Friday 16 September 2022

हम कैसे बूढ़े होते है? - अम्बर पांडेय

हमारा शरीर कभी हमारे मन से आकर नहीं कहता कि वह बूढ़ा हो गया है। व्याधि और निर्बलता भी कभी मन से नहीं कहते कि हम बूढ़े हो गए है मगर हमारा मन भी एक दिन बूढ़ा हो जाता है। 

हमारा मन तब बूढ़ा होता है जब हमारे बचपन के प्रतीक विलीन होते है। भारत में यह लोग क्वीन एलिज़ाबेथ की मृत्यु से इसलिए शोकग्रस्त नहीं है कि इनके पास औपनिवेशिक स्मृतियाँ  है। हमारा बचपन केवल हमारी दादियों-नानियों से नहीं बनता उसके कुछ सांस्कृतिक प्रतीक भी होते है- जो बस अपनी जगह पर होते है, उनका होना आश्वस्त करता रहता है कि अभी भी हमारे आगे जीवन पड़ा हुआ है, अब भी हमारे पास समय, ऊर्जा और सुंदरता है। 

एक बार स्त्रीविमर्श के नाम पर बुजुर्गों का अपमान करनेवाली एक औरत ने किसी वरिष्ठ लेखिका के लिए लिखा था कि वह उनका एक हाथ तोड़कर दूसरे में दे देगी और कुछ वर्षों पूर्व पैदा होने हो जाने से उसके लिए कोई आदरणीय नहीं हो जाता। मुझे वह पढ़कर बहुत धक्का लगा था। वरिष्ठ लेखिका ने हालाँकि बाद में अपमान करनेवाली लेखिका को पुरस्कृत किया और खुद को निष्पक्ष और उसकी किताब को पुरस्कार योग्य माना यह दीग़र प्रसंग है।

वरिष्ठ लेखिका के उस अपमान से उस समय क्यों मुझे बहुत धक्का लगा यह मैं सोचता रहा हूँ। उनके लिखे से मैं कभी प्रभावित नहीं हुआ न उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी को मैंने प्रशंसा करते हुए पाया मगर फिर भी उनका अपमान करना, उनपर शारीरिक हिंसा की बस बात करना भी मेरे लिए हिला देनेवाला था और यह इसलिए नहीं कि मैं कोई गांधीवादी हूँ जो हिंसा से बिलकुल दूर है।

इस दुनिया में इतने दुःख है, इतना संघर्ष है और यह किसी एक के लिए नहीं बल्कि सबके लिए है। इसमें बूढ़ा हो जाना बड़ा हो जाना है। इसमें इतने वर्षों तक डटे रहना भी एक चमत्कार है और इसलिए हम बुजुर्गों का सम्मान करते है। किसी बुज़ुर्ग का अपमान करने पर हमारे संस्कारों पर, हमारे अध्यवसाय और हमारे परिवार पर सबसे पहले उँगली उठती है क्योंकि यदि हमारे श्रेष्ठ में उनका हाथ है तो हमारे बुरे में उनका हाथ मानना भी स्वाभाविक है। 

जो भी नया है वह सब ख़राब है जैसे यह सही नहीं उसी तरह सब पुराना भी बुरा है यह भी ग़लत है। अर्थशास्त्र में लिंडी प्रभाव का सिद्धांत कहता है जो जितने वर्षों से है उतने अधिक वर्ष टिकता है—यही कारण है कि रामायण टिकी हुई है महाभारत और क़ुरान और बाइबल टिकी हुई है। पुराने से हमारी स्मृति बनती है और जो स्मृति का मान नहीं रखता उसका स्मृति भी मान नहीं रखती। 

सोफ़िया तोलस्टोया ने कहीं लिखा है कि तोलस्टोय के कोट और शर्ट की आस्तीनें और कॉलर हमेशा उधड़ी हुई या फटी हुई रहती थी क्योंकि वे पुराने कपड़ों से बहुत लगाव रखते है, उन्हें फेंकते नहीं थे इसलिए ही शायद वे इतने अच्छे लेखक थे।

हमारे जीवन से पुराना ग़ायब होता जाता है और हम बूढ़े होते जाते है।

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