Wednesday, 14 September 2022

'टूटी हुई बिखरी हुई' सिर्फ़ एक कविता नहीं है यह जीवन की सार्थकता और निरर्थकता के बीच एक द्वंद है- देव व्रत


टूटी हुई बिखरी हुई (व्याख्या)
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'टूटी हुई बिखरी हुई' सिर्फ़ एक कविता नहीं है यह जीवन की सार्थकता और निरर्थकता के बीच एक द्वंद है, एक अटका हुआ आँसू है, जो नितांत अकेलेपन में झेला गया है। प्रेम का द्वंद ऐसा ही होता है। ज़िम्मेदारियां अपना हिस्सा ले लेती है, समाज अपना हिस्सा ले लेता है, हमारे हिस्से जो बचता है वे होती हैं स्मृतियां जिन्हें सुदूर आकाश में तारों की तरह देखते हुए याद करते रहते हैं हम। जिनका हमारे जीवन में बस इतना ही स्थान होता है।

अलगाव कई तरह के होते हैं। कुछ वह जो हमें प्रिय होते हैं परंतु उनकी प्रीति झेलते-झेलते मन बोझिल हो जाता है और हम उनसे भागना शुरू कर देते हैं। दूसरे वे जो हमारी प्रीति झेलते-झेलते हमसे भागने लगते हैं, और तीसरे वे जो अनौपचारिक रूप से अपना सामाजिक हिस्सा लेने जीवन में प्रवेश करते हैं और समय के साथ दूर हो जाते हैं। उनके लिए किसी प्रकार का बंधन नहीं होता। जीवन सबसे कठिन तब हो जाता है जब वर्तमान और भविष्य के बीच अतीत अपनी जगह बना लेता है जिसे न किसी से कहा जा सकता है और न भुलाया जा सकता है। सिवाय मौन रहने के। जिसमें हमारा अवचेतन ही हमारी पीड़ा का सबसे बड़ा कारण होता है। इसमें उम्र मायने नहीं रखती, मायने रखता है तो सिर्फ़ दर्द और उस दर्द का अहसास। एक समय के बाद सब खोखला लगने लगता है। व्यक्ति अपने ही अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा बैठता है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता ह-

विवेक शर्मा की कविता का एक अंश कहता है कि :

'अपनी वास्तविकता पर संदेह करने का 
सबसे आसान तरीक़ा है कि आप 
किसी ग़लत व्यक्ति से प्रेम कर बैठें' 

शमशेर भी शायद इस वास्तविकता से ख़ूब परिचित थे। मौन उनके जीवन का अभिन्नतम अंग हो गया था और संदेह उनका अवचेतन। शायद इसीलिए इस कविता की शुरुआत ही संदेह से होती है- 

टूटी हुई बिखरी हुई चाय
           की दली हुई पाँव के नीचे
                    पत्तियाँ
                       मेरी कविता
                       
यानी मेरी कविता जो मेरे कवि होने की सार्थकता का सबसे बड़ा प्रमाण है वह टूटने से ज़्यादा बिखर कर ज़मीन पर रौंदी जा चुकी है। अर्थात उसकी सार्थकता कहीं और थी या शायद है भी, परंतु मेरी दृष्टि में अब नहीं है। इसका कारण जहाँ तक मैं समझ पाया तो वह है कोई अभाव जो मनुष्य की चेतना में घोर निराशा की पूर्ति करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शमशेर की इस कविता में यह अभाव आगे और प्रामाणिकता के साथ प्रकट होता है। 
आगे उम्र की ढलान को देखते हुए चिंता की ऊँचाई चढ़ रहे शमशेर कहते हैं-

बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए,
                गर्दन से फिर भी चिपके
          ... कुछ ऐसी मेरी खाल,
          मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
              मिली-सी
              
सिर के आगे के हिस्से के बाल शायद झड़ चुके हैं, फिर भी कुछ-कुछ सफेदी लिए रूखे से मैल की तरह अभी भी गर्दन से चिपके हुए शेष बचे हैं। मेरी देह भी कुछ ऐसी हो चुकी है कि यदि मुझमें और मिट्टी में समानता देखी जाए तो शायद पहचानना मुश्किल हो।

दोपहर बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतजार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ...

