स्मृति
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देवब्रत मजूमदार की याद में
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मैं उस देवब्रत मजूमदार यानी दादा को जानता हूं जो नब्बे के दशक में बनारस में लगभग प्रतिदिन अस्सी पर आते थे और चुपचाप अपनी स्कूटर पर बैठकर आते-जाते लोगों को देखते रहते थे. तब उनसे मिलने या बातचीत करने वाले लोग कम होते थे. एक जमाना था, जब डाॅ. राममनोहर लोहिया द्वारा चलाए गए "अंग्रेजी हटाओ आंदोलन" के वह नायक थे. तब बीबीसी से उनकी खबरें प्रसारित होती थीं. आज उनकी 16वीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.
यह दुनिया उसी की गीत गाती है जो संघर्ष करते-करते सफल हो जाए. जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गए लोगों की कोई याद नहीं करता.
दौड़ते हुए लोग सामने से आगे निकल जाते हैं. मतलब के सब साथी हैं. उस दौर में मैंने बहुत नजदीक से दादा को देखा है. मैंने उनका वह दौर भी देखा है, जब उनकी एक आवाज पर बीएचयू में छात्र आंदोलन शुरू हो जाता था. फिर विश्वविद्यालय की अनिश्चितकाल बंदी.
दौड़ते हुए लोग सामने से आगे निकल जाते हैं. मतलब के सब साथी हैं. उस दौर में मैंने बहुत नजदीक से दादा को देखा है. मैंने उनका वह दौर भी देखा है, जब उनकी एक आवाज पर बीएचयू में छात्र आंदोलन शुरू हो जाता था. फिर विश्वविद्यालय की अनिश्चितकाल बंदी.
आज स्थिति यह है कि "अंग्रेजी हटाओ आंदोलन" अब अंग्रेजी पढ़ाओ आंदोलन में चुपचाप तब्दील हो गया है. शहर के प्रत्येक मुहल्ले में कांवेंट स्कूल खुल गए हैं. तब कक्षा पांच के बाद स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी और अब नर्सरी से ही abcd.. xyz की पढ़ाई शुरू हो गई है. स्कूल जाने वाले बच्चों के बैग का वजन भी बढ़ा है. हां, कोरोना के कारण इधर स्कूलों में पढ़ाई बाधित हुई तो विकल्प आॅनलाइन का शुरू हो गया है. पहले की अपेक्षा जीवन में प्रतियोगिता बढ़ गई है. उसी के साथ आपस में अविश्वास भी बढ़ा है. परिणाम यह है कि अवसाद अपना पांव धीरे-धीरे बढ़ाते हुए दिल और दिमाग दोनों को अपनी गिरफ्त में समेटता जा रहा है.
यह आश्चर्य की बात है कि जिस कांग्रेस के खिलाफ अपनी नौजवानी में देबू दा संघर्ष किए, उसी में फिर शामिल हो गए. बनारस में शहर दक्षिणी से विधानसभा का चुनाव भी लड़े. जमानत भी नहीं बची. आपातकाल में भी सरकार के खिलाफ लड़े और जेल गए. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी प्रिय लोगों में थे. उ.प्र. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की कमान उन्हीं के हाथ में थी.
जब वे कांग्रेस में शामिल हुए तो उनके साथी ही उनकी आलोचना करते रहे. वह चुपचाप सब कुछ सुनते रहे. यह आश्चर्य की बात है कि बाद के दिनों में सयुस के उनके वही साथी व बीएचयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चंचल कुमार और मोहन प्रकाश भी कांग्रेस का दामन थाम लिए. मोहन तो अब कांग्रेस के प्रवक्ता भी बन गए हैं. समाजवादी आंदोलन जो डाॅ. लोहिया के नेतृत्व में शुरू हुआ था बिखरा तो उससे जुड़े साथी भी इधर-उधर चले गए.
अस्सी पर एक जनरल स्टोर की दुकान के सामने अपनी स्कूटर खड़ा करके कभी स्कूटर पर तो कभी बेंच पर बैठे चुपचाप लोगों को निहारते दादा को मैं देखा हूं. उस दौर को याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उन्हें देखकर लगता था जैसे जंग में हारा हुआ कोई योद्धा हो. हार-जीत तो जिंदगी में लगी रहती है. बाद के दिनों में उनके कई मित्र और शिष्य लोकसभा और विधानसभा तक पहुंच गए. मंत्री भी बने लेकिन दादा बीएचयू कैम्पस से लेकर लंका और अस्सी के बीच ही चक्कर लगाते रहे. यथार्थ में जिंदगी ऐसे ही चलती है.
आदर्श तो किसी आभूषण की तरह होते हैं, जब मन करे उसे पहनकर चल दीजिए या फिर अपने गहने ही बदल लीजिए. अब बाजार में कई डिजाइन के गहने आ गए हैं. उसी तरीके के राजनीतिक दल भी हैं. संघर्ष की राजनीति अलविदा हो गई है. दस महीने से दिल्ली बाॅर्डर पर तीन कृषि बिलों के खिलाफ धरना पर बैठे किसानों को देख ही रहे हैं. उनका क्या हस्र हो रहा है और उनके बारे में मीडिया का क्या कहना है. जब तक संकट आपके दरवाजे पर आकर दस्तक न देने लगे, तब तक चुपचाप दुबके रहिए.
तब अस्सी पर देबू दा सड़क की एक पटरी पर और सामने वाली पटरी पर बीएचयू छात्रसंघ के ही पूर्व अध्यक्ष रामबचन पांडेय खड़ा रहते थे. दोनों अपने जीवन के अंतिम समय में वर्तमान राजनीतिक परिवेश में अप्रासंगिक हो गए थे. आपस में भी इन दोनों नेताओं की बातचीत कम ही होती थी लेकिन देश-दुनिया की राजनीति को लेकर उनकी एक समझ थी. मेरी उनसे अक्सर बातें होती थीं और कभी-कभी मैं उसे अखबार में खबर बनाकर देते भी रहते थे. अब ये दोनों नेता हमारे बीच नहीं हैं. उनकी स्मृतियों को याद करते हुए इन दोनों समाजवादी योद्धाओं को मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.
~ सुरेश प्रताप
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