Wednesday, 19 September 2018

सिद्धार्थ की कविता इक छोटी सी हँसी

इक छोटी सी हँसी

अगर तुम खरीद सकते हो कुछ
तो खरीदना इक छोटी सी हसी

उस नन्ही लड़की के लिये
जो किसी बड़े महानगर की चौड़ी सड़क पर
लाल गुलाब लिये दौड़ रही है
इस उम्मीद के साथ
कि सिगनल के  लाल होते ही
तुम्हारी जिंदगी ठहर सी जायेगी
चंद सेकंड्स के लिये ही सही
और तुम देख सकोगे
बचपन कैसे भागता है
जल्दी-जल्दी

तुम खरीद लेना उसके हाथों से बस एक गुलाब
मोल-भाव मत करना
दस-बीस -पचास से कही महगी है
उसकी उम्मीद
जो बस आज और आज में जीती है
गुलाब से गेहूँ खरीदती है
और भरती है परती पेट
कल उसके शब्दकोष में नहीं है

तुम खरीद लेना बस एक गुलाब
झिझकना मत उसके गंदे-फटे फ्राक को देखकर
मत सोचना अपनी बस्साती गंध में डुबो दिया होगा उसने
तुम्हारे गुलाब को

सोचना तुम खरीद रहे हो
कोई एक गुलाब नहीं
इक छोटी सी हसी
सोचना तुम खरीद रहे हो
इक छोटी सी हसी
जो खिलेगी तुम्हारी प्रेमिका के सुर्ख-लाल होंठों पर
जो फैलेगी तुम्हारे मन तक
जो फिर दौड़ेगी सड़को पर
उस लाल गुलाब वाली लड़की के साथ
जो जोहेगी हर रोज तुम्हे उसी चौराहे पर
ठीक उसी समय
उसी मन से
कि तुम हर दिन खरीदोगे एक छोटी सी हसी
उसके लिये भी

सिद्धार्थ

विष्णु खरे की एक कविता 'चुनौती'

चुनौती / विष्णु खरे 

इस क़स्बानुमा शहर की इस सड़क पर
सुबह घूमने जाने वाले मध्यवर्गीय सवर्ण पुरुषों में
हरिओम पुकारने की प्रथा है

यदि यह लगभग स्वगत
और भगवान का नाम लेने की एकान्त विनम्रता से ही कहा जाता
तब भी एक बात थी
क्योंकि तब ऐसे घूमने वाले
जो सुबह हरिओम नहीं कहना चाहते
शान्ति से अपने रास्ते पर जा रहे होते

लेकिन ये हरिओम पुकारने वाले
उसे ऐसी आवाज़ में कहते हैं
जैसे कहीं कोई हादसा वारदात या हमला हो गया हो
उसमें एक भय एक हौल पैदा करने वाली चुनौती रहती है
दूसरों को देख वे उसे अतिरिक्त ज़ोर से उच्चारते हैं
उन्हें इस तरह जांचते हैं कि उसका उसी तरह उत्तर नहीं दोगे
तो विरोधी अश्रद्धालु नास्तिक और राष्ट्रद्रोही तक समझे जाओगे
इस तरह बाध्य किये जाने पर
अक्सर लोग अस्फुट स्वर में या उन्हीं की तरह ज़ोर से
हरिओम कह देते हैं
शायद मज़ाक़ में भी ऐसा कह देते हों

हरिओम कहलवाने वाले उसे एक ऐसे स्वर में कहते हैं
जो पहचाना-सा लगता है

एक सुबह उठकर
कोठी जाने वाले इस ज़िला मुख्यालय मार्ग पर
मैं प्रयोग करना चाहता हूं
कि हरिओम के प्रत्युत्तर में सुपरिचित जैहिन्द कहूं
या महात्मा गांधी की जय या नेहरू ज़िन्दाबाद
या जय भीम अथवा लेनिन अमर रहें
- कोई इनमें से जानता भी होगा भीम या लेनिन को? -
या अपने इस उकसावे को उसके चरम पर ले जाकर
अस्सलाम अलैकुम या अल्लाहु अकबर बोल दूं
तो क्या सहास मतभेद से लेकर
दंगे तक की कोई स्थिति पैदा हो जाएगी इतनी सुबह
कि इतने में किसी सुदूर मस्जिद का लाउडस्पीकर कुछ खरखराता है
और शुरू होती है फ़ज्र की अज़ान
और मैं कुछ चौंक कर पहचानता हूं
कि यह जो मध्यवर्गीय सवर्ण हरिओम बोला जाता है
वह नमाज़ के वज़न पर है बरक्स

