Wednesday 14 September 2022

कीर्तिगान उपन्यास हमारे समाज में जारी साम्प्रदायिक उन्माद और फ़ासिस्ट राजनीति को साहित्य की ओर से दिया हुआ जवाब है :कृष्ण मोहन

'कीर्तिगान' चंदन पांडेय का दूसरा उपन्यास है। इससे पहले 'वैधानिक गल्प' में उन्होंने एक ऐसे युवा मुस्लिम अध्यापक रफ़ीक की कहानी बयान की थी, जो लोकचेतना को जगाने वाले नाटकों को अपने विद्यार्थियों के साथ तैयार करके उनका प्रदर्शन करता है। इस प्रक्रिया में वह स्थानीय शक्तिशाली सामाजिक समूहों और निहित स्वार्थों को खटकने लगता है, जो बदलते हुए समय के साथ कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति को तिलांजलि देकर साम्प्रदायिक राजनीति के उभार के दौर में बढ़ चढ़ कर उसकी अगुवाई करने में लगे हुए हैं। एक निर्णायक प्रदर्शन से पहले रफ़ीक और उसकी टीम की सदस्य एक छात्रा अचानक गायब हो जाते हैं। उस छात्रा से जोड़कर उसके ग़ायब होने की अनेक व्याख्याएँ समाज मे फैला दी जाती हैं, जिनपर विश्वास करने को हमारा समाज मानो तैयार बैठा रहता है। उसकी पत्नी का मित्र, एक लेखक जब उसकी खोज में उतरता है तो उसके सामने रफ़ीक के सहयोगी अध्यापकों से लेकर पुलिस, दंगाई समूहों, राजनेताओं और सोशल मीडिया तक के गठजोड़ का दृश्य धीरे धीरे उभरता है।

यह उपन्यास हिंदी जगत में एक परिघटना की तरह आया और अत्यंत चर्चित और प्रशंसित हुआ। इसके पीछे वजह यही थी कि हमारे समाज के मौजूदा दौर में ज़मीनी स्तर पर चलने वाली साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और उसको संचालित करने वाले निहित स्वार्थों की कार्यप्रणाली को कथा-साहित्य में पहली बार विश्वसनीय और कलात्मक ढंग से चित्रित किया जा सका था। साहित्य के पाठकों ने अपने ज्ञान से अधिक अपनी संवेदना से इस चुनौतीपूर्ण कथा की रचना में आने वाले कलात्मक जोख़िम को महसूस किया था।

बहरहाल, लेखक का अगला उपन्यास 'कीर्तिगान' इस मामले में एक बहुत बड़ी लकीर खींचता हुआ दिखाई पड़ता है। 'वैधानिक गल्प' में मॉब लिंचिंग की भूमिका-सी बनती है और एकाध इसके प्रयास भी होते हैं, लेकिन उसकी कथा प्रायः समाज की ऊपरी सतह पर जारी सॉफिस्टिकेशन के पाखंड को अनावृत करती है। इस अगले उपन्यास में हमारे समाज का यह लोमहर्षक यथार्थ  अपने सर्वग्रासी अंदाज़ में प्रकट होता है। अपनी आँखों के सामने सतत जारी इस हत्यारे सिलसिले को कला-रचना में ढालने का फ़ैसला करना एक अकल्पनीय चुनौती को आमंत्रित करने जैसा था। हिंदी-उर्दू के कथा-साहित्य में एक मंटो को छोड़कर दूसरा कोई नाम याद नहीं आता जिसने समाज में जारी ऐसे पाखंड और पागलपन की विकराल विभीषिका को, उसकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और ऐतिहासिक गहराई में जाकर, कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकार की हो। लेखक ने न केवल इसे स्वीकार किया है बल्कि बहुत बड़ी हद तक इसे सफलतापूर्वक निभाया है। इसका अर्थ है कि इस भीषण यथार्थ के सतही आयामों तक सीमित होकर नहीं, बल्कि इसके गहन आंतरिक आयामों का स्पर्श करते हुए कथा को बुद्धि-संवेदना-गम्य बनाया है। मेरी नज़र में यह एक हैरतअंगेज़ कारनामा है जो हमारे कथा-साहित्य में संभव हुआ है। उपन्यास अभी आया ही है, इसलिए इसकी विषयवस्तु के बारे में और कुछ कहना अभी उचित नहीं है। मैं यही कह सकता हूँ कि यह उपन्यास हमारे समाज में जारी साम्प्रदायिक उन्माद और फ़ासिस्ट राजनीति को साहित्य की ओर से दिया हुआ जवाब है। यह हमारी इस समझ को बल देता है कि रात जितनी ही अँधेरी और काली होती है, उसके सुबह में बदलने की संभावना उतनी ही निकट होती है।

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