मालिक की भाषा में पढ़ाई - डॉ. अमरनाथ
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पिछले कुछ वर्षों से देश भर की अधिकाँश राज्य सरकारें अपने-अपने प्रान्तों की प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा के माध्यम से मुक्त कर अंग्रेजी माध्यम में बदलने की होड़ मचा रखी हैं. सबसे पहले उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने 2017 में ही अपने प्रदेश के पाँच हजार प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम में बदलने का निर्णय लिया. आंध्र प्रदेश की वाईएसआर सरकार ने तो अपने यहाँ के सभी प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम में बदलने का आदेश निर्गत कर दिया. कुछ लोग इसके खिलाफ कोर्ट में गए और अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. सबसे हास्यास्पद राजस्थान की कांग्रेस सरकार का निर्णय है. वहाँ के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत ने पूरे प्रदेश में जिस गाँव की भी आबादी पाँच हजार से अधिक है वहाँ महात्मा गाँधी के नाम पर “महात्मा गाँधी अंग्रेजी मीडियम स्कूल” खोल रहे हैं, उसी महात्मा गाँधी के नाम पर जो अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के सख्त विरोधी थे. हाल यह है कि अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करने वाली प. बंगाल की ममता बनर्जी की सरकार ने भी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोलने शुरू कर दिए हैं. यानी, इस मुद्दे पर देश के सभी राजनीतिक दल लगभग एकमत हैं. इसके पीछे सभी का एक ही तर्क है कि अभिभावकों की यही माँग है. उनका कहना भी सही है अभिभावकों की माँग है. अभिभावक अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा अपने बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करते हैं और उन्हें विश्वास है कि अंग्रेजी माध्यम से ही उनका बच्चा लायक बन सकता है. ऐसी परिस्थितियाँ कैसे पैदा हुईं कि अभिभावकों को अपनी संतानों का भविष्य सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में ही दिखता है?
पिछले साल यूपी बोर्ड की परीक्षा में आठ लाख विद्यार्थियों का हिन्दी में फेल होने का समाचार सुर्खियों में था. यूपीपीएससी का रेजल्ट भी महीनों तक सुर्खियों में रहा. 11 सितंबर 2020 को रेजल्ट आया तो उसमें दो तिहाई से अधिक अंग्रेजी माध्यम के अभ्यर्थी सफल हो गए. यह संख्या पहले 20-25 प्रतिशत के आस पास रहती थी. इस साल का यूपीएससी का रेजल्ट भी ऐतिहासिक और अभूतपूर्व है. यहाँ हिन्दी माध्यम वाले सफल अभ्यर्थियों की संख्या सिर्फ तीन प्रतिशत रह गई है. 97% अभ्यर्थी अंग्रेजी माध्यम वाले सफल हुए हैं. मैने समस्या की तह में जाने की कोशिश की तो सिर घूम गया.
देश में अराजपत्रित कर्मचारियों के चयन के लिए कर्मचारी चयन आयोग (स्टाफ सलेक्शन कमीशन) सबसे बड़ा संगठन है. इस संगठन की परीक्षाओं से हिन्दी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है. मैंने उसकी वेबसाइट पर जाकर देखा, अध्ययन किया तो सकते में आ गया. कंबाइंड ग्रेजुएट लेबल की परीक्षा जो तीन सोपानों में आयोजित होती है, उसके प्रत्येक सोपान में क्रमश: इंग्लिश कंप्रीहेंशन, इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन तथा डेस्क्रिप्टिव पेपर इन इंग्लिश ऑर हिन्दी है. प्रश्न यह है कि जब आरंभिक दो सोपानों में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन अनिवार्य है तो तीसरे सोपान में भला हिन्दी का विकल्प कोई क्यों और कैसे चुन सकता है? जाहिर है यहाँ हिन्दी का उल्लेख केवल नाम के लिए है.
