Wednesday 14 September 2022

अपूर्वानन्द की किताब 'सुंदर का स्वप्न' : कृष्ण मोहन

#सुंदर_का_सत्य

अपूर्वानन्द की किताब 'सुंदर का स्वप्न'

सचाई जब कड़वी हो जाती है, तो शासकवर्गीय विचारक सौंदर्य के पैमानों पर बहस छेड़ते हैं, और सत्य को व्यक्त करने के आग्रह पर कुढ़ने लगते हैं। जब उस सचाई को कला में ढालकर पेश किया जाता है तो वे उससे नाक़ाबिले बर्दाश्त होने की मांग करते हैं, और ऐसा न होने को कला की असफलता कहते हैं। असल में ऐसे विचारक रंगे सियार की तरह होते हैं, जो सत्ता के विरोधी होने का स्वांग भरते हैं, लेकिन जब भी मुँह खोलते हैं तो अपनी असलियत उजागर कर देते हैं। समय-समय पर इनकी चर्चा करनी पड़ती है, ताकि लेखकों की इस प्रजाति को पहचानना हम भूल न जाएं।

आधुनिक युग में सौन्दर्यशास्त्र के अस्तित्व में आने की एक दिलचस्प वजह बताते हुए अपूर्वानन्द अपनी किताब 'सुन्दर का स्वप्न' (वाणी प्रकाशन) के आरम्भिक पृष्ठों पर कहते हैं– "हम देखते हैं कि प्रायः हर समय शासक वर्गों के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रोत्साहन पर सर्वसम्मति का एक स्तर खोजने की कोशिश चलती रहती है।... सौन्दर्यानुभूति के इस स्तर से गुजरकर ही किसी भी राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था का तर्क मान्यता प्राप्त करने में सफल होता है।... अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र की दुनिया अमूर्त तर्कों से अलग अनुभूति का एक सम्पूर्ण लोक है, जिसे समझना किसी सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है। अठारहवीं सदी के यूरोपीय दार्शनिक अनुभूति के उस लोक का अपना तर्कशास्त्र गढ़ने की जरूरत महसूस करने लगे जो मानवीय चिन्तन द्वारा निर्मित नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र या तर्कशास्त्र से अलग अस्तित्व रखता हो। इसी प्रयास में सौन्दर्यशास्त्र का जन्म हुआ।" (पृ. 18-19)

लेकिन विकास के क्रम में सिक्के का दूसरा पहलू भी सामने आता है-- "सौन्दर्यशास्त्र ने अठारहवीं सदी में जहाँ एक नई सामाजिक-आर्थिक शक्ति के औचित्य के लिए आधार प्रस्तुत किया, वहीं आगे चलकर उसकी क्रूरता से विद्रोह किया, उसके असली चेहरे को बेनकाब किया और यह बताया कि एक ऐसा क्षेत्र बचा हुआ है जहाँ मनुष्य अपनी रचनात्मकता की शक्ति के साथ उस व्यवस्था का मुकाबला कर सकता है।" (पृ. 29)

बुनियादी तौर पर सौन्दर्य के शास्त्र के निर्माण या विवेचन का कोई भी प्रयास इन्हीं दोनों दिशाओं में से किसी एक के निकट होगा। इस किताब के उपशीर्षक में इसे मार्क्सवादी सौन्दर्य-दृष्टि से सम्बन्धित माना गया है, इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में भी इसकी जाँच-परख अनिवार्य है। कुल मिलाकर सौन्दर्य को परिभाषित करने के इस आग्रह की राजनीति क्या है और यह स्वयं सौन्दर्य की कसौटी पर कितना खरा उतरा है, यही इस लेख का विषय है।

