Wednesday 14 September 2022

यह भी था और वह भी था पर था क्या : कृष्ण मोहन

यह भी था और वह भी था पर था क्या 
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आधुनिक युग में विकास के वैज्ञानिक नियम के बतौर द्वन्द्वात्मकता को पर्याप्त स्वीकृति प्राप्त हो गई है। हिन्दी में भी अब इस पर कोई विवाद नहीं रह गया है। लेकिन इस सर्वस्वीकार के आवरण में हमारे विद्वानों और विचारकों ने इसके मूलभूत चरित्र की ही अनदेखी कर दी है। नाम-रूप में स्वीकार और अन्तर्वस्तु में निषेध ही द्वंद्वात्मकता के साथ हमारे व्यवहार की विशिष्टता बन गई है। आश्चर्य की बात यह है कि बाक़ायदा घोषित द्वन्द्ववादियों ने भी इसमें कोई कोताही नहीं की है। यह मसला चूँकि अत्यन्त बुनियादी क़िस्म का है इसलिए इसे ठीक से समझना जरूरी है।

किसी भी विकासोन्मुख और जीवन्त वस्तु (व्यक्ति, विचार, स्थिति या परिघटना) का गठन उसमें सक्रिय परस्पर द्वन्द्वरत तत्वों से होता है। उनमें से कुछ तत्व परस्पर अंतर्विरोधी होते हैं जिनके आपसी रिश्तों के कारण वस्तु के अन्दर बहुस्तरीय अंतर्विरोध सक्रिय होते हैं। इन अंतर्विरोधों के बारे में जानने योग्य सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक समय में इनमें से कोई एक ही प्रमुख अंतर्विरोध होता है जो वस्तु के मूल चरित्र को निर्धारित करता है। मुख्य अंतर्विरोध के सशक्त पक्ष के अनुरूप इसका निर्धारण होता है, लेकिन जद्दोजहद के दौरान दूसरा पक्ष भी भारी पड़ सकता है। तब वस्तु अपने विपरीत में बदल जाती है। इसके अलावा समय के साथ मुख्य अंतर्विरोध अपनी प्रमुखता खो सकता है और कोई गौण अंतर्विरोध मुख्य हो सकता है। ऐसी स्थिति में भी वस्तु का मूल चरित्र बदल जाता है, भले ही यह बदलाव विपरीत दिशा में हो। यही नहीं, क्रमिक विकास भी किसी एक बिन्दु पर जाकर गुणात्मक छलांग में बदल जाता है जिससे वस्तु अपने विकास की अगली अवस्था में चली जाती है और उसके आंतरिक अंतर्विरोधों का क्रम बदल जाता है।

कहने का आशय यह है कि परिवर्तनशीलता ही द्वन्द्ववाद का सारतत्व है और यह तभी संभव है जब किसी समय विशेष में वस्तु का कोई मूलभूत चरित्र हो। अगर कोई मूल चरित्र होगा ही नहीं तो बदलेगा क्या? इसी बिन्दु पर संशयवाद का टकराव द्वन्द्ववाद से होता है। यह वस्तु के किसी मूलभूत स्वरूप को मानने से  इनकार कर देता है और इसके तमाम संघटक तत्वों की छानबीन में ही लगा रहता है। इसका प्रतिनिधित्व हमारे समय में उत्तर-आधुनिकता करती है। यही वजह है कि अन्य तत्वों के दमन की आशंका की आड़ में उत्तर-आधुनिकता वस्तु के किसी संघटक तत्व की प्रधानता की संभावना से इनकार कर देती है। परिणामस्वरूप दमन की पुरानी व्यवस्था बनी रहती है और उसमें परिवर्तन की हर संभावना का निषेध हो जाता है। दूसरे शब्दों में, जब वे अपने उत्तर-आधुनिक युग में किसी महाख्यान (मेटानैरेटिव) की संभावना से इनकार करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि साम्राज्यवाद इस युग का अकेला महाख्यान बना रहेगा और उसके विरोधियों में से किसी को उसके मुकाबले के लिए शक्तिशाली बनकर प्रमुखता पाने का प्रयास नहीं करना चाहिए अन्यथा साम्राज्यवाद के अन्य विरोधियों का 'दमन' हो जाएगा। इसीलिए यह विचारधारा अमरीका समेत तमाम विकसित पूंजीवादी देशों की अकादमिक दुनिया में महत्व पाती रही है। ख़ास बात यह है कि हिंदी की आधिकारिक मार्क्सवादी आलोचना भी इससे बुरी तरह से ग्रस्त रही है, क्योंकि इसका अवसरवाद इसे कोई एक मज़बूत स्टैंड लेने से रोकता रहा है। मजबूरी में इसे नरो - कुंजरो शैली से ही काम चलाना पड़ता है।

