सम्राट के मौत की दंतकथा- प्रेम कुमार
मार्च 1995 में हुए विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद सम्राट के जलवे और गतिविधियों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा था,वे पहले की ही भांति अपनी पसंदीदा सवारी मारुति वैन पर 47 के साथ पूरे बिहार में दनदनाते घूमते और अपने बेतहाशा बढ़ चुके रंगदारी के साम्राज्य की देखरेख करते थे.
लेकिन उन्हें इस बात का थोड़ा अंदाजा भी हो गया था कि नए निजाम के मसीहा लालूजी की हुक्मउदूली के बाद उनके लिए आगे आने वाला समय कठिन होता जाने वाला था.
इसी वजह से उस दौर के मुजफ्फरपुर में भूमिहार रंगदारों के बरक्स उभरे पिछड़ों के खेमे के रंगदार बृजबिहारी प्रसाद से उन्होंने हाथ मिला लिया था.
इसका एक कारण यह भी था कि मिनी नरेश की हत्या में चंद्रेश्वर सिंह के साथ मुजफ्फरपुर के छोटन शुक्ला भी शामिल थे जो चंद्रेश्वर सिंह की हत्या के बाद मुजफ्फरपुर में बेगूसराय के रंगदारों की खिलाफत वाले गुट का नेतृत्व कर रहे थे ऐसे में दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाला भाव भी था.
दूसरे बृजबिहारी प्रसाद से लालू जी की करीबी छुपी बात नहीं थी,कहा जाता है कि बृजबिहारी प्रसाद के द्वारा सम्राट ने लालूजी तक एक पुल बनाने की कोशिश भी की थी.
चूंकि लालूजी उस समय अपने उठान के दौर में थे सो उनके लिए भी अपनी इमेज को बूस्ट करने के लिए तत्कालीन बिहार के सबसे बड़े भूमिहार बाहुबली को गिराना ज्यादा मुफीद था क्योंकि ऐसा होने पर मैसेज जरा लाऊड एंड क्लियर होता सो उन्होंने बृजबिहारी की पेशकश ठुकराते हुए शायद कहा था,न हो एकरा त जाहीं के पड़ी.
इन सूरतेहाल में भी सम्राट अपने रेलवे के गोरखपुर से लेकर बंगाल तक के ठेकों को मैनेज करते हुए दनदनाते फिर रहे थे.
बृजबिहारी द्वारा भेजे गए अपने फीलर पर नकारात्मक उत्तर के बावजूद शायद उनका यकीन था कि अपने 47 के जखीरे के दम पर वो पाँच साल निकाल ले जाएंगे और फिर 2000 के विधानसभा चुनावों में कुछ खेल किया जा सकता है सो उन्होंने अपने आप पर कोई खास रिस्ट्रीक्शन नहीं लगाया ये अतिआत्मविश्वास ही रहा होगा.
ऐसे में ही मई 1995 में रेलवे के सोनपुर डिवीजन में एक बड़ा टेंडर होने वाला था जिसे मैनेज करने वो अपने दल बल के साथ गए.
उसी दौर में हाजीपुर के रामा सिंह भी खासे बाहुबली का रुतबा हासिल कर चुके थे.सम्राट और रामा सिंह में कहा जाता है अच्छी दोस्ती थी लेकिन रामा सिंह सम्राट के साए से हटकर कुछ ज्यादा बड़ा खेलना चाहते थे और ये भी कहा जाता है कि लालूजी के अदृश्य टहोके ने भी रामासिंह के पीठ पर जलन पैदा कर रखी थी सो रामासिंह ने सम्राट के सोनपुर आने की खबर सत्ता को लीक कर एक लीक से दो निशाने साध लिए.
इसी परिदृश्य में 5 मई 1995 को सम्राट अपने दलबल सहित हाजीपुर इंडस्ट्रियल एरिया की अपनी बैठकी से मारुति वैन में निकलते हुए दलबल सहित घेर लिए गए सामने रिवाल्वर, पिस्टल और थ्री नॉट थ्री राइफल से लैस पुलिस जीप अड़ी थी.
थोड़ी देर तक आँखों में आँखें डालने वाले रोमांटिसिज्म के बाद मारुति वैन के अंदर से ऑटोमेटिक राइफल, कारबाइन और 47 से फायरिंग शुरु कर दी गई.
