मुक्तिबोध और नामवर सिंह के नए प्रतिमान: कृष्ण मोहन
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मुक्तिबोध को पहचानने और साहित्य में उन्हें स्थापित करने का श्रेय नामवर सिंह को उसी तरह मिलता है जैसे निराला के संबंध में रामविलास शर्मा को। नामवर सिंह के आलोचना कर्म की उपलबद्धि मानी जाने वाली किताब "कविता के नए प्रतिमान" के प्रथम संस्करण की भूमिका में स्वयं लेखक का कथन है, "यह तथ्य अनदेखा नहीं किया जा सकता कि 'कविता के नए प्रतिमान’ के केंद्र में मुक्तिबोध हैं। इस पुस्तक का आधार यह धारणा है कि नई कविता में मुक्तिबोध की स्थिति वही है जो छायावाद में निराला की थी।"
हिंदी के नए पाठकों के लिए यह सुखद आश्चर्य का विषय होना चाहिए कि निराला के महत्व का उद्घाटन करने के लिए रामविलास शर्मा को "निराला की साहित्य-साधना" में हज़ार-बारह सौ पेज खर्च करने पड़े जबकि एक उतने ही महत्वपूर्ण कवि का उद्घाटन नामवर सिंह ने सिर्फ एक कविता "अँधेरे में" की व्याख्या द्वारा अपनी किताब के परिशिष्ट में महज़ दस पेज में कर डाला। बाद में आई आपत्तियों का जवाब देते हुए बीस पेज का पुनश्च और जोड़ दिया। मितव्ययिता और संकोच का ऐसा उदाहरण तुलसी के राम ही में मिल सकता है:
"जो संपत्ति सिव रावनहिं दीन्हीं दिएँ दस माथ।
सोई संपदा विभीषनहि सकुचि दीन्ही रघुनाथ।।"
"कविता के नए प्रतिमान" के ये अंतिम तीस पेज लगभग आधी सदी से मुक्तिबोध के अध्ययन का पर्याय बने हुए हैं। आइए इनकी थोड़ी छानबीन करके देखें कि ये प्रतिमान कितने नए हैं और इन्होंने मुक्तिबोध की कविता को समझने में कितनी मदद की है। "कविता के नए प्रतिमान" के परिशिष्ट के रूप में संकलित निबंध "अंधेरे में:परम अभिव्यक्ति की खोज" के आरंभ में नामवर सिंह कहते हैं,"निस्संदेह इस कविता का मूल कथ्य है अस्मिता की खोज; किंतु कुछ अन्य व्यक्तिवादी कवियों की तरह इस खोज में किसी प्रकार की आध्यात्मिकता या रहस्यवाद नहीं, बल्कि गली- सड़क की गतिविधि, राजनीतिक परिस्थिति और अनेक मानव चरित्रों की आत्मा के इतिहास का वास्तविक परिवेश है।" लेख में आगे एक जगह वे कहते हैं, "कवि मुक्तिबोध के लिए अस्मिता की खोज व्यक्ति की खोज नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की खोज है। एक कवि के नाते उनके लिए परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है।"
इस लेख पर उठी आपत्तियों के जवाब में किताब के अगले संस्करण में परिवर्धित लेख "अंधेरे में:पुनश्च" में नामवर सिंह ने अस्मिता के लोप को 'एलियनेशन' या 'अलगाव' की मार्क्सवादी अवधारणा से जोड़ते हुए कहा, "इस 'अलगाव' की प्रक्रिया से मुक्त होने का उपाय, मार्क्स की दृष्टि में 'वर्ग चेतना' है; क्योंकि वर्ग चेतना के लोप से ही मजदूर वर्ग 'अलगाव' का अनुभव करता है, जिसका दूसरा नाम 'मिथ्या चेतना' है।... इसी प्रकार मध्यवर्गीय व्यक्ति की... सच्ची वर्ग चेतना इस बात में है कि वह मजदूर वर्ग के हितों की रक्षा में ही अंततः अपने हितों की रक्षा महसूस करे और इसके लिए पूंजीवाद के विनाश में मजदूर वर्ग का साथ दे। इस चेतना का अभाव मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिए मिथ्या चेतना है। 'अस्मिता का लोप' इस मिथ्या चेतना का ही दूसरा नाम है और इसके विपरीत वर्ग-चेतना को अस्मिता की खोज कहा जा सकता है।"(पृ 246)
