Wednesday 14 September 2022

नामवर सिंह के कुर्ते की जेब से निकले आलोचक-संपादक का नया कारनामा, बक़ौल अवनीश पांडेय

नामवर सिंह के कुर्ते की जेब से निकले  आलोचक-संपादक का नया कारनामा, बक़ौल अवनीश पांडेय

आलोचना पत्रिका के संपादक और आलोचक आशुतोष कुमार जी( Ashutosh Kumar Ji) ने पिछले दिनों अपनी एक फेसबुक पोस्ट के जरिये चिंता जाहिर की "हिंदी के शुद्ध साहित्यिक हलकों में आखिर बड़ी बहस कब और किस मुद्दे पर हुई थी" आगे लिखा कि "आलोचना के ही पिछले दो सालों में आए छः अंकों में हर अंक में दो-एक लेख तो ऐसे थे ही,जिन पर गंभीर बहस होनी चाहिए,जिन पर बहस की सख़्त जरूरत थी" इसी क्रम में उन्होंने 'देव की कविताई पर मृत्युंजय' के लेख का जिक्र किया।
इस लेख से बहस करते हुए फ़ेसबुक पर ही मैंने एक लंबी टिप्पणी  "आलोचना पत्रिका का 61वां अंक -देव की कविताई और आलोचक मृत्युंजय का लेख" नाम से लिखा था।नीचे स्क्रीन शॉट केवल इसलिए कि संपादक महोदय की नजर में यह बात है और उन्होंने  इसे पत्रिका में जगह देने और बहस को आगे बढाने की बात भी की थी।उन्हीं के शब्दों में "किसी जीवंत साहित्यिक समाज को झकझोरने के लिए इतना काफी होना चाहिए।किसी को लगना चाहिए कि जब तक इस सवाल को किसी सिरे न पहुंचा लिया जाए तब तक चैन नहीं लिया जा सकता।"
क्या यह हिंदी समाज का दोहरा चरित्र नहीं है कि एक तरफ तो हम किसी मुद्दे पर गंभीर बहस चाहते हैं और दूसरी तरफ हम जानबूझकर नजरअंदाज करते हैं ताकि सचमुच कहीं कोई बहस न खड़ी हो जाए ।दाग़ देहलवी ने क्या ख़ूब लिखा है -
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं 
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

#आलोचनापत्रिका_का_61वां_अंक
#देव_की_कविताई_और_आलोचक_मृत्युंजय_का_लेख 

आलोचक मृत्यंजय का यह कहना सच है कि ,"रीतिकालीन कविता पर बहस करते हुए उसके विरोधी और समर्थक दोनों एक खास किस्म के अपराध बोध से भरे हुए दिखते हैं, विरोधी तो विरोधी समर्थक भी इस बात से मुतमइन हैं कि इस कविता का आधुनिक देश काल से कोई लेना-लादना नहीं है ।"
दरअसल इस लेख में आलोचक मृत्युंजय ने भी रीतिकालीन कविता को ना समझे जाने पर तो सवाल उठाया है लेकिन जवाब नहीं दे पाए हैं ।उन्होंने रीतिकालीन कविता की अब तक हो रहे दो तरह के पाठ का पहला,"समकालीन सामाजिक स्थितियों के बीच रखकर कविता का पाठ" और दूसरा," कविता को ख़ालिस सौंदर्य की वस्तु मानकर पढ़ना" की तरफ ध्यान दिलाते हुए बतलाया है कि ,"देव समेत सभी रीतिकालीन कवियों के आधुनिक पाठक का काव्य-बोध औपनिवेशिकता के सघन माध्यम से छनकर बना हुआ है ।इस नाते वह कविता की उस रवायत परंपरा वा रीति से नावाकिफ है जो पूर्व- उपनिवेश की दुनिया में कायम थी ।इसीलिए आधुनिक पाठक अपने खाकों में रीतिकालीन कविता को बैठाने की कोशिश करता है और परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकालने से अचकचा जाता है ।"
दरअसल ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और आलोचक देव की कविता की व्याख्या करते समय इन्ही बातों में फंसा रह जाता है ।व्याख्या की हड़बड़ी में गड़बड़ी कर देता है ।देव के एक प्रसिद्ध छंद की व्याख्या में आलोचक द्वारा हुई गड़बड़ी का एक उदाहरण देखिए -

"धार में धाय धँसी निराधार ह्वै आय फँसी उकसी न उधेरी
री अँगराय गिरी गहिरी गहि फेरे फिरि न घिरी नहीं घेरी
देव कछू अपनों बस ना रस लालच लाल चितै भई चेरी
बेगि ही बूड़ि गई पंखियाँ अँखियाँ मधु की मंखियाँ भई मेरी "

इस कविता की व्याख्या करते हुए आलोचक ने लिखा है कि ,"इस कविता का केंद्रिय बिम्ब तभी खुल सकेगा जब पाठक मिठाई की मक्खी और शहद की मक्खी का अंतर समझे ।.........यह बिम्ब दीपक -पतंगे वाले बिम्ब की तरह ही है जहाँ पतिंगा मर जाता है ।शहद की मक्खी भी शहद में डूबकर मर जाती है।"