मार्क्सवादी सौन्दर्य-चेतना का पुनरुद्धार करने के क्रम में लेखक के हाथ एक अत्यन्त मौलिक सूत्र लगा है जिसे वह इन शब्दों में प्रस्तुत करता है- "मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं को आत्मीयता से पढ़नेवाला व्यकि यह देखे बिना नहीं रह सकता कि उनके आदर्श मानवीय जीवन का लक्ष्य जितना सत्य की प्राप्ति नहीं, सुख, आनन्द या लोगों की भलाई है।" (पृ. 37) मार्क्स को इस किताब में किसी सौन्दर्यशास्त्री जैसे उच्चतर आसन पर प्रतिष्ठित किया गया है क्योंकि उनका पूरा प्रयास मानवीय श्रम को पूंजीवादी उपयोगितावाद की अनिवार्यता से मुक्त कराकर उसे सुख और आनन्द की ऐच्छिकता के हवाले करता है और इस प्रकार पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में अजनबियत का शिकार होकर गुम हो गए मानव-व्यक्तित्व को उसे वापस करता है। पूर्णता और सौन्दर्य का यह लक्ष्य निश्चय ही मार्क्स के बुनियादी लक्ष्यों में से एक है, लेकिन अपूर्वानन्द के विश्लेषण में मार्क्स को यह श्रेय महंगे दामों मिलता है। उसके लिए उन्हें सबसे पहले सत्य की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। उपयुक्त उद्धरण में सुख या आनन्द, जिसे किताब में प्रायः सौन्दर्य के पर्याय के रूप में व्यवहृत किया गया है और लोगों की भलाई यानी लोककल्याण एक तरफ है और सत्य दूसरी तरफ। यह खेमेबन्दी रणनीतिक है जिसका रहस्य आगे चलकर खुलता है।

भारतीय परम्परा में सत्य और शिव को सुन्दर से अभिन्न माना गया है, लेकिन यहाँ अगर वे अलग-अलग दिखते हैं तो यह अकारण नहीं है। 'सच्चे' सौन्दर्य की स्थापना सत्य के मानमर्दन के बगैर नहीं हो सकती। साहित्य और कला के क्षेत्र में, जिसे सौन्दर्यशास्त्र का विशिष्ट क्षेत्र माना गया है, सत्य को अंतर्वस्तु तथा सौन्दर्य को रूप के द्वारा पहचाना जाता है। अन्तर्वस्तु की अवहेलना करके रूप के महत्व पर आत्यंतिक जोर देनेवाले विचार, रूपवाद का समर्थन करने के लिए बहुत खोजबीन कर मार्क्स की निम्नलिखित गवाही जुटाई गई है। रूपवाद को मार्क्सवाद का शत्रु घोषित करने और तमाम तथाकथित गैरयथार्थवादियों की आलोचना करनेवाले अगर मार्क्स के इस उद्धरण को देखें तो उन्हें अपनी गलती का अहसास शायद हो सके-- "सत्य में सबका साझा होता है- यह मेरी मिल्कियत नहीं है। इस पर हर किसी का हक है। मुझ पर वह नियन्त्रण रखता है। मैं उसे नियन्त्रित नहीं करता, मेरी सम्पत्ति बस रूप ही है-- यानी मेरी मानसिक और बौद्धिक विशिष्टता।" (वही, पृ. 47 )

मार्क्स के इस कथन से रूपवाद को तो शायद ही कोई राहत मिल सके, हाँ सत्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का पता अवश्य चल जाता है। अपने इतने उत्साही समर्थकों के प्रयासों पर मार्क्स की ऐसी ठंडी प्रतिक्रिया देखकर उनके एक समकालीन मिर्ज़ा ग़ालिब होते तो कहते:

'शौक हर रंग रक़ीबे सरो सामां निकला 
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला'