यह सच है कि वर्ग-विभाजित समाजों में 'अलगाव' एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और वर्ग-चेतना से लैस हो जाने पर शोषित वर्ग के सदस्य 'अलगाव' को अतीत की वस्तु बना देते हैं और व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए संगठित होते हैं। यानी वर्ग-चेतना की प्राप्ति के साथ ही पुराने समाज की 'अलगाव' जैसी बुराइयों का असर जाता रहता है और नए समाज की संघर्ष, शांति, मैत्री और सहयोग जैसी विशेषताएं मानव मन में उनकी जगह लेती हैं। मार्क्स का नाम जपते हुए नामवर सिंह घपला तब करते हैं जब वे 'वर्ग-चेतना के लोप' से 'अलगाव के अनुभव' की उत्पत्ति मानते हैं। यह वैसे ही है जैसे डार्विन का कोई अनुयायी इंसान के लुप्त होने को बन्दर की उत्पत्ति का कारण बता दे।
बहरहाल, नामवर सिंह 'अलगाव के अनुभव' का दूसरा नाम 'मिथ्या चेतना' तथा 'मिथ्या चेतना' का दूसरा नाम 'अस्मिता का लोप',बताते हैं। इस जानकारी से समीकरण यूँ बनता है---चूँकि 'अलगाव के अनुभव का दूसरा नाम मिथ्या चेतना है, और मिथ्या चेतना का दूसरा नाम अस्मिता का लोप है, इसलिए 'अलगाव के अनुभव' का दूसरा नाम 'अस्मिता का लोप'होगा।
अब इस 'दूसरे नाम' की असलियत पर ग़ौर करें। 'मिथ्या चेतना' अगर किसी चीज़ का 'दूसरा नाम' है, तो वह है ग़लत दृष्टिकोण। 'अलगाव का अनुभव' यूं तो ऐतिहासिक भौतिक सचाई की उपज है लेकिन 'मिथ्या चेतना' का अर्थ अगर हम खींचतान कर 'सही चेतना का अभाव' कर लें तो किसी तरह 'अलगाव के अनुभव' को 'सही चेतना के अभाव' का दूसरा नाम कहा जा सकता है। इसका अर्थ होगा कि 'अलगाव के हर अनुभव' का अर्थ है 'सही चेतना का अभाव'। लेकिन 'मिथ्या चेतना' या 'सही चेतना के अभाव' का दूसरा नाम 'अस्मिता का लोप' है; इसका अर्थ होगा कि 'सही चेतना के हर अभाव' का अर्थ है 'अस्मिता का लोप'। हर तरह के ग़लत दृष्टिकोण को अस्मिता का लोप मान लेने के बाद अस्मिता के साथ आइस-पाइस खेलने के अलावा बाक़ी कुछ नहीं बचेगा।
मार्क्स का हवाला नामवर सिंह ने अस्मिता-केंद्रित व्याख्या को ग़ैरमार्क्सवादी बुर्जुआ अवधारणा मानने वालों पर लाल-पीला होते हुए कुछ यों दिया है, " 'अस्मिता के लोप' और 'आत्मनिर्वासन' की चर्चा '1948 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपि' के युवा मार्क्स ने ही नहीं बल्कि 'पूंजी' के लेखक प्रौढ़ मार्क्स ने भी की है। इस प्रसंग में मार्क्स ने जिन दो जर्मन शब्दों का प्रयोग किया है उनके अंग्रेजी प्रतिशब्द क्रमशः 'एलिएनेशन'और 'री-इफिकेशन' है। इन शब्दों के साथ मार्क्स ने 'सेल्फ एलिएनेशन'और 'लॉस ऑफ सेल्फ' की भी चर्चा की है।...मार्क्स ने जिसे 'लॉस ऑफ सेल्फ' कहा है, वह अन्य विचारकों द्वारा प्रयुक्त 'लॉस ऑफ आइडेंटिटी' ही है जिसे हिंदी में 'अस्मिता का लोप' कहा जा सकता है।" (पृ 245)