पहली बात तो यह की शहद की मक्खी शहद में डूबकर मरती नहीं है। वह उसे पैदा करती है ।यहाँ तक कि सामान्य मक्खी भी डूबने के बाद उड़ जाती है। देव की कविता को समझने के लिए आलोचक को लोकजीवन का न्यूनतम ज्ञान होना चाहिए। दूसरी बात यह कि यहाँ बिम्ब पतिंगे के मर जाने जैसा नहीं है  ।इस बात को समझने के लिए बिहारी का यह दोहा बेहतर होगा -

"तन्त्री- नाद कवित्त रस सरस राग रतिरंग
अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग"

असल में रीतिकाल समेत हर युग में प्रेम जैसे गहरे मनोभावों के प्रसंग में जुनून और दीवानगी का गहराई तक जाने और डुबकी लगाने का एक खास अर्थ है, जो बिहारी के इस दोहे में भी है और देव के ऊपर उद्धृत छंद में भी।कबीर ने इसी अर्थ में कहा था --- "जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ"। यहाँ सारा मामला इसी का है ।

आलोचक द्वारा देव के एक और महत्वपूर्ण छंद की व्याख्या में हुई गड़बड़ी का एक उदाहरण देखिए -

"पावक मैं बसि आँच लगै न बिना छत खांड़े कि धार पै धावै
मीत सों भीत अभीत अमीत सों दुक्ख सुखी सुख मैं दुःख पावै
जोगी ह्वै आठ हूं जाम जगै  अठजामिनी कामिनी सौं मनु लावैं
आगिलो पाछिलो  सोचि सबै फल कृत्य करै तब भृत्य कहावैं"

आलोचक मृत्युंजय लिखते हैं ,"इस छंद में भृत्य होने की शर्तें बताई गई हैं। पहली नजर में यह छंद सलाह की तरह लगता है कि भृत्य को कैसा होना चाहिए। यह सूची शुरू होती है : 

"आग में रहे पर आँच न लगे,तलवार की धार पर दौड़े, मालिक के दोस्त से डरे, दुश्मन से न डरे, मालिक के दुःख में सुखी और सुख में दुःखी रहे। योगी की तरह रहे और कामिनी की तरह भी। साथ ही अगला- पिछला सब भूलकर निपट वर्तमान में रहे ।"

यहाँ आश्चर्यजनक रूप से भृत्य के बारे में जो कुछ कहा गया है उसे मृत्युंजय जी ने भृत्य से की गई अपेक्षा कहा है, जबकि देव की पंक्तियाँ कुछ और ही कहती हैं । पहली पंक्ति में खांड़े की धार पे दौड़ने का बिम्ब भृत्य के जीवन की चुनौती का संकेत करता है ।दूसरी पंक्ति में स्वामी के मित्र से डरने और दुश्मनों से निडर रहने के कथन में तलवार की धार पर दौड़ने का यही कौशल दीख पड़ता है। स्वामी का मित्र उसका शुभचिंतक होता है। उससे डरने की जरूरत उस सेवक को क्यों पड़ेगी जो स्वामिभक्त है। स्वामी के दुश्मन से न डरना दोनों ही स्थितियों में हो सकता है। स्वामी का हितचिंतक है तो निडर रहेगा और उससे जला भुना है तो उसके शत्रु में अपना संभावित मित्र देखेगा ।
इसी पंक्ति में बात को खोलकर कह दिया है कि जो स्वामी के दुःख में सुखी होता है और सुख में दुःखी। आश्चर्य है कि आलोचक ने इसका शाब्दिक अर्थ तो ठीक लिखा है लेकिन व्याख्या असंगत कर दिया है ।यही दुर्घटना अंतिम पंक्ति के साथ भी हुई है ।

"आगिलो पाछिलो सोचि सबै फल" का अर्थ आलोचक ने "अगला पिछला सब भूलकर निपट वर्तमान में रहे" करता है जबकि इस पंक्ति का सीधा सा अर्थ है ,अतीत और भविष्य के सभी संभावित नतीजों के बारे में सोचकर ही जो अपना काम करता है , वहीं सेवक है ।
स्पष्ट है कि कविता सेवक के जीवन की त्रासदी और उसकी विवशता के बारे में बात करती है,जो किसी हद तक आधुनिक व्यथा है जबकि आलोचक ने उसे भृत्य की स्वामिभक्ति के पुराने ढांचे में ही समझा है। इस प्रकार वह खुद उसी भटकाव का शिकार हो जाता है जिसकी चर्चा उसने लेख के शुरू में की थी ।

और आखिर में आलोचक ने रीतिकालीन कविता को  जिस "विक्टोरियाई नैतिक मूल्य" से न देखने की बात की है, इसकी चर्चा तो आलोचक वर्षों से कर रहे हैं ।बेहतर होता कि इस लेख में विक्टोरियाई नैतिक मूल्यों की भी पड़ताल की जाती ।कविता के भीतर से ही उसको पढ़ने के नए औजार विकसित करने की जो बात हो रही है वह इस लेख में भी दिखाई पड़ती। मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढँकी रहे वाली शैली से पाठक ऊब चुका  है ।

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