Wednesday 29 September 2021

सम्राट से राजनेता तक का अपशकुनी सफर- प्रेम कुमार

सम्राट से राजनेता तक का अपशकुनी सफर.

सम्राट बेगूसराय में उस दौर की पैदाइश थे जब यहाँ की राजनीति काँग्रेस वर्सेस कम्युनिस्ट के इर्दगिर्द चलनेवाला खूनी खेल बनी हुई थी.
उनका परिवार तो कहा जाता है कि कम्युनिस्ट समर्थक था लेकिन सम्राट खुद काँग्रेस के प्रति झुकाव रखते थे.

अपने जलवे के उठान के समय सम्राट तत्कालीन बिहार की लगभग आठ से नौ जिलों के चुनाव को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करने की कुव्वत रखते थे और अप्रत्यक्ष तौर पर तो वर्तमान झारखंड तक गहराई से चुनाव की दिशा बदल देते थे.

बेगूसराय जेलकांड में काँग्रेस के बड़े बाहुबली किशोर पहलवान की हत्या के बाद काँग्रेस के लिए सम्राट ही तारणहार थे जो तत्कालीन कम्युनिस्ट खेमे में गोलबंद हुए ढेर सारे रंगदारों को अकेले संतुलित कर पा रहे थे उनका होना ही विपक्षी खेमे की रीढ़ में झुरझुरी पैदा करने के लिए काफी था.

मुजफ्फरपुर के काँग्रेसी नेता हेमंत शाही से सम्राट के बड़े गहरे रिश्ते थे.
सम्राट काँग्रेस के लिए चुनाव में सारे धतकरम कर रहे थे और उनके दम पर बेगूसराय,समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, हाजीपुर, खगड़िया, पटना, नवादा, लखीसराय से लेकर कई सारे जिले काँग्रेसी गढ़ बने हुए थे ऐसे में उनकी महत्ता स्वयंसिद्ध थी.
रंगदारी के साथ उनकी रॉबिनहुडीय छवि की वजह से भी उनके समर्थकों की एक विशाल संख्या थी.

गौरतलब है कि 1990 में लालू यादव जी के सामाजिक न्याय का युग बिहार में शुरु हो गया था फलतः बिहार में भूमिहार और राजपूत जैसी जातियों के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ पिछड़ी जातियों की प्रतिसंतुलनकारी प्रक्रिया पूरे जोर पर थी जिसे सत्ता का समर्थन स्वाभाविक ही था क्योंकि नई सत्ता शक्तियों को भी सभी क्षेत्र में अपने लोग तो चाहिए ही थे.

ऐसे में ही 28 मार्च 1992 को गोरौल में अंचलाधिकारी के कार्यालय पर विधायक व काँग्रेसी नेता हेमंत शाही की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई.
हेमंत शाही की हत्या में नामजद जयमंगल राय को कुछ ही दिनों बाद लालूजी ने भरी सभा में सामाजिक कार्यकर्ता बताया,मतलब आने वाले भविष्य की आहट समझने का वक्त आ चुका था.

1993-94 के आसपास सम्राट की शादी के बाद उन्होंने धीरे धीरे राजनीति के टूल बने रहने की बजाय खुल कर खुद ही राजनीति में आने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरु कर दिया था.
परिस्थितियाँ भी 360 डिग्री पर घूम चुकी थीं.
लालूजी के साथ गठबंधन के बाद 1990 के चुनावों में ही कम्युनिस्ट पार्टी बेगूसराय की सातों सीटें जीत चुकी थी फलतः बेगूसराय में कम्युनिस्टों का मनोबल सातवें आसमान पर था और उनसे जुड़े रंगदार आसमानी सुरक्षा भी महसूस कर रहे थे.