अब ज़रा इस तर्क-शैली का जायजा लें। पहले 'अस्मिता के लोप' को मार्क्स के मुंह में डाल दिया फिर इधर-उधर की कुछ गूढ़ लगने वाली बातों के साथ मान लिया कि मार्क्स ने जो कहा था वह 'लॉस ऑफ सेल्फ' था। बस इसके बाद दीदादिलेरी के साथ कह दिया कि यह 'लॉस ऑफ सेल्फ' अन्य विचारकों द्वारा प्रयुक्त 'लॉस ऑफ आइडेंटिटी' 'ही' है। इस 'ही' के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। यह ब्रह्म की तरफ स्वयंभू है। कहना न होगा कि यहाँ नामवर सिंह मार्क्स के प्राधिकार का इस्तेमाल अपने पाठकों पर धौंस जमाने के लिए कर रहे हैं, जो ज्ञान के क्षेत्र में एक नितान्त अनुचित व्यवहार है।
बहरहाल, इस श्रृंखला की अगली कड़ी में हम अपना ध्यान 'अस्मिता' पर केंद्रित करेंगे ताकि पता चल सके कि नामवर सिंह आख़िर किस चीज़ के लिए इतना आग्रह कर रहे हैं, और वे 'अन्य विचारक' कौन-से हैं, जिनमें इनका इतना अधिक विश्वास है:
"वैसे मूल कथ्य है संभावित आत्मरूप या अस्मिता की खोज जिसे मनोविज्ञान की भाषा में 'सर्च फॉर आइडेंटिटी' कहते हैं।" (नामवर सिंह,कविता के नए प्रतिमान,पृ.150)
"आज की कविता में ईमानदारी का ही एक रूप है 'अस्मिता' (आइडेंटिटी) की खोज जिसे आज की भाषा में 'अस्मिता का संकट' कहा जा रहा है।" (वही,पृ.199)
इन उद्धरणों में 'अस्मिता' को 'अलगाव' से जोड़ने की हड़बड़ी नहीं है, इसलिए वह यहाँ अधिक स्वाभाविक रूप में मौजूद है। सबसे पहले यह देखें कि उधार लिए हुए विचारों का खोखलापन भाषा में कैसे व्यक्त होता है। पहले उद्धरण में 'मनोविज्ञान की भाषा' का प्रयोग निरर्थक है क्योंकि 'अस्मिता की खोज' को मनोविज्ञान की भाषा में लिखें या शरीरविज्ञान की भाषा में 'सर्च फॉर आइडेंटिटी' ही लिखेंगे, बशर्ते इसे अंग्रेज़ी में लिखें। इसलिए यहां 'मनोविज्ञान की भाषा' की जगह 'अंग्रेज़ी भाषा' का प्रयोग करना चाहिए।
अगले उद्धरण में 'अस्मिता की खोज' को 'आज की भाषा' में 'अस्मिता का संकट' कहा गया है। यहां वाक्य का 'प्रजेंट कंटीनिवस टेंस' में होना महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है कि यह वर्तमान काल का नवीनतम प्रयोग है जो अभी जारी है। यह लेटेस्ट माल कहां से आया है 'लॉस ऑफ आइडेंटिटी' कहने वाले 'अन्य विचारक' कौन है, इसे वे नहीं बताते। साठ के दशक में यूरोप और अमरीका में अस्मिताकेंद्रित आंदोलन चल रहे थे लेकिन भारत मे इसकी सुगबुगाहट अस्सी के दशक में ही शुरू हुई थी। पूरी किताब में पश्चिमी विचारकों पर जैसी निर्भरता दिखाई पड़ती है, और अंग्रेज़ी को जिस तरह मनोविज्ञान के पर्याय के रूप बरता गया है, यह मान लेने के पर्याप्त कारण हैं कि अस्मिता का आईडिया भी वहीं से उठाया गया है।
'अस्मिता की खोज' जब मुक्तिबोध के काव्य का केंद्रीय सत्य बनती है तो कौन-कौन से गुल खिलते हैं, देखें-----"मुक्तिबोध की इस कविता की विशेषता है कि आज के अन्य कवि जहां अस्मिता की खोज आत्मपरक ढंग से करते हैं, मुक्तिबोध ने उसे अंदर और बाहर दोनों जगह खोजा है, बल्कि यह कहना अधिक संगत होगा कि मुक्तिबोध की काव्यानुभूति की बनावट ही ऐसी है कि इसमें अंदर और बाहर के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता।" (पृ.150)