कंबाइंड हायर सेकेंडरी लेबल की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज का प्रश्नपत्र है किन्तु हिन्दी का कुछ भी नहीं है. स्टेनोग्राफर्स ( ग्रेड ‘सी’ एण्ड ‘डी’ ) के लिए 200 अंकों की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन 100 अंकों का है किन्तु हिन्दी को पूरी तरह हटा लिया गया है. जूनियर इंजीनियर्स की परीक्षा में हिन्दी का नामोनिशान नहीं है. सब इंस्पेक्टर्स ( दिल्ली पुलिस, सीएपीएफ तथा सीआईएसएफ) की परीक्षा दो भाग में होती है. इसके पहले भाग में 50 अंकों का इंग्लिश कंप्रीहेंशन तो है ही, दूसरे भाग में भी 200 अंकों का सिर्फ इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन है. विभिन्न राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में मल्टी टास्किंग (नान टेक्निकल) स्टाफ के लिए भी दो भागों में बँटी परीक्षा के पहले भाग में जनरल इंग्लिश है और दूसरे भाग में शार्ट एस्से एण्ड इंग्लिश लेटर राइटिंग है. आयोग ने मान लिया है कि हिन्दी में कुछ भी लिखने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी. इसीलिए हिन्दी के किसी स्तर के ज्ञान की परीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है. यह सब देखने के बाद कहा जा सकता हैं कि देश की अराजपत्रित सरकारी नौकरियों के लिए अब हर स्तर पर सिर्फ अंग्रेजी को स्थापित कर दिया गया है और हिन्दी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है.
राजपत्रित अधिकारियों के चयन के लिए संघ लोक सेवा आयोग तथा विभिन्न राज्यों के लोक सेवा आयोग हैं. संघ लोक सेवा आयोग का गठन अंग्रेजों ने 1926 में किया था. अंग्रेजों के जमाने में यहाँ परीक्षाओं का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी थीं. आजादी के बाद 1950 में इस परीक्षा के लिए सिर्फ तीन हजार प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था और 1970 में यह संख्या बढ़कर ग्यारह हजार हुई थी. 1979 में कोठारी समिति के सुझाव लागू हुए जिसने संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा देने की संस्तुति की थी. इससे देश के दूर दराज के गाँवों में दबी प्रतिभाओं को भी अपनी भाषा में परीक्षा देने के अवसर उपलब्ध हए. परिणाम यह हुआ कि 1979 में परीक्षा देने वालों की संख्या एकाएक बढ़कर एक लाख दस हजार हो गई. अब हर साल गाँवों के गरीबों के बच्चों की भी एकाध तस्वीरें अखबारों में अवश्य देखने को मिल जाती थीं जिनका चयन इस प्रतिष्ठित सेवा में हो जाता था. शीर्ष पर बैठे हमारे नीति नियामकों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ. उन्होंने 2011 में वैकल्पिक विषय को हटाकर उसकी जगह 200 अंकों का सीसैट ( सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट) लागू किया जिसमें मुख्य जोर अंग्रेजी पर था. इससे हिन्दी माध्यम वाले परीक्षार्थियों की संख्या तेजी से घटी. इसका राष्ट्र व्यापी विरोध हुआ. दिल्ली हाईकोर्ट ने भी आन्दोलनकारियों के पक्ष में अपेक्षित निर्देश दिए, तब जाकर 2014 में आयोग ने कुछ बदलाव किए. किन्तु इसके बाद धीरे- धीरे आयोग ने सीसैट सहित यूपीएससी परीक्षा के नियमों में दूसरे अनेक ऐसे परिवर्तन किए जिससे हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों के लिए प्रारंभिक परीक्षा पास करना भी कठिन होता गया. 2009 में हिन्दी माध्यम से जहाँ 25.4 प्रतिशत परीक्षार्थी सफल हुए थे वहाँ 2019 में यह संख्या घटकर मात्र 3 प्रतिशत रह गई. पहले जहाँ टॉप टेन सफल अभ्यर्थियों में तीन-चार हिन्दी माध्यम वाले अवश्य रहते थे वहाँ 2019 में चयनित कुल 829 अभ्यर्थियों में हिन्दी माध्यम वाले चयनित अभ्यर्थियों में पहले अभ्यर्थी का स्थान 317वाँ है.
