जब भी खिलखिलाता हूँ
मैं सोलह का हो जाता हूँ।
जब भी मुस्कुराता हूँ
मैं सोलह का हो जाता हूँ
तेरी यादों के साथ ही
लौट आता है मेरा सोलहवां साल
जब भी यादों में तुझे प्यार करता हूँ
सोलह का हो जाता हूँ
जब भी देखता हूँ
झुरमुट में लिपटा हुआ कोई कमसिन जोड़ा
किसी के बालों में उलझा हुआ कोई अल्हड सा छोरा
सोलहवें की कसम मैं दिल खोल गाता हूँ
तेरा अक्स मेरी आखों से छुटता नहीं।
सोलह से मेरा रिश्ता अब टूटता नहीं।
अरमान
Wednesday, 17 April 2013
साल सोलहवां
युवा कवि रामाज्ञा शशिधर की कविता मुठभेड़ की व्याख्या।
युवा कवि रामाज्ञा शशिधर की कविता मुठभेड़ सत्ता की विषाक्त जड़ता के प्रति एक प्रतिक्रिया है। यह कोमल सपनो का आन्दोलन है। जीवन्तता की जद्दोजहद के लिए छेड़ा हुआ जिहाद है। जिसे सत्ता और उसे बघनखे मौत की आक्रांत शांति देने की फ़िराक में हैं।
कविता की शुरुआत गिलहरी से होती है। जो प्रतिनिधि है उस तमाम मासूम जनता की जिसे चुपके से सत्ता अपनी हवस और शौक का शिकार बना रही है। फुदकती हुई मासूम गिलहरी का पेड़ की छाल में बदल जाना दरअसल सत्ता द्वारा आम जनता की आजादी को निचोड़ उसे संसाधन में परिणत करने के बाद बाजार में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है ।उस बाजारीकरण के प्रति उसकी कर्तव्यनिष्ठा है सत्ता जिसकी दलाली करती है।
कवि सत्ता के स्वभाव की नयी व्याख्या में व्यक्त करता है कि सत्ता ने पगडंडियों को ध्वस्त कर दिया है बुटों और एडियों से उसके नामोनिशान मिटा दिए हैं। पगडंडियों के साथ मिटाए हैं उसने दिशाओं के स्वरुप और संस्कार। दिशाओं के साथ उसने आजादी की तमाम संभावनाओं कभी गला रेत दिया है।
अक्षरों के अक्षारता पर उसने स्याही उड़ेल कर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। सत्ता को सबसे बड़ा डर इन अक्षरों से है। इसलिए उसने अपने अखबार और छापेखाने बनवाए हैं। सयाहियों की फैक्टरियां बनवाई। जो उन नन्हे विद्रोही शब्दों पर तेज़ाब की तरह उड़ेली जाती हैं जिनसे सत्ता की मंसूबों के अधूरे रह जाने का खतरा होता है।
मगर कोमल सपनों का आना जारी है।मई जून की दोपहरी में जली दूब का सावन में पनपना जारी है। ये वो सपने है जिनके नसीब में सत्ता की सलीबें आती हैं। सत्ता से टकराने को ठोस विचारों का तय होना जारी है और साथ ही जारी है एक मुठभेड़ जो शिकार और शिकारी का,बहेलिये के हाथ से छूटने को छटपटाते नन्हीं चोंच का,सत्ता के बघनखों में फंसे आजादी के गानों का।
........अरमान आनंद
कविता
मुठभेड़
तुमने पत्थर उठाया
दे मारा नवजात गिलहरी को
पेड़ की छाल में बदल गया वह
तुमने एड़ियों से रगड़ दी पगडंडी
चुपचाप गायब हो गयी दिशाएं
उड़ेल दी स्याही पृष्ठों पर
मर गए सारे के सारे अक्षर
मैंने देखे हैं पृथ्वी के वास्ते कोमल सपने
चिन्हित किये हैं ठोस विचार
उन्हें टांग दिए हैं सलीब पर तुमने
जो आज तक मुठभेड़ कर रहे हैं जीवित
तुम्हारे खिलाफ।
........रामाज्ञा शशिधर
Sunday, 14 April 2013
मेरे शेर
1.मेरी आवारगी ने मुझको दीवाना बना दिया
मैं तेरा न हुआ तो मैं मेरा भी ना हुआ।
2.हमें भी कुछ ऐसे जंग की है आरजू
आमना सामना भी हो और दरम्याँ कुछ भी ना हो।
3.खिड़की खोलते ही आँखें पथरा गयीं
शायद जंगले के उस पार किसी का चेहरा सूना हो गया होगा
4.याद आती है जिंदादिली उस बचपने की
जवान करके शायद किसी ने अधमरा सा कर दिया
5. तेरे हर सवाल का जवाब कोरा कागज है अरमान
मेरे इश्क की किताब हर्फों की मोहताज नहीं ....
6.
मेरे गाँव की एक नदी जो मेरे प्यार में प्यासी बैठी है
उसी के किनारों पे कहीं मेरी उदासी बैठी है। अरमान
7.गर नींद आ जाये तो सो भी लोया करो
रात भर जागने से मुहब्बत लौटा नहीं करती...
