Wednesday, 15 May 2019

ज्ञानेंद्रपति की कविता : बनारस में, मलदहिया चौराहे पर

बनारस में, मलदहिया चौराहे पर
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बनारस में, मलदहिया चौराहे पर
चैराहे पर के यातायात-द्वीप में खड़ी
लौह-पुरुष की आदमकद धातुई प्रतिमा के गले में पड़ी
गेंदे के फूलों की माला
बदली जाती है रोज, जी हाँ
लेकिन वह जरा जल्द ही मुरझाती है रोज के रोज़
क्या केवल लौह-पुरुष के दिगन्त-व्यापी प्रताप के अन्तस्ताप से
कि लोक-व्यथा से भी
लौह-पुरुष थे कि नहीं पता नहीं, लोक-पुरुष तो बेशक थे पटेल-
सरदारवल्लभभाई पटेल
प्रथम गृहमन्त्री आजाद भारत के
एक टूटे हुए देश को सँभालना था जिन्हें
खूनी दंगों को रोकना था
हठीली रियासतों को देश के रक्त-जल में मिलाना था
एक था इकलौता लक्ष्य
टूटन से पिराते उन दिनों में
उन्हें निर्णायक होना था
निर्माता होना था

इन दिनों, जब से
गाँव-गाँव से
तनिक नाटकीय ढंग से
कृषि-औजारों के लोहे का अंशदान
इकट्ठा करने की बात चली है
गुजरात में बनने वाली
दुनिया में सबसे ऊँची साबित होने वाली
किसानों के उस अनन्य हितू की प्रतिमा के लिए
कि जिसकी ऊँचाई के लिए अक्सर कहा जाता है सगर्व
अमरीका में की लिबर्टी की प्रतिमा को छोटलाने वाली
भला स्वतन्त्रता की मशाल-भुज प्रतिमा को
छोटी क्यों करना चाहेगी प्रतिमा पटेल की
आखिर वह एक स्वतन्त्रता के उपासक की प्रतिमा है
जानती है बखूबी, मलदहिया चैराहे पर
यातायात-द्धीप के गोलम्बर-बीच खड़ी
आजानुबाहु पटेल-प्रतिमा
सारा खेल वह खूब समझती है
रातों की निस्तब्धता में कान लगा कर सुनती है
अपने खेतों से खदेड़े जाते
लालची पूँजी के नृशंस हाथों असमान युद्ध में असमय खेत आते
भारतीय किसानों के बेघर से उठने वाला
अनसुना रहने वाला
टुअर विलाप
इसीलिए, लगता है, गम और गुस्से से
इधर तनिक उत्तप्त रहने लगा है लहू
इस प्रतिमा का
गले गेंदे के फूलों की माला
कुछ और जल्दी मुरझाने लगी है इन दिनों
बीतते माघ में भी

हालाँकि जानती है बखूबी
यह भी, यह गरिमामयी पटेल-प्रतिमा मलदहिया चैराहे पर की
कि जब भी बनेगी
वह महामूर्ति, गुजरात में
अपना आकाशचुम्बी मस्तक उठाये
भले दे विमानों को चेतावनी
राहगीर पक्षियों के सुस्ताने के लिए
पेश करेगी अपना माथा निरहंकार उदार!
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