तीन स्तरों पर होने वाली संघ लोक सेवा आयोग की इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों को अमूमन प्रारंभिक परीक्षा में ही छांट दिया जाता है. मुख्य परीक्षा की तैयारी के लिए भी न तो उन्हें स्तरीय पाठ्य-सामग्री सुलभ है और न बेहतर कोचिंग की सुविधा क्योंकि आर्थिक दृष्टि से भी वे कमजोर होते हैं. ग्रामीण पृष्ठभूमि के ऐसे अभ्यर्थी ज्यादातर मानविकी के विषय चुनते हैं. तकनीकी विषय चुनने वाले अभ्यर्थियों की तुलना में स्वाभाविक रूप से उन्हें कम अंक मिलते हैं. साक्षात्कार में भी हिन्दी माध्यम वालों के साथ भेदभाव किया जाता है. प्रश्नों के हिन्दी अनुवाद देखकर तो कोई भी सिर पीट लेगा. कुछ बानगी आप भी देखिए,
“भारत में संविधान के संदर्भ में, सामान्य विधियों में अंतर्विस्ट प्रतिषेध अथवा निर्बंधन अथवा उपबंध अनुच्छेद-142 के अधीन सांविधानिक शक्तियों पर प्रतिरोध अथवा निर्बंधन की तरह कार्य नहीं कर सकते.” एक दूसरा वाक्य है, “वार्महोल से होते हुए अंतरा-मंदाकिनीय अंतरिक्ष यात्रा की संभावना की पुष्टि हुई.” ( डॉ. विजय अग्रवाल द्वारा उद्धृत)
प्रश्न निर्माताओं ने सर्जिकल स्ट्राइक के लिए ‘शल्यक प्रहार’, डिजिटलीकरण के लिए ‘अंकीयकृत’, साइंटिस्ट आब्जर्ब्ड के लिए ‘वैज्ञानिकों ने प्रेक्षण किया’, स्टील प्लांट के लिए ‘इस्पात का पौधा’, डेलिवरी के लिए ‘परिदान’, सिविल डिसओबिडिएंस मूवमेंट के लिए ‘असहयोग आन्दोलन’ आदि किया है. इनमें डेलिवरी के लिए ‘वितरण’ तथा डिसओबिडिएंस मूवमेंट के लिए ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ तो बेहद प्रचलित शब्द हैं. इन्हें भी गलत लिखना प्रमाणित करता है कि हिन्दी अनुवाद को गंभीरता से नहीं लिया जाता.
अमूमन सहज ही कह दिया जाता है कि जिन्हें हिन्दी अनुवाद समझ में नहीं आता है उनके लिए मूल अंग्रेजी तो रहता ही है. किन्तु यहां समझने की बात यह है कि यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा में छ: से सात लाख परीक्षार्थी शामिल होते हैं और उनमें से लगभग तेरह प्रतिशत परीक्षार्थी ही मुख्य परीक्षा के लिए अपनी अर्हता प्रमाणित कर पाते हैं. ऐसी दशा में 0.01 प्रतिशत अंक का भी महत्व होता है. परीक्षार्थियों को निर्धारित समय सीमा के भीतर ही लिखना होता है. ऐसी दशा में हिन्दी माध्यम का परीक्षार्थी यदि प्रश्न को समझने के लिए अंग्रेजी मूल भी देखने लगा तो उसका पिछड़ना तय है.
प्रश्न यह है कि देश के लोक सेवकों को कितनी अंग्रेजी चाहिए ? उन्हें इस देश के लोक से संपर्क करने के लिए हिन्दी सीखनी जरूरी है या अंग्रेजी ? उन्हें जनता के सामने अंग्रेजी झाड़कर उनपर रोब जमाना है या उन्हें समझाना- बुझाना ? उनके साक्षात्कार अंग्रेजी माध्यम से क्यों लिए जाते हैं ? क्या उन्हें इंग्लैंड में सेवा देनी है ? इस देश के सबसे बड़े पद तो राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और गृहमंत्री के है. इन पदों पर बैठे लोगों का काम तो हिन्दी और गुजराती बोलने से चल जाता है. ऐसे लोक सेवकों को लोक सेवा का अधिकार क्यों मिलना चाहिए जो लोक की भाषा में बोल पाने में भी अक्षम हों ? हिन्दी माध्यम के अपने बैच के टॉपर निशांत जैन ने अपना अनुभव बाँटते हुए कहा है कि हिन्दी माध्यम वाले आईएएस अधिकारी अंग्रेजी माध्यम वालों की तुलना में जनता के प्रति अधिक संवेदनशील देखे गए हैं.
न्याय के क्षेत्र की दशा यह है कि आज हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाई कोर्टों में हिन्दी सहित किसी भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता है. मुवक्किल को पता ही नहीं होता कि वकील और जज उसके केस के बारे में क्या सवाल- जवाब कर रहे हैं. उसे अपने बारे में मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी उसे पैसे देने पड़ते हैं.
