Thursday, 16 March 2017

इंतज़ार

इस नदी को बहने दो
और नदी किनारे के इस आखिरी पेड़ को मत काटना

जब जड़ता और पशुता से लड़ता मैं
किसी शाम थक जाऊंगा
या
कि कोई
धर्मांध खंजर
मेरी पीठ ,बाजु, और जाँघों को चीर देगा

मैं सिराहने तलवार रख
खुद को किसी पत्थर से टिकाये
यहीं
घावों को मिटटी से तर करता
या फिर
इसी पेड़ की छाँव में घनी नींद सोया मिलूंगा

और
तुम आओ
हक की लड़ाई में जीती
प्यास से हारी
अपना गला तर करने
इसी नदी के किनारे
अश्रु स्वेद रक्त औऱ
मिट्टी में लिपटी

एक बार मुझे अपनी जांधों पर सर रख कर सोने देना
एक बार मुझे अपनी बाहों में
लिपट कर रोने देना
भर लेना अपने गर्भ में मुझको
और
फिर लड़ने को एक लड़ाई
फिर एक बार मुझे होने देना
©अरमान

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