Saturday, 9 October 2021

रामविलास शर्मा को आप कितना जानते हैं? - अजय तिवारी

रामविलास शर्मा (१० अक्तूबर १९१२-२९ मई २०००) की यह थोड़ी अनपहचानी छवि है। गठा हुआ कसरती बदन, सलीक़े से पहनी हुई पैंट-क़मीज़, कमर में बेल्ट, यह सब तो ठीक, लेकिन हाथ में जलती हुई सिगरेट! तो यह जान लेने की बात है कि १९७२ तक सिगरेट पीते थे। रिटायरमेंट के बाद छोड़ी। कब पीनी शुरू की, ठीक याद नहीं; पर कम्युनिस्ट पार्टी में आने के बाद शुरू हुई और प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव बनने के बाद अधिक हो गयी, यह सही है। आगरे में रहने पर तीन या चार सिगरेट दिन में, लेकिन मीटिंगों में ज़्यादा। मीटिंगें देर रात तक चलतीं तो सिगरेट भी पूरी डिब्बी पियी जाती। 

कसरती रामविलास को पहलवान रामविलास भी कहा जाता था। दाँव लड़ाने में भी कम नहीं थे। निराला से पंजा लड़ाने का वर्णन खुद ही किया है ‘साहित्य साधना’ में। अखाड़े में कसरत के साथ साथ कुश्ती भी लड़ते रहे हैं, यह सर्वविदित है। एक बार प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में एक नामी आलोचक को किसी महिला रचनाकार ने चेतावनी दी कि उसके साथ वे लालायित व्यवहार बंद कर दें वरना वह महामंत्री रामविलास शर्मा से शिकायत कर देंगी। आलोचक अपने महत्व के गुमान में थे। नहीं माने। रामविलास जी के सामने बात आयी। उन्होंने चेतावनी दी कि अब कोई शिकायत न मिले अन्यथा यहीं दो घूँसे मारूँगा! अखाड़िया पहलवान की धमकी रंग लायी। 

पहलवानी का असर यह था कि १९८१ में दिल्ली आने के बाद मालिश करने के लिए लोग नहीं मिलते थे। लगभग ११-१२ साल बाद जब नीरज और जसबीर त्यागी दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में एक साल आगे-पीछे एम. फ़िल में आये, तब अपने गुरु डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी के कहने पर वे समय-समय पर उनकी मालिश करने जाते थे। एक तो रामविलास जी सहज बहुत थे, दूसरे युवाओं के प्रति सदय भी थे, तीसरे नीरज-वेदप्रकाश-जसबीर आपस में मित्र थे और शालीन, प्रतिभाशाली भी। रामविलास जी इन सबको बहुत स्नेह देने लगे। 

एक बार रामविलास जी से मैंने किसी काम के लिए कहा था। शायद जनवादी लेखक संघ (जलेस) की पत्रिका ‘नया पथ’ के लिए कुछ लिखना था। उन दिनों ‘नया पथ’ का संपादन चंद्रबली सिंह करते थे। रामविलास जी जलेस के कुछ नेताओं के बर्ताव से क्षुब्ध थे। लिखने के लिए सहमत नहीं थे। मैंने उन्हें जो समय दिया था, उस दिन नीरज (अब जामिया में हिंदी के प्रोफ़ेसर) को साथ लेकर उनके घर पहुँचा। चाय के दौरान ही किसी बात पर बहस छिड़ गयी। बहस तीखी हो गयी। तर्क-वितर्क कुछ वक्र भाषा में होने लगा। जिसमें उत्तेजना मिली हुई थी। नीरज बहुत सशंकित और कुछ कुछ भयभीत हो गये। आधे घंटे की बहस के बाद मैंने कहा कि यह समस्या अभी तो सुलझने वाली नहीं है, इसपर फिर बात करेंगे; आप उठिए, काग़ज़-क़लम लाइए और लिखकर दीजिए। उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, उठे, राइटिंग पैड और फ़ाउंटेन पेन लेकर आये,  जो सामग्री देनी थी, वह लिखकर दी और फिर थोड़ी देर हँसी-मज़ाक़ हुआ और हम विदा हुए। नीरज ने बाहर आकर कहा कि वह बहुत डर गये थे। पर धीरे-धीरे वे भी समझने लगे कि बहस और मतभेद से रामविलास जी को दिक़्क़त नहीं थी। वे चालाकी और तिकड़म पसंद नहीं करते थे। 

सिगरेट पीना तो उन्होंने रिटायरमेंट के बाद छोड़ा था, चाय पीना १९९४-९५ के आसपास छोड़ी। पहले चाय बनाकर भी पिलाते थे। ख़ास तौर पर सुबह जाने पर, जब उनके पुत्र विजय मोहन शर्मा (जिनका कुछ दिनों पहले सिंगापुर में अपने बेटे के पास निधन हो गया) और संतोष भाभी अपने-अपने काम पर गये होते थे। चाय बड़े मनोयोग से और बहुत अच्छी बनाते थे। मुझे दर्जनों बार उनकी बनायी चाय पीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 

एक बार तो कहकर कि तुम्हें निराला की ‘शक्ति-पूजा’ और शेक्सपीयर के कुछ सॉनेट पढ़ाऊँगा। उस दिन हथपोई भी खिलाऊँगा। हथपोई—हाथ से पाथकर बनायी गयी मोटी रोटी। शेक्सपीयर पढ़ने का समय तो दुर्भाग्य से नहीं निकाल सका, ‘राम की शक्ति-पूजा’ पढ़ने का सौभाग्य मिला। घंटे भर में उन्होंने प्रारंभिक एक तिहाई अंश पढ़ाया। रिकॉर्डिंग तो नहीं कर पाया लेकिन नोट्स लेता गया। वे नोट्स अब भी मेरे पास हैं। उस दिन का अनुभव जैसा था, उसी के लिए “दिव्य” की अवधारणा बनी है। जितना आनंद रामविलास जी से निराला पढ़ने का था, उससे कम आनंद उन्हें आटा गूँथकर रोटी बनाते और तवे पर सेंकते हुए देखने का नहीं था। मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए इतना स्नेह कि तीखी बहस करने से लेकर निराला पढ़ाने और हथपोई खिलाने तक सब इतने सहज भाव से कि अपने को ही विश्वास न हो! 

तब लगा, मजदूर बस्ती में रहकर, मेहनतकश की तरह श्रम करते हुए बीसवीं शताब्दी की इस महान हस्ती ने जो पाया था, वह श्रम, सृजन, चिंतन, सहृदयता और दृढ़ता का एक ऐसा आचरण था जिसमें अहंमन्यता नहीं, ऐसी सहजता थी जिसे साधना से ही पाया जाता है और सामान्य लोगों के लिए जो एक आदर्श है। इस आदर्श तक पहुँचने का संघर्ष हमारा है।

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