ठेके का हिसाब
मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ और नहीं जानता कि इतनी दूर आ गया हूँ यहाँ से कैसा दिख रहा हूँ ।
अपने पर शर्मिंदा, अपनी कविता से नाराज़ , अपनी भाषा के अभिजात्यपने में फँसा हुआ , कि कमीने को कमीना नहीं कहता, भेड़िए को भेड़िया , गीदड़ को गीदड़ और आदमी को आदमी नहीं, मैं इतिहास का पहला नहीं, इतिहास का आख़िरी नहीं, इकलौता भी नहीं, उसी भीड़ में से कोई एक जिसने खादी का कुर्ता पहना है, जिसके घर में माँ के जोड़ों में दर्द है, जिसके पिता मोहल्ले के पंसारी से उधार का राशन लाए हैं, जिसके बिस्तरे के नीचे किसी का ख़त पड़ा है , वही जिसके न होने से लोग दुखी होंगे लेकिन जी जाएँगे , क्या इतने साधारण-वाक्यांशों से बना हुआ , उद्दातताहीन , अपनी उज्जड़ता में आपसे यह सवाल पूछ सकता हूँ कि आपको दिखता नहीं क्या -
बैंगनी गहरा बैगनीं, कुहरे की तरह नहीं सड़ते गंधाते पानी वाली बाढ़ की तरह हमारे घरों में घुस आया है, और हमारे आत्म पर सांपों का विष चढ़ने लगा है, हम बैंगनी हो रहे हमें नहीं दिखता हमारे सीने दरक रहे हमें नहीं दिखता हमारी जीभ पर हमने अपना वॉटर्मार्क लगीं फूलों की बेलें लगा लीं हमें नहीं दिखता , हम सुंदरता देखने लगे हैं अपने मुँह में अपना माथा घुसाए हम कला देखने लगे हैं प्रचारों में अख़बारों में सरकारों में हमारा संगीत हमारा ब्रांड बन गया है सुनते कम जताते ज़्यादा हैं और हमारा बचपन हमारे नाम की मुनादियाँ करता , चौराहे का चमनचुतिया
ऐसे में भले हाथियों का हमारा यह समाज - हम कवि लोगों का समाज, मुस्कराहटें बाँटने प्रेम बाँटने और सादर नमन का कॉपी पेस्ट पेलने में लगा हुआ है - एक अकवि का बिम्ब है मेरे पास , बताइए - कितना अच्छा बहुत अच्छा होता है ? कितना बुरा बहुत बुरा ? मैं नारों में कविता लिखना चाहता हूँ, बैठे हुए लोगों को उठाना , चलाना, दौड़ाना - अभिधा में कह रहा हूँ, अभिधा में सुनिए। वीरू सोनकर के कहे में थोड़ा अपना मिला कर कहता हूँ , रीझने रिझाने का खेल बन गयी है कविता आधी निजी आधी सरकारी भारतीय रेल बन गयी है कविता । रेलवे स्टेशनों पर छात्र हैं , छात्रावासों में लाठियाँ हैं और माई डियर पोयट इंडिया इंटर्नैशनल सेंटर जाने वाले हवाई जहाज़ में - साल दर साल जमा निराशा एक जगह आकर कहती है- अर्जे तमन्ना कविता नहीं है सम्पादन है , जाने किसका उत्पादन है, निष्पादन है या सिर्फ पाद…
शुचिता और शुद्धतावाद में फ़र्क़ होता है ,
विचार और विचारधारा में फ़र्क़ होता है ,
ट्रोल और आलोचक में फ़र्क़ होता है,
आलोचक और भांड में फ़र्क़ होता है ,
संस्कृति की पूँजी भी पूँजी है
ज्ञानियों की सत्ता भी सत्ता
जिसकी अभिजात्यता और जिसका नशा
रोज़ अपनी ओर खींचता है।
क्या यह बहुत ज़्यादा चाहना है
कि मेरा तेली दोस्त अपनी ब्राह्मण प्रेमिका से शादी कर पाए
कि मेरा सनम मेरी बाहों में बाहें डाले सड़क पर चल सके
कि मैं कविता लिखूँ तो मुझे नौकरी जाने का डर ना लगे
कि बुद्धिजीवियों के पास कुंठा नहीं, संवेदना हो
कि युवा कवि कहाने का रोमैंटिसिज़म पालने वाले पहले सत्ताओं से लड़ना सीखें?
कि अंचित आचार्यित छोड़ कविता छोड़ किसी की उँगलियों में फँसी सिगरेट बन सके?
मेरी इन चाहों के पीछे बजबजाती हुई आती है पूँजी - रहस्य से भरी हुई और अपने सारे क्षद्म लपेटे हुए, फिर भी इतनी लापरवाह कि अपने होने पर शर्म आती है, सीज़र जैसे चल रहा था रोम की सड़कों पर, आती है पूँजी और यज़ीद की तरह डेरा जमाती है । मंगलेश डबराल की शर्मिंदगी से अपनी शर्मिंदगी मिलाता हूँ। सड़क पर चलते कोई हाथ उठा देगा जैसे देवीप्रसाद मिश्र पर उठा दिया गया था । रूश्दि की तरह अज्ञातवास, रित्सोस की तरह जेल, कालिदास की तरह किसी गणिका का आँगन और निराला पर समकालीन उत्तरआधुनिकता का थोपा हुआ पागलपन।
मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ - यह कोई शपथपत्र नहीं जैसा पिछले साल था, यह कोई उम्मीद का शिलालेख नहीं जो समय की दीवार पर टांगा जा रहा। एक तलहीन कूएँ में गिर रही आदमी की रीढ़ का आख्यान है। इसे जितनी जल्दी हो सके ख़ारिज कर दिया जाए।
अंचित
(उन कविताओं में जो कहीं नहीं छापेंगी। जब लिखी थी,रुश्दी पर हमला नहीं हुआ था)
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