Wednesday, 29 September 2021

बेगूसराय के मालिक,दादा,कम्पनी,भगवान,तस्करसम्राट उर्फ कामदेव सिंह - प्रेम कुमार

बेगूसराय के मालिक,दादा,कम्पनी,भगवान,तस्कर
सम्राट उर्फ कामदेव सिंह.

नब्बे के दशक में कोलंबिया के सबसे बड़े ड्रग्स के स्मगलर पाब्लो एस्कोबार के धंधे का सूत्रवाक्य था  Plata o Plomo(चांदी या सीसा) मतलब पैसा या गोली शायद उसे यह पता भी नहीं रहा होगा कि उससे बीस साल पहले 1970 के दशक में ही बिहार के बेगूसराय में कामदेव सिंह नामक एक भूप ने इसी सूत्र पर उत्तर भारत का सबसे बड़ा स्मगलिंग का साम्राज्य खड़ा किया था.
जिसके संपर्क सीधे प्रधानमंत्री से मुख्यमंत्री तक थे और वो अपने समय में बिहार का राजनीतिक रुप से सबसे प्रभावशाली बाहुबली माना जाता था.

इंडिया टुडे के पत्रकार फरजंद अहमद ने कामदेव सिंह के बारे में लिखा था कि "उसकी हनक इतनी थी कि वह जिसे चाहते उसके उपर हाथ रखकर माननीय विधायक बनवा सकते थे वह अगर चाहते तो एक चूहे को भी विधानसभा में कानून बनाने के लिए विधायक बनवा कर भिजवा सकते थे."

बेगूसराय को उसकी अनोखी पहचान देने का जनक कामदेव सिंह को ही निर्विवाद रुप से माना जा सकता है.
कामदेव सिंह 1930 में मटिहानी के गंगा दियारा में स्थित नयागांव स्थानीय बोली में लावागाँव में पैदा हुए थे. एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे कामदेव सिंह ने पिता के साथ बैलगाड़ी चलाने से शुरुआत की कहते हैं तत्कालीन मुँगेर जिले में स्थित वर्तमान बेगूसराय के चट्टी बाजार में पल्लेदारी का भी उन्होंने काम किया देर सबेर डकैतों के संपर्क में आए और वहाँ से होते हुए गाँजे की स्मगलिंग के बेताज बादशाह बन बैठे.
उनका नाम गाँजा, इलेक्ट्रॉनिक सामान, स्टील से लेकर यूरेनियम तक की तस्करी में आया था. एक बार पूर्णिया के जोगबनी से यूरेनियम बरामद किया गया जिसकी गहराई से जाँच के बाद यह सामने आया कि वो 'कम्पनी' का था.
कम्पनी मतलब कामदेव सिंह का गिरोह तब दाऊद शायद कच्छे में ही घूम रहा होगा जिसके नाम पर सिनेमा वालों ने कम्पनी शब्द को उपलब्धि के तौर पर बेचा.
कहते हैं उनके साथ एक से डेढ हजार तक लोगों का closely knit समूह था जिसके सदस्य आपस में एक दूसरे को कम्पनी कह के संबोधित करते थे.अप्रत्यक्ष रुप में उनके लिए काम करने वालों की गिनती नहीं थी.
हमने भी अपने लड़कपन में बेगूसराय में लोगों को एक दूसरे को "कि हो कंपनी की हालचाल छौ" कह कर गौरवान्वित होते देखा है.
कम्पनी के पास कारों,ट्रकों,मैटाडोर जैसी गाड़ियों का काफिला था साथ ही कम्पनी के पास दुनाली,बंदूक, राइफल, स्टेनगन जैसे हथियारों और रंगदारों की फौज थी.
सुनने में आता था कि बिहार और नेपाल के बॉर्डर पर कई गांव उनके लोगों से भरे पड़े थे जो सिर पर ही गाँजा ढोकर बॉर्डर पार करा कर गोदाम तक लाते गोदाम में बाकी प्रतिबंधित सामानों को भी जमा किया जाता रहता था. फिर वहाँ से ट्रक द्वारा ये सामान सीधे कलकत्ता तक ले जाया जाता था और वहाँ से आगे. 
ट्रक के सामने उपर बने बक्से में उनके लोग बंदूक और नोट लेकर बैठे होते थे संयोगवश रोके जाने पर रुपये या गोली दोनों में एक के दम पर मामला सलट लिया जाता था.हलांकि ऐसा होता कम था क्योंकि कामदेव सिंह की पैठ प्रशासन और पुलिस में सरकार से ज्यादा थी एक अनुमान के अनुसार तब सैकड़ों सरकारी अधिकारी कर्मचारी उनके लिए pay roll पर काम करते थे. सरकारी तनख्वाह से ज्यादा और पहले हरेक के पास कम्पनी का लिफाफा महीने की पहली तारीख को पँहुच जाता था.
बिहार विधानसभा की एक समिति ने अपनी 1974 की रिपोर्ट में कहा था,
"सरकार के विभाग एक दूसरे के खिलाफ काम करते थे पुलिस कामदेव गिरोह को अगर खत्म करना चाहती तो दूसरे कई लोग और विभाग उसे मजबूत करने में लगे थे."
बिहार,नेपाल, उत्तर प्रदेश, बंगाल, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक उनका आपराधिक साम्राज्य फैला हुआ था. उनके outpost विराटनगर, काठमांडू, कलकत्ता, जयपुर और मुंबई में बने हुए थे.मुंबई अंडरवर्ल्ड में उनकी गहरी पैठ थी.
कहा जाता है उन्होंने अपने जीवन में एक सीनियर ब्यूरोक्रेट सहित सौ लोगों की हत्या कराई थी. उनके आपराधिक साम्राज्य के खिलाफ खड़े हुए कस्टम कलेक्टर एस एन दासगुप्ता की जयपुर में हत्या कर दी गई थी.
सरकारी अधिकारी से नेता जो उनके साथ आया उसकी किस्मत चमकी खिलाफ गया तो खत्म हुआ.

कम्युनिस्टों के खिलाफ उनकी नफरत का सानी नहीं था कहा जाता है कि सिर्फ बेगूसराय में कामदेव सिंह ने 40 के करीब कम्युनिस्ट लोगों की हत्या कराई थी सत्तर के दशक के पहले से उनके समय से ही बेगूसराय में वर्चस्व के लिए काँग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच खूनी खेल शुरु हुआ था जिसमें एक पीढी के सैकड़ों नौजवान बेगूसराय जिले में मारे गए.