मज़े की बात यह है कि लेखक अपनी उपलब्धि का श्रेय ख़ुद लेने में संकोच करता है और अत्यंत उदारतापूर्वक उसे पूँजीवाद को प्रदान कर देता है– "पूँजीवादी समाज में सत्य और सुन्दर अलग-अलग हैं, वे अलग-अलग मूल्य हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में जो सत्य है, वह सुन्दर नहीं क्योंकि मानवीयता से रहित हुए बिना सच का सामना
नहीं किया जा सकता।" (पृ. 55) जाहिर है कि यह विलक्षण पूंजीवाद 'मानवीयता' को 'सत्य' से अलगाकर 'सुन्दर' के साथ जोड़ देता है जिससे दोनों के बीच मूल्यगत अलगाव पैदा हो जाता है। पूँजीवाद यह कैसे करता है, इसका मर्मस्पर्शी वर्णन देखें-- "इसी लिहाज से यह मान लिया जाता है कि सत्य का अनुधावन तो विज्ञान का काम है, लेकिन सौन्दर्य कला का लक्ष्य होता है। सत्य और सुन्दर के बीच जो सख्त अलगाव माना जाता है, उसकी वजह यह है कि सौन्दर्य-भावना का मानवीय आकांक्षाओं की पूर्ति से सम्बन्ध है जबकि इस समाज में जो वस्तुनिष्ठ सत्य है, वह अनेक बार इस मानवीय अभिलाषा के विपरीत, उसे कुचलते हुए अपनी सत्ता स्थापित करता है। इसीलिए पूँजीवाद की खासियत है कि यथार्थलोक में जो अभिलाषाएँ पूरी नहीं हो सकतीं, उनकी पूर्ति के लिए वह एक कल्पना लोक का निर्माण करता है और जनसामान्य को उसमें सन्तुष्टि हासिल करने को प्रेरित करता है। इस प्रकार सौन्दर्य - भावना की प्रबलता की जाँच मनुष्य को अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत करने या अचेत बनाने की उसकी क्षमता से की जाती है।" (वही)

इस उद्धरण से किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि लेखक पूँजीवाद की इन कारस्तानियों असन्तुष्ट है, लेकिन वह तो इनकी पुष्टि के लिए मार्क्सवादी तर्कों की तलाश में है। पहले जैसे उसने मार्क्स को उद्धृत किया था, उसी तरह अब क्रिस्टोफर कॉडवेल को उद्धृत करते हुए 'सुन्दर' को समाज से काटने की जुगत भिड़ाता है। कॉडवेल कहते हैं कि "सौन्दर्य में बदलाव का कारण समाज है, उसी की वजह से नए सौन्दर्य का भी जन्म होता है। सौन्दर्य जिस वस्तुनिष्ठ परिवेश में अवस्थित होता है वह प्राकृतिक से ज्यादा सामाजिक है। यानी सौन्दर्य का निर्धारण दूसरे असौन्दर्यात्मक गुणों के द्वारा होता है और वे ही इसके अस्तित्व में आने और फिर विलीन हो जाने, इसके अन्दर तब्दीली का और इसके विकास का कारण बता सकते हैं... ये समाज वैज्ञानिक शक्तियाँ हैं।... ये समाज वैज्ञानिक गुण सौन्दर्यात्मक नहीं हैं: सौन्दर्यशास्त्र का एक अलग ही क्षेत्र है।" (वही, पृ. 56)

कॉडवेल के इस वक्तव्य से पता चलता है कि सौन्दर्य का आधार समाज है, वही उसमें परिवर्तन और विकास का कारण है, लेकिन उसकी व्याख्या के नियम समाज की व्याख्या के नियमों से अलग होंगे। कला का गतिविज्ञान सामाजिक गतिविज्ञान से अलग है; इससे लेखक यह निष्कर्ष निकालता है कि, "सौन्दर्यशास्त्र को बलपूर्वक समाजशास्त्र से अलग करने के उनके आग्रह को कभी भी नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।" इसी तरह 'कला के तर्कशास्त्र' की व्याख्या करते हुए कॉडवेल तर्कणापरक के बजाय सौन्दर्यात्मक विश्वदृष्टि की आवश्यकता बताते हुए तर्कणापरक को 'वैज्ञानिक' (इनवर्टेड कामा लगाकर किसी विशिष्ट अर्थ में) कहते हैं। अपूर्वानन्द इससे झट निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि 'वैज्ञानिकता को सौन्दर्यात्मकता के बर-अक्स खड़ा करके कॉडवेल कला के अपने तर्कशास्त्र, यानी सौन्दर्यशास्त्र की विशिष्टिता को चिह्नित करते हैं।"

