Tuesday 5 October 2021

देवव्रत मजूमदार : एक शख्सियत- चंचल बीएचयू

- तुम भूमिहार हो ? 
      - भूमिहार होना गलती है ? आपके पास अनेक भूमिहार हैं ,और आपकी  खूब छनती है । 
        - अबे !  हमे  तुम्हारी जाति से नही मतलब बस यूं ही । कहकर देबू दा उन मूछों पर ताव देने लगे जो अभी तक उगी ही नही थी । यह उनकी अलग की अदा थी । देबू का मतलब देवव्रत मजूमदार ।
( उन्हें हमारे भूमिहार होने का भरम इसलिए हुआ कि हमारी पुस्तैनी जमींदारी की कुछ जमीन लेने के लिए गांव से कुछ लोग विश्विद्यालय आये थे । ये लोग हमें गांव में, हमे हमारे परिवार को राय साहब बोलते हैं । राय साहब हमारी जाति नही उपाधि है )
     काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ का पूर्व अध्यक्ष । अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का हीरो , युवाजनों का अलम्बरदार । शुरुआती दिनों में हम देबू दा के साथ तो हो चुके थे ,लेकिन बेबाकी और  बे तकुल्फ़ी तक पहुचने में थोड़ा वक्त लगा । मोहन प्रकाश 
( छात्र संघ के अध्यक्ष हुए फिर कांग्रेस के सचिव बने , प्रवक्ता हैं , ) से हमारी जमती और छनती थी ।  विषयांतर है पर संक्षेप में - जब हम बनारस पहुंचे 71 में तबतक समाजवादी युवजन सभा दो फांक हो चुकी थी । बनारस सयुस और हैडराबक़द सयुस । बनारस गुट के नेता थे भाई मार्कण्डेय  सिंह और हैदराबाद गुट के नेता थे मोहन सिंह लेकि  बनारस में हैदराबाद गुट का नेतृत्व देबू दा ही करते थे । हम काशी विद्यापीठ के छात्र थे इसी बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह ने एक फरमान जारी कर छात्र संघ भंग  कर दिया ।  आंदोलन शुरू हुआ और हम जेल चले गए । जेल तो अनगिनत लोग गए लेकिन  हम चर्चा में इसलिए आये कि मुख्यमंत्री चरण सिंह के मंच पर चढ़ कर उनसे माइक खींच लेना और  उन्हें जनतंत्र का हत्यारा कहना , मीडिया में कुछ ज्यादा ही जगह दे दिया । शुक्र की सरकार गिर गयी और नई सरकार आयी पंडित कमलापति त्रिपाठी की । पंडित जी ने छात्रनेताओं पर से मुकदमे हटा लिए हम जेल से छूटे । 
एक दिन भाई मार्कण्डेय सिंह जो उस समय काशी विश्व विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे विद्यापीठ आये और हमे लेकर विश्व विद्यालय चले गए । उसी दिन उन्हें जापान जाना था वे पंद्रह दिन के लिए विदेश रवाना हुए और हम BHU आ गए । खेल किया मोहन प्रकाश जी ने हमे इतना नजदीक कर लिए कि भाई मार्कण्डेय खेमे को यह लग गया कि चंचल फंसा मोहन के जाल में । बहरहाल हम मोहन से मजूमदार तक पहुंचे । 
    एक दिन हमने पांडे जी (रामवचन पांडे )  से पूछा - देबू दा बात बात में अपनी मूछ ऐंठते रहते हैं लेकिन मूछ तो है नही ? 
   - मार्कण्डेय सिंह को देखा है न ? वो इंसान है कि लेलैंड की ट्रक ? सिगरेट सुलगाया नही  कि लगते है एक्सीलेटर  छोड़ने ? यह प्रकृति के मनोविज्ञान  का असर है । मार्कण्डे जितना खींचते हैं उससे ज्यादा छोड़ते हैं , नही समझे ?  अगर।कोई मार्कण्डे के साथ आधा  घन्टा भी रह ले तो वह समाजवाद समाजवाद बोलने लगेगा । बिष्मार्क  हो मुसोलनी आधे घंटे में सब समाजवादी बन जांयगे और अगर कहीं रात भर मार्कण्डे के साथ गुजारनी पड़ जाय तो बिलिब्रान्ट, जार्ज या राजनारायण भी समाजवाद को सल्यूट देकर भाग खड़े होंगे । और वह बेंगाली ? ऐसा भविष्य गढनेवाला इस पृथ्वी पर नही मिलेगा । उसे मालूम हौ एक दिन इसी जगह से मूछ निकलेगी ,जहां वह ताव देता रहता है । वह जिसके कंधे पर हाथ रखदे , समझो वह आजीवन किसी काम का नही रहेगा , केवल राजनीति करेगा । यह बंगाली उसे कहीं  भी पहुंचा सकता है । 
     - दोनो के बीच का रिश्ता ? 
      - हाल्ट । हाल्ट बुझते हो ? बरटेंड रसेल की फिलासफी  है दोनो एक ही हैं फर्क है दोनो के बीच एक  गैप है उसे हाल्ट कहते हैं । 
  दो साल के अंदर हम देबू दा के प्रिय लोंगो में हो गए । बनारस और आसपास यह मुहावरा चल पडा ,-
   देबू दा की तिकड़ी के तीन खम्बे - राधे,  चंचल , मोहन प्रकाश । आपातकाल लगा हम जेल गए तो वहां भी देबू दा हाजिर । गजब की जिंदगी रही । देबू दा बरगद था । सारे अंधड़ , बवंडर खुद झेलता था लेकिन अपनी साख में जुम्बिश तक नही होने दिया । 
        आप याद रहोगे  देबू दा । भुलाए जाते हैं खोखले ओहदे , तामझाम की तरक्की और पखण्डी दम्भ । मजूमदार तो जीते जी शख्सियत बन गया था , मजूमदार घर घर , सड़क दर सड़क मुहावरा हो चुका था । ये मुहावरे , ये शख्सियतें लम्बी उम्र लेकर चलते है    इन्हें पीढियां जिंदा रखती हैं ।

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