1970 के दशक में बिहार में काँग्रेस की सरकार थी और सरकार में कामदेव सिंह के लिए काम करने वाले और उनसे जुड़े लोगों की गिनती निश्चित नहीं की जा सकती थी.

दूसरी तरफ कामदेव सिंह अपने इलाके के गरीब लोगों के लिए भगवान का रुतबा रखते थे कहा जाता है कि हर साल सौ गरीब लड़कियों की शादी अपने खर्चे पर कराते थे.हारी बीमारी, दुर्घटना, आपदा झेल रहे अपने इलाके और उनसे जुड़े लोगों के लिए वो पैसा पानी की तरह बहाते थे इसी वजह से अपने इलाके के लोगों के लिए वो रॉबिनहुडीय आभामंडल रखते थे.
लोगों का हुजूम और गांव के गांव उनके लिए स्लीपर सेल के रुप में काम करते थे. 
यही कारण है कि वो अपने मरने तक येति की तरह एक अदृश्य शक्ति बने रहे. जीते जी एक ही बार गिरफ्तार हुए वो भी नेपाल में और वहीं नेपाल सरकार से डील कर निकल भी गए.

क्रमशः

(उनकी मौत के समय मैं नौ दस बरस का था घर में रविवार, दिनमान,माया जैसी पत्रिकाएं बड़े भाई लगातार लाते थे बाकी सारे संबंध और जीवन बेगूसराय से ही जुड़े हैं सो इनके बारे में हक से लिखना सामान्य बात है.)

सम्राट के मौत की दंतकथा: प्रेम कुमार

सम्राट के मौत की दंतकथा- प्रेम कुमार

मार्च 1995 में हुए विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद सम्राट के जलवे और गतिविधियों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा था,वे पहले की ही भांति अपनी पसंदीदा सवारी मारुति वैन पर 47 के साथ पूरे बिहार में दनदनाते घूमते और अपने बेतहाशा बढ़ चुके रंगदारी के साम्राज्य की देखरेख करते थे. 
लेकिन उन्हें इस बात का थोड़ा अंदाजा भी हो गया था कि नए निजाम के मसीहा लालूजी की हुक्मउदूली के बाद उनके लिए आगे आने वाला समय कठिन होता जाने वाला था. 

इसी वजह से उस दौर के मुजफ्फरपुर में भूमिहार रंगदारों के बरक्स उभरे पिछड़ों के खेमे के रंगदार बृजबिहारी प्रसाद से उन्होंने हाथ मिला लिया था. 
इसका एक कारण यह भी था कि मिनी नरेश की हत्या में चंद्रेश्वर सिंह के साथ मुजफ्फरपुर के छोटन शुक्ला भी शामिल थे जो चंद्रेश्वर सिंह की हत्या के बाद मुजफ्फरपुर में बेगूसराय के रंगदारों की खिलाफत वाले गुट का नेतृत्व कर रहे थे ऐसे में दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाला भाव भी था.
दूसरे बृजबिहारी प्रसाद से लालू जी की करीबी छुपी बात नहीं थी,कहा जाता है कि बृजबिहारी प्रसाद के द्वारा सम्राट ने लालूजी तक एक पुल बनाने की कोशिश भी की थी. 

चूंकि लालूजी उस समय अपने उठान के दौर में थे सो उनके लिए भी अपनी इमेज को बूस्ट करने के लिए तत्कालीन बिहार के सबसे बड़े भूमिहार बाहुबली को गिराना ज्यादा मुफीद था क्योंकि ऐसा होने पर मैसेज जरा लाऊड एंड क्लियर होता सो उन्होंने बृजबिहारी की पेशकश ठुकराते हुए शायद कहा था,न हो एकरा त जाहीं के पड़ी.

इन सूरतेहाल में भी सम्राट अपने रेलवे के गोरखपुर से लेकर बंगाल तक के ठेकों को मैनेज करते हुए दनदनाते फिर रहे थे. 
बृजबिहारी द्वारा भेजे गए अपने फीलर पर नकारात्मक उत्तर के बावजूद शायद उनका यकीन था कि अपने 47 के जखीरे के दम पर वो पाँच साल निकाल ले जाएंगे और फिर 2000 के विधानसभा चुनावों में कुछ खेल किया जा सकता है सो उन्होंने अपने आप पर कोई खास रिस्ट्रीक्शन नहीं लगाया ये अतिआत्मविश्वास ही रहा होगा.

ऐसे में ही मई 1995 में रेलवे के सोनपुर डिवीजन में एक बड़ा टेंडर होने वाला था जिसे मैनेज करने वो अपने दल बल के साथ गए.

उसी दौर में हाजीपुर के रामा सिंह भी खासे बाहुबली का रुतबा हासिल कर चुके थे.सम्राट और रामा सिंह में कहा जाता है अच्छी दोस्ती थी लेकिन रामा सिंह सम्राट के साए से हटकर कुछ ज्यादा बड़ा खेलना चाहते थे और ये भी कहा जाता है कि लालूजी के अदृश्य टहोके ने भी रामासिंह के पीठ पर जलन पैदा कर रखी थी सो रामासिंह ने सम्राट के सोनपुर आने की खबर सत्ता को लीक कर एक लीक से दो निशाने साध लिए.

