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1.
यह लेख अँधेरे में कविता पर है। ऐसी कविता जिसके विषय में कठिनाई का बोलबाला आद्यन्त बना रहा, उस पर एक संक्षिप्त टिप्पणी है। कविता के सम्बंध में अब तक बातचीत का क्या इतिहास रहा है, मैं उस पर जाना नहीं चाहता। एक सीमा तक असमर्थ भी हूँ। शायद इसलिए भी।
अध्ययन के दौरान जो सीखा-समझा, संवाद की प्रक्रिया में जो निकलकर आया और चिंतन के दौरान जो हासिल हुआ, यह इन तीनों का सम्मिलित रूप है। कविता के आठ प्रकरण हैं, लेख भी इसी क्रमानुसार रहेंगे। सुभीते के क्रम में यह मुझे समयानुकूल लगा। अस्तु इन्हें पेश करता हूँ।
कविता में नाटकीयता आद्यन्त बनी रही है। शुरुआत भी ऐसे ही होती है। एक काव्यनायक है जिसे अपनी एकांतिक अवस्था में किसी दूसरे के होने का बोध होता है। वह उसे रहस्यमय लगता है। उसकी आवाज़ रह-रहकर उसे सुनाई देती है। किसी जादुई गुफा में वह क़ैद है। ढूँढने पर भी उसे नहीं मिलता। न ही दिखाई देता। क्योंकि गुफ़ा बाहर है ही नहीं। उसे तो कवि ने रूपक के तौर पर इस्तेमाल किया है। यह मन के एक हिस्से का प्रतीक है। आमतौर पर जैसे हम लोगों के भीतर से कई आवाज़ें आती रहती हैं जिनसे हम कभी-कभी बात भी करने लगते हैं। वैसे ही काव्यनायक के साथ भी है। बस वह अतिशय चिंता में रहा है और बेहद आत्ममंथन करता रहा है। इसलिए मन के भीतर ही किसी के होने का बोध उसे होता है।
चूँकि आवाज़ भीतर से ही आ रही है इसलिए उससे बच जाने का कोई उपाय नहीं है। वह अनिवार है। ऐसे में काव्यनायक किसी आशंका से घिर जाता है। तभी बाहर सचमुच की दीवार पर सीमेंट की पपड़ी ख़िरने लगती है और इस तरह से खिरती है कि ध्यान से देखने पर वह किसी का चेहरा लगे। काव्यनायक को चूँकि पहले से ही किसी के होने का बोध है। अस्तु उसके लिए तो सहज है कि दीवार में उसे किसी का चेहरा दिखेगा ही। यह भीतर की परिस्थितियों का बाहर के परिवेश में दिखना है। एक अर्थ में आभ्यंतर का बाहय रूप।
इसे ऐसे समझते हैं। कई बार हम आकाश की ओर नज़र गड़ाए कुछ सोच रहे होते हैं और भीतर बहुत कुछ हमारे चल रहा होता है। हम प्रायः पाते हैं कि जैसा भीतर चल रहा होता है उसी का कोई न कोई स्वरूप हमें बादलों में बनता नज़र आएगा। इसका मतलब यह नहीं कि सचमुच ही बादल में कोई चेहरा है। काव्यनायक के साथ भी ऐसा ही है। भीतर किसी के होने का बोध हुआ है। इसलिए बाहर के परिवेश में भी उसकी उपस्थिति दिखाई देती है।
जो चेहरा दीवार पर बना, वह बेहद मजबूत है। काव्यनायक उसे पहचानने का प्रयत्न करता है। उससे जाना नहीं जाता। उसके परिचय में जितने लोग हैं उनसे रहस्यमय चेहरा नहीं मिलता। इसलिए वह सवाल करता है कि वह कौन मनुष्य है जो उससे जाना नहीं जा रहा ? इसमें इतनी ही बात है बस। कामायनी के मनु के चक्कर लगाने से कोई लाभ नहीं।
एक नाटकीय दृश्य और। फ़िर एक थीम बनता है। बाहर पहाड़ी के पार तालाब में कोई कुहरीला चेहरा फैलता है। काव्यनायक के अनुसार वह अपनी पहचान बताने का यत्न करता है। पर काव्यनायक तो इस बात से हतप्रभ है कि वह उसे जान क्यों नहीं पा रहा ? एकाएक फ़िर दूसरा दृश्य। आसपास के पेड़ों में डालियों की चींख पुकार मच गई है। यहाँ कवि ने थोड़ा सा असहज कर देने वाला परिवेश बाँधा है। ताकि पाठक का ध्यान खिंच जाए। क्योंकि आगे उसे कुछ ऐसा बताना है जिसके बताए बिना विषयवस्तु पर ध्यान नहीं खिंच पाएगा।
कई बार फिल्मों में कुछ महत्व का बताने के पहले दर्शक वर्ग को खींच कर एक जगह पर लाने के लिए ऐसा करते हुए पाया जाता है। यहाँ पर भी वही है। काव्यनायक देखता है कि उस चींख पुकार में एक शिला का द्वार धड़ से खुलता है और उसमें से लाल रौशनी से नहाया-सा कोई व्यक्ति नज़र आता है। उसके अनुसार रहस्य खुल जाता है और कह बैठता कि-
"वह रहस्यमय व्यक्ति अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है"
असल में काव्यनायक को जैसा चेहरा दिखा और जैसा उसका स्वरूप प्रकट हुआ, उससे काव्यनायक एकदम निश्चिंत हो गया। क्योंकि कहीं न कहीं उसका एकांतिक अवस्था मे जा घुसा मन इसी तरह की बहिर्मुखता चाहता है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि उस रहस्यमय व्यक्ति में काव्यनायक अपनी पूर्ण अवस्थाओं, निज संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं, परिपूर्ण के आविर्भाव और हृदय में काफ़ी लम्बे अरसे से इकट्ठे हो रहे तनाव की अभिव्यक्ति देखता है। शब्दों की ही नहीं वरन् सम्पूर्ण कार्यव्यापार की। वह उसमें अपनी आत्मा का साक्षात प्रतिबिम्ब दिखता है।
लेक़िन उसे देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। तमाम सवाल उठते हैं। क्योंकि इतना मजबूत व्यक्ति इस फटेहाल में ? उसके मजबूत वक्ष पर घाव क्यों ? वह आख़िर इस अवस्था को पहुँचा कैसे ? और ऐसी स्थिति में उसका पोषण कौन करता रहा ?