इस पंक्ति में एक शब्द आया है 'इंतज़ार'। किसका ? और वह भी शाम या रात के बाद की नहीं...दोपहर के बाद की धूप और छांव के बीच खड़ी, और अंत में जोड़ते हैं- 'जैसे मेरी पसलियां'। शायद यह उसी अभाव की पूर्ति में खड़ी इंतज़ार की पसलियां है जो ठेलेगाड़ियां (ध्यान दें यहां पर रिक्शा एक्का या अन्य किसी साधन का नाम न ले कर हाथों से धकेलने वाली ठेलेगाड़ी का जिक्र है) बनकर खड़ी हैं। यहाँ इंतज़ार कार्य का है या कारक का यह भी स्पष्ट नहीं, पर अनुमानतः कारक का अभाव नहीं है। यदि होता तो शमशेर कहते 'धूप छांव में पड़ी इंतजार की ठेलेगाड़ियां' अर्थात कार्यव्यापार के अभाव में देह की पसलियों का उभर आना जीवन की निरर्थकता को स्पष्ट करता है।
आगे कहते हैं-

खाली बोरे सूजों से रफ़ू किये जा रहे हैं...जो
                  मेरी आँखों का सूनापन हैं

यह वही सूनापन है जो पसलियों के उभर आने का सबसे बड़ा कारण है। चिंता यहाँ साफ़ दिखाई देती है। जिसे तमाम तरह से भरा जा रहा है, रफ़ू किया जा रहा है और मौन रफ़ू किए जा रहे सूजे में लगा वह तागा है जिसके जरिए चाहे सृजन हो, चाहे जीवन हो, चाहे जो कुछ भी हो उसे एक नया रूपाकार दिए जाने की कोशिश भर है। शमशेर पूरी कविता में ऐसा लगता है कि जैसे आत्म-संवाद कर रहे हैं। आगे कहते हैं-

ठंड भी एक मुस्कुराहट लिये हुए है
                 जो कि मेरी दोस्‍त है।

यहाँ भी मौन-मुस्कान साफ़ दिखाई दे रही है।  ठंड नहीं स्वयं कवि मुस्कुराहट ओढ़ रहा है। किसी साथी के अभाव में ठंड को वह अपना दोस्त मान लेता है और शायद अपनी इसी परिकल्पना पर मुस्कुरा उठता है। या इसका एक दूसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि ठंड हल्की है शायद शुरुआत या अंत (नवंबर या मार्च) का महीना है पर इससे अर्थ में कोई अंतर नहीं आता कि अभाव या अकेलापन ही उसका 'दोस्त' है।

कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनायी . . .
मैं समझ न सका, रदीफ़-क़ाफ़िये क्‍या थे,
इतना ख़फ़ीफ़, इतना हलका, इतना मीठा
                उनका दर्द था।

पहले पढ़ते हुए लगा था कि शायद कवि की भावात्मिका में कबूतरों के ग़ज़ल गुनगुनाने की तार्किकता का कहीं कोई स्थान ज़रूर होगा पर ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि कबूतर कभी कोई ग़ज़ल नहीं गुनगुना सकते हैं। रदीफ़ क़ाफ़िये (ग़ज़ल के नियम) तो क्या ही जानेंगे वे। हाँ उनकी आवाज़ में मीठा या हल्कापन ढूंढा जा सकता है, दर्द भी संभव है। पर यह मान लेना कि कबूतर ग़ज़ल गा सकते हैं, इसे समझने के लिए स्वयं कबूतर होना पड़ेगा। फिर यहाँ ग़ज़ल शायद कवि की अंतश्चेतना में बज रही कोई धुन है जिसका दर्द कबूतरों तक की आवाज़ में उसे साफ़ सुनाई दे रहा है। या यह भी हो सकता है कि बाहरी कोई धुन हो, सुदूर कहीं बज रही हो जो कवि तक आते-आते इतनी मद्धम पड़ गई हो कि पास के कबूतरों और उस धुन में शायद कवि का मन एकाकार हो गया हो।

आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है।
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
                और चमक रहा हूँ कहीं...
                न जाने कहाँ।
                
अभाव व्यक्ति को कभी-कभी इतना साधारण बना देता है कि  अपने अस्तित्व पर आरोप करना उसके लिए सामान्य सी बात हो जाती है। 'आसमान' यहाँ कवि की आत्मा है जिसमें 'गंगा' जितनी पवित्र नदी की धारा बह रही है जिसका प्रमाण 'रेत' का हिलते रहना है। 'कीचड़' यहाँ कवि का मन, देह कुछ भी हो सकता है जिसमें वह अपने साधारणपन के साथ पड़ा हुआ है और अपनी आत्मा की पवित्रता के कारण चमक रहा है, पर कहाँ ? इसका उसे भी पता नहीं है। ये बात आगे और भी स्पष्ट हो जाती है वह दूसरा रूपक देते हुए जब कहता है- 

मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार -
                जिसके स्‍वर गीले हो गये हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है...
              छप् छप् छप्

यहाँ बाँसुरी, नाव, पतवार, स्वर सभी का ज़िक्र है पर जिस नदी में ये सब बह रहे हैं उसका नहीं। यह शायद वही गंगा की नदी है जिसमें मन या देह रूपी बाँसुरी जो आत्मा रूपी नाव की पतवार हो चुकी है, उसके स्वरों का गीला पड़ जाना अभी तक की दी गई सारी उपमाओं, उदाहरणों का एक निचोड़ है। यदि ऊपर से देखते आएं तो कविता का चाय की पत्तियों की तरह दले जाना, देह की खाल का मिट्टी जैसा होना, इंतज़ार/चिंता में पसलियों का उभर आना, आँखों का सूना हो जाना, ठंड को दोस्त मान लेना, कबूतरों का दर्द सुनना, स्वयं को गंगा के रेत में पड़ा हुआ कीचड़ बताना, कवि की निराशा को साफ़-साफ़ प्रकट करता है। उसे लगता है कि अब उसके स्वर में इतनी ताक़त नहीं बची कि वह अपना उपयुक्त स्थान हासिल कर सके । शायद इसीलिए उसके स्वरों को गीला पड़ जाना पड़ा है।

यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि अभी तक कवि 'मैं, मेरे' की बात कर रहा है। ऐसा लगता है जैसे वह आत्म-परिचय दे रहा हो। वह सबसे पहले अपनी कविता की बात करता है, फिर उम्र की, फिर चिंता व प्रतीक्षा में गली जा रही देह की, फिर अकेलेपन की व उससे उपजे दर्द की और अंत में इन सब को कारण बताते हुए अपने आत्म-साधारणीकरण की मदद से वह धीरे-धीरे हमारी  चेतना पर कब क़ब्ज़ा कर लेता है हमें पता भी नहीं चलता। यही शमशेर की सबसे बड़ी ख़ूबी है, उन्हें पता है कि पाठक की अंतश्चेतना तक किस तरह पहुँचना है या पहुँचा जा सकता है , और जब वह अपना एक संक्षिप्त किंतु विस्तृत परिचय दे लेते हैं तो इसी नाटकीयता के बीच में एक नया किरदार जन्म लेता है जिसके बारे में उन्हें आगे कहना है, 'वह' है। 'वह' कौन है ? तो शमशेर कहते हैं-

वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्‍यु को सँवारने वाला है।

प्रश्न उठता है कि कौन पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को संवार सकता है ? शायद वह प्रेम है या कोई भावात्मक वृत्ति जिसने मुझे सृजनात्मकता की ओर मोड़ दिया। यह कोई ऐसी संवेदना जो मेरे जीवन का आधार हो चुकी है क्योंकि 'वाला है' शब्द का प्रयोग निश्चयात्मकता और प्रतीक्षा दोनों का प्रतीक है अर्थात-