इसी परिदृश्य में 5 मई 1995 को सम्राट अपने दलबल सहित हाजीपुर इंडस्ट्रियल एरिया की अपनी बैठकी से मारुति वैन में निकलते हुए दलबल सहित घेर लिए गए सामने रिवाल्वर, पिस्टल और थ्री नॉट थ्री राइफल से लैस पुलिस जीप अड़ी थी.
थोड़ी देर तक आँखों में आँखें डालने वाले रोमांटिसिज्म के बाद मारुति वैन के अंदर से ऑटोमेटिक राइफल, कारबाइन और 47 से फायरिंग शुरु कर दी गई.
सम्राट के काफिले की खासियत ये कही जाती थी कि वो गोलियां चलाने में कतई कंजूसी नहीं बरतते थे सो थोड़े ही समय में वैन निकाल लेने में कोई खास परेशानी उन्हें नहीं हुई.
अब बिहार पुलिस की जीप पीछे और आगे फायरिंग करती मारुति वैन हाजीपुर के रजौली के पास छितरौरा गांव तक आ पँहुची यहाँ वैन बंद हो जाने के कारण सब उतर कर भागने लगे लेकिन फायरिंग बेतहाशा करते रहे उसमें भी 47 सबसे ज्यादा प्रयुक्त हो रही थी सो चार पांच गांव वालों को भी गोली लग गई जिनमें एक की मौत हो गई.
 ऐसे में गांववालों का मॉब भी इनके पीछे लग लिया और पुलिस तो पीछे थी ही. भागाभागी के दौरान बचने के लिए सब एक झोपड़ी में घुस गए और चूंकि अंदर से लगातार फायरिंग कर ही रहे थे सो गांववालों ने झोंपड़ी में आग लगा दी और इस तरह झोंपड़ी के अंदर लोग जल कर मर गए काफी देर बाद पुलिस ने स्थिर किया कि मरने वालों में सम्राट भी थे.

5 मई 1995 के बारह बजे दिन से शुरु हुआ यह खेल चार साढ़े चार बजे तक खत्म हुआ.
गौरतलब है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक व्यक्ति पुलिस के हाथ लगा बताया जाता है और एक भागने में सफल रहा जो बहुत दिनों तक बेगूसराय की धरती पर जिंदा रहा था और सम्राट सहित तीन लोग मारे गए थे.

हम जैसे लोग जो 1995 में बीए पास कर चुके थे ने तब से सम्राट की मौत का यही वर्सन बेगूसराय की अनेक बैठकियों में सुना.

यूट्यूब आने के बाद के दौर में हमने शशिभूषण जी जो उस समय इंस्पेक्टर थे के माथे सम्राट को मारने का सेहरा सजाए जाते देखा.
उनका एक इंटरव्यू बिहार के  स्वनामधन्य तथाकथित एक बड़े पत्रकार द्वारा लिया जाता देखा जिसमें हम जैसे मोटी बुद्धि वालों को भी ये लगातार अहसास होता रहा कि पत्रकार महोदय इंस्पेक्टर साब से ज्यादा उत्साहित हैं और उनके आगे आगे चूना गिराने वाले की भूमिका निभा रहे हैं जिसपर इंस्पेक्टर साब को इंटरव्यू के दौरान चलना है.

बाकी सम्राट के घरवालों ने बॉडी क्लेम की थी उनका भी यही मानना था कि शरीर तो बुरी तरह झुलसा हुआ था वो जल कर मरे उन्हें न अपराधी मार पाए न पुलिस.

मार्च 1995 से 5 मई 1995 के बीच ही पटकथा लिखी गई,मंचन भी हुआ और पर्दा गिर भी गया.

बकिए सत्ता सरकार तो चमत्कारी चीज होती है वो तो सरंग में भी सीढी बाँधने का टेंडर निकाल कर उसे पूरा कर देने वाले ठेकेदार को पेमेंट भी कर सकती है.

सम्राट की मौत को सोचते हुए अँग्रेजी राज में शेर का शिकार कर उसके शरीर के पीछे ऊँची कुर्सियों पर बैठे ढ़ेर सारे कुलीन दावेदारों के चेहरे दिमाग में कौंध जाते हैं जबकि हाथी पर हौदे में सुरक्षित बैठे इन कुलीनों के बरक्स जंगल की जमीन पर दौड़ दौड़ कर हांका लगाने, भाला चलाने वाले साधारण लोग फ्रेम में कहीं दूर दूर तक नजर नहीं आते.

सनद रहे की उस जमाने में एके 47 का पूर्ण उदारता से प्रयोग कर रहे बिहार के सबसे बड़े डॉन और रंगदारों से चार घंटे तक चली मुठभेड़ में शायद एक भी पुलिसकर्मी हलाक नहीं हुआ था.

ये मेरे द्वारा बेगूसराय की तरफ मुँह कर के देखा और जीया गया सच है इससे सहमति बिल्कुल जरुरी नहीं पर प्रतिक्रिया देते हुए संयम रखना बहुत जरुरी है.

#सम्राटकथा7

- प्रेम कुमार

सम्राट से राजनेता तक का अपशकुनी सफर- प्रेम कुमार

सम्राट से राजनेता तक का अपशकुनी सफर.

सम्राट बेगूसराय में उस दौर की पैदाइश थे जब यहाँ की राजनीति काँग्रेस वर्सेस कम्युनिस्ट के इर्दगिर्द चलनेवाला खूनी खेल बनी हुई थी.
उनका परिवार तो कहा जाता है कि कम्युनिस्ट समर्थक था लेकिन सम्राट खुद काँग्रेस के प्रति झुकाव रखते थे.

अपने जलवे के उठान के समय सम्राट तत्कालीन बिहार की लगभग आठ से नौ जिलों के चुनाव को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करने की कुव्वत रखते थे और अप्रत्यक्ष तौर पर तो वर्तमान झारखंड तक गहराई से चुनाव की दिशा बदल देते थे.

बेगूसराय जेलकांड में काँग्रेस के बड़े बाहुबली किशोर पहलवान की हत्या के बाद काँग्रेस के लिए सम्राट ही तारणहार थे जो तत्कालीन कम्युनिस्ट खेमे में गोलबंद हुए ढेर सारे रंगदारों को अकेले संतुलित कर पा रहे थे उनका होना ही विपक्षी खेमे की रीढ़ में झुरझुरी पैदा करने के लिए काफी था.

मुजफ्फरपुर के काँग्रेसी नेता हेमंत शाही से सम्राट के बड़े गहरे रिश्ते थे.
सम्राट काँग्रेस के लिए चुनाव में सारे धतकरम कर रहे थे और उनके दम पर बेगूसराय,समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, हाजीपुर, खगड़िया, पटना, नवादा, लखीसराय से लेकर कई सारे जिले काँग्रेसी गढ़ बने हुए थे ऐसे में उनकी महत्ता स्वयंसिद्ध थी.
रंगदारी के साथ उनकी रॉबिनहुडीय छवि की वजह से भी उनके समर्थकों की एक विशाल संख्या थी.