शायद यह सिद्ध करने का अभ्यास हो रहा है
कि मुसलमानों से कहीं पहले उठता है हिन्दू ब्राह्म मुहूर्त के आसपास
फिर वह जो हरिओम पुकारता है उसी के स्वर अज़ान में छिपे हुए हैं
जैसे मस्जिद के नीचे मन्दिर
जैसे काबे के नीचे शिवलिंग

गूंजती है अज़ान
दो-तीन और मस्जिदों के अदृश्य लाउडस्पीकर
उसे एक लहराती हुई प्रतिध्वनि बना देते हैं
मुल्क में कहां-कहां पढ़ी जा रही होगी नमाज़ इस वक़्त
कितने लाख कितने करोड़ जानू झुके होंगे सिजदे में
कितने हाथ मांग रहे होंगे दुआ कितने मूक दिलों में उठ रही होगी सदा
अल्लाह के अकबर होने की लेकिन
क्या हर गांव-क़स्बे-शहर में उसके मुका़बिले इतने कम उत्साहियों द्वारा
हरिओम जैसा कुछ गुंजाया जाता होगा

सन्नाटा छा जाता है कुछ देर के लिए कोठी रोड पर अज़ान के बाद
होशियार जानवर हैं कुत्ते वे उस पर नहीं भौंकते
फिर जो हरिओम के नारे लगते हैं छिटपुट
उनमें और ज़्यादा कोशिश रहती है मुअज़्ज़िनों जैसी
लेकिन उसमें एक होड़ एक खीझ एक हताशा-सी लगती है
जो एक ज़बरदस्ती की ज़िद्दी अस्वाभाविक पावनतावादी चेष्टा को
एक समान सामूहिक जीवन्त आस्था से बांटती है
वैसे भी अब सूरज चढ़ आया है और उनके लौटने का वक़्त है

लेकिन अभी से ही उनमें जो रंज़ीदगी और थकान सुनता हूं
उस से डर पैदा होता है
कि कहीं वे हरिओम कहने को अनिवार्य न बनवा डालें इस सड़क पर
और फिर इस शहर में
और अन्त में इस मुल्क में.

(परिकल्पना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'लालटेन जलाना' से साभार)

Sunday, 16 September 2018

वे डरते हैं/गोरख पाण्डेय

वे डरते हैं/गोरख पाण्डेय

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और ग़रीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे ।

(रचनाकाल:1979)

-गोरख पाण्डेय

Monday, 10 September 2018

महाराज अजेय हैं / पंकज चतुर्वेदी

महाराज अजेय हैं
------------------------

नेतृत्व निरर्थक
साबित हुआ :
जब यह स्वीकार करने का
समय आया
राजा ने
दूसरे संकट की ओर
ध्यान दिलाया :
हमारा विपक्ष
प्रतिभाहीन है

सभासदों ने दोहराया :
महाराज का
कोई विकल्प नहीं है

उन्होंने जय-जयकार की :
महाराज अजेय हैं
अजर हैं
अभी आधी सदी तक
राज करेंगे

विधान के मुताबिक़
प्रत्येक पाँच साल पर
जनमत-संग्रह की भी
ज़रूरत नहीं
क्योंकि राज्य में
योग्यता का अभाव है

कारण कुछ ऐसा था
कि अकाल की
ख़बर की तरह
सुन पड़ती थी
यह मुनादी

कविता कादंबरी की कविताएँ

            1

इस शोर से भरी दुनिया में
मैं ओठों से तुम्हारी देह पर चुप्पियाँ बो रही हूँ
और तुम्हें शब्दों की कमी टीसती है!