हिन्दी-उर्दू क्षेत्र में 19वीं सदी में हुए नवजागरण (जिसे कुछ लोग 'हिन्दी नवजागरण' कहते हैं), के आकलन के संबंध में उपरोक्त संशयवाद का चमत्कार दिखाई पड़ता है। ब्रिटिश राजभक्ति और देशभक्ति के बीच इस नवजागरण की त्रिशंकु स्थिति के कारण हमारे इतिहासकार किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में नाकाम रहे और इन दोनों आग्रहों की मौजूदगी और उनके बीच संघर्ष की स्वीकृति को ही द्वन्द्ववाद का पर्याय समझते रहे। नवजागरणयुगीन चेतना के चुक जाने और सांप्रदायिक फासीवाद के आगे हथियार डाल देने के कारण इसका आकर्षण घटने और नई परिस्थिति में नए और मूलगामी चिंतन से प्रेरित पहलकदमियों ने नवजागरणवादियों को काफी कुछ रक्षात्मक स्थिति में डाल दिया है और बार-बार उन्हें अपने औचित्य और प्रासंगिकता की घोषणा करनी पड़ रही है। ऐसी ही घोषणा मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने 'समकालीन जनमत' के मार्च 2004 के अंक में प्रकाशित इण्टरव्यू में की है। प्रेमशंकर के सवालों के जवाब में उन्होंने नवजागरण के समर्थन में बोलते हुए भी उसकी अनेक कमज़ोरियों को उजागर कर दिया है। इसी के साथ छपे नामवर सिंह के इण्टरव्यू में हालांकि नवजागरण को लेकर कुछ विचारणीय स्थापनाएँ दी गई हैं, लेकिन प्रस्तुत लेख के आरम्भ में द्वन्द्वात्मकता के प्रति हमारे जिस रुख़ का ज़िक्र किया गया है उसका पर्याप्त प्रमाण उनकी बातों से भी मिलता है।

साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के बरक्स नवजागरण और उसके पुरोधाओं के चरित्र पर पुनर्विचार के प्रश्न पर अपना पक्ष रखते हुए मैनेजर पाण्डेय नवजागरण के प्रतीक पुरुष भारतेन्दु का 'हिन्दू मानसिकता' के सवाल पर बचाव करते हैं। वे यह बताते हैं कि भारतेन्दु ने 'कुरान शरीफ़' का अनुवाद किया, 'पवित्रात्मा' नामक किताब लिखी जिसमें इस्लाम के पाँच बड़े लोगों की जीवनी और तारीफ थी। यही नहीं वे 'रसा' नाम से उर्दू में शायरी करते थे। इस तर्क-प्रक्रिया का विकास करते हुए वे भारतन्दु के नाटक 'भारत दुर्दशा' के एक दृश्य के शीर्षक 'किताबखाना' का ज़िक्र भी कर डालते हैं। आशय वही है, उर्दू के प्रति लगाव का। सांप्रदायिकता के संदर्भ में कोई विचारक अगर उर्दू शब्दों के प्रयोग को इतना महत्व दे रहा है, तो यह समझा जा सकता है कि उसे अपने पक्ष पर कितना भरोसा है। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं “नवजागरण के संबंध में रामविलास जी की निंदा करने वाले घुमा-फिराकर वहीं काम करते हैं, जो उन्होंने किया। रामविलास जी ने नवजागरण के किसी अंतर्विरोध पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं महसूस की। उनको यह महसूस नहीं होता कि भारतेन्दु के यहाँ दोनों तरह की चीजें पड़ी हैं।... रामविलास जी हिन्दी नवजागरण के सिर्फ पाजिटिव देखा करते थे और विरोधी केवल निगेटिव देखते हैं।"

'दोनों तरह की चीज़ें', यानी सांप्रदायिक भी और धर्मनिरपेक्ष भी। आगे चलकर वे नवजागरण में सांप्रदायिकता की बीज रूप में मौजूदगी को स्वीकार करते हैं और इसके खिलाफ संघर्ष को महत्व देते दीख पड़ते हैं। वे इस बात की क़तई चिन्ता नहीं करते कि नवजागरण अपने मूल चरित्र में क्या था? हाँ, वह क्या नहीं था, इसके लिए तमाम कच्चे-पक्के सबूत ज़रूर जुटाते हैं। जाहिर है कि अंतर्विरोधों की मौजूदगी की साहसिक घोषणा के बावजूद वे द्वन्द्ववाद के नियम की अवहेलना करते हैं। इतिहास को केवल पाजिटिव अथवा केवल निगेटिव रूप में देखना उतना ही गलत है जितना उसे पाजिटिव और निगेटिव के पुलिन्दे के रूप में देखना!