गौरतलब है कि 1990 में लालू यादव जी के सामाजिक न्याय का युग बिहार में शुरु हो गया था फलतः बिहार में भूमिहार और राजपूत जैसी जातियों के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ पिछड़ी जातियों की प्रतिसंतुलनकारी प्रक्रिया पूरे जोर पर थी जिसे सत्ता का समर्थन स्वाभाविक ही था क्योंकि नई सत्ता शक्तियों को भी सभी क्षेत्र में अपने लोग तो चाहिए ही थे.

ऐसे में ही 28 मार्च 1992 को गोरौल में अंचलाधिकारी के कार्यालय पर विधायक व काँग्रेसी नेता हेमंत शाही की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई.
हेमंत शाही की हत्या में नामजद जयमंगल राय को कुछ ही दिनों बाद लालूजी ने भरी सभा में सामाजिक कार्यकर्ता बताया,मतलब आने वाले भविष्य की आहट समझने का वक्त आ चुका था.

1993-94 के आसपास सम्राट की शादी के बाद उन्होंने धीरे धीरे राजनीति के टूल बने रहने की बजाय खुल कर खुद ही राजनीति में आने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरु कर दिया था.
परिस्थितियाँ भी 360 डिग्री पर घूम चुकी थीं.
लालूजी के साथ गठबंधन के बाद 1990 के चुनावों में ही कम्युनिस्ट पार्टी बेगूसराय की सातों सीटें जीत चुकी थी फलतः बेगूसराय में कम्युनिस्टों का मनोबल सातवें आसमान पर था और उनसे जुड़े रंगदार आसमानी सुरक्षा भी महसूस कर रहे थे.

कहा जाता है कि लालूजी को तत्कालीन बिहार में सम्राट का प्रभाव भी बड़े गहरे तक खटक रहा था,वे बाहुबली चाहते तो थे लेकिन खुद का गढ़ा बनाया हुआ.
सो इसी दौर में गुप्तेश्वर पांडे बेगूसराय के एसपी बना कर भेजे गए जिले में 42 एनकाउंटर करने के बावजूद वो सम्राट की छाया को भी छू न पाए इसी से तब भी सम्राट के जलवे का अंदाजा लगाया जा सकता है.

ऐसे में ही तत्कालीन Telegraph अखबार में 1994 के अंत के आसपास सम्राट का साक्षात्कार छपा जिसमें उन्होंने कहा था,

"नेता हमारी मदद से बूथ कैप्चर कराते और कमजोरों को डराते हैं लेकिन जीतने के बाद उन्हें सामाजिक सम्मान और सत्ता मिल जाती है उसे भोगते हुए भी वो अलोकप्रिय ही रह जाते हैं और फिर अगले चुनाव में हमारी ही शरण में आते हैं जबकि हम क्रिमिनल के तौर पर ही ट्रीट किए जाते हैं.
हम क्यों उनकी मदद करें जब हम खुद ही चुनाव लड़ कर वही हथियार अपने लिए अपना कर जीतने के बाद एम एल ए ,एम पी बनकर सामाजिक सम्मान, सत्ता इंजॉय करते हुए उनसे बेहतर काम कर सकते हैं.
इसलिए मैंने राजनीतिज्ञों को मदद देना बंद कर के खुद ही चुनाव लड़ने का मन बनाया है."

ऐसा माना जा सकता है कि लालूजी की मर्जी के बगैर ऐसा बाहुबली सर उठा रहा था जो सीधे राजनीति में प्रवेश चाह रहा था. बाहुबली से विधायक बनने का कायदे से सूत्रपात सम्राट ने ही कर दिया था ऐसे में इस नवप्रवर्तन को परंपरागत सत्ता संस्थान कैसे बर्दाश्त करती.

बेगूसराय में तो वामपंथियों ने लालूजी के साथ गठबंधन में पूरी फील्डिंग सेट कर रखी थी और 90 के चुनाव में ही सातों सीट हथिया लिया था.

ऐसे में 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों में सम्राट ने मुजफ्फरपुर के कुढ़नी विधानसभा सीट का रुख किया जहाँ उनकी ससुराल भी थी. 
तत्कालीन अगड़ों की राजनीति के नए उभरे हीरो आनंद मोहन सिंह ने अपनी नई बनाई बिहार पीपुल्स पार्टी से उन्हें टिकट का वादा भी किया लेकिन कहा जाता है ऐन वक्त पर लालूजी के अदृश्य टहोके से पीठ दिखा मुकर गए.

सम्राट ने कहा जाता है कि ऐलान किया पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं है.
सो मार्च 1995 के विधानसभा चुनावों में बेगूसराय के सम्राट मुजफ्फरपुर जिले की कुढ़नी सीट से निर्दलीय ही अपने मूल नाम अशोक शर्मा के साथ चुनाव में उतरे.
उस इलाके के लोगों का भी कहना है कि परंपरागत राजनेताओं की तुलना में ज्यादा संभावनाएँ उनके बात व्यवहार में नजर आती थी.
गरीबों के प्रति पैसा बहा देने वाली प्रवृत्ति के साथ ही युवाओं को चुंबक की तरह आकर्षित करने का गुण शायद उनमें जन्मजात था.

लेकिन चुनावों के परिणाम के बाद निर्दलीय अशोक शर्मा उर्फ सम्राट  25124 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर थे और लालूजी की जनता दल के बसावन प्रसाद भगत 56604 वोटों के साथ जीते.

चुनाव के परिणाम खतरे की घंटी के साथ ही आए,कोप अब सम्राट को प्रत्यक्ष तौर पर झेलना था क्योंकि नए निजाम के मसीहा की सरेआम हुक्मउदूली हो चुकी थी.

क्रमशः

#सम्राटकथा6

सम्राट इश्क से शादी तक :प्रेम कुमार

सम्राट इश्क से शादी तक.

अशोक शर्मा से सम्राट बनने के सफर में उनका पारिवारिक जीवन जैसा जो भी कुछ था वो करीब करीब पूरी तरह खत्म सा ही हो गया था,परिवार से नाममात्र का संपर्क रहता था.
सम्राट के लिए रंगदारी पैशन थी सो उनके सहयोगियों और मित्रों के बीच ही उनके उस जीवन का पूरा समय गुजरता था.

उन्हें किसी भी चीज के बारे में इतमीनान से पूरी तफसील से योजना बनाने और फ्रंट से लीड कर के बिल्कुल टू द प्वाइंट उसे क्रियान्वित करने का जुनून सा था.