कविता के संबंध में 'अंदर' और 'बाहर' यानी अंतर्जगत और बहिर्जगत से कवि के रिश्ते का प्रश्न निर्णायक प्रश्नों में से एक है जिस पर मुक्तिबोध ने कविता और गद्य दोनों में पर्याप्त प्रकाश डाला है। लेकिन नामवर सिंह के लिए वहां 'अंदर और बाहर के बीच कोई अंतर नहीं' है। वजह यह है कि दोनों के बीच अंतर होगा तो दोनों का अलग-अलग स्वरूप होगा और फिर यह सवाल उठेगा कि मुक्तिबोध की कविता में कौन प्राथमिक है। इस सवाल का जवाब देने का मतलब होगा इस बुनियादी महत्व के मुद्दे पर कुछ कमिट करना। वह अवसरवादी ही क्या जो आसानी से कुछ कमिट कर ले। यहां हम पहले इस सवाल पर मुक्तिबोध की राय से वाकिफ़ होंगे, फिर नामवर सिंह की कलाबाज़ियों का आनंद लेंगे:
"हमारे जन्म-काल से ही शुरू होने वाला हमारा जो जीवन है, वह बाह्य जीवन-जगत के आभ्यंतरीकरण द्वारा ही संपन्न और विकसित होता है। यदि वह आभ्यंतरीकरण न हो तो हम अंध-कृमि पानी का जीव हाइड्रा बन जाएँ। हमारी भाव-संपदा, ज्ञान-संपदा, अनुभव -समृद्धि तो उस अंतर्तत्व व्यवस्था ही का अभिन्न अंग है कि जो अंतर्तत्व-व्यवस्था हमने बाह्य जीवन-जगत के आभ्यंतरीकरण से प्राप्त की है।...किंतु बातचीत, बहस, लेखन, भाषण, साहित्य और काव्य द्वारा हम निरंतर स्वयं का बाह्यीकरण करते जाते हैं। बाह्य का आभ्यंतरीकरण और आभ्यंतरीकृत का बाह्यीकरण एक निरंतर चक्र है।" (वस्तु और रूप एक, मुक्तिबोध रचनावली, भाग पाँच, पृ.105)
यह है आंतरिक और बाह्य यानी चेतना और परिवेश के द्वंद्वात्मक रिश्ते की सही पहचान जिसमें परिवेश न केवल प्राथमिक, बल्कि चेतना का निर्माता होता है।
जब नामवर सिंह अपनी किताब 'कविता के नए प्रतिमान' में संकलित लेख 'इतिहास की आवृत्ति' में अज्ञेय से बहस करते हैं, तब उनकी प्रतिभा की मौलिकता, उनके संघर्ष की प्रखरता, और उनके प्रतिमानों की नवीनता सही मायने में स्थापित होती है। ध्यान रहे कि यह किताब जिस 'नई कविता' को केंद्र करके लिखी गई है, अज्ञेय और मुक्तिबोध उसके परस्पर विपरीत दो छोर थे। अज्ञेय उच्चवर्गीय संवेदना समेत हर उस चीज़ के प्रतिनिधि थे, जिसके ख़िलाफ़ मुक्तिबोध आजीवन संघर्षरत रहे।
'तार सप्तक' और 'दूसरा सप्तक' का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए नामवर सिंह लिखते हैं,---" 'अन्वेषण' का आग्रह दूसरा सप्तक में भी दोहराया गया है किंतु 'तार सप्तक' में जहां 'राहों के अन्वेषण' की बात की गई थी, 'दूसरा सप्तक' में बल 'आत्म-अन्वेषण' पर आ गया। 'वस्तु-सत्य' और 'व्यक्ति-सत्य' के बीच द्वंद्व की स्वीकृति और इन दोनों को एकाकार करने की समस्या अज्ञेय ने यहां भी रखी है, किंतु कथन में बल का अपसरण स्पष्ट है।...अज्ञेय के इस काव्य-सिद्धांत की नवीनता यह है कि इसमें बड़े कौशल से 'तार सप्तक' की परंपरा को आत्मनिष्ठ मोड़ दे दिया गया। 