ज्ञानमीमांसा के साथ यहाँ इतिहासबोध का प्रश्न भी खड़ा होता है। क्या ऐतिहासिक परिघटनाओं को समझने में सकारात्मक-नकारात्मक, शुभ-अशुभ और उचित-अनुचित जैसी नैतिक श्रेणियाँ हमारी कुछ मदद कर सकती हैं? इससे भी बढ़कर यह कि इतिहास को समझने के लिए हमारा रवैया वस्तुगत होना चाहिए या आत्मगत। वाल्टर बेंजामिन को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि 'अतीत का ऐतिहासिक रूप वह नहीं है जैसा वह था बल्कि वह है जैसा वह ख़तरे के वक्त याद आता है।'

कहना न होगा कि यह विशुद्ध रूप से आत्मनिष्ठ और प्रत्ययवादी दृष्टिकोण है। बेंजामिन ने किस संदर्भ में यह बात कही थी इसे देखना होगा, लेकिन मौजूदा प्रसंग में यह बिलकुल अस्वीकार्य है। यह इतिहास को 'पाठ' और 'आख्यान' बना देने के उत्तर-आधुनिक नज़रिए के समतुल्य है। फिर, ख़तरे के वक़्त व्यक्ति की स्मृति तो ख़तरे के प्रति उसके रिस्पांस से निर्धारित होगी। फासिज़्म की चुनौती के सामने नवजागरण की स्मृति हममें एक भारी भूल और भटकाव के रूप में कौंधती है तो हम क्या करें? भूकंप के पहले ही झटके में जो घर गिरने-गिरने को हो आया, उसकी मज़बूती की बात करना जले पर नमक छिड़कना है। 

इसके साथ ही मैनेजर पाण्डेय ने 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' को नष्ट करने और तसलीमा नसरीन की किताब पर प्रतिबंध लगाने का हमारे समय में कट्टरतावाद की दो प्रमुख अभिव्यक्तियों के रूप में उल्लेख किया है। एक हिन्दू कट्टरवाद और एक मुस्लिम कट्टरवाद। हिसाब बराबर! सतह की चीजें ऐसी ही दिखती हैं। महाराष्ट्र में इंस्टीट्यूट को नष्ट करने का दण्ड उन अपराधियों को नहीं मिला। वह मिला उस लेखक को जिसकी किताब के ख़िलाफ़ यह कारनामा किया गया था। महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने उस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। आम विश्वास के विपरीत, वे अपराधी शिवसैनिक नहीं थे, बल्कि नवजागरण की मुख्यधारा की प्रतिनिधि कांग्रेस सरकार के ही उकसावे पर काम करने वाले उपद्रवी थे जो उग्र हिंदुत्ववादी तेवर से शिवसेना -भाजपा को हक्का-बक्का कर देना चाहते थे। रहा सवाल तसलीमा नसरीन का तो उनकी किताब पर प्रतिबंध भी नवजागरण की धारा के प्रतिनिधि वामपंथियों की सरकार ने लगाया है और उसकी शह पाकर ही कट्टरपंथियों का हौसला बढ़ा है। अगर ये बातें महज़ तात्कालिक लग रही हों तो हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न पर नवजागरण, स्वाधीनता आंदोलन और आज़ाद भारत की सरकारों की भूमिका की एक बार फिर छानबीन कीजिए। नवजागरण का मूल चरित्र सामने आ जाएगा।

इण्टरव्यू के अंत तक आते-आते मैनेजर पाण्डेय नवजागरण के मूल्यांकन के प्रतिमान के रूप में हमारी स्मृति के साथ-साथ 19वीं सदी के लेखकों की चेतना के अवगाहन का प्रस्ताव करते हैं- "इन सबकी मुख्य चिंता साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष और मुक्ति की कामना ही थी।" हमें इस पर यही कहना है कि अगर ऐसी कोई कामना या चिंता थी भी तो यह देखना होगा कि वस्तुगत स्तर उसका नतीजा क्या निकला। जिस आज़ादी को हम इस नवजागरण की सबसे बड़ी भेंट मानते हैं क्या वह सांप्रदायिक बँटवारे की शर्त पर नहीं आई। और क्या यह सच नहीं है कि आज़ाद भारत के नागरिक समाज में लोकतान्त्रिक अवकाश लगातार छीजता गया और विभाजन की दीवार और ऊँची होती गई। आत्मगत स्तर पर हमारी और उनकी कामना और चेतना चाहे जो हो, इस वस्तुगत सचाई का मतलब क्या है? लाख टके का सवाल यह है कि नवजागरण के चरित्र के निर्धारण में आत्मनिष्ठ कारकों की भूमिका प्राथमिक होगी या वस्तुनिष्ठ कारकों की।