यहाँ कॉडवेल के विचारों की विवेचना का अवकाश नहीं है, लेकिन अपूर्वानन्द मार्क्स से लेकर कॉडवेल तक के वक्तव्यों से 'बलपूर्वक' वे सारे निष्कर्ष निकालते हैं जिसकी ज़िम्मेदारी उन्होंने पूँजीवाद पर डाली थी। इस प्रकार उन्होंने सौन्दर्य को अपने ही शब्दों में 'अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत या अचेत बनाने की क्षमता' से सम्पन्न कर लिया। उनकी योजना बिल्कुल स्पष्ट है, हालाँकि उसे छिपाने के लिए उन्होंने ढेरों मार्क्सवादी पापड़ बेले हैं।

आन्तरिक संगति, सामंजस्य, लय और एकता सौन्दर्य के सम्भवत: सर्वाधिक पहचाने गए अवयवों में से कुछ एक हैं। लेकिन इस किताब में वर्णित सौन्दर्य हमेशा किसी न किसी का मुकाबला करते, उसे अपदस्थ करते हुए आता है। पहले उसने मनुष्यता को साथ लेकर सत्य को पछाड़ा, फिर भावना को साथ लेकर विचार को अपदस्थ करने की योजना बनाई। सन्दर्भ से कटे हुए उद्धरणों की कमज़ोर नींव पर खड़ा होने के कारण पहले की तरह ही इस उपलब्धि का श्रेय लेने का साहस भी लेखक नहीं कर सका और निहायत सादगी के साथ इसका जिम्मा एक बार फिर उसने पूँजीवाद के सिर मढ़ लिया। रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई। मुलाहजा फरमाएं– "भारतीय पूँजीवाद का विकास इस स्तर तक हो चुका था, जहाँ जाकर वह मानवीय व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के उन वायदों के खिलाफ काम करता हुआ दिखाई देने लगा था, जो अपने आरम्भिक काल में उसने किए थे। भारतीय मनुष्य के भावलोक और विचारलोक में एक दरार-सी पड़ गई थी और यह अहसास तेज हो गया था कि यह विकास सहज मानवीय भावनाओं को कुचलकर आगे बढ़ रहा है।" (पृ. 92)

यहाँ ग़ौरतलब है कि भावलोक और विचारलोक में दरार डालनेवाला पूँजीवाद सिर्फ़ भावनाओं को कुचलकर आगे बढ़ रहा है। संकेत साफ है, विचारों पर पूँजीवाद के समर्थन का आग्रह। इस प्रकार पूँजीवाद को दोषी ठहराने वाली भंगिमा में दरअसल उसके द्वारा डाली गई फाँक को और गहरा किया जा रहा है और उसी के आधार पर अपनी रणनीति को व्यवस्थित किया जा रहा है। इस बार आचार्य शुक्ल 'आत्मीयता' से भरी व्याख्या के शिकार बनते हैं– 'अपनी भाषा पर विचार' शीर्षक अपने निबन्ध में वे लिखते हैं "भाषा का प्रयोग मन में आई हुई भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए होता है।" इसके बाद आचार्य शुक्ल भावनाओं को विचारों से अलगाते हुए उसे रेखांकित करते हैं। लेखक का निष्कर्ष है– "भाषा को विचारों की जगह भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम मानने पर शुक्लजी का बल एक नई दृष्टि का परिचायक है। जिस तरह पाश्चात्य दर्शन में सौन्दर्यशास्त्र का विकास ऐन्द्रिय संवेदन पर बल देने के कारण हुआ उसी प्रकार शुक्लजी का सम्पूर्ण साहित्य-चिन्तन 'भावनाओं' को केन्द्र में रखकर होता है।" (पृ. 92)

इस मासूम से दिखनेवाले निष्कर्ष में एक तीर से दो शिकार किए गए हैं। एक तरफ विचारों को शुक्लजी के चिन्तन में हाशिए पर धकेला गया है, तो दूसरी तरफ ऐन्द्रिय संवेदन को पश्चिम की राह दिखाई गई है। फिर भी एक सवाल उठता है कि अगर भावना विचारों से इतनी अलग है और भाषा में उसी की अभिव्यक्ति होती है तो स्वयं शुक्लजी भाषा में किस चीज को व्यक्त कर रहे थे और क्या यह उचित न होगा कि उन्हें विचारक की भ्रामक श्रेणी से हटाकर भावक (या भावुक!) की समुचित कोटि में स्थापित कर दिया जाए। इसका उत्तर पाने के लिए आइए एक बार शुक्लजी के उस स्पष्टीकरण को भी देखें जिससे लेखक ने उक्त निष्कर्ष निकाला है– "स्मरण रखिए यह बात मैंने भावनाओं (Impressions) के विषय में कही है, विचारों (General notion) के विषय में नहीं।" (वही)