'वस्तु-सत्य' निःशेष हो गया सत्य में और फिर तथ्य भी रागात्मकता के अधीन होकर अपनी रही सही वस्तुनिष्ठता खो बैठा। इस प्रकार 'वस्तु -सत्य' सिमटकर 'अात्म-सत्य' हो गया। अन्वेषण की जो राह बाहर की ओर जा रही थी, वह सहसा अंदर की ओर मुड़ गई। जोर वास्तविकता से हटकर ईमानदारी पर आ गया। उल्लेखनीय है कि 1951 में 'प्रतीक' के संपादकीय ने 'ईमानदारी' का नारा दिया; जिससे आगे चलकर 'अनुभूति की प्रामाणिकता' की अवधारणा विकसित हुई। बौद्धिकता का स्थान 'रागात्मकता' ने ले लिया और छायावाद का प्रिय शब्द 'अनुभूति’ पुनः प्रचलन में आ निकला। ये सभी मान्यताएं अंत में 'व्यक्तित्व की खोज' का दार्शनिक रूप लेकर सामने आईं। 'प्रयोग ' शब्द को वाद-दूषित पाकर 'नई कविता' नामक संज्ञा का प्रचलन हुआ। 1951 में 'दूसरा सप्तक' के प्रकाशन के साथ 'नई कविता' के जिन सिद्धांतों का सूत्रपात किया गया, उनका विस्तार 'तीसरा सप्तक' के प्रकाशन-काल 1959 तक अबाध गति से होता रहा।"(पृ.89-90)
ग़ौरतलब है कि उपर्युक्त वक्तव्य में 'तार सप्तक' से 'दूसरा सप्तक' में हुए संक्रमण की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तनों का ब्यौरा देते हुए लेखक की मुद्रा यह आभास देने की है कि वह इन परिवर्तनों का विरोधी है, लेकिन जैसा कि हम आगे देखेंगे, यह मुद्रा 'मन-मन भावे, मूँड़ हिलावे' से अधिक कुछ भी नहीं है। आइए, इन परिवर्तनों के बारे में नामवर सिंह के क़ीमती विचार-स्फुलिंगों को एकत्र करें, जो किताब में हर तरफ़ बिखरे हुए हैं, और अनायास ही मिल जाते हैं।
सबसे पहले 'तार सप्तक' की वस्तुनिष्ठ परम्परा को आत्मनिष्ठ मोड़ देने के लिए ज़िम्मेदार 'अात्म-अन्वेषण' को लेते हैं। आत्म को अंग्रेज़ी में 'सेल्फ' कहते हैं और अन्वेषण को 'सर्च'। अंग्रेज़ी में इसे कहेंगे 'सर्च फॉर सेल्फ'। नामवर सिंह की इस घोषणा से हम पहले ही वाकिफ़ हैं कि 'लॉस ऑफ आइडेंटिटी' 'ही' 'लॉस ऑफ सेल्फ' है, यानी 'सेल्फ' और 'आइडेंटिटी' एक ही वस्तु हैं। निष्कर्ष यह निकला कि 'आत्म-अन्वेषण' यानी 'सर्च फ़ॉर सेल्फ' को 'सर्च फॉर आइडेंटिटी' यानी 'अस्मिता की खोज' भी कह सकते हैं। बात बोलेगी, हम नहीं।
जहां तक 'वस्तु-सत्य' और 'व्यक्ति-सत्य' में 'वस्तु-सत्य' पर ज़ोर कम करने का सवाल है, तो मुक्तिबोध के संबंध में 'अंदर और बाहर' के अंतर को मटियामेट करके नामवर सिंह ठीक यही काम ख़ुद कर चुके हैं। अज्ञेय ने अगर 'वस्तु- सत्य' को 'तथ्य' में निःशेष किया तो नामवर सिंह ने 'तथ्य' को 'सत्य' का दर्जा देते हुए उसे 'ईमानदारी' की टोपी भी पहना दी:---
" पिछले दौर के कवियों ने 'तथ्य' और 'सत्य' के अंतर को लेकर काफी मगजपच्ची की थी। वे 'सत्य' के लिए चिंतित थे। उन्होंने 'तथ्य' को रागात्मकता से रंजित करके सत्य का रूप दिया था। आकस्मिक नहीं कि इस क्रम में ईमानदारी भी राग-रंजित हुई और पिछले दौर की रागात्मकता से रंजित होकर ईमानदारी 'प्रामाणिक अनुभूति' हो गई। सातवें दशक के कवियों की दृष्टि नग्न तथ्य पर है। वे रागात्मक आवरण को हटाने में विश्वास करते हैं। कदाचित इसी क्रम में उन्होंने 'प्रामाणिक अनुभूति' का रंगीन आवरण हटाकर ईमानदारी को फिर से सामने ला दिया।" (पृ.191)
