कम्युनिस्ट, कन्हैया, काँग्रेस और बेगूसराय.
बेगूसराय के लिए कम्युनिस्ट से काँग्रेस गमन कोई नई घटना नहीं है.
बेगूसराय की राजनीति के भीष्म पितामह माने जाने वाले स्व.भोला सिंह 1967 में वाम समर्थित उम्मीदवार के तौर पर निर्दलीय बेगूसराय विधानसभा का चुनाव जीते और उन्होंने 1972 में सीपीआई की टिकट पर भी बेगूसराय से विधानसभा का चुनाव जीता फिर तत्कालीन कम्युनिस्ट नेताओं और पार्टी से अपने मतभेदों के चलते कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ कर 1977 में काँग्रेस में शामिल हो गए उसके बाद भी लगातार विधायक बने,मंत्री रहे फिर लालू जी के जलवे के समय राजद में गए और अंततः भाजपा में आकर बेगूसराय से साँसदी भी जीते.
आठ बार वो बेगूसराय से विधायकी जीते.
लगभग पचास साल तक भोला सिंह बेगूसराय की राजनीति के केंद्रीय व्यक्तित्व बने रहे.
भोला सिंह संघर्षों में तपे और मँजे हुए विशुद्ध राजनीतिज्ञ थे न कि किसी नामी विश्वविद्यालय का टैग लगा कर टीवी कैमरों के रास्ते लाँच किए गए प्रीमेच्योर धूमकेतूनुमा नेता.
और तब से अब तक सिमरिया की गंगाजी में भी बहुत पानी बह चुका.
जब हमलोग जेएनयू से वास्ता रखते थे तब एक कहावत खूब चलती थी,
"जेएनयू का कम्युनिज्म गंगा ढाबे से शुरु होता है और प्रिया सिनेमा के इर्दगिर्द फैली रंगीनियों में दम तोड़ देता है".
(प्रिया सिनेमा जेएनयू के बिल्कुल पास बसंतकुँज में स्थित एक बेहद पॉश और हाईफाई रंगीनियों में डूबा मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स था)
उसी जेएनयू से उभरे और कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर बेगूसराय से डायरेक्ट साँसदी का चुनाव लड़ और हार चुके कन्हैया कुमार ने अपने ए सी सहित काँग्रेस का दामन थाम लिया है.
अपनी बदहाली से जूझती काँग्रेस को उनमें अपना मुक्तिदाता भले नजर आता हो लेकिन बेगूसराय के लोगों को कम से कम ऐसी कोई गलतफहमी नहीं होगी.
क्योंकि भोला सिंह के समय से लेकर आज तक राजनीति जिले में 360 डिग्री पर घूम चुकी है.
उस समय आजादी के बाद कुछ ही समय बीते थे सो कम्युनिस्टों में भी बदलाव और क्रांति का उफान था जिसमें आधा बेगूसराय उतराता रहता था बाकी का आधा बेगूसराय अपनी जर-जमीन पर कम्युनिस्टों से मँडराने वाले खतरे के मद्देनजर काँग्रेस को सर पर उठाए घूमता था.
उदारीकरण के बाद बीते लंबे अरसे में बाजार और पूँजी के हाहाकारी वेग ने बेगूसराय में भी लोगों का जीवन बदला, प्राथमिकताएँ बदलीं और जर-जमीन पर मँडराने वाले पुराने खतरों को अप्रासंगिक कर दिया.
ऊपर से इन सबों के मिले जुले प्रभाव ने आज बेगूसराय में भी राष्ट्रवाद और धर्म का ऐसा जलवा कायम कर दिया है जिसमें जिले की बहुसंख्यक आबादी आज भगवा में भगवान की ओर ही टकटकी लगाए है.
सो कन्हैया भी भोला सिंह की तरह बरास्ते काँग्रेस जबतक भाजपा में नहीं पँहुचते तबतक भविष्य कोई खास उजला तो नहीं कहा जा सकता है.
देखना दिलचस्प होगा कि ऐसा होता है और होता भी है तो कबतक.
बाकी काँग्रेस उनको अगर डायरेक्ट राष्ट्रीय नेता के तौर पर प्रोजेक्ट कर दे तो ये उनका भाग्य क्योंकि ऐसे में बेगूसराय उनके लिए कोई खास मायने नहीं रखेगा जो उनके लिए ज्यादा माकूल साबित होगा.
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