ऐसा लगता है कि शुक्लजी को अपने विचारों के अन्यथाकरण की कुछ आशंका थी, इसीलिए उन्होंने अपने शब्दों के साथ अंग्रेजी पर्यायों को भी देना ज़रूरी समझा। अंग्रेजी के 'इम्प्रेशन' का सबसे प्रचलित अर्थ 'प्रभाव' है जो वैचारिक भी हो सकता है। यहाँ तक कि उसका एक अर्थ स्वयं 'विचार' या 'नोशन' भी है। शुक्लजी के दिमाग में ये सारे अर्थ थे, इसीलिए उन्होंने 'नोशन' के साथ 'जनरल' लगाया, यानी सामान्य, आमफ़हम विचार। इससे अलग 'इम्प्रेशन' या 'भावना' को वह अभिव्यक्तिकर्ता की विशिष्ट मनोभूमि से जोड़ना चाहते थे। भाषा में अभिव्यक्ति की विशिष्टता से सम्बन्धित उनके इस कथन को मार्क्स के उस पूर्वोक्त वक्तव्य से जोड़कर देखा जा सकता है जिसे लेखक ने रूपवाद का समर्थन करने के लिए उद्धृत किया था। आचार्य शुक्ल ने ही कहीं कहा है कि सत्य सबका एक होता है और झूठ सबके अलग-अलग होते हैं। प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्।

आचार्य शुक्ल के विचार इस विषय में पर्याप्त स्पष्ट हैं। स्वयं लेखक ने उनके जो उद्धरण दिए हैं, उनसे भी यह बात साफ हो जाती है। 'भाव या मनोविकार' शीर्षक लेख का एक उद्धरण देखें– "नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनसे सम्बन्ध रखनेवाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं।" ज़ाहिर है कि बोध की बुनियाद पर ही इच्छा और अनुभूति के रास्ते भावों का गठन होता है। यह बोध गहरे पानी पैठकर किए जानेवाले मन्थन से आता है। विचार तो उन लहरों की तरह हैं जो इस मन्थन से पैदा होते हैं। कुछ लोगों को साहित्य में इन्हीं विचारों से तकलीफ़ होती है। दरअसल यह तकलीफ़ बोध और चेतना से है। वे साहित्य को विचारों से 'इन्सुलेट' करके 'शुद्ध' बनाना चाहते हैं ताकि वह 'मनुष्य को अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत या अचेत' कर सके।

आचार्य शुक्ल न केवल बुद्धि और हृदय की भूमिकाओं की विशिष्टता को समझते और उसकी रक्षा करते हैं, बल्कि सभ्यता के विकास के साथ साहित्य - व्यापार में बुद्धि की भूमिका को बढ़ाने के आग्रही हैं। 'कविता क्या है' शीर्षक निबन्ध से उद्धृत यह वक्तव्य देखें--"ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी.. मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा सम्बन्ध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से परदों को हटाना पड़ेगा। ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।... आरम्भ में मनुष्य जाति की चेतना सत्ता इंद्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही अधिकतर रही। अब मनुष्य का ज्ञान-क्षेत्र बुद्धि व्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना होगा।" (वही, पृ. 100 )

कहना न होगा कि इन स्थितियों में विचारों के अवमूल्यन की कोई भी प्रवृत्ति 'भावना' के नाम पर मूलवृत्तियों और संवेगों की तरफ़ ही जाएगी और इस उलटी यात्रा से न तो साहित्य का कोई भला होगा, न सौन्दर्य का।