सरकारी नौकरियों, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में अंग्रेजी के वर्चस्व के लिए क्या जनता जिम्मेदार है या सरकार और उसकी नीतियाँ ? आज शिक्षा को व्यापार और मुनाफे के लिए ज्यादातर निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है. हमारे नौनिहालों से उनकी मातृभाषाएं क्रूरता के साथ छीन लेना छोटा अपराध नहीं है. केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में भी ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि आठवीं -नवीं के बाद ही बच्चों की हिन्दी छूट जाती है. उनके तर्क हैं कि अभिभावकों की यही माँग है. प्रश्न यह है कि जब अफसर से लेकर चपरासी तक की सभी नौकरियाँ अंग्रेजी के बलपर ही मिलेंगी तो कोई अपने बच्चे को हिन्दी पढ़ाने की भूल कैसे करेगा ? निस्संदेह हिन्दी पढ़ने से नौकरी मिलने लगे तो लोग हिन्दी पढ़ाएंगे. यूपी बोर्ड में आठ लाख बच्चों के फेल होने की खबर तो सुर्खियों में थी और सारा दोष शिक्षकों पर डाला जा रहा था किन्तु इस ओर ध्यान नहीं था कि अंग्रेजी की शब्दावली और व्याकरण रटने में ही जब बच्चों का सारा समय चला जाएगा तो अपने घर की भाषा हिन्दी पढ़ने के लिए वे कैसे समय निकाल पाएंगे ?
इस देश में तकनीकी, मेडिकल, मैनेजमेंट, कानून आदि की शिक्षा तो अंग्रेजी माध्यम से होती ही है राजधानी के विश्वविद्यालयों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम से होने लगी है जबकि पढ़ाने वाले अध्यापक ज्यादातर हिन्दी पट्टी के ही हैं. इन सबके पीछे अंग्रेजी का दिनोंदिन बढ़ता रुतबा है जिसके लिए सिर्फ सरकारें जिम्मेदार हैं.
हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक “द इंग्लिश मीडियम मिथ” में संक्रान्त सानु ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब, बीस -बीस देशों की सूची दी है. बीस सबसे अमीर देशों में उन देशों की जनभाषा ही सरकारी कामकाज की भी भाषा है और शिक्षा के माध्यम की भी. इसी तरह दुनिया के सबसे गरीब बीस देशों में सिर्फ एक देश नेपाल है जहाँ जनभाषा, शिक्षा के माध्यम की भाषा और सरकारी कामकाज की भाषा एक ही है नेपाली. बाकी उन्नीस देशों में राजकाज की भाषा और शिक्षा के माध्यम की भाषा भारत की तरह जनता की भाषा से भिन्न कोई न कोई विदेशी भाषा है. ( द्रष्टव्य, द इंग्लिश मीडियम मिथ, पृष्ठ-12-13) इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि अंग्रेजी माध्यम हमारे देश के विकास में कितनी बड़ी बाधा है.
वास्तव में व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले किन्तु वह सोचता अपनी भाषा में ही है. हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए अनूदित करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है. इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है. इसीलिए मौलिक चिन्तन नहीं हो पाता. मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है. पराई भाषा में हम सिर्फ नकलची पैदा कर सकते हैं. अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची पैदा कर रही है.
आज भी इस देश की सत्तर प्रतिशत जनता गावों में ही रहती है. उनकी शिक्षा ग्रामीण परिवेश की शिक्षण संस्थाओं में ही होती है. गाँवो की इन प्रतिभाओं को यदि मुख्य धारा में लाना है तो उन्हें उनकी अपनी भाषाओं में शिक्षा देना एकमात्र रास्ता है और यही हमारे संविधान का भी संकल्प है. हमारा संविधान, देश के प्रत्येक नागरिक को ‘अवसर की समानता’ का अधिकार देता है.
हमारी शिक्षा नीति की सबसे बड़ी खामी है असमानता. गरीबों और अमीरों के लिए अलग अलग शिक्षा की व्यवस्था. यदि शिक्षा सबके लिए समान और मुफ्त नहीं है तो गाँवों में छिपी प्रतिभाओं को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर कैसे मिलेगा ? ईश्वर ने अमीरों और गरीबों के बच्चों को प्रतिभा देने में कोई बेईमानी नहीं की है. बेईमानी हमने की है साधन और सुविधाओं का असमान बँटवारा करके, और शोषण को न्यायसंगत ठहराने का कानून बना करके. जिसके पास ज्यादा पैसा है वह बेहतर शिक्षा खरीद ले रहा है. चंद अपवादों को छोड़ दें तो इस शिक्षा व्यवस्था में मजदूरों-किसानों के बच्चों को मजदूर ही बनना है, चाहे वे जितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हों और मालिकों के बच्चों को मालिक, चाहे वे भले ही मंदबुद्धि के हों. नई शिक्षा नीति- 2020 इस असमानता को और अधिक बढ़ाएगा.
