Thursday 7 October 2021

'मेरा अज़्म इतना बलन्द है के पराए शोलों का डर नहीं': बेगम अख्तर - वंदना चौबे

बेग़म अख़्तर के जन्मदिवस पर दो साल पुराना यह संक्षिप्त लेख!
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शास्त्रीयता के सिरों को अतिक्रमित करती यथार्थबोध से उपजी एक जुझारू आवाज़ बेग़म अख़्तर की!

'मेरा अज़्म इतना बलन्द है के पराए शोलों का डर नहीं'
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बेग़म अख़्तर पर बारहा लिखने का मन हुआ करता था लेकिन 'और फिर तल्ख़िए एहसास ने दिल तोड़ दिया' जैसा हाल हो गया।कमउमरी में उन्हें सिर्फ़ उनकी मक़बूलियत के कारण सुना था इसलिए ज़हन और ज़िन्दगी पर उनका कोई ख़ास असर नहीं पड़ा।
थोड़ा संगीत सीखा तो है!संगीत मर्मज्ञ नहीं हूं लेकिन बहुत बाद में लगातार और बार बार अख़्तरी को सुनते हुए सबसे पहले उनके बारे में यह मिथ टूटा कि वे मख़मली और जादुई आवाज़ की मल्लिका हैं!न मुझे वे जादुई लगती हैं न मख़मली!मेरे सुनने में वे मुझे लगभग रूखी लगती हैं!!

वे गंवई तीखी दुपहरी की गायिका हैं।उनकी गायिकी में सम्मोहक सुकून और आराम नहीं मिलता बल्कि मिलता है एक कठोर यथार्थबोध।कोठे और बैठकी के ख़्याल और ग़ज़ल गायिकी में ही नहीं लुभावनी अदाकारियों वाली ठुमरियों और दादरे तक में वे अपनी आवाज़ से अपने दिल के इर्द-गिर्द जैसे एक किला बनाती हैं।उनकी गायिकी सुनने वाले के दिल मे खिंचती तो है लेकिन उनके दिल तक पहुँचने का रास्ता रोक देती है।
बेग़म अख़्तर के समकाल और उनके आगे तलक भी बैठकी की लुभावनी गायिकी इस तरह यथार्थबोध से टकराती नज़र नहीं आती।आज भी नहीं।कलात्मक गंभीरता और पवित्रता किशोरी अमोनकर में है।एक साफ़ और गरिमामयी आवाज़!

विविधता के आधार पर दूसरे छोर पर मैं आबिदा परवीन को देखती हूँ!सूफ़ियाने फ़लसफ़े से दुनयावी भरम को तोड़ने की मुक्त आवाज़!
बेग़म अख़्तर की आवाज़ इन दोनों छोरों को अतिक्रमित करती है।जिस ज़मीन पर वे खड़ी थीं वहाँ वे सूफ़ियाना रस्ते से वे पलायन नहीं कर सकती थीं और जिस दुनिया मे वे जी रही थीं वह कला का क्षेत्र होकर भी प्रतिष्ठित नहीं माना जाता था इसलिए सम्भ्रांत पवित्रतावाद भी उनके इर्द-गिर्द नहीं टिकता था।
उन्होंने खड़ी बैठकी तक की भी प्रस्तुतियां दी।खड़ी बैठकी में नृत्य की भंगिमा के साथ सुनने वालों तक घूम घूम कर नाच के साथ गायन पेश किया जाता था।वे न ही सूफ़ी मुक्त हो सकती थीं न ही एलीट शुचितावादी!कठोर जीवन की ज़मीन पर रिश्तेदारों और उनकी बच्चियों के परवरिश की ज़िम्मेदारी भी थी उन पर और ग़ज़ल के रंजक रूप और  शास्त्रीयता शुचितावाद से मुक्त कर किसी जगह ले जाती हैं वे।

अपनी माँ मुश्तरी बाई का रूपांतरित जीवन अख़्तरी बाई ने जिया।मां-बेटी में जाने कौन रिश्ता था कि मुश्तरी की मौत के बाद बेग़म अख़्तर दर्द और नशे के इंजेक्शन लेने लगीं।कहा जाता है कि उनके लिए बड़े बड़े आलीशान लोगों के प्रेम-प्रस्ताव आते रहे।वे जीवन को मज़े में देखतीं रहीं और हँसती रहीं , गाती रहीं क्योंकि जानती थीं कि यह प्रेम नहीं है।ये आलीशान लोग उन्हें अपनी कोठियों में एक नगीने की मानिंद सजावटी पत्थर की तरह सजाना चाहते हैं।उन्होंने किसी की दूसरी, तीसरी या चौथी बीवी बनना स्वीकार नहीं किया।बाद में किन्हीं विधुर वकील साहब से उन्होंने शादी की लेकिन अपनी स्वतंत्र तबीयत की वजह से परिवार में वह रह न पायीं।गायिकी की खोज ,दोस्ताने, महफिलें और शराब-सिगरेट की लत ने उन्हें सांसारिक स्थिरता न दी।परिवार में रहकर वे जान गईं कि स्वतंत्र-चेतना की क़ीमत देनी होती है।