सम्राट बिल्कुल आधुनिक वेशभूषा रखने वाले अपने समय के बड़े सजीले से नौजवान थे,कहते हैं उनसे मिलने और बात करनेवाले को कतई यकीन नहीं होता था कि वही उस समय के बिहार के सबसे बड़े डॉन थे. 

मेरे बचपन का जिगरी दोस्त जो मुजफ्फरपुर में रहता था और उन्हें बहुत प्रिय था के साथ मैं जब पहली बार 92-93 के लगभग एल एस कॉलेज के न्यू हॉस्टल में उनसे मिला था तो उन्होंने सीधे पूछा 
'काहे भेंट करयले चाहय रहीं हमरा सै' 
मेरे थोड़ा झिझकने पर उन्होंने जो कहा उसका लब्बोलुआब यही था कि बढ़िया घर से हो बाहर पढ़ते हो जाओ पढ़ो लिखो इन सबसे जितना दूर रहोगे उतना ही बेहतर जीवन होगा.
इस आधे घंटे की मुलाकात में पहली और आखिरी बार ए के 47 को हाथ में लेकर देखने के रोमांच के साथ उनका सजीलापन आज भी मेरी आँखों में जीवंत है एक पल के लिए भी लगा ही नहीं कि वो इतने बड़े क्रिमिनल थे.

1992-93 के आसपास ही कहते हैं सम्राट को प्यार हुआ चूंकि वो सामान्य सी जिंदगी तो जीते नहीं थे सो इस बहुत सामान्य सी चीज के बारे में भी बड़ी असामान्य सी थ्योरियाँ कही सुनी जाने लगी थीं.
जबकि बात बस इतनी सी थी कि तत्कालीन पटना के श्रीकृष्णापुरी मुहल्ले में रहने वाले किसी विभाग के एक्जक्यूटिव इंंजीनियर साहब के यहाँ उनका ठेकों के सिलसिले में अक्सर आना जाना था.
इंंजीनियर साहब की पटना वीमेंस कॉलेज में पढ़ रही बेटी की नजरें सम्राट से मिलीं और वो दिल हार बैठीं. 
जाहिर है इंजीनियर साहब विरोध में थे और कहते हैं सम्राट ने भी टालने की भरसक कोशिश की लेकिन कन्या उनपर बुरी तरह रीझ गई थीं.
इंजीनियर साहब मूलतः मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी प्रखंड के चन्द्रहट्टी कमतौल गांव के रहनेवाले थे.कुढ़नी विधानसभा से ही सम्राट ने शादी के बाद 1995 का इलेक्शन भी लड़ा था.

बहरहाल 1994 के शायद फरवरी मार्च के आसपास सम्राट ने उस लड़की (दिव्या) से शादी कर ली.
शादी कुछ बेहद करीबी लोगों के बीच सादे तरीके से हुई और बदले में एक भव्य रिसेप्शन का आयोजन उनके पार्टनर और मित्र रतनसिंह के बेगूसराय तिलरथ स्थित आवास पर हुआ था.
मैं अपने जिगरी दोस्त के साथ वहाँ भी गया था.

उनके रिसेप्शन में मैंनें तत्कालीन बिहार की राजनीति में उनके प्रभाव को साफ साफ महसूस किया था.
 
तिलरथ में रतनसिंह के घर के सामने वाली सड़क पर बरौनी ब्लॉक की तरफ जाने वाली दिशा में लालबत्ती लगी सफेद एंबेसडर कार जो उस समय सत्ता की प्रतीक हुआ करती थी की लाइन लगी थी जो करीब करीब डेढ दो किलोमीटर तक चली गई थी,वैसे ही बेगूसराय शहर की तरफ आने वाली दिशा में वर्तमान जुबिली पंप तक गाड़ियों की वैसी ही रेलपेल थी.

सम्राट लकदक सफेद सूट में सजे रतनसिंह की घर के सबसे उपरी छत पर सामने पोर्टिको वाले हिस्से के उपर रेलिंग के पीछे चार पांच हथियारबंद सहयोगियों से घिरे हाथ हिलाते हुए खड़े थे.
नीचे मेनगेट से घुसते ही उपर खड़े होकर वेव करते सम्राट पर नजर जाती थी लोग कृतार्थ महसूस करते हुए सामने मजबूत रॉड की घेरेबंदी के पीछे बने मंच पर बैठी दुल्हन के सम्मुख पँहुचते रॉड के बीच से हाथ घुसा कर बड़े से टेबल पर नजराने रखते और दाहिनी तरफ बने विशाल पंडाल के अंदर भीड़ में गुम हो जाते.

उस दिन तत्कालीन बिहार और बेगूसराय के राजनीति और प्रशासन के न जाने कितने ही अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को मैंने सम्राट के हाथों की जुंबिश मात्र से कृतकृत महसूस करते हुए भीड़ में गुम हो कर आम हो जाते देखा था.
पार्टी और विचारधारा की सारी बंदिशें टूट गई थीं लोग बस उनकी एक नजर पड़ जाने को ही उपलब्धि मान बाकी के रस्म रिवाज निभा लौट रहे थे.
 
ऐसा करीब चार पाँच घंटों तक तो मैंनें देखा था,अगर कागज कलम ले नोट करने पर आ जाता तो उस दिन तत्कालीन बिहार के VVIP's की who's who की लिस्ट बन जानी थी.

ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि तत्कालीन बेगूसराय, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, खगड़िया, लखीसराय से लेकर अन्य ढ़ेर सारे जिलों में इलेक्शन को वो गहरे तक प्रभावित करने की कुव्वत रखते थे.

सनद रहे की ये लालूजी के उठान का दौर था.

शादी उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई क्योंकि इसके बाद ही उन्होंने एकाएक खुलकर राजनीति में आने का फैसला किया जो उन्हें तो नहीं फला लेकिन उसके बाद अनगिनत लोगों ने क्राइम से पॉलिटिक्स का सफर धूमधाम से तय किया,इस मामले में भी वो ट्रेंडसेटर ही थे.

क्रमशः
#सम्राटकथा5

सम्राट का इकलौता बदला: प्रेम कुमार

सम्राट का इकलौता बदला.