काव्यनायक के सवाल असल में उस प्रवृत्ति से जाकर टकराते हैं जो अपने को संघर्ष से अलग थलग कर एकांत में ले जाती है। जो सुविधाओं से जोड़े रहती, अलग नहीं करा पाती और अन्ततः गिरी हालत को प्राप्त होती है। जिस संघर्ष से पीछा छुड़ाकर वह एकांत में ला बैठी है उसका भी हस्र वही होना है जो औरों का बुरे (दमनकारी) किन्तु समर्थ लोगों से लड़ने पर हुआ। मान लें कि यदि बच भी गए तो भी आत्ममंथन से उनकी यही गति होनी है।
परन्तु काव्यनायक देखता है कि उस रहस्यमय व्यक्ति के चेहरे पर कोई दुःख की रेखा नहीं अपितु मुस्कान है। वह प्रचण्ड शक्तिमान है। क्योंकि उसे बोध हो गया है कि उसे क्या करना है। उसे भय नहीं है। उसे अपने मिट्टी के कणों में विश्वास हो चला है। वह जान चुका है कि एकांत में रह लेने से कुछ न हासिल होगा। उसे अपनी उस विचार परम्परा का बोध हो गया है जो कब्र में दफन तो है किंतु मरी नहीं है।
औपनिवेशिक दौर में दमनकारी सत्ता ने पूरी कोशिशें की जनाकांक्षाओं के उस विद्रोह की प्रवृत्ति को दबाने की और बहुत हद तक दबा भी दिया किन्तु फिर भी वह मिट नहीं गयी। हाँ, दब जरूर गयी। आवरण जरूर पड़ गया। एक सच्चाई के तौर पर वह हमें देकर भी चले गए। काव्यनायक को विश्वास है कि वह पुनः जीवित होकर उठेगी। उस अभिव्यक्ति को खोजना है बस।
ऐसे कई सवाल थे जो काव्यनायक पूछना चाहता था। लेक़िन बाहर की हवा ने आकर उस ज्योति को बुझा दिया। काव्यनायक कुछ उसमें रम पाया था। अपनी अभिव्यक्ति को कुछ समझ रहा था कि सब ग़ायब। मानो उसे किसी ने पुनः उस पुरानी अवस्था में डाल दिया।
यह भी कवि की नाटकीयता ही है। सब कुछ तो एकसाथ प्रकट नहीं हो सकता। समय तो चाहिए ही।
यह एक छोटी सी पृष्टभूमि भी मानी जा सकती है। इतनी बातें मोटे तौर पर याद रखनी हैं। आगे के प्रकरणों में इनका इस्तेमाल होना है। इसमें दो व्यक्ति साफ़ तौर पर दिखाई दे गए हैं। एक काव्यनायक और दूसरा रहस्यमय व्यक्ति। काव्यनायक एकांतिक अवस्था में है और आशंका से घिरा है। रहस्यमय व्यक्ति ठीक इसके उलट बहिर्मुखी है और स्वतंत्र होकर मुस्कानमय है। काव्यनायक को उस रहस्यमय व्यक्ति में स्वयं के होने का अनुभव हुआ है क्योंकि अन्ततः उसकी भी खोज यही होनी है।
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दूसरा प्रकरण शुरू होता है। एक नाटकीय व्यापार पुनः कवि ने रचा है। काव्यनायक अपने एकांत कारावास में पड़ा है। अँधेरे खड्डे में उसे किसी ने डाल दिया है। या यूँ कहे कि उसने जानबूझ कर स्वयं ही अपने को उसके सुपुर्द कर दिया है अपनी कमजोरियों के चलते।
परिवेश अँधेरे से घिरा है। कुछ-कुछ आवाज़ें आती रहती हैं। हृदय कभी उससे डर कर धक-धक करने लगता है। आशंका एकदम घिरी हुई है। इतने में वह देखता है कि बाहर कोई खड़ा है जो उसकी सांकल खटखटा रहा है। पर वह जाने से इनकार करता है। स्वयं से ही पूछता भला इतनी रात गए कौन होगा ? इतने घने अँधेरे में कौन आया मुझसे मिलने ? फ़िर स्वयं ही कह उठता कि मैं जानता हूँ यह वही व्यक्ति है जो मुझे जादुई गुफ़ा में मिला था। प्रचंड शक्तिमान। इस चमकदार चेहरे को मैं पहचानता हूँ।
असल में काव्यनायक के मन के भीतर एक लम्बे अरसे से उधेड़बुन चल रही है। वह अपने ही भीतर के व्यक्तित्व का बार-बार निषेध कर रहा है। मन ही बहुत कुछ बड़बड़ा रहा है। शायद कोई सच बाहर लाने के लिए ? बाहर कहीं कोई दरवाजा नहीं है और न ही सांकल। वह अँधेरा कमरा भी भीतर है और उसके बाहर खड़ा व्यक्ति भी। सांकल भीतर से ही बज रही है। आत्मा से ही आवाज आ रही है जो सोए हुए निसंग काव्यनायक को रह-रह पुकार रही है। उसकी कमज़ोरी को उसके सामने प्रकट कर रही है।
लेक़िन काव्यनायक है कि उससे भागता है। वह अपनी मध्यवर्गीय कमज़ोरी को साफ़ प्रकट करता है। नहीं चाहता कि किसी बड़े आन्दोलन में वह शामिल हो। वह अपनी सुविधाओं को नहीं छोड़ सकता। अपने ही वर्ग से धोखा करके असंग रहना उसे अधिक प्रिय है। इसलिए कहता कि यह वही व्यक्ति है जो मेरी सुविधाओं का तनिक भी ख़याल नहीं रखता और धमक पड़ता। किसी भी समय अवसर-अनवसर प्रकट हो ही जाता। चाहे-अनचाहे मुझे अपना संदेश सुना ही देता। अरे! मैं उसे नहीं सुनना चाहता। वह तमाम उलूल-जुलूल बातें कहकर मेरे हृदय को बिजली के झटके-से देता।
