Monday, 3 September 2018

मोहे श्याम रंग दईदे / शैलजा पाठक

आज बात पर बात याद आई। ये रंग को लेकर कितनी तकलीफें झेली लड़कियों ने ।
जब घर में दो बहनें हो एक बहुत गोरी एक सांवली । तो बातें घर से ही शुरू हो जाती। मेरे रंग को लेकर अम्मा कैफियत देती कि वो प्रेग्नेंसी में बहुत पपीता खाती थी इसलिए मैं
सांवली हुई । जबकि भरम अम्मा को ये भी था कि नैनीताल रानीखेत वाली जगह पर जहाँ टमाटर जैसे गाल वालियां ही होती थी मैं भी कोई अप्सरा ही जनमु लेकिन पपीता वाली बात सही निकली। बधाई देने आये लोगों ने मेरी बन्द मुठ्ठी में तबसे सहानुभूति बांध दी ।
घर के लोग कई बार नही परहेज कर पाते कि जो बात वो यूँ ही कर रहे हैं उसका असर किसी बच्चे के मन पर बुरा हो सकता। चाचियाँ सामने से कहती रहीं "ए बबुनी बड़की बहिन त दूध जइसन बाड़ी रउवा काहे सांवर हो गइली "
मैंने अपने हिस्से कुछ भी बेहतर होगा की कल्पना भी नही की । मुझे जो मिलेगा वही हासिल होगा मेरा। आखिर मेरे रंग को लेकर शादी व्याह की बात भी अटक सकती थी । रंग की पूर्ति बड़े फ्रिज को देकर करनी पड़ती।
तो बस गुनहगार वाली फिलिंग आती रही। सपनें गोरी लड़कियाँ देखती होंगी। उनके दूल्हे सुंदर मिल सकते हैं दहेज कम हो सकता उनका। उन्हें कोई भी।दोस्त बना सकता है । नाते रिश्तेदारों में जाते ही हाथोहाथ पूछ होती उनकी। कोई जीजा का भाई ऐसी गोरियों पर दिल हारे बैठ सकता होगा । जो अच्छा होगा गोरी लड़कियों के साथ ही होगा।
स्कुल में मैं कभी परी नही बनी न रानी न स्टेज के मध्य में रही कभी प्रार्थना में पीछे और क्लास में पीछे ही जगह तय रही।
मेरे सांवली यादों के कुछ पन्ने लम्बे नाख़ून से है । खच्च से छील देते हैं मुझे । ऐसी लड़कियाँ डायरी में सपनें लिखती खुद को ही गुलाब देती अपने ही खाली पन्ने पर अपने होठ के निशान लगाती ।
और यूँ के जब नूतन गाती है" मेरा गोरा रंग लै लो मोहे श्याम रंग दै दो "
जब यही मुस्कराता सा मन करता अरे मुर्ख मत बदल रंग हमने इस रंग के लिए कितने जतन किये फिर भी न मिला .......

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