ध्यान रहे कि यहाँ नामवर सिंह 'सातवें दशक के कवियों' के प्रवक्ता के रूप में, 'पिछले दौर के कवियों' के मुक़ाबले, उनका पक्ष रख रहे हैं। ग़ालिब याद आते हैं:
शौक़ हर रंग रक़ीबे-सरो-सामाँ निकला
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला
अब आते हैं 'ईमानदारी' और 'प्रामाणिक अनुभूति' पर। निम्नलिखित उद्धरण से स्पष्ट है कि 'ईमानदारी' स्वयं नामवर सिंह के लिए भी काम्य है, बशर्ते वह 'प्रतीक' और 'दूसरा सप्तक' वाली 'ईमानदारी' न हो। 'ईमानदारी' की अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, "इस बार ईमानदारी विद्रोह का पर्याय बन कर प्रकट हुई, जिसमें ईमानदारी का मतलब था साहस।" 'ईमानदारी और प्रामाणिक अनुभूति' नामक इस अध्याय में 'तीसरा सप्तक' (1959) के बाद के, सातवें दशक के कवियों पर 'प्रकाश' डाला गया है। सातवें दशक के कवियों ने जिस ईमानदारी को अपनाया उसमें "अप्रिय से अप्रिय वास्तविकता के साक्षात्कार" का साहस और विद्रोह था। आइए देखें कि यह छठे दशक की इमानदारी से किस हद तक भिन्न है:
"कविता के पिछले पचास वर्षों के इतिहास से स्पष्ट है कि हर नए उन्मेष के मूल में ईमानदारी की आवाज है, किंतु हर दौर की ईमानदारी की अपनी भाषा है। छायावाद की ईमानदारी 'आत्मानुभूति' है, तो उत्तर छायावादी ईमानदारी 'नीयत'; प्रगतिवाद की ईमानदारी का आधार 'वर्ग-चेतना' है, तो प्रयोगशील नई कविता की ईमानदारी 'प्रामाणिक अनुभूति'; और अब सातवें दशक में 'विसंगति बोध' ही ईमानदारी का पर्याय है। साहस और विद्रोह किसी न किसी रूप में हर दौर की ईमानदारी के साथ हैं, चाहे उस साहस का रूप जो भी हो।" (पृ.191)
'प्रतीक' के संपादकीय में दिए 'ईमानदारी' के नारे का विरोध करते-करते ऐसा लगता है कि लेखक पर ईमानदारी का दौरा पड़ गया है। उसे हर जगह और हर बात में ईमानदारी ही दिखने लगती है। जब अपने पास कोई विचार नहीं होता है, और दूसरे का माल हड़प कर ख़ुद को उसका विरोधी भी जताना होता है, तो ऐसी ही दयनीय लफ़्फ़ाज़ी से काम लेना पड़ता है। विचार का खोखलापन अंतिम वाक्य तक आते-आते प्रकट हो गया है, जब 'रूप' की निरर्थक पुनरावृत्ति, सातवें दशक की 'अस्मिता- खोजी' कविता में साहस के बदले हुए 'रूप' पर ज़ोर देने के बजाय उसे और संदिग्ध कर जाती है। इस उद्धरण से भी यही ज़ाहिर होता है कि छठे दशक की कविता में अपने युग के अनुरूप ईमानदारी 'प्रामाणिक अनुभूति' थी, जो सातवें दशक में आकर
'विसंगति-बोध' बनी। इस प्रकार सातवें दशक से पहले की 'प्रयोगशील नई कविता' के, 'प्रामाणिक अनुभूति' और 'ईमानदारी' जैसे, मूल्यों की नामवर सिंह ने औचित्य-स्थापना ही की है। निम्नलिखित उद्धरण से यह भी स्पष्ट है कि सातवें दशक की 'ईमानदारी', 'विसंगति-बोध' का जन्म पूर्ववर्ती 'नई कविता की विसंगति के बोध' से हुआ।
"इस प्रकार नई कविता की अंतर्निहित विसंगति के बोध ने सातवें दशक की कविता में व्यापक स्तर पर एक विसंगति-बोध को जन्म दिया जो साहस के समानांतर ही ईमानदारी का पर्याय बन कर सामने आया।" (वही)