कहा जाता है कि लालूजी को तत्कालीन बिहार में सम्राट का प्रभाव भी बड़े गहरे तक खटक रहा था,वे बाहुबली चाहते तो थे लेकिन खुद का गढ़ा बनाया हुआ.
सो इसी दौर में गुप्तेश्वर पांडे बेगूसराय के एसपी बना कर भेजे गए जिले में 42 एनकाउंटर करने के बावजूद वो सम्राट की छाया को भी छू न पाए इसी से तब भी सम्राट के जलवे का अंदाजा लगाया जा सकता है.

ऐसे में ही तत्कालीन Telegraph अखबार में 1994 के अंत के आसपास सम्राट का साक्षात्कार छपा जिसमें उन्होंने कहा था,

"नेता हमारी मदद से बूथ कैप्चर कराते और कमजोरों को डराते हैं लेकिन जीतने के बाद उन्हें सामाजिक सम्मान और सत्ता मिल जाती है उसे भोगते हुए भी वो अलोकप्रिय ही रह जाते हैं और फिर अगले चुनाव में हमारी ही शरण में आते हैं जबकि हम क्रिमिनल के तौर पर ही ट्रीट किए जाते हैं.
हम क्यों उनकी मदद करें जब हम खुद ही चुनाव लड़ कर वही हथियार अपने लिए अपना कर जीतने के बाद एम एल ए ,एम पी बनकर सामाजिक सम्मान, सत्ता इंजॉय करते हुए उनसे बेहतर काम कर सकते हैं.
इसलिए मैंने राजनीतिज्ञों को मदद देना बंद कर के खुद ही चुनाव लड़ने का मन बनाया है."

ऐसा माना जा सकता है कि लालूजी की मर्जी के बगैर ऐसा बाहुबली सर उठा रहा था जो सीधे राजनीति में प्रवेश चाह रहा था. बाहुबली से विधायक बनने का कायदे से सूत्रपात सम्राट ने ही कर दिया था ऐसे में इस नवप्रवर्तन को परंपरागत सत्ता संस्थान कैसे बर्दाश्त करती.

बेगूसराय में तो वामपंथियों ने लालूजी के साथ गठबंधन में पूरी फील्डिंग सेट कर रखी थी और 90 के चुनाव में ही सातों सीट हथिया लिया था.

ऐसे में 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों में सम्राट ने मुजफ्फरपुर के कुढ़नी विधानसभा सीट का रुख किया जहाँ उनकी ससुराल भी थी. 
तत्कालीन अगड़ों की राजनीति के नए उभरे हीरो आनंद मोहन सिंह ने अपनी नई बनाई बिहार पीपुल्स पार्टी से उन्हें टिकट का वादा भी किया लेकिन कहा जाता है ऐन वक्त पर लालूजी के अदृश्य टहोके से पीठ दिखा मुकर गए.

सम्राट ने कहा जाता है कि ऐलान किया पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं है.
सो मार्च 1995 के विधानसभा चुनावों में बेगूसराय के सम्राट मुजफ्फरपुर जिले की कुढ़नी सीट से निर्दलीय ही अपने मूल नाम अशोक शर्मा के साथ चुनाव में उतरे.
उस इलाके के लोगों का भी कहना है कि परंपरागत राजनेताओं की तुलना में ज्यादा संभावनाएँ उनके बात व्यवहार में नजर आती थी.
गरीबों के प्रति पैसा बहा देने वाली प्रवृत्ति के साथ ही युवाओं को चुंबक की तरह आकर्षित करने का गुण शायद उनमें जन्मजात था.

लेकिन चुनावों के परिणाम के बाद निर्दलीय अशोक शर्मा उर्फ सम्राट  25124 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर थे और लालूजी की जनता दल के बसावन प्रसाद भगत 56604 वोटों के साथ जीते.

चुनाव के परिणाम खतरे की घंटी के साथ ही आए,कोप अब सम्राट को प्रत्यक्ष तौर पर झेलना था क्योंकि नए निजाम के मसीहा की सरेआम हुक्मउदूली हो चुकी थी.

क्रमशः

#सम्राटकथा6

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