सम्राट शुद्ध रंगदार थे और उनमें बस रंगदारी के लिए ही एक जबरदस्त पैशन था वो किसी अन्याय और दमन से मजबूर हो कर इस लाईन में नहीं आए थे.
सो इस मामले में वो बिल्कुल ईमानदार थे इसी वजह से उन्होंने छुटभैय्यों वाले अपराध की जगह हमेशा उस समय की प्रचलित लीक से हट कर बड़ा सोचा.

इसलिए वो कभी बदला,इंतकाम जैसी बकवाद भी नहीं करते थे उन्होंने अपनी बैठकी में भी इस बारे में कई बार खुल कर कहा था कि शुद्ध बदले की भावना से तो मैंने बस एक ही खून किया चंद्रेश्वर सिंह का.

लेकिन उनके बदले की भावना कितनी इंटेंस थी ये बस इसी से समझा जा सकता है कि साल भर से अपने पास मौजूद ए के 47 का पहली बार प्रयोग उन्होंने खुलकर इसी में किया और ये बिहार पुलिस के फाइलों में इतिहास बन कर दर्ज हो गया क्योंकि ये तत्कालीन लगभग पूरे उत्तर भारत में पहली बार किसी क्रिमिनल एक्टिविटी में 47 का प्रयोग था नहीं तो इसके पहले तक आतंकवादी घटनाओं में ही इस हथियार के प्रयोग किए जाने के समाचार थे.

मुजफ्फरपुर में अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध मे बेगूसराय के रंगदारों का स्वर्ण काल था.
मिनी नरेश एल एस कॉलेज के पी जी ब्वॉयज हॉस्टल पाँच(न्यू हॉस्टल)से अपने रंगदारी का साम्राज्य चलाते थे. चूंकि उनके पहले मोंछू नरेश का जलवा था इसलिए उनके बाद आए नरेश को मिनी नरेश कहा जाने लगा था. 
मिनी नरेश बेगूसराय के रहाटपुर गांव के थे और जबरदस्त रोबीले व्यक्तित्व के धनी आदमी थे. 
हँसी आती है,कई जगह स्वनामधन्य पत्रकारों द्वारा सम्राट को मिनी नरेश का आका कहते या लिखते देखा है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं था.
सम्राट उस समय बेगूसराय से उभरे बिहार के सबसे बड़े डॉन जरुर थे लेकिन मिनी नरेश से उनका रिश्ता 'भैय्यारी' वाला था.
ये शब्द हमारे बेगूसराय में तकरीबन एक उम्र के भाईयों के बीच याराने जैसे रिश्ते के लिए प्रयोग किया जाता है.

सम्राट ने जब मुखिया से दुश्मनी के बाद कुछ समय के लिए बेगूसराय छोड़ा था तो उस दौर में मिनी नरेश के साथ मुजफ्फरपुर के एल एस कॉलेज न्यू हॉस्टल में ही ज्यादातर रहते थे और फिर तो वह हमेशा उनका पसंदीदा अड्डा रहा जो मिनी नरेश की हत्या के बाद ही उखड़ा.

बेगूसराय वालों की रंगदारी के साम्राज्य के विरोध में समानांतर मुजफ्फरपुर के स्थानीय रंगदारों को मोतिहारी से मुजफ्फरपुर के छाता चौक पर आ कर बसे चँद्रेश्वर सिंह ने अपने झंडे के नीचे जमा किया था जिसमें छोटन शुक्ला भी थे.
छोटन,भुटकुन और मुन्ना शुक्ला तीन भाई थे जिनमें अब मुन्ना ही बचे हैं.

न्यू हॉस्टल में तब मिनी नरेश की सरपरस्ती में जबरदस्त सरस्वती पूजा होती थी सो उसी की गहमागहमी का फायदा उठा कर चंद्रेश्वर सिंह ने पूरे दलबल और तैयारी के साथ बमों से जबरदस्त हमला किया और ऐन सरस्वती पूजा के दिन 1989 में मिनी नरेश की हत्या कर दी.

मिनी नरेश का शव बेगूसराय के उनके गांव लाया गया था और सिमरिया में उनका दाह संस्कार हुआ जिसमें सम्राट भी मौजूद थे. सम्राट का उसके बाद भी उनके जिंदा रहने तक मिनी नरेश के परिवार से प्रगाढ़ संबंध बना रहा.

कहते हैं मिनी नरेश की हत्या के एक डेढ़ महीने बाद सम्राट न्यू हॉस्टल गए थे और उनके ही कमरे में चार पांच दिन रुके भी. बताते हैं कि उस समय लड़कों के बीच बैठकियों में वो बार बार दुहराते थे 

'साल पुरयत पुरयत मायर तै देबय'
(साल पूरा होते होते मार तो दूँगा ही)

ठीक 364 दिन बाद शाम को सम्राट मुजफ्फरपुर के छाता चौक स्थित काजीमोहम्मदपुर थाने के बिल्कुल उल्टी  तरफ सौ डेढ़ सौ मीटर दूर मारुति वैन में कारबाईन लेकर बैठे थे और उनके सामने ही थाने के बगल स्थित अपने घर से निकल चँद्रेश्वर सिंह सड़क पर आए भी लेकिन सम्राट बिना गोली चलाए वापस न्यू हॉस्टल चले आए और पूछे जाने पर पहले तो कहा कारबाइन जाम हो गया था सो गोली नहीं चली. 
लेकिन रात की बैठकी में कहा कल सरस्वती पूजा है कल एक साल पूरा होगा सो कल ज्यादे 'धूमधाम' सै मारबय.

अगले रोज 1990 की सरस्वती पूजा के दिन छाता चौक पर फिर उसी जगह सम्राट मारुति वैन में बैठे पर  इस बार ए के 47 लेकर.
बताते हैं उस दिन झुटपुटा सा अँधेरा घिरने तक चँद्रेश्वर सिंह नहीं निकले और सम्राट इंतजार में,अचानक किसी ने वैन के शीशे पर दस्तक दी 'निकललौ' बोलता हुआ आगे बढ़ गया. 
चंद्रेश्वर सिंह ने शायद सिगरेट जलाई थी जिसकी रोशनी में उनका चेहरा चमका और अगले ही पल 47 की तड़तड़ाहट से पूरा इलाका थर्रा गया. 
डर से हड़कंप में काजीमोहम्मदपुर थाने के स्टाफ ने अपने आपको अंदर बंद कर लिया जो सब शांत होने के आधे घंटे बाद बाहर आए.