एक ही पेज से लिए गए इन उद्धरणों से पता चलता है कि नामवर सिंह ने सचमुच गागर में सागर भर दिया है। इस सागर का पूरा विवेचन तो यहाँ संभव नहीं, लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इस लेखक को अपनी भाषा से प्यार नहीं है। इसकी भाषा में ईमानदारी, साहस, विसंगति-बोध, और विद्रोह एक दूसरे का पर्याय बन जाते हैं, अस्मिता की खोज जिनका एक रूप है। इसमें तथ्य और ईमानदारी तथा रागात्मकता और रंगीन आवरण के बीच फ़र्क़ करना मुश्किल है। अंतिम वाक्य से स्पष्ट नहीं होता कि नई कविता की वह कैसी अंतर्निहित विसंगति थी जिसके बोध से सातवें दशक की कविता में व्यापक स्तर पर उसका (पुनः?) जन्म हुआ। जब भाषा का प्रयोग किसी सचाई को उजागर करने की जगह उस पर पर्दा डालने के लिए किया जाता है, वह ऐसी ही पिलपिली हो जाती है।
रहा सवाल 'रागात्मकता' का तो उस पर आरोप ही यह था कि उसने 'तथ्य' और 'ईमानदारी' को 'रंजित' करके 'प्रामाणिक अनुभूति' में बदल डाला है। अब जबकि दूध का दूध और पानी का पानी हो चुका है, और यह बात खुलकर साफ़ हो गई है कि 'प्रामाणिक अनुभूति' युग की मांग थी और उसमें पर्याप्त 'साहस', 'विद्रोह', 'ईमानदारी' वगैरह के साथ-साथ आने वाले युग का विसंगति बोध भी मौजूद था, तो सुधीजन विचार करें कि इस 'अपराध' के लिए उसे सज़ा मिलनी चाहिए या पुरस्कार!
इस श्रृंखला में अब तक हमने नामवर सिंह को अपनी किताब "कविता के नए प्रतिमान" में अज्ञेय के 'आत्म-अन्वेषण',
'ईमानदारी', और 'आत्म-सत्य' आदि काव्य-मूल्यों से मुक़ाबला करते, और पलक झपकाए बिना इन्हीं अवधारणाओं को थोड़ा किन्तु-परंतु लगाकर अपने मौलिक योगदान के बतौर पेश करते देखा है। यही नहीं उन्होंने सातवें दशक के काव्य-मूल्य के बतौर अपनी एकमात्र खोज 'विसंगति-बोध' को न जाने किस 'ईमानदारी' या 'साहस' की वजह से छठें दशक की तरफ़ ठेलकर उल्टी गंगा तो बहा दी, लेकिन वे यह भूल गए कि इससे उनके प्रतिमानों की नवीनता और मौलिकता की पोल खुल जाएगी। सच कहें तो यह सब अपने घोषित वैचारिक विरोधी के सामने दयनीय और हास्यास्पद आत्मसमर्पण था। इस किताब(१९६८) को प्रकाशित हुए पचास बरस हो चुके हैं, लेकिन अब भी 'अपने युग को व्याख्यायित करने वाली आलोचना-कृति' के रूप में इसकी मान्यता बरक़रार है। हिंदी की बौद्धिक और लोकतांत्रिक विचार-विमर्श की संस्कृति पर यह मान्यता ख़ुद ही एक सवालिया निशान है। बहरहाल, श्रृंखला के अंत में अब हम अपने निष्कर्षों की ओर बढ़ेंगे।
अज्ञेय की इस प्रकरण में अंतिम काबिले-एतराज़ बात थी 'व्यक्तित्व की खोज' जो 'दार्शनिक रूप' लेकर सामने आई थी। व्यक्तित्व एक समग्रता मूलक वस्तु है जिसमें व्यक्ति के रंग रूप से लेकर उसके विचार व्यवहार का हर पहलू समाविष्ट होता है, जबकि अस्मिता एक धारणा है जो व्यक्ति की अपने परिवेश, परिस्थिति और समाज में अवस्थिति पर निर्भर होती है। इसीलिए व्यक्तित्व की खोज नहीं होती उसका निर्माण होता है। अगर कोई अपने व्यक्तित्व की खोज करने निकलेगा तो व्यवहार में वह अपनी अस्मिता ही की खोज करेगा। यह खोज भी अपने या समाज