शssss
चुप रहो न
करवट बदलो
और सुनो चुप्पी की आवाज़

तुम अनुभव करोगे
कि शब्द अर्थ भ्रष्ट हो चुके हैं
सुंदर कोमल शब्दों को
भीतर से चाट गए हैं दीमक
जिनमें अगर कुछ है, तो बस
खोखलेपन का उथला शोर है

तुम अनुभव करोगे चुप्पी का शुद्ध व्याकरण और भाव गाम्भीर्य का विस्तार

तुम अनुभव करोगे
कि चुप्पियों ने बचा रखी है भाव और भाषा की गहराई और माधुर्य

तुम अनुभव करोगे
कि बेमानी है बोलना

और एक दिन तुम अनुभव करोगे मिट्टी होना,धरती होना और होना आकाश भी
कि तुम्हारी देह पर बोई गई चुप्पियों में उतनी ही चुप्पी से उग आएंगे सतरंगी फूल
जिनकी बेलें धरती से आकाश तक फैल रही होंगी
और अनहद हो रही होगी जिनकी सुगंध की अलिखित भाषा

Sunday, 9 September 2018

कविता कादंबरी की कविताएँ

            1

इस शोर से भरी दुनिया में
मैं ओठों से तुम्हारी देह पर चुप्पियाँ बो रही हूँ
और तुम्हें शब्दों की कमी टीसती है!

शssss
चुप रहो न
करवट बदलो
और सुनो चुप्पी की आवाज़

तुम अनुभव करोगे
कि शब्द अर्थ भ्रष्ट हो चुके हैं
सुंदर कोमल शब्दों को
भीतर से चाट गए हैं दीमक
जिनमें अगर कुछ है, तो बस
खोखलेपन का उथला शोर है

तुम अनुभव करोगे चुप्पी का शुद्ध व्याकरण और भाव गाम्भीर्य का विस्तार

तुम अनुभव करोगे
कि चुप्पियों ने बचा रखी है भाव और भाषा की गहराई और माधुर्य

तुम अनुभव करोगे
कि बेमानी है बोलना

और एक दिन तुम अनुभव करोगे मिट्टी होना,धरती होना और होना आकाश भी
कि तुम्हारी देह पर बोई गई चुप्पियों में उतनी ही चुप्पी से उग आएंगे सतरंगी फूल
जिनकी बेलें धरती से आकाश तक फैल रही होंगी
और अनहद हो रही होगी जिनकी सुगंध की अलिखित भाषा

Thursday, 6 September 2018

अरुण शीतांश की कविताएँ

देखना तो ऐसे देखना

मेरी बच्ची सुबह सुबह उठना
लेकिन कसाई का मुँह मत देखना

देखना तो कसाई की बेटी को देखना
खून न देखना

मेरी बच्ची उस ठेहे को बिल्कुल मत देखना
बेहोश मत होना

लाईन में लगे उन जीवों पर दया करना
जैसे एक चिड़िया अपने बच्चे को समय से चोंच में दाना भर उड़ जाती है

तुम कुछ भी मत देखना
जिससे तुम्हारे गर्भ में पल रहे बच्चे पर
असर हो

एक पिता होने के नाते तुम्हें कह रहा हूँ

लेकिन तुम कसाई के भूख को जरुर जानना

जिसके बच्चे देश के भविष्य हैं ...

रात: २ बजे
५ सितम्बर १६

फूल के पौधे

मेरे पास दो फूल है
तीसरा फूल तुम हो

दरअसल फूल के पौधे
जगमग करते
गमकते हुए
जंगल से
मेरे आँगन में हैं आज

तुम पृथ्वी में समेटे बीज
हो
चाँदनी की रौशनी में
सोने की ताबीज

मेरे दोनो कंधे और
दोनो पैर में बल अतिरिक्त आ चुका है

रंग और स्वर
ताल और नाद
समय और सोपान के बीच नहीं
पुरी शक्ति हो

आओ !
बाँहो में भर जावो
मेरी गुस्सैल प्रेमिका

नदी के छोर को छोड़ दो
और बाँह पकड़ लो
पार कर
हँसेगे जोर से
जैसे बच्चे हँसते हैं
जी भर

कैमरा मैन
.............

