Monday 3 September 2018

प्रभात मिलिंद की कविता / एक कॉमरेड का बयान

प्रभात मिलिंद की कविता / एक कॉमरेड का बयान

(गोरख पांडेय की स्मृति में)

हम ऐसे शातिर न थे
कि इस तरह से मार दिए जाते
हमारे मंसूबे ख़तरनाक तरीके से बुलंद थे
इसलिए हमारा मारा जाना तय था ...
हमें कुछ ख़्वाब को अंजाम देना था
बचे हुए वक़्त में बची हुई ईंट-मिट्टी से
हमें बनानी थी एक मुख़्तलिफ़ दुनिया
हम इसलिए भी मारे गए
कि हमने उन फरेबियों का एतबार किया
जिन्होंने खींच कर पकड़ रखी थी रस्सी
और उकसाया हमको बारम्बार
उसपर पांव साध कर चलने के लिए
लेकिन वे तो तमाशबीन लोग थे
उनको क्या ख़बर होती
कि नटों के इस खेल में
धीरे-धीरे किस तरह दरकता जाता है
आदमी के भीतर का हौसला
और बाहर जुम्बिश तक नहीं होती.
मारे जाने के वक़्त
जिनकी आंखों में खौफ़ नहीं होता
वे नामाक़ूल किस्म के लोग माने जाते हैं
वे मारे जाने के बाद भी
संशय की नज़र से देखे जाते हैं.
इसके बावजूद अगर हम चाहते
तो मारे जाने से शर्तिया बच सकते थे..
अगर हम नहीं होते इतना निर्द्वन्द्व और भयमुक्त
अगर हम नहीं करते इस विपन्न समय में प्रेम
अगर हम नहीं खड़े होते वक़्त के मुख़ालिफ़
अगर हम खुरच फेंकते आंखों के ख्वाब
अगर हम ढीली छोड़ देते अपनी मुट्ठियाँ
और गुज़र जाते पूरे दृश्य से.. निःशब्द
नेपथ्य से बोले गए उन जुमलों पर
होंठ हिलाने का उपक्रम करते हुए
जो दरअसल किसी और के बोले हुए थे
तब शायद हम मारे जाने से बच जाते.

प्रभात मिलिंद
Prabhat Milind

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