युवा जाति नहीं जमात देखें, नागार्जुन का आह्वान सुनें: डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
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जनकवि नागार्जुन स्वातंन्न्योत्तर भारत के जननायक हैं और जननेता भी। उनकी अंतश्चेतना में लोक-जन की छवि कैसी है? एक लेखक उनका परिचय देते हुए कहते हैं-‘‘नागार्जुन ने अपनी काव्य-कृतियों और कथा-कृतियों में जीवन को उसके विविध रूपों में, जटिल संघर्षों को, राजनीतिक विकृतियों को, मजदूर आन्दोलनों को, किसान-जीवन के सामान्य दुःख-सुख को पहचानने और उसे साहित्य में अभिव्यक्त करने का सृजनात्मक उत्तरदायित्व बखूबी निभाया है। वे प्रगतिशील चेतना के वाहक, जनचेतना के पक्षधर, निम्नवर्गीय व्यक्तियों के प्रति करुणाशील, उदार मानवतावाद के पोषक, स्वस्थ प्रेम के व्याख्याता, प्रखर व्यंग्यकार और जीवन के प्रति आस्थावान होने के कारण सच्चे प्रगतिशील, सर्जनात्मक क्रांति के संवाहक, मानवता के प्रतिष्ठापक और अशिव के ध्वंस पर शिव का निर्माण करने वाले कवि हैं।’’
यह परिचय नागार्जुन के भरे-पूरे कवित्व का संकेतक मात्र है; न कि पूरी सचबयानी। नागार्जुन अपनी रचनाधर्मिता में समदर्शी हैं, विचार की धरातल पर साफगोईपसंद यानी स्पष्टवक्ता हैं, तो अपनी रचना के रचाव-बनाव और पहिराव में निछुन्ना सादा, सहज, सरल, सपाट या कह लें एकदम सामान्य वेशधारी हैं। उनकी एक बड़ी खूबी यह कही जा सकती है कि वह समय की विद्रूपता या नग्नता से घबड़ाते अथवा भयभीत नहीं होते हैं; बल्कि वे निर्भयमना होकर उन आताताइयों के ऊपर सही कटाक्ष और सटीक प्रहार करते हैं जो ‘सत्यमेव जयते’ तथा ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के नाम पर ढोंग और ढकोसला करते हैं; कभी वामपंथ, तो कभी दक्षिणपंथ और यदि न हुआ तो धर्मनिरपेक्ष होने/बनने का हवाला देकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते हैं। रोमा रोलां का कहा मानें, तो-‘ओह! स्वतंत्रता, दुनिया में सबसे अधिक छल तुम्हारे नाम पर ही हुआ है।’
नागार्जुन भारतीय मानस के सन्दर्भ में ‘स्वाधीनता’ शब्द के प्रयोग को लक्ष्य करते हुए कहते हैं : जमींदार है, साहूकार है, बनिया है, व्यापारी है/अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है।/माताओं पर, बहनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं/मारपीट है, लूटपाट है, तहस-नहस बरबादी है।/जोर जुलम है, जेल सेल है, वाह खूब आजादी है।'
यह प्रहसन अक्षर, शब्द, पद, वाक्य, अर्थ इत्यादि के भाषिक-विन्यासों अथवा व्याकरणिक कोटियों का ढेर-बटोर मात्र नहीं है। यह आज के शिगूफेबाज़ राजनीति का जोड़-घटाव, भाग-गुणनफल, दशमलव-प्रतिशत, लाभ-हानि भी नहीं है जिसकी चोट से घवाहिल हमसब है; लेकिन बाहरी मुखौटे पर अद्भुत खामोंशी है, विराट मौन है, निर्विघ्न सन्नाटा है। वस्तुतः उनकी यह बात संविधान की उस मूल अभिव्यक्ति को प्रश्नांकित करती है जो छापे का अक्षर पढ़ने पर सब अर्थ देती हैं; लेकिन आचरण-व्यवहार में उसका कोई निर्णायक अर्थ-औचित्य सिद्ध नहीं होता है। उत्तर आधुनिक सहस्त्राब्दी का यह दूसरा दशक समाप्ति पर है जिसमें तीसरी मर्तबा लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं; लेकिन मूल सवाल ज्यों का त्यों है कि इस जनादेश में जनता कहाँ है? अगर है भी तो उसके होंठ खुले क्यों नहीं हैं? उसकी जीभ हिल क्यों नहीं रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे सचमुच मिसिर बाबा की कविताई का अकार-आकृति हो गए हैं जिसका शीर्षक ही है-‘खुले नहीं होंठ हिली नहीं जीभ’। इस कविता में जनता की देहभाषा मानों जीवंत हो उठी हो; वे कहते हैं : 'खुले नहीं होंठ/हिली नहीं जीभ/गतिविधि में उभरी/संशय की गंध/इंगितों में छलका अविश्वास/अनचाहे भी बहुत कुछ/कह गई फीकी मुसकान/लदी रही पलकों पर देर तक झेंप/घुमड़ता रहा देर तक/साँसों की घुटन में/बेचैनी का भाफ/बनती रही, मिटती रही/देर तक भौंहों की सिकुड़न/हिली नहीं जीभ/खुले नहीं होंठ'।