पर, मध्यवर्गीय व्यक्ति की सर्वहारा के प्रति सहानुभूति तो छिपी नहीं रही। इसलिए काव्यनायक उसे छोड़ भी नहीं सकता। वह रहस्यमय व्यक्ति उसे बेहद प्रिय भी लग रहा है क्योंकि आख़िर उसमें वही गुण है जो जनता के भावी नेतृत्व में होने चाहिए। उस रहस्यमय व्यक्ति की कर्ममय सहानुभूति सर्वहारा के पक्ष में है और उसकी अभिव्यक्ति भी मुखर। वह निसंग नहीं है। चेतनायुक्त होते हुए सक्रिय है। अपने संज्ञायुक्त होने को प्रमाणित कर रहा है। इसलिये काव्यनायक उसे छोड़ नही सकता। चाहता कि कस कर उसे गले लगा लूँ। बाहों में कस लूँ। घुलमिल कर एक हो जाऊं।
यहाँ भय और प्रीति का सम्मोहमिलन मध्यवर्गीय मन के भीतरी अंतर्द्वंद्व को प्रकट करता है। सर्वहारा के प्रति सहानुभूति, किन्तु पूँजी वर्ग जैसे सपनों के प्रति चाहतें। सच्चाई के प्रति आत्मा का गहरा रिश्ता किन्तु बुराई से लड़ने में स्वार्थमय इनकार।
इस तरह वह उससे एक हो जाना चाहता है। मग़र कैसे हो ? काव्यनायक तो असंग पड़ा है। संघर्षों से अलग-थलग तथाकथित अपनी सुविधा भोग रहा है। वह कहता भी कि शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ ज़रा भी। फ़िर तुरंत ही कहता कि यह भी तो सही कि मुझको कमजोरियों से ही लगाव है।
यहाँ नायक ने खुलकर अपनी पट्टी खोल दी। वह इसलिए टालता भी रहता है। अंतर्मन की सच्चाई को नकारता भी रहता है। कहीं तो वह उससे भयभीत भी हो उठता। क्योंकि वह रहस्यमय व्यक्ति एकांत भोग रहे काव्यनायक को संघर्षों के खुले मैदान में ला छोड़ता है। कहता कि स्वयं पार करो, पर्वत-संधि के गह्वर/ रस्सी के पुल पर चलकर/ दूर उस शिखर कगार पर स्वयं ही पहुँचो।
भला काव्यनायक से यह कैसे हो सकेगा ? उसे तो ऊंचाइयों से डर लगता है। वह नहीं चाहता शिखरों की यात्रा, फिर भले ही दुर्दांत आत्माएं लगातार जनता के कणों को कूटती-पीसती रहें।
वह नकार देता है अपने अंतर्मन की सांकल को। निषेध कर देता उसका। पड़ा रहता उसी खड्डे में दिन-रात अपने दुःख को समेटे। सच से आँख चुराने का ढोंग करने लग जाता है।
असल में, कवि उस काव्यनायक रूपी समूचे मध्यवर्ग की नि:संगता को कटघरे में खड़ा करता है। यह कविता अन्ततः उसी निःसंगता को तोड़कर काव्यनायक को जनमय होने और खो गयी अभिव्यक्ति को बगैर किसी भय के मुखर होने में परिणत करती प्रतीत होती है। संज्ञाहीन होने का ढोंग मचाने के बजाय संज्ञायुक्त होने की सक्रिय विरोधमय अभिव्यक्ति में प्रतिफलित होती है।
काव्यनायक उससे दूर तो भागता है किन्तु वह अपनी इस कमजोरी को समझता भी है। इसलिए जब वह कहता कि "क्या करूँ, क्या नहीं करूँ मुझे बताओ", तब इसमें उस कसमकस का अनुभव किया जा सकता है जो एक असंग पड़े व्यक्तित्व के भीतर मची है।
रहस्यमय व्यक्ति के उद्देश्य इतने बड़े हैं और उसकी की हुई जगत समीक्षा इतनी व्यापक है कि उसके लिए काव्यनायक तैयार नहीं है। उसका दिया हुआ संदेश बहुत भीषण लगता है उसे। उसका विवेक विक्षोभ बेहद महान है। काव्यनायक तो उसे कम से कम इस अवस्था में सह नहीं सकता।
लेक़िन फिर भी वह तैयार होता अपने भीतरी अंतर्द्वंद्व को सुनने के लिए। फ़िर भी वह घिसटने को आतुर हो उठता किसी सच्चाई को जान लेने के लिए। वह उसे अँधेरे में टटोल-टटोलकर उस सांकल को खोलने चल पड़ता है जो लम्बे अरसे से न खोली गई। निरन्तर अब तक जिसका निषेध ही होता आया। इस कारण उसमें जंग लग गयी है। उसके भीतर सच के अनुभव-स्पर्श मात्र से ही सत-चित-वेदना जल उठी। पर ये क्या ? दरवाजा खुला तो बाहर कोई नहीं। मन के भीतर से आया हुआ सच अभिव्यक्त करने वाला रहस्यमय व्यक्ति तो कहीं ग़ायब हो गया।
