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अब मेरे पास क्या बचा है कोलकाता
अब मेरे पास क्या बचा है कोलकाता
जिस पर तुम हक़ जताओगे !
मेरी आँखें थी
वो तुमने एक नीलकंठ पर जड़ दी
मेरे कपोल रगड़ दिए
रक्तसिमूलों की देह पर
ग्रीवा पर छाप छोड़ दी अपनी उँगलियों की
जब खींचते थे अशोक की छाँह में
कहा था .. लवों पर रहने दो सूर्य का प्रखर ताप
मगर उसे तुमने भिगो दिया
दुकूल संग टसकती चैत की अपराह्न
चुम्बनों तक को नहीं छोड़ा तुमने
वो मेरी काया में जीवन के एकमात्र लक्षण थे
उसे क्यों दे आये
बाउल गाते मटमैले दान पात्रों में
अब वह क्यों आएगा मेरे पास लौट कर !
कोलकाता अब तुम प्रेम करो मुझे
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व के एवज में
उससे भी बहुत ज्यादा
मेरी तरह टूट के !
ज्योति शोभा
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पतले टाट के परदे से आवाज़ आती थी -
वह कह रही है लम्बे बालों वाले प्रेमी से चिपटे हुए
चलो भाग निकलते हैं बंगाल से
रहेंगे दूर जंगलों में
जहाँ नदी को प्यास नहीं लगती है
जहाँ आग के लिए लोग अब भी पत्थर नहीं रगड़ते होंगे पत्थर से
जहाँ कबूतरों को साक्षी नहीं बनाते होंगे
जलते चमड़े और बहते खून के
नहीं छपती हो न छपे तुम्हारी कविताएँ
भाषा परिषद् नहीं होगा तो भी पतली पन्नी में बचे रहेंगे छंद
चिनिया बादाम बचा रहेगा
यहाँ नहीं तो सुदूर दक्षिण के किसी पेड़ पर
जरा फीका और कसैला
किन्तु डरेंगे नहीं दाँतों के बीच रखते
सच है बंगाल ही पढ़ता था ऐसे डूब के कविताएँ
और बंगाल ही देखता है उन्हें जलते हुए
क्या पता आज विद्यासागर को तोड़ा है
कल ठाकुर को गिरा देंगे
फिर तुम्हें प्यार करते हुए किसके नाम की कसम देगी मेरी उँगलियां
किसके नाम से तिरेंगे श्याम नभ पर
रूखे केशों के गुच्छे।
ज्योति शोभा
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