इसी तरह नामवर सिंह ने 13वीं-14वीं शताब्दी को ही नवजागरण युग मानने पर ज़ोर दिया है तथा नवजागरण की 'डायलेक्टिक्स' को समझने का भी आग्रह किया है। मूलतः यह अवधारणा रामविलास शर्मा की है। उन्होंने ही इस दौर को 'लोकजागरण' का काल कहा था। इस अवधारणा में ख़ास तौर पर मध्यकाल की बेहतर समझ हासिल करने की गुंजाइश है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर तत्कालीन समाज में आधुनिकता की दिशा में प्रयाण के अनेक ठोस संकेत मिलते हैं। मगर नामवर सिंह अपनी इस स्थापना को तार्किक परिणति तक ले जाने में हिचक जाते हैं और 1857 की जंग के मूल चरित्र को लेकर असमंजस में फँस जाते है, क्योंकि उसमें सामंतों की भागीदारी थी। यहाँ एक बार फिर आत्मगत चेतना और इच्छा का वस्तुगत सचाई से टकराव होता है। उस विद्रोह में निजी तौर पर कोई किसी लक्ष्य को लेकर लड़ रहा हो, समग्रता में वह उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जंग थी, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। यही नहीं उसमें एक भारतीय ढंग की संवैधानिक राजतंत्रात्मक व्यवस्था का स्वरूप उभर रहा था। उसकी अधिकांश घोषणाओं और माँगों की लोकतांत्रिक दिशा भी निर्विवाद है। ऐसी स्थिति में इन आशंकाओं का क्या मतलब है? क्या किसी गुलाम का आज़ादी के लिए लड़ना अपने आप में प्रगतिशील क़दम नहीं है? क्या कोई उपनिवेशवादी ताक़त अपने उपनिवेशों को आधुनिक और प्रगतिशील युग में ले जाती है, अथवा ले जा सकती है? आजकल कुछ ऐसा ही तर्क इराक़ में अमरीका के ढँके-छिपे समर्थक भी दे रहे हैं। 'इण्डिया टुडे' जैसी पत्रिकाएँ खुलेआम इराक़ी लड़ाकों को 'प्रतिक्रियावादी' घोषित कर रही हैं। कल्पना कीजिए कि अगर ये विद्रोही सफल नहीं रहे, तो इराक़ की आने वाली पीढ़ियाँ भी क्या यही मानने को तैयार नहीं हो जाएँगी।

विडंबना तो यह है कि इसी इंटरव्यू में चीन के जिस 'अफीम युद्ध' को डॉ. नामवर सिंह ने आदर्श माना है वह पूरी तरह सामंतों के सहारे लड़ा गया ऐसा युद्ध था जिसका अंत समझौते में हुआ था। इसके बावजूद चीन के इतिहास में उसका गौरवपूर्ण स्थान है। रूस में 1825 का कुलीन सैन्याधिकारियों का 'दिसंबरवादी' विद्रोह भी इसी श्रेणी में आता है। फिर भी अगर हम 1857 की अपनी परंपरा को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं तो इसके लिए निश्चय ही पिछले 150 साल की औपनिवेशिक परंपरा ज़िम्मेदार है।
कृष्ण मोहन

(एक विद्यार्थी के संस्मरण में उल्लिखित मैनेजर पाण्डेय और नामवर सिंह से संबंधित मेरी एक टिप्पणी को लेकर अनेक विद्वानों और विदूषियों में यह भ्रम पैदा हो गया कि शायद मैंने ऐसी कोई टिप्पणी पहली बार क्लास में शिक्षक के रूप में अपने विशेषाधिकार का फ़ायदा उठाकर कर दी है। इसका निराकरण करने के लिए मैं अत्यंत विनम्रतापूर्वक यह बताना चाहता हूँ कि मैंने इन महानुभावों के बारे लिखते हुए सैकड़ों पेज काले किये हैं। इनमें से एक निहायत छोटी सी टिप्पणी वर्ष २००४ की यहाँ दे रहा हूँ, जो इलाहाबाद से उस समय निकलने वाली 'बतकही' नाम की पत्रिका में छपी थी। बाद में यह मेरी किताब 'आईनाख़ाना' में भी संकलित हुई- कृष्ण मोहन
साभार फेसबुक

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