कविता का कालखण्ड पुराना हो चला है।हम भारतीय समाज में रह रहें हैं।वैसे में कविता क्या करती है।कविता स्वत: ऑबजर्ब करती है उन चीजों को। उसमें प्रेम घृणा विद्रोह संघर्ष से लेकर आत्महत्या तक की बातें हैं।
हमारा जन्म मनुष्य में हुआ है।नेक काम के लिए। और हम वह करने की कोशिश करते हैं।मंजूषा नेगी पाण्डेय उन विरल रचनाकरों में हैं।जिनकी कविता मे़ वह सब है। मंजूषा की कविता संवेदनशील शब्दों से लबरेज़ हैं।इसलिए लिखती हैं -नदी हो गयी स्त्री /और मैं हो गयी प्रकृति/नदी का होना नदी पर निर्भर था/और मेरा मुझ पर...।यहाँ दो स्थिति बनी ।एक नदी का प्रवाह।दूसरा खूद का बहते रहना नदी की तरह।इसलिए मंजूषा अन्य से इतर हैं।काव्य भाषा की रचाव बेहतर है. एक परिपक्व रचनाकार की तरह मंजूषा कविता लिखती हैं।हैं तो पहाड़न।लेकिन मैदानी भागों को भी जानती हैं।चंडीगढ से बिहार तक। राजस्थान तक।यह अनुभूति बड़े काम की चीज है।जो रचना की शब्द संपदा में वृहत कार्य कर सकती है। - अरुण शीतांश
“कितने ही नक्षत्र”
बिस्तर की सिलवटों में दर्द की गहरी पैठ है
सुबह का आँगन नन्ही चिड़िया के लिए है
हवा दिखाई नहीं देती
मगर जीवित रहने का दारोमदार उसी पर है
रात का वो भयानक सपना
उजले आकाश में विलीन हो गया है
हम कर रहे होंगे
एक शहर बसाने की कल्पना
तब तक दूसरा शहर उजड़ चुका होगा
कितने ही नक्षत्र हथेली में किस्मत की रेखा पर आ गिरते हैं
और हम चल देते हैं
एक अनिश्चित भविष्य की और
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“धूप का कटोरा”
आजकल नींद रहती है आँखों में
दुःस्वपनों की भरमार सी है
कविता पर छिपकली आ गिरी
जिसे कल ही लिखा था
हाथ पैर काम नहीं कर रहे
उबासी लेते ही पानी से धो देती हूँ चेहरा
मगर साफ़ नहीं होता
कितनी तरह की मैल तन पर चढ़ चुकी है
ओना पौना सा समय सशंकित कर रहा है मन को
फिर भी शुभ का प्रभाव जीवन में ओस की भांति है
मैं सोचती हूँ
चाँद उदास होता होगा
जब ओस गिरती होगी
सुबह के कोहरे में एक उदासी सदैव रहती है
परन्तु छटने वाली बेला तक
फिर धूप का कटोरा बीने हुए बादलों के संग
मुस्कान और गर्माइश बिखेरने आ ही जाता है
क्या धूप की उजली मुस्कान से मन की और दिन की
उदासी हटती है?
ये प्रश्नों का दौर न जाने कब ख़त्म होगा
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“अपनी देह से”
पुरानी हो गयी
इस पृथ्वी से पूछो
क्यों नहीं हुई तुम नई
क्यों नहीं उतारे तुमने पुराने कपड़े
क्यों नहीं उतारी लगी काई
क्यों नहीं घिसा बदन रगड़ रगड़ कर
मैल की तरह
क्यों नहीं उतार फेंका हमें
अपनी देह से
दूर कहीं आकाश में...
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“आत्महत्या”
वो धरती का बेटा
वो किसान
बस टूटा
और टूटा
फिर टूट ही गया
वापिस कभी जुड़ा ही नहीं
मुझे संकट दिखता है उस देश पर
जो भरपेट खाना खाता है
जिसका किसान भूखे मरता है
आत्महत्या करता है
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संस्कारों की बिंदी
कविता लिखने के बावजूद मेरा जीवन से भी वास्ता है
चाय बनाती हूँ
रोटी बेलती हूँ
नाजुक मन की ओर एक पत्थर ठेलती हूँ
रात भर सोने का ड्रामा जारी रहता है
ओर इत्मीनान करती हूँ
भयावह सपनों से
सुबह उठती हूँ
घर भर को जुड़े में समेटती हूँ
मर्यादा की चुनर ओढ़ती हूँ
संस्कारों की बिंदी लगाती हूँ
और पहनती हूं पावों में चप्पल
ठोकरों से बचने के लिए
जो लोग स्वपन में आने से बच जाते हैं
उनसे आग्रह करती हूं
पास बिठाती हूं
समझाती हूं
नहीं है कुछ भी ऐसा
जो अंतत: घटित न हो
इस कुचक्र में निर्माण हो जाता है किले का
परिलक्षित हो रहे कंगूरे कभी भी फैहरा सकते हैं ध्वजा
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