यहाँ सत-चित-वेदना का प्रयोग कवि ने किया है नाकि सत-चित-आनंद का। एक तो दार्शनिकता से अलगाव प्रकट करने के लिए और दूसरा यह कि वेदना एक समय में आनन्द का ही पर्याय होती है। सत्य का बोध कर चेतनायुक्त होना और फिर समूचे जनकणों की वेदना से जुड़कर उसकी मुखर अभिव्यक्ति देना।
ख़ैर काव्यनायक बाहर देखता है। अँधेरे कमरे के बाहर का परिवेश तो बेहद सुनसान है। कहीं कोई नहीं है। कहाँ गया ? वहीं भयानक सर्द। वही टकटकी लगाये देखते तारे। अंधियारे में पीपल खड़ा पहरा देता। कुछ साँवली सी सियारों की धुन। बहरहाल काव्यनायक को कुछ भी हाँथ न लगा। वह अब किसी विचारमय स्थिति में है कि अचानक रात का पक्षी आकर चीख गया कि वह रहस्यमय व्यक्ति चला गया है। दूर किसी दूसरे शहर में, गाँव में। उसको तुम खोजो। उसका शोध करो। यह तुम्हारे लिए बेहद ज़रूरी भी है कि जिसे तुम पुनः प्राप्त करो। क्योंकि उसमें तुम्हारी पूर्णतम अभिव्यक्ति है। वह जगत की परम अभिव्यक्ति है। तुम उसके शिष्य हो।
वह रहस्यमय व्यक्ति चला गया है अन्यों तक संदेश पहुंचाने। जहाँ -जहाँ भी असंग व्यक्तित्व पड़े हैं उन सबों को जगाने। ऐसे सभी साथियों को इकट्ठे करने जिनसे सच्चाई को स्थापना मिलनी है। रात का पंक्षी कहता कि उसके विचारों में तुम्हारे भी विचार है। जिस सच को तुम अनुभव करते हो वह भी करता है। जैसी सहानुभूति तुम्हारी है वैसी ही उसकी भी। जो अब तक खोया हुआ है और जिसे खोजना है मिलकर, वह भी खोज रहा है। पर, तुम उसका सदा ही निषेध करते आये हो। तुम निसंग पड़े हो। वह नहीं।
यहाँ रात का पंक्षी भी एक रूपक है किसी पवित्र और निष्पक्ष आत्मा का। जो नायक को उसकी देरी का अनुभव कराने के प्रयत्न के क्रम में कविता में आया है। वास्तव में यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि कभी हम असल जिंदगी में किसी बात के लिए देरी कर देते हैं या फिर हमसे कुछ अनुचित हो जाता है तो हमारे भीतर का ही एक हिस्सा हमें तुरन्त हमारी गलती का एहसास कराने आ जाता है। आत्मा से ही आवाज आती है कि अमुक काम को करने में तुमने देरी कर दी। अब तुम स्वयं ही इसे भुगतो। इसलिए काव्यनायक के भीतर से ही कोई आवाज उसकी कमी को बताने आयी है। यहाँ रूपक के तौर पर वही पक्षी है। इसे अन्यथा न लिया जाये।
इस तरह काव्यनायक को किसी सच का अनुभव कराने वह रहस्यमय व्यक्ति आता है। उसकी सांकल खटखटाता है। पर काव्यनायक उसे पाने में असमर्थ रह जाता। इसी परिच्छेद में काव्यनायक अपनी वर्गीय कमजोरी और संज्ञायुक्त होने के बावजूद असंग पड़े रहने की कलई खोलता है।
इससे कुछ बातें निकलकर आ जाती हैं। एक तो वह रहस्यमय व्यक्ति एकांत भोग रहे व्यक्ति को किसी सच्चाई से रूबरू करवाना चाहता है। इस रूप में समूचे वर्ग को। किसी भावी कार्यक्रम के लिए काव्यनायक को एकांतिकता से मुक्त कराने में भी। किसी दमित अभिव्यक्ति की खोज करने के लिए भी। अपने भीतर प्रकट हो रहे सच को भी स्वीकार करने के लिए।
लेख-३. " अँधेरे में...."
अँधेरे में कविता पर यह तीसरा आलेख है। काव्यनायक आत्मनिर्वासन की अवस्था में है। वह रहस्यमय व्यक्ति उसकी सांकल खटखटाने आता है। ताकि असंग जागृति की नींद से उसे जगा सके। पर काव्यनायक है कि निरंतर उसका निषेध करता जाता है। लम्बी उधेड़बुन के बाद वह बाहर निकलकर आता है। सांकल खोलता है। कहीं कोई नहीं है। भीतर से आवाज़ आकर उसकी देरी प्रकट कर जाती। उसे स्वयं ऐसे सच को ख़ोज निकालने को कहती है जिसका उससे खासा वास्ता है। काव्यनायक तैयार होता है। भीतर फिर कुछ गर्माहट। कोई विचारणा।
काव्यनायक अब सच के प्रकट होने का कुछ कुछ अनुभव करने लगा है। वह सोचता कि यह स्वप्न ही है या फिर जागृति। समझ नहीं आता। पर, अभी भी वह आशंका से ग्रस्त है। यूँ कहें और भी अधिक। क्योंकि वह सच जिसका निषेध करता काव्यनायक अब तक आया है, रह रह प्रकट होने वाला है। उसे तो स्वयं ही खोजना है। यह भी परिचय हो गया है कि वह जो कुछ भी है असल में अपने व्यक्तित्व की ही पूर्ण अभिव्यक्ति है। उससे कैसे बचा जाए ? इस स्थिति में उसे अपना चेहरा भी वीराना लगता है। शायद किसी भूत जैसा। पूछता क्या वह मैं हूँ ?