कितना अच्छा था
कुछ भी ले जाने का
झंझट नही था

कितना अच्छा था

अब घर से पहनकर जाओ
तब खिंचो या खिचवाओ

सेल्फी है अब
रिश्ते बदल गए

अब कोट पहनो तब जाओ
जूते पॉलिस करो
पाउडर लगाओ

पहले सबकुछ वहाँ मिल जाता रहा
कंघी ऐनक मुस्कुराहट

कैमरा मैन!!!

अब सबकुछ होते हुए
कुछ नहीं मिलता

लड़की चुपके से आ जाती बैठ जाती धीरे से
कैमरा मैन दोनो का बाँह पकड़कर डाल देता गले में
पसिना होकर भी
धड़कन बढने पर भी
चुपचाप लौट जाते घर
और तकिए के नीचे फोटू छूपा रोते पूरजोर

अब हमारा कोई नहीं  कैमरा मैन

न वैसी कुर्सी
न वैसा जीवन
न वैसा गुलदस्ता
न स्टुल
न वैसा बस्ता

न वैसा विचार
न वैसा घर
न वैसा क्रोध
एक फोटो देखकर सोच रहा हूँ
मुक्तिबोध..

  ०६ ०९.२०१४ (आरा)

दोनों

फूल पर बारिश हुई।
कुछ बचा
कुछ गिरा
अब दोनो सुख रहे हैं
फूल झड़ रहा है

बूँदें हवा में समा गईं

वहाँ एक बच्चा हँस रहा
एक बच्ची रो रही है!

आज फिर बारिश होनेवाली है।...

Tuesday, 4 September 2018

कविताएं अंत तलाशती हैं / सूरज सरस्वती

कविताएं अंत तलाशती हैं / सूरज सरस्वती
अज्ञात युगल तलाशता है स्नेह
स्नेह जिसमें छिपा होता है प्रेम प्रेम के पश्चात विरह का आगमन
तलाशता है प्रेम की नवीनतम परिभाषा
सूरज सरस्वती
दो देह तलाशते हैं एकांत
और एकांत तलाशता है एकात्मा
उन दो देहों के आपसी स्पर्श में
सिंदूरी वर्ण तलाशता है रिक्त मांग
अनामिका तलाशती है मिलन की अंगूठी
दो जोड़ी नेत्र तलाशते हैं सम्मान
ईश्वर तलाशते हैं भक्त
जो करें आराधना पवित्र मन से
भक्त तलाशता है ईश्वर में जीवन
जो कवच बन सके उस भक्त का
चंचरीकों की काम क्रीडा तलाशती है
वर्णित पुष्प परागों की सुगन्ध
कहानियां तलाशती हैं नए क़िरदार
काव्य रसों से अवगत कराने को
कविताएं अंत तलाशती हैं
सूरज सरस्वती

Monday, 3 September 2018

प्रभात मिलिंद की कविता / एक कॉमरेड का बयान

प्रभात मिलिंद की कविता / एक कॉमरेड का बयान

(गोरख पांडेय की स्मृति में)

