Thursday 31 March 2016

प्रतिरोध के स्वरों का समायोजन- अनुज लुगुन

प्रतिरोध के स्वरों का समायोजन




   डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

‘मैं समय कहता हूं‍/ और आवाज आती है सीरिया’... हिंदी के वरिष्ठ कवि राजेश जोशी द्वारा बनारस युवा कवि संगम, फरवरी 2016 में पठित यह कविता हिंदी कविता के मौजूदा विविध स्वरों में से एक प्रमुख स्वर है, जो साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिबद्धता के साथ खड़ा है. सीरिया आज की वैश्विक दुनिया का सच है, यह नव-साम्राज्यवाद का सच है. जिस तरह हिंदी का वरिष्ठ कवि आज के सच को अनदेखा नहीं कर रहा है, वैसे ही आज का युवा कवि भी अपने समय के सच से आंख नहीं चुरा रहा, बल्कि उससे मुठभेड़ करने के लिए सामने खड़ा है. 
जिस तरह सीरिया वैश्विक दुनिया का सच है, वैसे ही रोहित वेमुला का सच भारतीय समाज में गहरी पैठ बना चुके ब्राह्मणवाद का सच है. इस संगम में युवा कवि शैलेंद्र शुक्ल ने रोहित वेमुला को समर्पित कविता का पाठ किया- ‘यह सुसाइड नोट उन तमाम लोगों का भी है/ कि जिन्हें लिखना नहीं आता/ कि जिन्हें पढ़ने नहीं दिया गया/ कि जिनका मासूम गला रेता गया/ सदियों पुरानी तलवारों से/ कि जिनकी लाशें उस महावृक्ष पर टहनी-दर-टहनी लटकी हुई हैं/ इस महावृक्ष को षड्दर्शन में/ उल्टा करके पढ़ती हैं सत्ताएं/ और युगों तक दिमाग भोथरे हो जाते हैं’. युवा दलित कवि कर्मानंद आर्य ने मौजूदा सत्ता की क्रूरता को ‘जनरल डायर’ के रूपक में प्रस्तुत किया, जो अपने स्वार्थ के लिए वंचितों को अपना नरम चारा समझती है- ‘इस देश में रहते हुए/ तुम्हारी बहुत याद आती है जनरल डायर/ ओ जनरल डायर, फायर!’ विपिन चौधरी ने ‘वसंतसेना’ के माध्यम से पितृसत्ता के वर्चस्व को उभारने की कोशिश की.



कवि संगम में जिस निर्भीकता के साथ कविताओं में युवा कवि अपने यथार्थ को अभिव्यक्त कर रहे थे, उससे यह कतई नहीं कहा जा सकता है कि आज की युवा कविता अपने समय और परिवेश से उदासीन है. 



‘आज का समय और हिंदी की युवा कविता’ विषयक आलोचना के सत्र में जिस उदासीनता के साथ उपस्थित आलोचकों ने अपनी बात कही, उससे यह लग रहा था कि आज की युवा पीढ़ी को अपने समय और समाज की परवाह नहीं है. 



लेकिन कार्यक्रम में कवियों और कवयित्रियों की मुखरता ने आलोचना को उसकी परिधि का एहसास कराया. कविता अपने समय का अनुवाद नहीं करती है और न ही अपने समय से आंख चुराती है, वह तो अतीत और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में अपने समय से संवाद करती है. यही संवाद उसका सरोकार होता है.



आज की हिंदी कविता वहीं नहीं है, जहां प्रवृत्तिगत काव्य आंदोलन होते रहे हैं. आज की युवा कविता को किसी एक खास प्रवृत्ति या खांचें में समेट पाना संभव नहीं है. आज दलित, स्त्री, आदिवासी स्वयं प्रत्यक्ष रूप से अपनी बात कह रहे हैं. उनके पास अपनी वैचारिक समझ और दार्शनिक भावभूमि है. हर दिशा से उठ रहे इस स्वर को विभाजित या बिखंडित स्वर के रूप में आसानी से चिह्नित किया जा सकता है. कुछ इस दिशा में प्रयासरत भी हैं कि उनका अलग वैचारिक द्वीप बने. लेकिन वंचितों के इस स्वर में सबसे बड़ी समानता है- प्रतिरोध का स्वर, जो वंचितों के संघर्ष को विभाजित या विखंडित होने नहीं देता है.



