनारस में लगभग प्रतिदिन अस्सी पर आते थे और चुपचाप अपनी स्कूटर पर बैठकर आते-जाते लोगों को देखते रहते थे. तब उनसे मिलने या बातचीत करने वाले लोग कम होते थे. एक जमाना था, जब डाॅ. राममनोहर लोहिया द्वारा चलाए गए "अंग्रेजी हटाओ आंदोलन" के वह नायक थे. तब बीबीसी से उनकी खबरें प्रसारित होती थीं. आज उनकी 16वीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.

यह दुनिया उसी की गीत गाती है जो संघर्ष करते-करते सफल हो जाए. जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गए लोगों की कोई याद नहीं करता.

दौड़ते हुए लोग सामने से आगे निकल जाते हैं. मतलब के सब साथी हैं. उस दौर में मैंने बहुत नजदीक से दादा को देखा है. मैंने उनका वह दौर भी देखा है, जब उनकी एक आवाज पर बीएचयू में छात्र आंदोलन शुरू हो जाता था. फिर विश्वविद्यालय की अनिश्चितकाल बंदी. 

आज स्थिति यह है कि "अंग्रेजी हटाओ आंदोलन" अब अंग्रेजी पढ़ाओ आंदोलन में चुपचाप तब्दील हो गया है. शहर के प्रत्येक मुहल्ले में कांवेंट स्कूल खुल गए हैं. तब कक्षा पांच के बाद स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी और अब नर्सरी से ही abcd.. xyz की पढ़ाई शुरू हो गई है. स्कूल जाने वाले बच्चों के बैग का वजन भी बढ़ा है. हां, कोरोना के कारण इधर स्कूलों में पढ़ाई बाधित हुई तो विकल्प  आॅनलाइन का शुरू हो गया है. पहले की अपेक्षा जीवन में प्रतियोगिता बढ़ गई है. उसी के साथ आपस में अविश्वास भी बढ़ा है. परिणाम यह है कि अवसाद अपना पांव धीरे-धीरे बढ़ाते हुए दिल और दिमाग दोनों को अपनी गिरफ्त में समेटता जा रहा है.

यह आश्चर्य की बात है कि जिस कांग्रेस के खिलाफ अपनी नौजवानी में देबू दा संघर्ष किए, उसी में फिर शामिल हो गए. बनारस में शहर दक्षिणी से विधानसभा का चुनाव भी लड़े. जमानत भी नहीं बची. आपातकाल में भी सरकार के खिलाफ लड़े और जेल गए. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी प्रिय लोगों में थे. उ.प्र. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की कमान उन्हीं के हाथ में थी. 

जब वे कांग्रेस में शामिल हुए तो उनके साथी ही उनकी आलोचना करते रहे. वह चुपचाप सब कुछ सुनते रहे. यह आश्चर्य की बात है कि बाद के दिनों में सयुस के उनके वही साथी व बीएचयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चंचल कुमार और मोहन प्रकाश भी कांग्रेस का दामन थाम लिए. मोहन तो अब कांग्रेस के प्रवक्ता भी बन गए हैं. समाजवादी आंदोलन जो डाॅ. लोहिया के नेतृत्व में शुरू हुआ था बिखरा तो उससे जुड़े साथी भी इधर-उधर चले गए.

अस्सी पर एक जनरल स्टोर की दुकान के सामने अपनी स्कूटर खड़ा करके कभी स्कूटर पर तो कभी बेंच पर बैठे चुपचाप लोगों को निहारते दादा को मैं देखा हूं. उस दौर को याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उन्हें देखकर लगता था जैसे जंग में हारा हुआ कोई योद्धा हो. हार-जीत तो जिंदगी में लगी रहती है. बाद के दिनों में उनके कई मित्र और शिष्य लोकसभा और विधानसभा तक पहुंच गए. मंत्री भी बने लेकिन दादा बीएचयू कैम्पस से लेकर लंका और अस्सी के बीच ही चक्कर लगाते रहे. यथार्थ में जिंदगी ऐसे ही चलती है. 

आदर्श तो किसी आभूषण की तरह होते हैं, जब मन करे उसे पहनकर चल दीजिए या फिर अपने गहने ही बदल लीजिए. अब बाजार में कई डिजाइन के गहने आ गए हैं. उसी तरीके के राजनीतिक दल भी हैं. संघर्ष की राजनीति अलविदा हो गई है. दस महीने से दिल्ली बाॅर्डर पर तीन कृषि बिलों के खिलाफ धरना पर बैठे किसानों को देख ही रहे हैं. उनका क्या हस्र हो रहा है और उनके बारे में मीडिया का क्या कहना है. जब तक संकट आपके दरवाजे पर आकर दस्तक न देने लगे, तब तक चुपचाप दुबके रहिए.

तब अस्सी पर देबू दा सड़क की एक पटरी पर और सामने वाली पटरी पर बीएचयू छात्रसंघ के ही पूर्व अध्यक्ष रामबचन पांडेय खड़ा रहते थे. दोनों अपने जीवन के अंतिम समय में वर्तमान राजनीतिक परिवेश में अप्रासंगिक हो गए थे. आपस में भी इन दोनों नेताओं की बातचीत कम ही होती थी लेकिन देश-दुनिया की राजनीति को लेकर उनकी एक समझ थी. मेरी उनसे अक्सर बातें होती थीं और कभी-कभी मैं उसे अखबार में खबर बनाकर देते भी रहते थे. अब ये दोनों नेता हमारे बीच नहीं हैं. उनकी स्मृतियों को याद करते हुए इन दोनों समाजवादी योद्धाओं को मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.
                                          ~ सुरेश प्रताप

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