हम ऐसे शातिर न थे
कि इस तरह से मार दिए जाते
हमारे मंसूबे ख़तरनाक तरीके से बुलंद थे
इसलिए हमारा मारा जाना तय था ...
हमें कुछ ख़्वाब को अंजाम देना था
बचे हुए वक़्त में बची हुई ईंट-मिट्टी से
हमें बनानी थी एक मुख़्तलिफ़ दुनिया
हम इसलिए भी मारे गए
कि हमने उन फरेबियों का एतबार किया
जिन्होंने खींच कर पकड़ रखी थी रस्सी
और उकसाया हमको बारम्बार
उसपर पांव साध कर चलने के लिए
लेकिन वे तो तमाशबीन लोग थे
उनको क्या ख़बर होती
कि नटों के इस खेल में
धीरे-धीरे किस तरह दरकता जाता है
आदमी के भीतर का हौसला
और बाहर जुम्बिश तक नहीं होती.
मारे जाने के वक़्त
जिनकी आंखों में खौफ़ नहीं होता
वे नामाक़ूल किस्म के लोग माने जाते हैं
वे मारे जाने के बाद भी
संशय की नज़र से देखे जाते हैं.
इसके बावजूद अगर हम चाहते
तो मारे जाने से शर्तिया बच सकते थे..
अगर हम नहीं होते इतना निर्द्वन्द्व और भयमुक्त
अगर हम नहीं करते इस विपन्न समय में प्रेम
अगर हम नहीं खड़े होते वक़्त के मुख़ालिफ़
अगर हम खुरच फेंकते आंखों के ख्वाब
अगर हम ढीली छोड़ देते अपनी मुट्ठियाँ
और गुज़र जाते पूरे दृश्य से.. निःशब्द
नेपथ्य से बोले गए उन जुमलों पर
होंठ हिलाने का उपक्रम करते हुए
जो दरअसल किसी और के बोले हुए थे
तब शायद हम मारे जाने से बच जाते.

प्रभात मिलिंद
Prabhat Milind

मोहे श्याम रंग दईदे / शैलजा पाठक

आज बात पर बात याद आई। ये रंग को लेकर कितनी तकलीफें झेली लड़कियों ने ।
जब घर में दो बहनें हो एक बहुत गोरी एक सांवली । तो बातें घर से ही शुरू हो जाती। मेरे रंग को लेकर अम्मा कैफियत देती कि वो प्रेग्नेंसी में बहुत पपीता खाती थी इसलिए मैं
सांवली हुई । जबकि भरम अम्मा को ये भी था कि नैनीताल रानीखेत वाली जगह पर जहाँ टमाटर जैसे गाल वालियां ही होती थी मैं भी कोई अप्सरा ही जनमु लेकिन पपीता वाली बात सही निकली। बधाई देने आये लोगों ने मेरी बन्द मुठ्ठी में तबसे सहानुभूति बांध दी ।
घर के लोग कई बार नही परहेज कर पाते कि जो बात वो यूँ ही कर रहे हैं उसका असर किसी बच्चे के मन पर बुरा हो सकता। चाचियाँ सामने से कहती रहीं "ए बबुनी बड़की बहिन त दूध जइसन बाड़ी रउवा काहे सांवर हो गइली "
मैंने अपने हिस्से कुछ भी बेहतर होगा की कल्पना भी नही की । मुझे जो मिलेगा वही हासिल होगा मेरा। आखिर मेरे रंग को लेकर शादी व्याह की बात भी अटक सकती थी । रंग की पूर्ति बड़े फ्रिज को देकर करनी पड़ती।
तो बस गुनहगार वाली फिलिंग आती रही। सपनें गोरी लड़कियाँ देखती होंगी। उनके दूल्हे सुंदर मिल सकते हैं दहेज कम हो सकता उनका। उन्हें कोई भी।दोस्त बना सकता है । नाते रिश्तेदारों में जाते ही हाथोहाथ पूछ होती उनकी। कोई जीजा का भाई ऐसी गोरियों पर दिल हारे बैठ सकता होगा । जो अच्छा होगा गोरी लड़कियों के साथ ही होगा।
स्कुल में मैं कभी परी नही बनी न रानी न स्टेज के मध्य में रही कभी प्रार्थना में पीछे और क्लास में पीछे ही जगह तय रही।
मेरे सांवली यादों के कुछ पन्ने लम्बे नाख़ून से है । खच्च से छील देते हैं मुझे । ऐसी लड़कियाँ डायरी में सपनें लिखती खुद को ही गुलाब देती अपने ही खाली पन्ने पर अपने होठ के निशान लगाती ।
और यूँ के जब नूतन गाती है" मेरा गोरा रंग लै लो मोहे श्याम रंग दै दो "
जब यही मुस्कराता सा मन करता अरे मुर्ख मत बदल रंग हमने इस रंग के लिए कितने जतन किये फिर भी न मिला .......

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