चँद्रेश्वर सिंह गोलियों से छलनी पड़े थे पोस्टमार्टम में बताया गया लगभग तीस के करीब गोलियां उन्हें मारी गई थीं.
ए के 47 के स्टैंडर्ड मैगजीन में तीस गोलियां ही आतीं हैं मतलब एक बर्स्ट में एक मैगजीन खाली की गई थी.
सरस्वती पूजा की धूम और ए के 47 की धाम में सम्राट का बदला पूरा हुआ.

इसके साथ ही बिहार पुलिस की फाईलों में बिहार में ए के 47 से पहली हत्या भी दर्ज हो गई थी.

क्रमशः
#सम्राटकथा4

बेगूसराय के सम्राट ने गंगा के पानी पर खींची थी अपने साम्राज्य की लकीर. :प्रेम कुमार

बेगूसराय के सम्राट ने गंगा के पानी पर खींची थी अपने साम्राज्य की लकीर.

नब्बे का आधा दशक अशोक सम्राट के जलवे का चरम था.सम्राट शुरु से ही बेगूसराय को अपने लिए अभेद्य दुर्ग के तौर पर बरतते रहे थे और इसी से उन्होंने बेगूसराय के प्राइड को भी जोड़ लिया था.
कहते हैं एक बार अपनी बैठकी में उन्होंने कहा था बेगूसराय मतलब गंगा के उपर बने राजेंद्र पुल से समस्तीपुर जिले के पहले स्थित बेगूसराय के आखिरी गांव रसीदपुर तक,यानि इस बीच के पूरे इलाके पर किसी भी बाहरी के पैर जमाने की तो बात दूर रही हस्तक्षेप भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा मतलब बेगूसराय बेगूसराय वालों के लिए.

इसी लाइन पर चलते हुए सम्राट का आमना सामना मोकामा के सूरजभान सिंह से हुआ.

अस्सी के दशक में मोकामा में छोटे मोटे अपराध से उभरे सूरजभान सिंह ने सबसे पहले अनंत सिंह के बड़े भाई कांग्रेस नेता दिलीप सिंह की सरपरस्ती हासिल की फिर अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत श्याम सुंदर सिंह धीरज के पाले में चले गए.
सूरजभान सिंह से सम्राट के टकराने के कई पुष्ट अपुष्ट कारण बताए जाते हैं.
जैसे मोकामा में हुई सूरजभान सिंह के भाई मोती सिंह की हत्या में सम्राट की सहमति का होना, तत्कालीन बेगूसराय के कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े शूटर और जेलकांड के नामजद अभियुक्त मनोज सिंह से सूरजभान सिंह के नजदीकी रिश्ते.
जबकि टकराव की जड़ में सूरजभान सिंह की अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने की स्वाभाविक इच्छा और दुर्भाग्य से सामने सम्राट जैसे दुर्दम्य व्यक्ति का होना ही था.

तत्कालीन उत्तर बिहार में रिफाइनरी से लेकर रेलवे तक काम करने वाली दो बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनियां बेगूसराय की ही थी. 
पहली रीता कंस्ट्रक्शन जो भाजपा नेता बीहट के राम लखन सिंह की थी और दूसरी कमला कंस्ट्रक्शन जो तिलरथ के रतनसिंह की थी.
सारे भीमकाय ठेकों में इन्हीं दोनों कंपनियों का टकराव होता था.
रतनसिंह के साथ अशोक सम्राट थे सो जाहिर है कमला कंस्ट्रक्शन का डंका बज रहा था ऐसे में रीता कंस्ट्रक्शन वाले रामलखनसिंह ने सूरजभान सिंह को साथ खींचा वहीं सूरजभान भी अपनी उड़ान के लिए मोकामा से ज्यादा बड़ा आकाश ताक रहे थे सो वो भी साथ आए.
बस यहीं से तलवारें खिंचीं जो सम्राट के जीते जी सूरजभान सिंह पर भारी ही पड़ती रही. 
सम्राट ने साफ कर दिया कि बेगूसराय में बाहर से रंगदार आ कर कुछ कर ले जाएँ ये उनके रहते संभव नहीं.
इसी बीच कुछ गुणा गणित बिठाने के चक्कर में बेगूसराय के मधुरापुर गांव में रामी सिंह की हत्या हुई नाम उछला सूरजभान सिंह और सहयोगियों का.

इसके पहले तक सम्राट ने सूरजभान सिंह को छोटे मोटे झटके दे कर ही गंगा के उस पार तक बाँध रखा था अब उन्होंने निर्णायक चोट करने की योजना बनाई.

सम्राट मेरे जानने में विरले ऐसे रंगदार थे जिन्होंने सबसे ज्यादा अपने हाथों पर ही भरोसा किया था और अधिकाँशतः किसी शूटर का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो खुद बेहतरीन शूटर थे.
कहते हैं मोकामा के अपने गांव में भी सूरजभान सिंह सम्राट की वजह से काफी चौकन्ने रहते थे और इस बार तो बात खुली ही थी सो वो भी खूब एहतियात बरत रहे थे.

जबरदस्त रेकी के बाद स्थिर किया गया कि एक नियत समय के आसपास रोज सूरजभान सिंह अपने गांव के सड़क किनारे स्थित एक चाय दुकान पर अमले खसले के साथ जरुर आते हैं,स्थान वही तय हुआ.
कहते हैं सम्राट खुद वेश बदल कर जगह देखने गए और चाय दुकान से ढ़ाई तीन सौ मीटर दूर एक उजाड़ सी झोपड़ी को अपने लिए तय किया चूंकि ए के 47 की इफेक्टिव रेंज तीन से चार सौ मीटर की दूरी तक होती है.
नियत दिन से एक रात पहले सम्राट उस झोपड़ी में छिपकर पोजीशन ले पड़ गए.
ऐसा स्नाइपर मूवीज में देखने को मिलता है और वो अपने समय से ज्यादा स्मार्ट तो थे ही वजह वही खुद पढ़ा लिखा होना और हॉस्टल की सोहबत.
उनके साथ एक व्यक्ति शायद और था या उसे कुछ और दूर लगाया गया था.

