Wednesday 15 May 2019

अरुण शीतांश की कविता दिन

दिन
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यह कैसा दिन है
कैसा मौसम है
और कैसी बरसात है
हम तमाम मौसम में तमाम तरह की बातें करते रहते हैं

हम गांव में रहकर
शहर में रहकर
कस्बे में रहकर
महानगर में रहकर
विदेश में रहकर
विभिन्न तरह की बातें करते रहते हैं

हम जो शुरू में होते हैं
वह अंत में नहीं रहते
हम अंत हो जाते हैं
हम शुरू के अंत नहीं होते

अंत के शुरू होने में देर नहीं लगती
हम फूल की तरह खिलते हैं
और फूल की तरह ही मुरझा जाते हैं
हम बादल की तरह घिर आते हैं
हम बहुत दूर तक जाने की सोचते हैं
जहां बकरियों का झुंड हो
पक्षियों का कलरव हो
खेतों में हरी - भरी फसलें हों
किसान के चेहरे खिले हुए हों
हम एक ऐसे नितांत अकेलेपन में बातें करते हों
जहां पेड़ की पत्तियां किसी बूढ़ी मां की झूलनी की तरह हिलती रहती हों

हम उस नितांत अकेलेपन में भी दौड़ते,हांफते ,हंसते और मुस्कुराते भागते जाते हैं

हमें ऐसी दुनिया की तलाश हैं
जहां बादल से लटकी हुई बूंदें हों
जो कभी भी बरस सकती हों
हम पेड़ के पत्तों पर अटकी हुई बूंद की तरह चमकीले दिखाई दे रहे हों

हम ओस की बूंद की छाया में बैठकर किसी गरीब की झोपड़ी पर बातें कर रहे हों

वैसा भारत का गांव हाई टेक्नोलॉजी और साइबर जोन युक्त
तमाम सुविधाओं से लैस
हमारा जीवन क्षेत्र
पानी के अभाव में जवानी खो रहा हो

वैसे में कौन सी लड़की
किसी युवा से शादी कर सकती है
ना ट्विटर पर
न फेसबुक पर
न क्वेरा पर
या किसी सोशल साइट पर ....
हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं
जहां मौत का कुंआ है
और धुआं है

अरुण शीतांश

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