इंतज़ार
वो हर जगह
जहाँ से गुज़र चुकी हो तुम
जिसका साथ छोड़ चुकी हैं
तुम्हारी खुशबुएँ /तुम्हारी यादें
मिट चुके हैं जहाँ से निशां तुम्हारे
शायद अब वहां
इंतज़ार भी नहीं किसी को
तुम्हारा.....।
नयी शाखें नयी पत्तियां
नयी कोयल नयी बुलबुल
ये कोई नहीं जानता
कभी तुम गुनगुनाती थी यहाँ
सब खुश हैं
इस बहती नयी बयार में
शायद तुम भी अपने नए नीड़ में
चहक रही होगी।
सबकुछ सामान्य से भी
बेहतर होने के बाद
कुछ कमी सी है।
क्यों लगता है कि
बाग़ के हरे भरे पेड़ों के बीच
बहुत हद तक छुपा हुआ वह ठूंठ
चाह कर भी अपनी मौजूदगी छुपा नहीं पाता।
हवाओं में फैली बेइंतेहा खुशबुएँ हैं
मगर किसी एक की चाह में
वो थम सी जाती हैं
क्यूँ सुबह सुबह सैकड़ों फूलों के खिलने पर
बूढा माली मुस्कुरते हुए
सर झुका कर सोचा करता है कुछ।
फिर कंधे से गमछा और आँखों से धुंधला गया सा चश्मा उतार कर
पोछा करता है
कभी आँखें कभी चश्मा
दूर तक फैले ये मखमली घास
बहुत बारिश के बाद भी
कहीं कहीं इस इंतज़ार में सूखे से हैं
की माहवर लगे पाँव से छू कोई जिन्दा कर दे इन्हें
मदमस्त घुमती फिज़ा भी
क्यूँ सन्न हो जाती है कभी कभी
और हर रोज़ जरूर आता है इक लड़का
बूढ़े बहरे माली को
घंटों समझाने
बाबा....
उसने कहा था
मैं जरुर आउंगी.....।
*********अरमान**************
Thursday, 11 April 2013
बारिश
तरो-तूफ़ान का दौर है
खिड़की के बाहर कुछ शाखें अंगडाइया ले रही हैं
हवाएं सांकल बजा बजा कर बुलाती हैं
शायद कोई संदेशा लायी होंगी।
पता नहीं क्यों
हर साल बारिश के इस मौसम में
मेरे तकिये का एक कोना
भींग जाता है।
..................अरमान
Sunday, 7 April 2013
पहेली
मुझे तृष्णा हुई
मैं प्यासा था
मैंने प्रेम कहा
मिली देह
झिंझोड़ा उलट पलट कर देखा
मिला आनंद
गोंता लगाना ही चाहता हूँ
अचानक
दिखती है बिस्तर पर पड़ी वितृष्णा
आकंठ प्यास में डूब जाता हूँ मैं
नेपथ्य में
कहीं बज रहा है रडियो
जिन्दगी .....
कैसी है पहेली हाय...
&&&&&अरमान&&&&&&
गांधीवाद -अरमान आनंद
गाँधी
तुमने कहा था
बुरा मत देखो
बुरा मत सुनो
बुरा मत बोलो
तुम्हें जान कर ख़ुशी होगी
आज हमसब
गांधीवादी हो चुके हैं।
कितना भी बुरा हो
सामने पीछे इर्द-गिर्द
हम अनदेखा कर देते हैं।
मूल्यों की टूटती तारों से
झंकारती चीत्कारें
हम अनसुना कर देते हैं।
हमारा यही अनदेखा-अनसुनापन
लग जाता है-खुद हमारी
जुबान पर ताला।
ना सुनता है कोई ना देखता है
हम स्वतः हो जाते हैं गांधीवादी।
गाँधी
तुम्हारा सबसे बड़ा अनुयायी था
गोडसे
ग से गांधी
ग से गोडसे
आश्चर्य मत करो
देखो
वह नहीं चाहता था
की विभाजन के बाद
और ज्यादा
और ज्यादा
कुछ भी ...तुम
बुरा देखो
बुरा सुनो
बुरा बोलो
अब
सब अच्छा है।
.............हे राम।
*******अरमान********
प्रेम कविता 4
ये
मेरा ह्रदय है
साफ़ शीशे की तरह
तलब हो तोड़ने की
तो बेशक तोड़ो
मगर
तुम्हारे हाथ में दस्ताने
पांव में चप्पल
और
सलामती की दुआ
तीनों
निहायत जरुरी हैं।
######अरमान#######
अरमान आनंद की प्रेम कविता ध्येय
ध्येय
लो तोड़ो
मेरा दिल तोड़ो
लो खेलो
मेरे दिल से खेलो
तुम्हें आनंद मिलता है
है ना
और मुझे सुकून
क्योंकि
तुम्हारी ख़ुशी ही
ध्येय है मेरा
मेरे प्रेम का।
********अरमान********
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