आज एक ओर अस्मिताओं को स्थापित करने का प्रयास है, तो दूसरी ओर उसका नकार भी है. सत्य है कि वंचित समुदायों का संघर्ष अपनी अस्मिता के आधार पर है. इस अस्मितावादी स्वर को नकारने के बजाय भारतीय समाज की सामाजिक संरचना को ईमानदारी से विश्लेषित करना चाहिए. ब्राह्मणवाद-जातिवाद, सामंतवाद और पितृसत्ता के हजारों वर्षों के दमन ने देश की बहुसंख्यक जनता की ‘अस्मिता’ का अपहरण किया है. आज जब बहुसंख्यक जनता वर्चस्वकारी शक्तियों के विरुद्ध स्वयं खड़ी हो रही है, तो उसकी ‘अस्मिता’ का उभरना स्वाभाविक है. 



ऐसा नहीं है कि दलित, स्त्री, आदिवासी या वंचितों का सवाल पहली बार हिंदी कविता में प्रस्तुत हो रहा है. मध्यकाल में निर्गुण भक्त कवियों ने वंचितों के सवाल को मुखरता के साथ उठाया है. आधुनिक समय में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ ही लेखन की दुनिया में सामंतवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध आम जनता के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता व्यक्त की जाने लगी. केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, मुक्तिबोध से लेकर अब तक यह प्रतिबद्धता जारी है.



इसके बावजूद दलित, स्त्री, आदिवासी और अन्य वंचित समुदायों का खुद का स्वर हिंदी कविता की परिधि से बाहर था. हालांकि, यह अनुमान जरूर था कि एक दिन खुद वंचित समुदाय खुद को अभिव्यक्त करेंगे. नागार्जुन ने बस्तर के आदिवासियों की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा था कि ‘इन्हें न तुम ‘बेचारे’ कहना/ अजी, यही तो ज्योति कीट हैं/ जान भर रहे हैं जंगल में’. अब वंचित समुदायों के पास खुद को अभिव्यक्त करने के लिए अपना ठोस वैचारिक आधार है. आजादी के लंबे अंतराल के बाद वंचित समुदायों की खुद की अभिव्यक्ति ने आज की हिंदी कविता को नया स्वरूप दे दिया है.



हिंदी में वामपंथी लेखक संगठन समाज के वर्गीय विश्लेषण तक ही सीमित रहे हैं, वहीं अस्मितावादी लेखन ‘वर्ग’ से ज्यादा भारतीय सामाजिक संरचना की वस्तुगत सच्चाई ‘वर्ण’ (वर्णाश्रम आधारित जाति व्यवस्था) और ‘लिंग’ पर बल देता है. लेकिन अब अस्मितावादी लेखन को अपने अंदर उभरनेवाले ‘वर्गीय चरित्र’ को भी रेखांकित करना होगा. वर्गीय विश्लेषण के बिना वह अंतर्विरोध में फंस सकता है, जैसे ‘वर्ण’ और ‘लिंग’ को अस्मिता के नाम पर नकारने की वजह से वामपंथी लेखक संगठनों में अंतर्विरोध पैदा हुआ. आज के युवा लेखन में सत्ता के औपनिवेशिक चरित्र की पड़ताल और अस्मिता की चिंता दोनों बातें एक साथ अलग-अलग दिशाओं से सामने आ रही हैं. आज वह वैश्विक और स्थानीय विषयों पर खुद को अभिव्यक्त करने के लिए बेचैन है. 



बीएचयू के हिंदी विभाग के शोध छात्रों द्वारा प्रत्येक वर्ष आयोजित होनेवाले युवा कवि संगम में हिंदी की युवा कविता की प्रवृत्तियों को सहज ही रेखांकित किया जा सकता है. संभवतः यह देश का एकमात्र ऐसा आयोजन है, जिसमें इतने बड़े पैमाने पर बहुविध रचनाधर्मिता का संगम होता है. आयोजन को विभिन्न क्षेत्रों से उभर रहे सांस्कृतिक प्रतिरोध के स्वरों को समायोजित करने की दिशा में अभी और काम करना बाकी है.















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