कुछ वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बहुत अच्छा फैसला सुनाया था जिसपर आजतक कोई अमल नहीं हुआ. न्यायालय ने आदेश दिया था कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक और प्रधान मंत्री से लेकर विधायक तक, जितने भी लोग सरकारी खजाने से वेतन पाते हैं उनके बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ने की व्यवस्था हो. यदि सरकार कोर्ट के उक्त आदेश को अमल में ले आए तो ज्यादातर समस्या हल हो सकती है. पड़ोस के देश भूटान में यही होता है. बड़े से बड़े ओहदेदारों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, इसलिए सरकारी स्कूलों की दशा अच्छी है. वहां भी प्राइवेट स्कूल हैं किन्तु उनमें वे ही बच्चे पढ़ते हैं जिनका प्रवेश सरकारी स्कूलों में नहीं हो पाता. किन्तु इसके लिए सरकारी विद्यालयों की दशा सुधारनी होगी, वहां अपेक्षित साधन और सुविधाओं का इंतजाम करना होगा, शिक्षा-मित्रों की जगह पर्याप्त और सुयोग्य शिक्षकों की नियुक्ति करनी होगी. इन सबके लिए शिक्षा का बजट बढ़ाना पड़ेगा जबकि शिक्षा-क्षेत्र के बजट में लगातार कटौती की जाती रही है. जीडीपी का छ: प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का वादा लगभग सभी सरकारें हमेशा से करती रही हैं किन्तु कभी किसी ने अपना वादा पूरा नहीं किया. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तो निजीकरण को पर्याप्त महत्व दिया गया है, इससे भला कैसे उम्मीद की जाय ?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के जिस प्रावधान की सबसे ज्यादा प्रशंसा हो रही है वह है प्रारंभिक शिक्षा को मातृभाषाओं या स्थानीय भाषाओं के माध्यम से दिए जाने की संस्तुति. गांवों से लेकर शहर तक, देश भर में फैले अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के साम्राज्य को देखते हुए प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों द्वारा इस कदम की प्रशंसा करना स्वाभाविक भी है. जबतक हमारी शिक्षा, हमारी अपनी भाषाओं के माध्यम से नहीं होंगी तबतक गांवों की दबी हुई प्रतिभाओं को मुख्य धारा में आने का अवसर नहीं मिलेगा. आजादी के बाद इस विषय को लेकर राधाकृष्णन आयोग, मुदालियर आयोग, कोठारी आयोग आदि अनेक आयोग बने और उनके सुझाव भी आए. सबने एक स्वर से यही संस्तुति की कि बच्चों की बुनियादी शिक्षा सिर्फ मातृभाषाओं में ही दी जानी चाहिए. दुनिया के सभी विकसित देशों में वहां की मातृभाषाओं में ही शिक्षा दी जाती है. मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अपनी मातृभाषा में बच्चे खेल- खेल में ही सीखते हैं और बड़ी तेजी से सीखते हैं. उनकी कल्पनाशीलता का खुलकर विकास मातृभाषाओं में ही हो सकता है. गाँधी जी चाहते थे कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सबकुछ मातृभाषा के माध्यम से हो. ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा है, “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही हमारे लड़के और लड़कियों की विदेशी माध्यम के जरिये शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं या उन्हें बरखास्त कर दूं. मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूंगा. वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आवेंगी.” ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने लिखा कि, “.अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बढ़े हैं. अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं.”
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शिक्षा के माध्यम विषय पर कहा हैं,” हमारा मन तेरह –चौदह वर्ष की आयु से ही ज्ञान का प्रकाश तथा भाव का रस प्राप्त करने के लिए खुलने लगता है. उसी समय यदि उसके ऊपर किसी पराई भाषा के व्याकरण तथा शब्दकोश रटने के रूप में पत्थरों की वर्षा आरंभ कर दी जाय तो बतलाइए कि वह सुदृढ़ और शक्तिशाली किस प्रकार हो सकता है ? ” ‘विश्वभारती’ की माध्यम-भाषा उन्होंने बांग्ला को ही चुना.