के मनोजगत से बाहर नहीं हो सकती। इसलिए व्यक्तित्व एक ठोस, वस्तुगत सत्य है जबकि अस्मिता एक अमूर्त, मनोगत सत्य। इस प्रकार अज्ञेय ने व्यक्तित्व की जिस खोज में 'आत्म-अन्वेषण' करने की ठानी थी, वह आगे चलकर नामवर सिंह के हाथों 'अस्मिता की खोज' के रूप में संपन्न हुई। अज्ञेय उसे दार्शनिक रूप देने में भले ही सफल हुए हो नामवर सिंह, आधुनिकतावाद से लेकर मार्क्सवाद तक में घुसपैठ करने की लाख कोशिशों के बावजूद, ऐसा नहीं कर सके। इसीलिए कहते हैं, नकल हमेशा होती है पर बराबरी कभी नहीं।
अज्ञेय के काव्य सिद्धांतों के अनुसार 1951 से 1959 तक अबाध गति से चलने वाली 'नई कविता' का औचित्य उस दौर के परिवेश से भी स्थापित करते हुए नामवर सिंह कहते हैं---- "यदि 1938 की बौद्धिक कशमकश नेहरू से संबद्ध थी तो 1951 का 'आत्मान्वेषण' भी नेहरु की नई स्थिति से असंबद्ध न था।...जेल के अंदर 'भारत की खोज' करने वाले नेहरू के सामने अब दुनिया में 'भारत की खोज' का प्रश्न था । इसके समानांतर यदि कवि 'आत्म-सत्य' और अपने 'व्यक्तित्व की खोज' की ओर प्रवृत्त हुए तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा। परिवेश के साथ काव्य की यह संगति सर्जनात्मक विकास के लिए वरदान सिद्ध हुई।" (पृष्ठ 91)
जाने क्या बात है कि किसी भी प्रकार की 'खोज' का ज़िक्र आते ही नामवर सिंह भावुक हो जाते हैं, और ऐसी ग़लतियाँ कर बैठते हैं, जिसकी आशा किसी ठीक-ठिकाने के आदमी से तो नहीं की जाती। यहाँ 'भारत की खोज' के साथ 'व्यक्तित्व की खोज' के मेल से उत्साहित होकर वे न केवल उसे 'सर्जनात्मक विकास के लिए वरदान' घोषित कर देते हैं, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से 'लिखने' और 'करने' का अंतर भी भूल जाते हैं। ध्यान रहे कि सत्ताकामी मन सत्ता को ही परिवेश मानना और मनवाना चाहता है। छठें दशक की कविता का मूल्यवान हिस्सा नेहरू के सपनों और उनकी फलश्रुतियों पर उठने वाली शंकाओं और सवालों से प्रेरित था, न कि उनकी 'संगति' में था।
बहरहाल, अज्ञेय के काव्य सिद्धांतों पर छठें दशक की कविता चली तो सत्ता के गलियारे में भी उनका दबदबा रहा। स्थापित करने और मानदंड बनाने के लिए किसी और कवि को ढूंढना भी नहीं था। ख़ुद ही अच्छी-ख़ासी कविता कर लेते थे। नामवर सिंह के सामने समस्या यह थी कि सातवें दशक के अनुरूप नया कवि भी लाना था और नए सिद्धांत भी गढ़ने थे। उन्होंने सफलता का सुनिश्चित नुस्खा आज़माया; सत्ता की सेवा में अपनी उपयोगिता साबित कर चुके औजारों को ही कलई चढ़ाकर चमकाया और सत्ता के लिए ख़तरा बनने की संभावना रखने वाले कवि के प्रशंसक बन कर उसके शब्दों की धार को कुंद करने निकल पड़े। कुछ उनकी प्रतिभा और कुछ परिस्थितियों का योग, सो एक ही तीर से दो शिकार करने के इस प्रयास में उन्हें भरपूर सफलता मिली।
ख़ैर, आख़िर में ग़ालिब का एक शेर इस परिस्थिति के मद्देनज़र प्रस्तुत है:
लाज़िम नहीं कि ख़िज़्र की हम पैरवी करें
माना कि इक बुज़ुर्ग हमें हमसफ़र मिले
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