सम्राट के काफिले की खासियत ये कही जाती थी कि वो गोलियां चलाने में कतई कंजूसी नहीं बरतते थे सो थोड़े ही समय में वैन निकाल लेने में कोई खास परेशानी उन्हें नहीं हुई.
अब बिहार पुलिस की जीप पीछे और आगे फायरिंग करती मारुति वैन हाजीपुर के रजौली के पास छितरौरा गांव तक आ पँहुची यहाँ वैन बंद हो जाने के कारण सब उतर कर भागने लगे लेकिन फायरिंग बेतहाशा करते रहे उसमें भी 47 सबसे ज्यादा प्रयुक्त हो रही थी सो चार पांच गांव वालों को भी गोली लग गई जिनमें एक की मौत हो गई.
ऐसे में गांववालों का मॉब भी इनके पीछे लग लिया और पुलिस तो पीछे थी ही. भागाभागी के दौरान बचने के लिए सब एक झोपड़ी में घुस गए और चूंकि अंदर से लगातार फायरिंग कर ही रहे थे सो गांववालों ने झोंपड़ी में आग लगा दी और इस तरह झोंपड़ी के अंदर लोग जल कर मर गए काफी देर बाद पुलिस ने स्थिर किया कि मरने वालों में सम्राट भी थे.
5 मई 1995 के बारह बजे दिन से शुरु हुआ यह खेल चार साढ़े चार बजे तक खत्म हुआ.
गौरतलब है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक व्यक्ति पुलिस के हाथ लगा बताया जाता है और एक भागने में सफल रहा जो बहुत दिनों तक बेगूसराय की धरती पर जिंदा रहा था और सम्राट सहित तीन लोग मारे गए थे.
हम जैसे लोग जो 1995 में बीए पास कर चुके थे ने तब से सम्राट की मौत का यही वर्सन बेगूसराय की अनेक बैठकियों में सुना.
यूट्यूब आने के बाद के दौर में हमने शशिभूषण जी जो उस समय इंस्पेक्टर थे के माथे सम्राट को मारने का सेहरा सजाए जाते देखा.
उनका एक इंटरव्यू बिहार के स्वनामधन्य तथाकथित एक बड़े पत्रकार द्वारा लिया जाता देखा जिसमें हम जैसे मोटी बुद्धि वालों को भी ये लगातार अहसास होता रहा कि पत्रकार महोदय इंस्पेक्टर साब से ज्यादा उत्साहित हैं और उनके आगे आगे चूना गिराने वाले की भूमिका निभा रहे हैं जिसपर इंस्पेक्टर साब को इंटरव्यू के दौरान चलना है.
बाकी सम्राट के घरवालों ने बॉडी क्लेम की थी उनका भी यही मानना था कि शरीर तो बुरी तरह झुलसा हुआ था वो जल कर मरे उन्हें न अपराधी मार पाए न पुलिस.
मार्च 1995 से 5 मई 1995 के बीच ही पटकथा लिखी गई,मंचन भी हुआ और पर्दा गिर भी गया.
बकिए सत्ता सरकार तो चमत्कारी चीज होती है वो तो सरंग में भी सीढी बाँधने का टेंडर निकाल कर उसे पूरा कर देने वाले ठेकेदार को पेमेंट भी कर सकती है.
सम्राट की मौत को सोचते हुए अँग्रेजी राज में शेर का शिकार कर उसके शरीर के पीछे ऊँची कुर्सियों पर बैठे ढ़ेर सारे कुलीन दावेदारों के चेहरे दिमाग में कौंध जाते हैं जबकि हाथी पर हौदे में सुरक्षित बैठे इन कुलीनों के बरक्स जंगल की जमीन पर दौड़ दौड़ कर हांका लगाने, भाला चलाने वाले साधारण लोग फ्रेम में कहीं दूर दूर तक नजर नहीं आते.
सनद रहे की उस जमाने में एके 47 का पूर्ण उदारता से प्रयोग कर रहे बिहार के सबसे बड़े डॉन और रंगदारों से चार घंटे तक चली मुठभेड़ में शायद एक भी पुलिसकर्मी हलाक नहीं हुआ था.
ये मेरे द्वारा बेगूसराय की तरफ मुँह कर के देखा और जीया गया सच है इससे सहमति बिल्कुल जरुरी नहीं पर प्रतिक्रिया देते हुए संयम रखना बहुत जरुरी है.
#सम्राटकथा7
- प्रेम कुमार
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