वह दुकान मैंने खोली है जहाँ 'प्‍वाइज़न' का लेबुल लिए हुए
                 दवाइयाँ हँसती हैं -
उनके इंजेक्‍शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है।

यह वही भावनात्मक दुकान है जिसका व्यापार कोई कवि करता है। 'प्वाइज़न' को और गहरे अर्थ में समझना हो तो 'अज्ञेय' के एक कथन से समझा जा सकता है- 'साहित्य का निर्माण मानो जीवित मृत्यु है आह्वान है। साहित्यकार को निर्माण करके और लाभ भी तो क्या रचयिता होने का सुख भी नहीं मिलता' (शेखर एक जीवनी, भाग-1 पृष्ठ 77) अर्थात 'प्वाइज़न' लगी दवाइयों का हँसना उसी निर्माण के जीवित मृत्यु का आह्वान है जिसे शमशेर कहना चाहते हैं और निर्माण करके सुख भी न ले पाने का पछतावा 'इंजेक्शन की उन्हीं चिकोटियों' में है जो फ़ायदा तो देती हैं, पर साथ ही साथ दर्द भी।
अगली पंक्ति में शमशेर ग़ज़ब का (अंतर्विरोध तो नहीं कह सकते पर) सुमेल (ज़रूर) पेश करते हैं और वह यह है कि अभी तक उन्होंने जिस 'वह' को भावात्मक रूप दिया था उसे ही अब स्त्री के रूप में या एक स्त्री को भावात्मक रूप देकर कविता में बहुत बारीक तरीक़े से और स्पष्ट कहें तो चुपके से, दबे हुए क़दमों के साथ प्रवेश करा देते हैं। जब तक पाठक इसे समझने की कोशिश करता है वह कविता की लय के साथ स्त्री (भावात्मिका) को आत्मसात् करता हुआ आगे बढ़ जाता है और उसे शायद इससे अधिक फ़र्क़ भी नहीं पड़ता। शमशेर पाठकीय मन के आह्लाद को पूरी तरह अपने वश में कर लेते हैं क्योंकि आगे जिस बात को वह कह रहे हैं उसके लिए पाठक को इस मनःस्थिति में ले जाना बहुत ज़रूरी था। वह कहते हैं-

वह मुझ पर हँस रही है, जो मेरे होठों पर एक तलुए
                         के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
          और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
          खुरच रहे हैं
उसके एक चुम्‍बन की स्‍पष्‍ट परछायीं मुहर बनकर उसके
          तलुओं के ठप्‍पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है।

एक स्त्री है जो दीवाल के सहारे खड़े पुरुष को चूम रही है जिसके बाल पुरुष को साया किये हुए उसकी (पुरुष की) पीठ से दबे हुए उसे खुरच रहे हैं। ध्यान देने योग्य यहाँ 'समय के बारीक तार' है जो वाचक की उम्र भी हो सकती है या जिस समय वे इस कार्य व्यापार में व्यस्त हैं वह उचित समय न रहा हो। जिसके खुरचने की स्पष्ट पीड़ा कवि महसूस कर सकता है। उसके चुम्बन में इतनी गहराई या मादकता है कि पुरुष पूरी तरह से खो चुका है, उसे लग रहा है कि जैसे उस के तलवों के ठप्पे उसके होठों पर रखे जा चुके हैं। स्त्री के सीने से दबा हुआ वह अपने आप को दैहिकता (वासना) के रंग में रंग देना चाहता है और उसका मन वासनामय होकर आग्रह करने लगता है-

मुझको प्‍यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
          एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ।
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो -
          ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
          फ़ौवारे की तरह नाचो।

यहाँ यह वाकई देखने लायक है कि शमशेर किस ख़ूबी के साथ अपनी इच्छा को वासना का रूप देते हुए सारा भार सामने वाले पर डालकर स्वयं मुक्त हो जाते हैं। वाचक 'प्यास के पहाड़ों पर' लिटाने का आग्रह तो करता है परंतु सामने वाले की अनुमति के बगैर नहीं।

मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
          ताकि उसकी दबी हुई ख़ुशबू से अपने पलकों की
          उनींदी जलन को तुम भिगो सको, मुमकिन है तो।

यहाँ फूल का ओस के स्पर्श से टपक जाना वासना की नैसर्गिक क्रिया का अद्भुत आग्रह है, जिसके स्पर्श में इतनी पवित्रता है कि यह स्वाभाविक लगने लगता है कि उसके एहसास मात्र से सामने वाले की उनींदी पलकों को आराम मिल सके । अंत में आग्रह को प्रार्थना में बदलते हुए कह भी देता है कि यदि ऐसा मुमकिन है तो। मतलब प्रधानता तुम्हारी ही इच्छा की है। फिर आगे कहते हैं-

हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाज़े की शर्माती चूलें
          सवाल करती हैं बार-बार... मेरे दिल के
          अनगिनती कमरों से।

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
           ...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
           जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।

तुम मुझसे उसी तरह बोलो जैसे स्वाभाविक रूप से मेरे दरवाज़े हर बार अपनी भाषा में मुझसे संवाद करते हैं। तुम मुझसे वैसे ही प्रेम करो जैसे मछलियां जल की लहरों से करती है जिनकी प्रकृति ही उन्मुक्त है। तुम मुझसे उसी तरह प्रेम करो जैसे हवा मेरे सीने से करती है जिसकी टकराहट में कहीं कोई बाधा या रुकावट नहीं है। यह प्रेम उन्मुक्त है जो आग्रहित होते हुए भी निराग्रहित है। जिसमें पूर्ण स्वतंत्रता है। कुछ लोगों को इस बात से आपत्ति रही है कि यह तो कवि की आत्म-प्रवंचना हुई। वह किसी के प्रेम को नियत कैसे कर सकता है ? तो मुझे लगता है कि यहाँ कोई आदेश या दबाव नहीं है, यहाँ निर्णय की पूर्ण स्वतन्त्रता है। मुक्तिबोध शमशेर के जिस 'इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार' होने की बात करते हैं यहाँ उसकी कला बख़ूबी दिखाई देती है। कवि शायद इस आग्रह से पहले यह ज़रूर कहना चाहता है कि 'तुम चाहो तो...' 'तुम मुझसे वैसे ही प्रेम करो जैसे...' 
शायद इतना कहने के बाद शमशेर को इसकी प्रतिक्रिया का पूर्वाभास था इसीलिए वे आगे कहते भी हैं-

आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
           मुझे लिखो और मुझे पढ़ो।
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो।
आईनो, मैं तुम्‍हारी ज़िन्दगी हूँ।

'आईनो' अर्थात मेरे पाठकों मेरी रचना में स'अधिकार प्रवेश करो। मुझे लिखो, पढ़ो, समझो। मैंने जो कुछ कहा है अपने तर्क पर उतारो यदि वह समझ आए तो और न आए तो भी मेरी रचना पर मुस्कुराओ और मन ही मन चाहो तो मुझे नकार के ख़त्म कर दो या चाहो तो मुझे अमर कर दो। मेरे 'आईनो' मेरी आत्मा का सच दिखाने वालों मुझे आत्मसात् करो, क्योंकि मैं तुम्हारी ज़िन्दगी हूँ। या अगर 'आईनो' का दूसरा अर्थ लें जो ऊपर पंक्तियों के क्रमागत भाव से चली आ रही है तो वह है प्रेमिका जिससे वाचक अपनी प्रेम की रोशनी में घुल जाने का आग्रह करता है और कहता है कि मेरे मन को पढ़ो, समझो, मुस्कुराओ और मुझे मुक्त करो।

पर जैसे ही हम अगली पंक्ति में प्रवेश करते हैं ऐसा लगता है कि ऊपर कही गई बात सिर्फ़ कवि के मन की अपनी कोई कल्पना है और वह तुरंत ही यथार्थ में झांकता हुआ पाता है कि-