नियत दिन जिस समय सूरजभान सिंह अपने अमलों खसलों के साथ चाय दुकान पर आए,कहते हैं शुरुआती पहला फायर सम्राट ने ए के 47 को सेमी ऑटोमेटिक मोड पर रख कर सिर्फ और सिर्फ सूरजभान सिंह पर किया लेकिन गोली उनसे छूती हुई गच्चा देकर निकल गई और हड़कंप मच गया उधर से भी फायरिंग शुरु हो गई.
 तब सम्राट ने ए के 47 को बर्स्ट मोड पर डालकर गोलियों की बारिश कर दी जब गोलियों का गुबार थमा तो सूरजभान सिंह के पैर में गोली लगी पाई गई उनके चचेरे भाई अजय और बेगूसराय के मनोज सिंह गोलियों से छलनी पड़े थे और एक गाय भी गोलियों से छलनी पड़ी थी कहते हैं इसी गाय के बीच में आ जाने की वजह से सूरजभान सिंह बच गए.

हमेशा की तरह सम्राट सही सलामत गंगा पार बेगूसराय पँहुच गए लेकिन उनकी दहशत जरुर पीछे छूट गई.
जबतक सम्राट जिंदा रहे सूरजभान सिंह को मोकामा से बेगूसराय की तरफ बढ़ने नहीं दिया.

विधि का विधान देखिए सम्राट के मरने के बाद वही सूरजभान सिंह भूमिहार होने के नाम पर बेगूसराय के बलिया से इलेक्शन लड़े और जीते क्योंकि तब तक बेगूसराय प्राइड हवा हो चुका था और जातीय प्राइड में सब मुक्ति तलाश रहे थे.

क्रमशः

(बेगूसराय के दुलारपुर गांव के एक धानुक जाति के व्यक्ति जो सम्राट के लंबे समय तक नजदीकी रहे थे और मेरा दिवंगत दोस्त सब उनसे ही जाना,सुना और जिया)
#सम्राटकथा3

कम्युनिस्ट, कन्हैया कुमार, काँग्रेस और बेगूसराय.

कम्युनिस्ट, कन्हैया, काँग्रेस और बेगूसराय.

बेगूसराय के लिए कम्युनिस्ट से काँग्रेस गमन कोई नई घटना नहीं है.

बेगूसराय की राजनीति के भीष्म पितामह माने जाने वाले स्व.भोला सिंह 1967 में वाम समर्थित उम्मीदवार के तौर पर निर्दलीय बेगूसराय विधानसभा का चुनाव जीते और उन्होंने 1972 में सीपीआई की टिकट पर भी बेगूसराय से विधानसभा का चुनाव जीता फिर तत्कालीन कम्युनिस्ट नेताओं और पार्टी से अपने मतभेदों के चलते कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ कर 1977 में काँग्रेस में शामिल हो गए उसके बाद भी लगातार विधायक बने,मंत्री रहे फिर लालू जी के जलवे के समय राजद में गए और अंततः भाजपा में आकर बेगूसराय से साँसदी भी जीते.
आठ बार वो बेगूसराय से विधायकी जीते.
लगभग पचास साल तक भोला सिंह बेगूसराय की राजनीति के केंद्रीय व्यक्तित्व बने रहे.
भोला सिंह संघर्षों में तपे और मँजे हुए विशुद्ध राजनीतिज्ञ थे न कि किसी नामी विश्वविद्यालय का टैग लगा कर टीवी कैमरों के रास्ते लाँच किए गए प्रीमेच्योर धूमकेतूनुमा नेता.

और तब से अब तक सिमरिया की गंगाजी में भी बहुत पानी बह चुका.

जब हमलोग जेएनयू से वास्ता रखते थे तब एक कहावत खूब चलती थी,
"जेएनयू का कम्युनिज्म गंगा ढाबे से शुरु होता है और प्रिया सिनेमा के इर्दगिर्द फैली रंगीनियों में दम तोड़ देता है".
(प्रिया सिनेमा जेएनयू के बिल्कुल पास बसंतकुँज में स्थित एक बेहद पॉश और हाईफाई रंगीनियों में डूबा मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स था)

उसी जेएनयू से उभरे और कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर बेगूसराय से डायरेक्ट साँसदी का चुनाव लड़ और हार चुके कन्हैया कुमार ने अपने ए सी सहित काँग्रेस का दामन थाम लिया है.
अपनी बदहाली से जूझती काँग्रेस को उनमें अपना मुक्तिदाता भले नजर आता हो लेकिन बेगूसराय के लोगों को कम से कम ऐसी कोई गलतफहमी नहीं होगी.
क्योंकि भोला सिंह के समय से लेकर आज तक राजनीति जिले में 360 डिग्री पर घूम चुकी है.

उस समय आजादी के बाद कुछ ही समय बीते थे सो कम्युनिस्टों में भी बदलाव और क्रांति का उफान था जिसमें आधा बेगूसराय उतराता रहता था बाकी का आधा बेगूसराय अपनी जर-जमीन पर कम्युनिस्टों से मँडराने वाले खतरे के मद्देनजर काँग्रेस को सर पर उठाए घूमता था.

उदारीकरण के बाद बीते लंबे अरसे में बाजार और पूँजी के हाहाकारी वेग ने बेगूसराय में भी लोगों का जीवन बदला, प्राथमिकताएँ बदलीं और जर-जमीन पर मँडराने वाले पुराने खतरों को अप्रासंगिक कर दिया.
ऊपर से इन सबों के मिले जुले प्रभाव ने आज बेगूसराय में भी राष्ट्रवाद और धर्म का ऐसा जलवा कायम कर दिया है जिसमें जिले की बहुसंख्यक आबादी आज भगवा में भगवान की ओर ही टकटकी लगाए है.
सो कन्हैया भी भोला सिंह की तरह बरास्ते काँग्रेस जबतक भाजपा में नहीं पँहुचते तबतक भविष्य कोई खास उजला तो नहीं कहा जा सकता है.
देखना दिलचस्प होगा कि ऐसा होता है और होता भी है तो कबतक.

बाकी काँग्रेस उनको अगर डायरेक्ट राष्ट्रीय नेता के तौर पर प्रोजेक्ट कर दे तो ये उनका भाग्य क्योंकि ऐसे में बेगूसराय उनके लिए कोई खास मायने नहीं रखेगा जो उनके लिए ज्यादा माकूल साबित होगा.

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