ऐसी दशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा को मातृभाषा या स्थानीय भाषा के माध्यम से देने का सुझाव निश्चय ही स्वागत योग्य है, किन्तु शिक्षा की वर्तमान दशा को देखते हुए क्या यह व्यवहार में उतर सकेगा ? मुझे तो तनिक भी भरोसा नहीं हो रहा है. देश में स्कूली शिक्षा की दूकानें चलाने वालों का पूरा व्यापार अंग्रेजी माध्यम की बदौलत ही फल- फूल रहा है. देश के सैकड़ों सांसद होंगे जो शिक्षा के व्यापारी भी हैं. भला वे माध्यम बदलेंगे ? सीबीएससी ने तो पहले ही कह दिया है कि उनके यहाँ जिनके बच्चे पढ़ते हैं उनमें से ज्यादातर ट्राँसफर की प्रकृति वाली नौकरी करने वाले लोग होते हैं. वे भला स्थानीय भाषा के माध्यम से शिक्षा कैसे दे सकेंगे ? राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के नियम-4.9 में इस तरह का संकेत भी है कि ह्वेयरएवर पॉसिबुल, द मीडियम ऑफ इंस्ट्रक्शन अनटिल एट लीस्ट ग्रेड-5, बट प्रिफरेबली टिल ग्रेड-8 एंड बियांनड, विल बी द होम लैंग्वेज/ मदर टंग/लोकल लैंग्वेज. देयर ऑफ्टर द होम/ लोकल लैंग्वेज/ शैल कॉन्टिन्यु टू बी टाट एज लैंग्वेज ह्वेयेवर पॉसिबुल. यहां आरंभ में और अंत में भी ‘ह्वेयएवर पॉसिबुल’ अर्थात ‘यथासंभव’ शब्द का इस्तेमाल यह प्रमाणित करता है कि इस प्रावधान को लागू कराने पर जोर नहीं है. यह पूरी तरह लागू करने वाले की इच्छा पर निर्भर है. यानी, मेरी दृष्टि में यदि यह शिक्षा नीति लागू होती है तो भी भाषा संबंधी प्रावधान में कोई परिवर्तन नहीं होगा.
चिन्ताजनक तो यह है कि पहले की ही तरह इस नई शिक्षा नीति में भी संकेत कर दिया गया है कि कक्षा आठ के बाद सबकुछ फिर अंग्रेजी में हो जाएगा. जबकि पिछले दिनों सुर्खियों में रहे एम्स, आई.आई.टी. और मैनेजमेंट के अनेक प्रतिभाशाली छात्रों ने इसलिए आत्महत्याएं कर लीं क्योंकि ग्रामीण परिवेश और स्थानीय भाषाओं के माध्यम से अबतक की शिक्षा पाने के कारण वे उक्त संस्थानों के अपने प्रोफेसरों के अंग्रेजी के व्याख्यान पूरी तरह समझ नहीं पा रहे थे.
प्रश्न यह है कि आगे की पढ़ाई भी भारतीय भाषाओं में हो पाना क्यों संभव नहीं है? जब अंग्रेज नहीं आए थे और हम अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते थे तब हमने दुनिया को बुद्ध और महावीर दिए, वेद और उपनिषद दिए, दुनिया का सबसे पहला गणतंत्र दिए, चरक जैसे शरीर विज्ञानी और शूश्रुत जैसे शल्य-चिकित्सक दिए, पाणिनि जैसा वैयाकरण और आर्य भट्ट जैसे खगोलविज्ञानी दिए, पतंजलि जैसा योगाचार्य और कौटिल्य जैसा अर्थशास्त्री दिए. हमारे देश में तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे जहां दुनिया भर के विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे. इस देश को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था जिसके आकर्षण में ही दुनिया भर के लुटेरे यहां आते रहे. प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा ने कहा है कि दुनिया के किसी भी देश की संस्कृति से मुकाबला करने के लिए अपने यहां के सिर्फ तीन नाम ले लेना ही काफी है- तानसेन, तुलसीदास और ताजमहल. हम विश्वगुरु बनने का ख्वाब तो देखते हैं मगर भाषा दूसरे की. किसी ने कहा है, “मर्द बनते हो यार ! हथियार दूसरे का.”