इतने में काव्यनायक के मत्थे पर चिंता के अंक उभरते हैं। उसे लगता है कि कुछ ऐसा होने वाला है जो अनअपेक्षित है। भयानक आवाज़ें आती हैं। भारी गड़गड़ाहट के साथ। स्वर अत्यंत भीषण। वह देखता कि टालस्टाय उसे दीख गए। अरे! अरे! वह कैसे यहाँ ? आख़िर क्या होने वाला है ? कहीं कोई युद्ध जैसा ? आख़िर वह इधर क्यों आये ? क्या कुछ अशांत है या होने वाला है ? समझ नहीं आता।
पर, तुरन्त ही सामान्य। वह टालस्टाय नुमा आदमी कोई और है। काव्यनायक को लगता कि वह आदमी उसके उपन्यास का केंद्रीय संवेदन है। उसकी भीतरी अभिव्यक्ति है जो अब तक उपेक्षित पड़ी रही। जिसको उसने अब तक आकार न दिया। अपनी कमजोरियों से ही उसको फुर्सत न मिली। जबकि उसे पता था कि वह उसकी मूल बात है जो लोगों तक जानी बेहद जरूरी थी। उसके ज़रिए लोगों तक शक्ति पहुँचनी थी। पर उसे नजरअंदाज किया। जनता के हित में उसका उपयोग न किया। दूर पड़ा रहा उनसे। अपनी तथाकथित सुविधा भोगता रहा। हाय! हाय! क्या अनर्थ हुआ ? यह मेरी नहीं वरन् समूचे वर्ग की बात है। अकेले होती तो चल जाती।
अब काव्यनायक को पास से आती हुई कोई ध्वनि सुनाई देती है। इतने रात गए किसी बैंड की। वह भी क्रम से। वह बाहर निकलता है। देखता कि सब कुछ वीरान है। सड़कें किसी मरी खिंची हुई जीभ की तरह पड़ी हैं। अपनी आँखों आँसू रोती। तेज नीला प्रकाश दिखाई पड़ता। काव्यनायक को जिसका भय था वही होने लगा। न जाने क्या ? क्यों उसे इसके पहले टालस्टाय दीख गए थे ? नीली-नीली लाइटें उसके पोर-पोर में धँसने लगी। कोई बड़ा-सा जुलूस दिखता। एक बड़ी सेना उसके साथ है। बड़ी ही मजबूत ,काले घोड़ों के जत्थे के साथ। मानों किसी मृत्यु-दल की शोभा यात्रा हो। जैसे किसी बड़ी जनाकांक्षा को कुचलने हेतु शूटबूट पहनकर तैयार खड़ी है। भई ख़ूब! अब स्वार्थ वस्त्र हटेगा। झोल ढीली पड़ेगी।
यह सब काव्यनायक के गहरे अवचेतन में चल रहा है। उसे लगता कि सारा शहर सोया हुआ है। फ़िर यह सब क्या है ? इतनी सारी तैयारी किसके लिए हो रही है। सैनिक गण अपनी पूरी ड्रेस के साथ इसमें शामिल हैं। पर उनके चेहरे ख़ुश नज़र नहीं आते। वह बेहद पथराए हुए हैं। मानो मजबूरन उन्हें शामिल कर लिया गया हो। या अपने उचित नेतृत्व के अभाव में प्रतीक्षा करते-करते थक गए हों। लगा कि असंगता अपनी सीमा पार जा चुकी है। नहीं आएगी अब समीप वह। सैनिक भर्राए हुए हैं। उनके हाँथों में गहरे चमकदार अस्त्र हैं। पीछे-पीछे और तमाम लोग शामिल हैं।
काव्यनायक बड़े ध्यान से देखता है। अरे! ये क्या ? कई चेहरे तो जाने-पहचाने हैं। कइयों से मेरा ख़ासा परिचय है। सेना के अधिकारी, मंत्री, उद्योगपति, नामी आलोचक, विचारक, और जगमगाते कवि गण। अरे! ये सब शामिल ? यहाँ तक कि उनमें शहर का कुख्यात हत्यारा डोमा जी उस्ताद भी।
ध्यान देने योग्य बात है कि जिन्हें जनता के साथ होना चाहिए, वह नपुंसक बनकर जनविरोधियों के साथ हैं। इतना ही नहीं वह एकदम सामने हैं। असल चेहरा अभी भी कैद है। उसके भेद को वह भेद न सके। या यूँ कहें कि जानकर भी अभेदी बने रहे। अपने वर्गीय चरित्र को वह पार न कर सके। इसी कारण विफल हुआ किसी बड़ी अभिव्यक्ति का विधान। अब कुचला जा रहा है मिट्टी के कणों को। सैनिक भी इसी कारण थर्राए हुए हैं। अपनों के ही विरुद्ध उन्हें सन्नद्ध होना जो पड़ा है। अपनों के दमन के लिए असल चरित्र ने शहर के कुख्यात हत्यारे से भी हाँथ मिला लिए हैं। भई वाह! संज्ञायुक्त लोग अभी भी असंग झोल ओढ़े पड़े हैं।
काव्यनायक ने यह क्या देख लिया। ये वही लोग हैं जो जनता के हितैषी बने फिरते थे। अरे! इन सबों का स्वार्थ खुल गया। देख लिया मैंने। इनका उद्देश्य खुल गया। इतने में कोई आवाज आती है। नायक को लगता कि उसे किसी ने देख लिया है। अब उस पर आक्रमण होने वाला है। वह भागता है एकदम पेलमपेल। कहाँ छुपे-छुपे वह जा रहा था और कहाँ यह सब ? हाय! हमने तो न चाहा था। हम तो खोल कर भी आँख बंद किये रहे थे। नंगी आँखों देख लिया। अब मुझे सजा मिलेगी। काव्यनायक आशंका से सराबोर कि एकाएक उसे लगता कि मानो कोई स्वप्न टूट गया हो। सारा कुछ छिन्न भिन्न हो चला हो। कई चित्र अब भी दिमाग़ में। जागने पर देखता कि ये वही मृत आत्माएं हैं जो दिन में तो घरों-दफ्तरों में षड्यंत्र रचा करती हैं जबकि हर रात जुलूस में शामिल होती हैं।