दरअसल, हमारी मौजूदा दुनिया कपटपूर्ण अधिक है, मानवीय बेहद कम। इस पारिस्थितिकी-तंत्र में हमारा संवेदनहीन, स्पंदनच्यूत और स्फोटरहित होना हमारी नियति का अंगीभूत/अंगीकृत सत्य बन चुका है। इस नियति का सर्जक अथवा निर्माता कोई और नहीं है। पुरानी पीढ़ी के वे लोग या उनकी संतान-संतति ही हैं जो कभी देश के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर देने पर आमादा थे। आज राजनीतिक घरानों या कि वंशवादी राजशाहियों का चलन आम हो चुका है। नई पीढ़ी में शामिल अधिसंख्य जन स्वार्थ, लोभ, धनाकांक्षा आदि के प्रपंच-पाखंड में बुरी तरह जकड़े हुए हैं। जनसमाज के प्रति गहरी निष्ठा और निश्छल प्रेम दूर की कौड़ी हो चली है। छलकते सहानुभूति यदा-कदा दिख जाते हैं जबकि वे अपनी मूलप्रकृति में अत्यंत ठिगनी हैं।
समाज में स्त्री-विभेद और लैंगिक असमानता इतनी जबर्दस्त है कि इन्हें देखते हुए हमारे भीतर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि-‘क्या भारतीय मानुष सचमुच देवियों की पूजा-अर्चना करते हैं? क्या वे सचमुच नारी-शक्ति के प्रति श्रद्धानत और उनका कोटि-कोटि ऋणी हैं? वर्तमान में जिस तरह ममतामयी स्त्रियों के ममत्वपूर्ण चरित्र का सायासतः खलनायकीकरण या बाज़ारूकरण किया गया है; वह भारतीय स्त्रियों का किसी भी रूप में सम्मान अथवा उनकी प्रतिष्ठा में इज़ाफा नहीं है। आज की स्त्री लोकतांत्रिक रूप से छली गई एक ऐसी प्रतिरूप/आकृति है जिसकी वंदना सबलोग सार्वजनिक रूप से करने में नहीं अघाते हैं और उसकी आत्मा को प्रताड़ित करने में भी पीछे नहीं रहते हैं। लिहाजा, इस घड़ी जिन लड़कियों/युवतियों के बाबत सवाल उठते हैं वह सिर्फ और सिर्फ सांस्कृतिक विमर्श का ढकोसला है जिससे होना-जाना कुछ नहीं है; लेकिन नाम गवाना और ढोल-पिटना इन्हीं सब से है।
आजकल अधिकतर चर्चा इस बात की होती है कि बाज़ार ने भारतीय युवक-युवतियों को फैशनेबुल अधिक बना दिया है उन्हें अपने प्रति जवाबदेह और जागरूक कम रहने दिया है। लेकिन इन बातों के प्रस्तोता यह भूल जाते हैं कि यह जाल-उलझाव किनका पैदा किया हुआ है जिसके सर्वाधिक गिरफ़्त में आज के युवजन हैं? वस्तुतः जागरूक और जवाबदेह होना इस बात पर निर्भर करता है कि मौजूदा पीढ़ी के बीच देश-काल-परिवेश, कला-साहित्य-संस्कृति, समाज-संस्कार-सरोकार इत्यादि से सम्बन्धित विचार-विमर्श, वाद-विवाद-संवाद, स्वप्न-कल्पना-आकांक्षा, चिंतन-दृष्टिकोण आदि किस तरह के चल रहे हैं? उनकी बल, त्वरा, शक्ति और ऊर्जा कितनी ज़मीनी और अनुभवी है?
दरअसल, आज की मौजूदा पीढ़ी में ऐसी उपस्थिति और साहचर्य का घोर अभाव है। नतीजतन, आज के युवक-युवतियाँ अपने समकाल और समकालीन यथार्थ-बोध से कम संलग्न हैं उनसे विरत अधिक हैं। ऐसे कठिन मोड़ पर हमें नार्गाजुन का सच्चा वारिस खोजने होंगे जो यह ललकार कर कह सके :
'आओ, खेत-मजदूर और
भूमिदास नौजवान आओ/
खदान श्रमिक और
फैक्ट्री वर्कर नौजवान आओ
कैंपस के छात्र और
फैकल्टियों के नवीन प्रवीण प्राध्यापक
हाँ, हाँ
तुम्हारे ही अंदर तैयार हो रहे हैं
आगामी युगों के लिबरेटर!'