एक फूल उषा की खिलखिलाहट पहनकर
           रात का गड़ता हुआ काला कम्‍बल उतारता हुआ
           मुझसे लिपट गया।

उसमें काँटें नहीं थे - सिर्फ़ एक बहुत
           काली, बहुत लम्बी ज़ुल्फ़ थी जो ज़मीन तक
           साया किये हुए थी... जहाँ मेरे पाँव
           खो गये थे।

आग्रह-अनुग्रह की रात बीत चुकी है, सुबह हो चुकी है और कवि पाता है कि वही फूल जिससे वह 'ओस से टपकने' की कामना लिए आग्रहित था, वह अब उस से लिपट गयी है। उसमे कहीं कोई दुराव नहीं है, और वह उसके प्रेम में पूरी तरह खो चुका है।

वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
           अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
           एक ज़िंदा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा -

और तब मैंने देखा कि वह पुष्प अपनी सुगंध से मुझे पूरी तरह अपने आगोश में ले चुकी है। वह एक 'ज़िंदा इत्रपाश' की तरह मुझमें खिल रहा है या मेरी आत्मा में जो पुण्यता आई है, जो मेरे व्यक्तित्व की महक है वह उसी के कारण है।
ऊपर मैंने अंकित किया है कि शमशेर की ख़ूबी है कि वह अपने चरित्र को इस तरह कविता की लय में विलय कर देते हैं कि सामान्यतः जब तक हमारा उस पर ध्यान जाता है हम आगे बढ़ चुके होते हैं। उनकी पंक्तियों के बीच का 'स्पेस' ही उनके संवाद को पूरा अर्थ प्रदान करता है। इसी तरह अगली पंक्ति में वह कविता के तीसरे पात्र यानी कि 'तुम' का प्रवेश कराते हैं और कहते हैं-

और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ़ एक साँस हूँ जो उसकी
           बूँदों में बस गयी है।
           जो तुम्‍हारे सीनों में फाँस की तरह ख़ाब में
           अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी।

अब तक जिस 'वह' से वाचक बात करता है अब वह 'तुम' के साथ उस 'वह' के विषय में बात करने लगता है और कहता है कि जब 'वह इत्रपाश' मेरे व्यक्तित्व का अंश हो गई है तो मैंने महसूस किया कि मेरा व्यक्तित्व स्वयं उस 'वह' का अंश मात्र है जिसमें कि मेरी साँस बसी हुई है और यही बात तुम्हारी साँस में अटकती है। जिसका होना शायद तुम्हारे सपने में भी बाधक है फिर भी मुझे इस बात का अफ़सोस है कि- 

मैं उसके पाँवों पर कोई सिजदा न बन सका,
           क्‍योंकि मेरे झुकते न झुकते
           उसके पाँवों की दिशा मेरी आँखों को लेकर
           खो गयी थी।

और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा अपना पथ तलाश रहा था कि 'तुम' से मिला या 'तुम' मुझसे मिली। यहाँ दो बातों पर गौर किया जा सकता है, पहला कि शमशेर 'वह' के जाने को इतना सहज बना देते हैं कि पाठक को आभास भी नहीं होता और दूसरा यह कि वाचक अपनी बात के घुमाव में बहुत ही सतर्क है, उसे पूरी तरह पता है कि कहाँ, किस पात्र को कितनी तरजीह देनी है। अब तक वह 'वह' के साथ लीड करता है लेकिन जैसे ही 'तुम' का प्रवेश होता है वह प्रधानता 'तुम' को सौंप कर स्वयं असहाय बन जाता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि वाचक को जो कहना है, जिस किरदार से पाठक को जो वाइब्स देनी है...उसका सही तरीक़ा यही हो।

जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफ़ाफ़ा
                        तुम्‍हारे हाथ आया।
            बहुत उसे उलटा-पलटा - उसमें कुछ न था -
            तुमने उसे फेंक दिया : तभी जाकर मैं नीचे
            पड़ा हुआ तुम्‍हें 'मैं' लगा। तुम उसे
            उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
            मुझे वहीं छोड़ दिया। मैं तुमसे
           यों ही मिल लिया था।