मुक्तिबोध ने यहाँ पहले शुरुआत की पंक्तियों में 'मृत्यु-दल' और बाद की पंक्तियों में 'मृत-दल' शब्द का प्रयोग किया है। पहले का संदर्भ यह है कि जो जुलूस चल रहा है वह किसी बड़ी जनक्रांति को कुचलने हेतु तत्पर है। उसका लक्ष्य जनाकांक्षा को मौत के घाट उतारने का है। इस रूप में वह मृत्यु दल है।
जबकि दूसरे का संदर्भ यह है कि वह पूरा का पूरा जुलूस किसी मरे हुए ढेर के समान है। भले ही अभी वह सब चल रहे हैं। भले ही उनके पास अभी बड़ी शक्तियाँ हैं। पर क्योंकि उन सबों ने अपनी आत्मा को गिरवी रख दिया है। उसका हनन कर दिया है। इसलिए वह मरे हुए के ही समान हैं। वह समय दूर नहीं जब उनका शरीरान्त भी होगा। इस रूप में वह मृतदल हैं। यहाँ मुक्तिबोध ने कविता की उस परिणति की ओर इशारा किया है जो बाद में "कहीं गोली चल गयी कहीं आग लग गयी" के टेक के रूप में अन्त में आएगी। जब काव्यनायक जनकणों को इकट्ठे कर उसके साथ एकीकृत होने में दिखता पाया जाएगा।
इस प्रकार, काव्यनायक को वह रहस्यमय व्यक्ति जिस छोर पर छोड़ कर गया था उसके आगे से सच्चाई को उसे स्वयं खोजना था। जनक्रांति के दमन निमित्त वर्तमान जुलूस उस सच्चाई के एक अंश का प्रतिरूप है। काव्यनायक उसके करीब पहुँच रहा है। साथ ही साथ अपने वर्गीय पहलुओं और समाज के बड़े-बड़े तथाकथित जिम्मेदार लोगों के सच से भी परिचित होता जा रहा है। किंतु खुलकर अभी भी उसका स्वयं से साक्षात्कार न हुआ है। आगे के प्रकरणों में पागल के उद्बोधमयी गीत के प्रभाव से वह भी होगा।
कविता के इस प्रकरण में और इसके पहले भी वातावरण के 'अँधेरे' की सार्थक भूमिका है। अँधेरे में चीज़ें उतनी ही दिखाई पड़ती हैं जितने से उसका आशय साफ़ हो। टालस्टाय और जुलूस जैसी फैंटेसी का भी रचनात्मक उपयोग किया गया है। किसी सच्चाई को सामने लाने के लिए एक अठोस विधान उपस्थित किया गया है। कुल मिला कर इतना कि दोनों की सार्थक भूमिका है।
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मुक्तिबोध की 'अँधेरे में' कविता जिस नाटकीय कौशल से शुरू होती है, अपने चौथे प्रकरण में वह विस्तार पाती है। यह आलेख उसी विस्तार पर केंद्रित है।
अपनी खोई हुई अभिव्यक्ति को पाने के लिए आतुर काव्यनायक अपने अन्तर्व्यक्तित्व से उधेड़बुन करता है। मन के तमाम कोनों से सवाल-जवाब करता वह क्षत-विक्षत है। इसी अवस्था में नगर के भीतर आधी रात में सम्पन्न हो रहे किसी जुलूस का स्वप्न देखता है। उसमें जनविरोधियों का एक पूरा का पूरा तांता-सा लगा है। सत्ता के तमाम पदाधिकारियों से लेकर उद्योगपति, मंत्री, आलोचक, पत्रकार व जगमगाते कविगण और यहाँ तक कि शहर का सबसे कुख्यात हत्यारा डोमा जी उस्ताद भी उसमें शामिल हैं।
मुक्तिबोध ने यहाँ इस तथ्य को उकेरने की कोशिश की है कि समय के फेर में सत्ता निहायत चालाक और क्रूर हो गयी है। जहाँ पहले वह मात्र अपने अधिकारियों, पुलिस, प्रशासन व सिपाहियों द्वारा जनाभिव्यक्ति को दबाने का प्रयास करती थी वहीं अब तमाम बुध्दिजीवी और न जाने कौन-कौन से लोग उसके मजबूत दमन में शामिल हो गए हैं। यह बात न केवल सत्ता के जनविरोधी होने की पुष्टि करती है वरन् इन निहायत अवसरवादियों के भी उनके पक्ष में होने की पोल खोलती है।
उसी जुलूस में से ही काव्यनायक को कोई देख लेता है और 'मारो गोली, दागो स्साले को एकदम' की आवाज़ से उसकी नींद खुल जाती है। अचानक उसका यह स्वप्न भंग हो जाता है। वह सोचता है कि मैंने उनको नंगी आँखो देख लिया। अब मुझे इसकी सजा मिलेगी।