जिस जापान की तकनीक और कर्ज के बलपर हमारे यहाँ बुलेट ट्रेन की नींव पड़ी है, उस जापान की कुल आबादी सिर्फ 12 करोड़ है. वह छोटे- छोटे द्वीपों का समूह है. वहां का तीन चौथाई से अधिक भाग पहाड़ है और सिर्फ 13 प्रतिशत हिस्से में ही खेती हो सकती है. फिर भी वहां सिर्फ भौतिकी में एक दर्जन से अधिक नोबेल पुरस्कार पाने वाले वैज्ञानिक हैं. ऐसा इसलिए है कि वहां 99 प्रतिशत जनता अपनी भाषा ‘जापानी’ में ही शिक्षा ग्रहण करती है. इसी तरह इजराइल की कुल आबादी मात्र 83 लाख है और वहां 11 नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हैं क्योंकि वहां भी उनकी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ में शिक्षा दी जाती है. चीन भी उसी तरह का बहुभाषी विशाल देश है जिस तरह का भारत. किन्तु उसने भी अपनी एक भाषा चीनी ( मंदारिन) को प्रतिष्ठित किया और उसे वहां पढ़ाई का माध्यम बनाया. चीनी लिपि तो दुनिया की सबसे कठिन लिपियों में से है. वह चित्र-लिपि से विकसित हुई है. आज चीन जिस ऊंचाई पर पहुंचा है उसका सबसे प्रमुख कारण यही है कि उसने अपने देश में शिक्षा का माध्यम अपनी चीनी भाषा को बनाया. इसी तरह अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि दुनिया के सभी विकसित देशों में वहां की अपनी भाषाओं क्रमश: अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, रूसी आदि में ही शिक्षा दी जाती है. इसीलिए वहां मौलिक चिन्तन संभव हो पाता है. मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है. व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले किन्तु सोचता अपनी भाषा में ही है. हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में ट्रांसलेट करके सोचते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है. इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है. अंग्रेजी माध्यम अपनाने के बाद से हम सिर्फ नकलची पैदा कर रहे हैं. अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची ही पैदा कर सकती है. निस्संदेह समूची शिक्षा मातृभाषाओं के माध्यम से बेहतर ढंग से हो सकती है. हिन्दी सहित हमारे देश की अधिकाँश भाषाएं इस दृष्टि से पूरी तरह सक्षम हैं. और ऐसा होने से हमारे देश के दूर दराज क्षेत्रों में दबी प्रतिभाओं को भी अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर मिलेगा. दरअसल, तभी सही अर्थों में लोकतंत्र सार्थक होगा.
किन्तु मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा तभी लागू हो सकती है जब नौकरियों में भारतीय भाषाओं को समुचित जगह मिलेगी. क्योंकि तभी उसकी माँग बढ़ेगी. यह एक ऐसा मुल्क बन चुका है जहाँ का नागरिक चाहे देश की सभी भाषाओं में निष्णात हो किन्तु एक विदेशी भाषा अंग्रेजी न जानता हो तो उसे इस देश में कोई नौकरी नहीं मिल सकती और चाहे वह इस देश की कोई भी भाषा न जानता हो और सिर्फ एक विदेशी भाषा अंग्रेजी जानता हो तो उसे इस देश की छोटी से लेकर बड़ी तक सभी नौकरियाँ मिल जाएंगी. ऐसे माहौल में कोई अपने बच्चे को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता कैसे कर सकता है ?
भाषा के सवाल को लेकर हमें किसी भी मुगालते में नहीं रहना चाहिए. हमारे देश में अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा नहीं है वह सत्ताधारी वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथियार है जिसके बलपर वे सत्ता पर काबिज हैं. ये ‘काले अंग्रेज’ ही आज के हमारे मालिक हैं और हर गुलाम आदमी सोचता है कि मालिक की भाषा जानेंगे तो फायदे में रहेंगे. हमें इस सचाई को समझना होगा कि अपनी भाषा की प्रतिष्ठा की लड़ाई व्यवस्था- परिवर्तन की लड़ाई का ही हिस्सा है. क्या हम इस लड़ाई में अपनी सीमित भूमिका भी निभाने को तैयार हैं ?
(हिन्दी दिवस पर विशेष, ‘समकाल’-3 से साभार)
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