कहीं कभी पढा था और यूट्यूब पर देखा है कि 13 साल की उम्र में बेग़म अख़्तर के साथ किसी राजा ने ज़बरदस्ती की।रेप अटेम्प्ट किया और उस छोटी उम्र में ही उन्हें उन्हें एक बेटी हुई लेकिन बहुत बाद तक बेग़म उस बच्ची को अपनी बहन बताती रहीं।आधिकारिक रूप से इस घटना की कोई पुष्टि नहीं मिलती।यतीन्द्र मिश्र द्वारा संपादित किताब 'अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना' में कुछ पुराने गुणीजनों के लेख हैं।वहां भी ऐसा कोई उल्लेख नही है।उनके जीवन पर आधारित दूरदर्शन के कार्यक्रमों और विविध भारती के आर्काइव्स में भी कोई उल्लेख नहीं है। कहना चाहती हूँ कि यदि यह घटना सत्य है तो यतीन्द्र मिश्र  जी के संपादकीय या लेख में या कहीं तो इसका उल्लेख होना चाहिए और यदि यह घटना निर्मूल है तो यूट्यूब और ऐसे दूसरे माध्यमों पर एक आपत्ति नोट भेजी जानी चाहिए।यह यतीन्द्र जी को देखना चाहिए।

जीवन के अनुभवों से  अख़्तरी का जीवन कठोर तरीके से बदल गया।रियाज़ी तो वे थीं लेकिन पारम्परिक- बनावटी रियाज़ उन्होंने कभी नहीं किया।
अर्से बाद किसी फ़नकार से गायिकी की इतनी सच्ची और कसी हुई परिभाषा दी कि गायिकी के लिए रियाज़ से ज़्यादा ज़रूरी चीज़ 'तासीर' और 'सचाई'।बेग़म अख़्तर कहती हैं-  'इंसान ईमानदार हो तो उसके गाने में तासीर पैदा होती है।गाने पर असर ईमान से पड़ता है।सच बोलने, मेहनत करने, दिल पर बोझ न रखने और दिल मे सफ़ाई रखने से सुर सच्चे लगते हैं और आवाज़ खुलती है।'

अपने सुनने-समझने के आधार पर मेरा यह  मानना है कि बेग़म अख़्तर ख़रज और 'गमक' तो लेती हैं लेकिन 'मीड़' उनकी गायिकी में बेहद कम है और यह मुझे मुग्ध करता है।छोटी-छोटी मीड़ लेती हैं।लम्बी मीड़ लगाना सब पर अच्छा नहीं लगता।उसमे बनावटी होने का ख़तरा रहता है।बेग़म की गायिकी में 'मीड़' उनके गले की ख़राश और ख़लिश है।
ग़ालिब की ज़बाँ में 'ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता'
इस ख़लिश को बरक़रार रखने के लिए दर्द को बेग़म ने लाइलाज किया।गाती हुई वे अद्भुत ढंग से स्वाभाविक होती हैं।दुनियायावी आत्मस्थ!
ग़ालिब को जितना बेहतर और वैचारिक ऊंचाई से बेग़म अख़्तर ने गाया वैसा शायद किसी ने नहीं गाया।

उनके गाए दादरों के बोल एक ओर लुभावने और दूसरी ओर विरही हैं।किसी और गले में ज़रा सी असावधानी से वे सस्ती-लोकप्रियता में तब्दील हो सकती थीं।बेग़म ने ग़ज़लों में ही नहीं.. ठुमरी-दादरे में विरह की पुकार में दर्प और मनोरंजक आस्वादन वाले आकर्षक बंदिशों में अपनी गायिकी के बल पर गंभीरता भरी है।ऐसी गम्भीरता जो एक ख़ास किस्म के कलावाद से अलग है।एक दादरा जिसे सैकड़ो बार सुना है! 
'मोर बलमुआ परदेसिया मोर'
कई-कई बार सुना ..सिर्फ़ 'परदेसिया' और 'मोर' के बीच लगने वाले सुर के लिए। 
सिर्फ़ इसी सुर पर शास्त्रीयता जैसे बिखर जाती है और  ठेठ 'लोक' रूपाकार ले लेता है।

अख़्तरी बाई ने कला के लिए 'उस्तादी' मेहनत नहीं की इसलिए ऊपरी सुर लगाने में उनका गला टूटता था.. आवाज़ ख़राश देती थी लेकिन ऐसे शास्त्रीय दोषों की चिंता उन्होंने नहीं की।छोटी बहरें वे ख़ूब मन से गाती हैं।आज तो 'ख़राश' एक ग्लैमर बन चुका है।सोच-समझकर ख़राश बनाई जाती है लेकिन बेग़म के समय यह बड़ा दुर्गुण था।बाद में इसी ख़राश उन्हें मौलिकता दी।
'दीवाना बनाना है दीवाना बना दे' ग़ज़ल में गले की टूट और ख़राश सुनने बड़े बड़े गुणी आते थे और उनके मुरीद  होते थे।

भावना में बहते हुए भरे मन को एक आंतरिक गाढ़ापन बेग़म को सुनकर मिल सकता है।इस रूप में ऐसी कठोर, निस्संग और निर्लिप्त गायिकी कम हुआ करती है।बेग़म अख़्तर की आवाज़ में  कलावादी सम्मोहन नहीं है जो आपको बेवजह बहा ले जाए।भावना के साथ वह एक निस्संग सम्बल देती है इसलिए बेग़म को सुनते बहुत भावुक नहीं हुआ जा सकता।उनकी आवाज़ भीतर स्थिर करती है।तकलीफ़ देती हुई अपनी आवाज़ से जैसे धूप में खड़ा रखती हैं; फिर बाहर निकाल लाती है, आगे बढ़ा देती है!बहलाती और पुचकारती नहीं है !भटकाती नहीं है।इस अर्थ में एक स्तर पर बेग़म अख्तर की गायिकी वैचारिक गायिकी की ओर जाती है।
कठोर उत्तर भारतीय पितृसत्ता के शिकंजे में कोठी की गायिकी कला को इस दर्ज़े पर पहुँचाना उन्हें भारत के दुर्लभ उस्तादों की श्रेणी में खड़ा करता है।

उनके क़रीबी रहे सलीम किदवई द्वारा खींची एक अच्छी तस्वीर!

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