ध्यान देने योग्य है कि यह बात काव्यनायक तब कहता है जब स्वप्न से अलग चेत अवस्था में लौट आता है। जागृत अवस्था में उसे स्वप्न का पुनः बोध होता है। स्वप्न में से निकलकर जुलूस उसे मारने आने वाला नहीं। फिर सजा का डर क्यो ? वह इसलिए कि अब उसे सजा सत्ता या उसकी दमन निमित्त बनाई गई व्यवस्था से नहीं मिलने वाली है अपितु अपने ही भीतर बैठे आत्मनिषेधी के विरोध में अस्तित्वमान किसी इतर व्यक्तित्व से मिलने वाली है। परिणामतः वह आशंका से घिरता नज़र आता है और स्वर में हाय-हाय की चीत्कार दीख पड़ती है।
इसी अवस्था में रात के अँधेरे में चार का गजर कहीं खड़का। काव्यनायक सहम जाता है। आशंका की काली-काली हायफने और डैश उसके भीतर घुसने लगती हैं। अपनी आत्मनिर्वासन की समाधि तोड़ता हुआ वह देखता है कि सड़कों पर सिपाहियों की पाँत खड़ी है। किसी जनक्रांति को कुचलने हेतु जनविरोधियों ने मार्शल लॉ लगा रखा है।
काव्यनायक उसे देख भयभीत हो गया। मारे भय के ज़माने की जीभ निकल पड़ी है। उसके पैर एक जगह टिक नहीं रहे है। कई गलियां, कई सड़कें वह घूम गया। उसे लगता कि कोई है जो मेरे पीछे लगा हुआ है। वह मुझे सजा देगा। वह कहता- "भागता मैं दम छोड़ घूम गया कई मोड़।"
इस पंक्ति से उन कारणों की ठीक-ठीक पहचान होती है जिनके कारण अभिव्यक्ति ने अपनी दिशा कहीं खो दी है। सत्ता के भयानक दमन चक्र के कारण ही मध्यवर्गीय जीवन भय खाकर असंग गुहावास भोग रहा है। इस कारण ही उसने स्वयं को आत्मनिर्वासित कर रखा है। सर्वहारा के पक्ष में होने का मजबूत संकल्प करने के बाद भी वह बार-बार पीछे लौट पड़ता है। मुक्तिबोध ने ठीक मौके पर इस पंक्ति को कविता में लाकर अस्मिता के लुप्त होने के वस्तुगत कारणों को संगति प्रदान की है।
ख़ैर आगे देखिए। काव्यनायक के भयभीत होकर भागने के क्रम में उसे दूर कहीं बरगद दिखाई पड़ता है। जोकि गरीबों और वंचितों के आश्रयस्थल के रूप में आया है। वही उन सबों का एकमात्र घर है। आख़िर रक्तपिपासु जनविरोधियों के इस शासन में उनके घर कहाँ दीख पड़ेंगे।
इसके अलावा बरगद अतीत और वर्तमान, आदर्श और व्यवहार, तथा परंपरा और आधुनिकता इन तीनों ही के साक्षी के रूप में आया माना जा सकता है। कारण, किसी समय में बरगद अपने लम्बे अनुभवों में इतिहास और सामाजिक गतिविधियों का अड्डा हुआ करते थे।
यहाँ इसे इस रूप में देखा जा सकता है कि बरगद ने अब तक स्वाधीनता के समूचे दौर में अभिव्यक्ति के मुखर होने और पुनः उसके खो जाने को देखा है। उस दमन को देखा है जिसे औपनिवेशिक सत्ता ने धनबल के प्रभाव से बुरी तरह से दबा दिया। बरगद उसका साक्षी रहा है। पर, उसे विश्वास है कि वह पुनः खाद-पानी मिलने पर हरी-भरी हो उठेगी। और कब्र में दफन होने के बावजूद भी ऊपर निकल कर अपने को मुखर करेगी।
बहरहाल काव्यनायक देखता है कि उसी बरगद की शाखाओं में किसी सिरफिरे के फटे सुथन्ने लटके हैं और उसकी छाँव में कोई सिरफिरा आत्मोद्बोधमय गीत गा रहा है। एकदम ऊची तान में। काव्यनायक उसे सुनता है। उसे लगता है कि मानो वह भी बुद्धि से जागृत हो गया है। जान गया हो कि नगर में सैनिक शासन लगा है। वह जो गीत गा रहा उसका गद्यानुवाद यह रहा-
ओ मेरे आदर्शवादी मन और सिद्धांतवादी मन अब तक क्या किया ? जीवन तुमने क्या जिया ?...लोगों के लिए क्या किया तुमने ? किस-किसके दुख में एकीकृत हुए तुम ? किसके साथ कंधे-से-कंधे लगाकर चले ? अपनी सुविधाओं से इतर किसकी जरूरत के लिए दौड़ पड़े तुम ?
तुम्हारे जन पिसते रहे। उन्हें माल की तरह कूटा-पीसा जाता रहा। तुम उनको युहीं देखते रहे! तुम उनसे क्यों न एक हुए ? उनके साथ विरोध को एक स्वर क्यों न दिया? वो शोषित होते रहे और तुम अपना असंग भोगते रहे!! क्यों अपनी जिम्मेदारी से हट गए पीछे ? उलटे कर ली तुमने शोषकों से ही साँठ-गाँठ। तर्कों को खा गए, आदर्शों को पी डाला, और अपनी आत्मा को मार डाला!! क्या मिला तुम्हें ?