अतः वह जो मेरी आँखों की दिशा को लेकर खो गयी थी, उसके चलते मैं भावना-रचना शून्य हो चुका था जैसे कोई खुला हुआ फटा हुआ लिफ़ाफ़ा हूँ। तुमने उसकी जांच परख की उसके फ़ायदे नुकसान देखे और अंततः उसे फेंक दिया। उसे फेंकने के बाद तुम्हें 'मैं' उपयोगी लगा। मैं तुमसे इसी तरह ही यूं ही मिल लिया था। इसमें 'तुम' के साथ प्रेम का वह समर्पण नहीं जो 'वह' के प्रति था। आगे कहते हैं- 

मेरी याददाश्‍त को तुमने गुनाहगार बनाया - और उसका
           सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया। और तब
           मैंने कहा - अगले जनम में। मैं इस
           तरह मुसकराया जैसे शाम के पानी में
           डूबते पहाड़ ग़मगीन मुसकराते हैं।

मेरी स्मृतियां जो संसार था तुमने उसमें से मेरे हिस्से के एकांत को भी सूद की तरह मुझ से वसूल किया, जैसे मैं तुम्हारा कोई गुनहगार रहा होऊँ परंतु फिर भी मुझे इससे कोई समस्या नहीं है। (यह शायद अभाव की पूर्ति के लिए रची गई कवि की अपनी व्यवस्था है।) और इसलिए मैं इसे (इस बात को) अगले जन्म तक टालता हूँ। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि 'शारिक़ कैफ़ी' का एक शेर है-

यहीं तक इस शिकायत को न समझो
ख़ुदा तक जाएगा झगड़ा हमारा

यहाँ झगड़ा शायद इसी सूद का मौन-प्रतिउत्तर है जो बहुत बढ़ा कर वसूल किया गया है। 
और इतना कहकर शमशेर आगे कहते हैं मैं इस तरह मुस्कुराता रहा कि जैसे शाम को पानी में पहाड़ के प्रतिबिंब डूब जाते हैं, धीरे-धीरे।
इसके बाद वह अपनी कविता के विषय में सोच कर कहने लगते हैं-

मेरी कविता की तुमने ख़ूब दाद दी - मैंने समझा
           तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो। तुमने मेरी
           कविता की ख़ूब दाद दी।

यहाँ कवि का स्वर उलाहना और क्षोभ से भर जाता है और वह शायद कहना चाहता है कि तुमने मेरी कविता के साथ भी वही किया जो मेरी ज़िन्दगी के साथ..! मैं हमेशा समझता रहा कि तुम मेरी कविता को आत्मसात् करते हो परंतु वह बस तुम्हारे लिए क्षणिक आनंद का विषय रही। वाह तुमने मेरी कविता की क्या ख़ूब दाद दी ?

तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया :
          और जब लपेट न खुले - तुमने मुझे जला दिया।
          मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे : और वह
          मुझे अच्‍छा लगता रहा।

मेरा जिस तरह उपयोग किया जा सकता था तुमने किया और जब उपयोग हेतु मुझ में कुछ भी शेष न बचा तो तुमने मुझे भी जला दिया या छोड़ दिया या मुझसे दूर चली गई। तुम्हें पता था कि एक तुम ही हो जिसे मैं किसी भी शर्त पर स्वीकार करना चाहता हूँ और 'मैं' हमारे अलगाव से उत्पन्न विषाद में जल कर राख हो जाऊँगा। मैं जला भी और तुमने मुझे जलते हुए देखा भी। तुम मुझे देख रहे थे, मैं तुम्हारी आँखों के लिए ज़रा सी भी रोशनी पैदा कर सका (जिसे आँख सेकना कहते हैं) तो मुझे अच्छा लगता रहा।
                  इतना कहकर कवि को जैसे ही एहसास होता है कि वह जिस उलाहना या बदले के भाव से बचना चाहता था शायद अंशतः उसका आरोप कर ही चुका है इसीलिए उसकी भरपाई में आगे कहता है-