इस तरह की तमाम बातें हैं जिन्हें फेरबदल कर पेश किया है। यहाँ पागल के गीत का प्रभाव काव्यनायक पर अत्यंत व्यापक पड़ा। उसे लगा कि मानो "मैं खड़ा हो गया/ किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के।" मुक्तिबोध ने यहाँ पागल के बहाने मध्यवर्गीय मन की कमजोरियों को उकेरा है। न केवल उसकी गंभीर आलोचना प्रस्तुत की वरन् एक गलती कर देने वाले बच्चे को सीख देने के जैसे उससे आत्मीयता भी स्थापित की।
असल में है तो यह काव्यनायक के प्रतिनिधित्वमूलक मन की खरी आलोचना ही। पर, किसी सुधार के उद्देश्य से। किसी महान प्रयोजन में लगाने से पूर्व उसको तैयार करने के उद्देश्य से। आखिर आगे चलकर उसे एक बड़ी जिम्मेदारी का वहन जो करना है। याद कीजिए उस पंक्ति को जिसमें वह कहता- "वह रहस्यमय व्यक्ति अब तक न पायी गई मेरी अभिव्यक्ति है/ पूर्ण अवस्था वह/ निज संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं की/ मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव/ हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह/ आत्मा की प्रतिमा। "
कविता में पागल को लेकर जो विवादित बातचीत है उसे भी समझ लेना जरूरी है। पागल के क्रम में एक पंक्ति आयी है- "व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ/ वही उसे अकस्मात मिलता था रात में/ पागल था दिन में/ सिर-फिरा मस्तिष्क।"
यहाँ 'उसे' पर ध्यान देना जरूरी है जो पागल के लिए ही सर्वनाम रूप है। ना कि काव्यनायक के लिये, कि काव्यनायक ही दिन में पागल रहता था और रात में उसे जागृत बुद्धि मिलती थी। इसलिए मेरी समझ में इसे काव्यनायक का प्रतिरूप नहीं मानना चाहिए। कविता में ही काव्यनायक की आगे की पंक्ति- "मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ" से भी यह पुष्ट होता है। क्योंकि काव्यनायक साफ़ तौर पर उस गीत की धुन को अलग बरगद के पास स्वतंत्र रूप से सुनता हुआ खड़ा है।
कुछ लोगों ने झट से मान भी लिया है क्योंकि इससे मुक्तिबोध के काव्य को विक्षिप्त देन सिद्ध करने का चुटीला अवसर जो मिल जाता है। एक दूसरे बड़े आलोचक ने भी पागल को काव्यनायक का प्रतिरूप मान लिया है।
हम बस इतना कहेंगे कि जिस तरह से पहले प्रकरण में आये "कौन मनु" वाले प्रसंग में मनु शब्द पर पृथक रूप से जोर देने के कारण कामायनी कृत मनु के नए संस्करण के चक्कर लगाने पड़े, उसी तरह यहाँ पर भी काव्यनायक पर अतिशय ध्यान होने के कारण 'उसे' शब्द को उसी के संदर्भ में सर्वनाम के तौर पर ग्रहण करने को मजबूर होना पड़ा।
इसके अलावा एक स्थान पर यह लिखा क्या मिल गया कि "मैं खड़ा हो गया/ छाया मूर्ति-सा स्वयं के" कि महोदय को पूरा विश्वास हो चला कि वह पागल 'मैं' और 'वह' का ही प्रतिरूप है।
लेकिन इतना तो है कि काव्यनायक के चेतन मन पर उस सिरफिरे के गीत का प्रभाव अत्यन्त गहरा पड़ा। उसके कारण जिस तरह की आत्महीनता का बोध काव्यनायक में पैदा हुआ, असल में मुक्तिबोध उसी को बाहर लाना चाहते थे। व्यक्तित्वान्तरण की प्रक्रिया की शुरुआत उसमें सही मायने में यहीं से होने लगती है।
वह कह बैठता कि "मानो मेरे कारण ही लग गया/ मार्सल-लॉ वह/ मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे कारण ही दुर्घट हुई यह घटना।" इस तरह का आत्मालोचन वस्तुतः वाचक के द्वारा अपने आत्मनिषेधी व्यक्तित्व का ही निषेध करके उसके जनमय की ओर उन्मुख होने में सार्थक बन पड़ा है। असल में यहीं से काव्यनायक उस सच से, जिसे खोई हुई अभिव्यक्ति भी कहा गया है, से धीरे-धीरे परिचित होने लगता है।
काव्यनायक को अब मद्धिम रूपों में उस परम अभिव्यक्ति के अपने आस-पास होने के संकेत मिलने लगे हैं। जिसकी मौजूदगी सब स्थानों पर है। उसे लगता है कि- "रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित/ कोई गुरु-गंभीर महान अस्तित्व/महकता है लगातार...../ मात्र सुंगध है सब ओर/पर,उस महक--लहर में/ कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिंता/छटपटा रही है।"
यहाँ जो छिपे तौर पर वेदना और कोई चिंता छटपटा रही है वह वही अभिव्यक्ति है जिसे खोजा जाना है। जिसके मिलने से ही जनता के वास्तविक गुणों से एकाकार हुआ जा सकेगा। काव्यनायक उसी महान अस्तित्व को अपने पास महसूस करने लगा है। यह इस ओर भी संकेत है कि वह अस्मिता की खोज के एक नए धरातल पर आ पहुंचा है।
ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ अभिव्यक्ति का आशय मात्र शब्दों की अभिव्यक्ति से नहीं है। उससे तो है ही, साथ ही कर्म, विचार, आकांक्षा, व अपनी विरोधमय जीवंत परंपरा से जुड़ाव इत्यादि से भी है। आगे के अंशों में यह और साफ़ होगा। फिलहाल यह लेख यहीं तक। शेष अगले में....
-अभिषेक कुमार वर्मा
परस्नातक हिन्दी साहित्य अध्येता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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