एक ख़ुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
          बस गयी है, जैसे तुम्‍हारे नाम की नन्‍हीं-सी
          स्‍पेलिंग हो, छोटी-सी प्‍यारी-सी, तिरछी स्‍पेलिंग।

आह, तुम्‍हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
          उस पिकनिक में चिपकी रह गयी थी,
          आज तक मेरी नींद में गड़ती है।

और वह उसकी प्रशंसा करने लगता है, उसके इशारों को आँखों में स्पेलिंग की तरह बस जाने की बात करता है और किसी पिकनिक में कभी चुभी हुई किसी दूब की स्मृति को सामने लाकर सफ़ाई पेश करने लगता है आगे और स्पष्टता से कहता है-

अगर मुझे किसी से ईर्ष्‍या होती तो मैं
           दूसरा जन्‍म बार-बार हर घंटे लेता जाता
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ -
           तुम्‍हारी बरकत!
           
यहाँ किसी से ईर्ष्या के अर्थ में कोई भी हो सकता है वह पहली प्रेमिका या उसका कोई प्रेमी या यहाँ तक कि 'तुम' का कभी कोई पूर्व प्रेमी जिससे वाचक को ईर्ष्या हो सकती थी परंतु उसे नहीं है। यदि होती तो वह दूसरा जन्म एवं मृत्यु तक को वरण करने को तैयार है परंतु उसे किसी भी बात की ईर्ष्या नहीं है। शायद यहाँ पर 'तुम' अब कवि के जीवन में उसी अधिकार के साथ नहीं है इसलिए उसके सम्बन्ध की वजह से वह अब जैसा भी है, उसी को अपनी 'बरकत' समझता है और स्वयं को इसी देह से अमर मानता है। यह किसी खा सर्जक का सबसे बड़ा सृजन होता है। 
और अंत में कवि सबका सार देते हुए कहता है-

बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
           उड़ते हुए आये, घूमते हुए गुज़र गये
           मुझको लिये, सबके सब। तुमने समझा
           कि उनमें तुम थे। नहीं, नहीं, नहीं।
उसमें कोई न था। सिर्फ़ बीती हुई
           अनहोनी और होनी की उदास
           रंगीनियाँ थीं। फ़क़त।

यहाँ 'तीर', 'नावें', 'पर' अलग-अलग व्यक्तित्व के लोग हैं जो मुझे सहारा देने आए और समय के साथ स्वयं आगे निकल गए।
यहाँ 'नहीं, नहीं, नहीं,' किसी व्यक्ति के नितांत अकेलेपन की चीख़ है। 'तुमने समझा कि उनमें तुम थे' तो तुम्हारा भ्रम है। 'उनमें कोई न था' सिर्फ़ गुज़री हुई संभावनाओं के बीच जो अभाव (रंगीनियाँ थीं) था वही शेष है। बस वही मेरे 'मैं' के रूप में मेरे पास बचा हुआ है। अब मेरा अभाव ही मेरे 'टूटे हुए जीवन की बिखरी हुई कविता' है। 
( यह पूरा लेख मैंने अपने दृष्टिकोण से लिखने की कोशिश की है। इसे लिखने से पहले मैंने कई लोगों के लेख एवं टिप्पणियां पढ़ीं हैं, उनमें से मैंने क्या आत्मसात् किया यह मुझे ज्ञात तो नहीं परंतु यदि कुछ हुआ भी हो तो वह मेरे भावों के साथ किस तरह रूपायित हुआ मुझे इसका भी पता नहीं। यदि कहीं कोई पुट दिखे तो मुझे अवगत कराएं अन्यथा क्षमा करें !
एक दूसरी बात लेख को छोटा किया जा सकता था परंतु इसे लिखने के पीछे मेरा ध्यान मेरे उन साथियों के प्रति रहा है जिन्हें यह कविता कठिन लगती है। इसे खोल पाने में मैं कितना समर्थ-असमर्थ हुआ वह अब आपके सामने हैं, देखें और समझे। )

देव व्रत
काशी हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी

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