शुक्लजी के विचारों की मनचाही व्याख्या कर चुकने के बाद लेखक एक बार फिर मार्क्सवाद के समर्थन में ज़मीन-आसमान के कुलाबे मिलाता है और हिन्दी के मार्क्सवादी लेखकों का कुछ इस उत्साह से समर्थन करता है कि मन आशंकित हो उठता है। ख़ासतौर पर मुक्तिबोध को जब वह मार्क्सवादी सौन्दर्य-मूल्यों के लिए संघर्षरत योद्धा के रूप में चित्रित करता है और उनके सुपरिचित विचारों का परिचय अनपेक्षित विस्तार से देने लगता है तब यह आभास हो जाता है कि इसी विवरण के बीच कहीं कोई गाँठ ऐसी लगी होगी जिससे आगे चलकर मुक्तिबोध की 'मुक्ति' का ऐलान भी सम्भव हो सकेगा। उस गाँठ की तलाश भूसे के ढेर में सुई ढूँढ़ने जैसी थी। समूचे लेख से गुज़रने के बाद पता चला कि लेखक ने हाथ-पाँव तो बहुत मारा, मुक्तिबोध के विचारों में कोई ऐसा बिन्दु नहीं मिला जहाँ सूराख हो पाता। इसी खीज का नतीजा अन्त में जाकर इस आरोप में निकला-- "लेकिन यह भी सही है कि एकाधिक स्थल पर, अपनी व्यावहारिक समीक्षाओं और आलोचनाओं में मुक्तिबोध स्वयं एक विशेष प्रकार की सौन्दर्याभिरुचि के दायरे में घुसते नजर आते हैं। और प्रायः वे रचनाओं के विचार पक्ष या नैतिक अन्तर्वस्तु पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित करते हैं" (वही, पृ. 158)।

इस आरोप की पुष्टि के लिए लेखक मुक्तिबोध के 'कामायनी : एक पुनर्विचार' के कुछ उद्धरणों का सहारा लेता है– " 'कामायनी' में व्यक्त विचारधारा को स्पष्ट तौर पर अस्वीकार करते हुए वे यह कहते हैं कि 'साहित्यिक सौन्दर्य के बारे में दो मत नहीं हो सकते।' लेकिन वे यह भी कहते हैं कि 'भावना या प्रभावोत्पादकता वह कसौटी नहीं है, जिससे हम जीवन के प्रति कवि-दृष्टि के औचित्य या अनौचित्य की जाँच कर सकें। कभी-कभी होता यह है कि भावना की रसात्मकता वस्तु-तत्त्व के अनौचित्य को ढाँक लेती है।' इन वाक्यों से यह निष्कर्ष निकालना बहुत गलत न होगा कि रचना में व्यक्त विचारधारा और उसकी कलात्मक प्रभावोत्पादकता, मुक्तिबोध के अनुसार, दो एकदम अलग-अलग चीजें हैं। किसी भी कलाकृति में व्यक्त विचारधारा वास्तव में एक सौन्दर्यात्मक समस्या है और उसके प्रभाव से उसका गहरा सम्बन्ध है। फिर यह कहना कहाँ तक उचित है कि कलात्मक सौन्दर्य का विश्लेषण एक अलग काम है और अन्तर्वस्तु का विश्लेषण जो कि विचारों से सम्बन्धित होता है, एक अलग काम है?" (वही)

यहाँ विचार और भावना यानी अन्तर्वस्तु और सौन्दर्य की एकता और अखंडता का नारा लगानेवाले अपूर्वानन्द का मार्क्स, कॉडवेल और आचार्य शुक्ल के सन्दर्भ में इन्हें अलग-अलग करना और एक की क़ीमत पर दूसरे को स्थापित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना हम पहले ही देख चुके हैं। मुक्तिबोध ने जब इनके जैसे 'सच्चे सौन्दर्यशास्त्रियों' के मर्मस्थल पर चोट कर दी तो इन्हें एकता याद आने लगी। कहाँ तो विचार और भावना का अलगाव 'एक नई दृष्टि का परिचायक' नज़र आ रहा था और कहाँ अब दोनों का अलग-अलग विश्लेषण भी भारी गुज़र रहा है। उन्हें यह याद दिलाना तो गुस्ताख़ी ही होगी कि रूप और अन्तर्वस्तु में द्वन्द्वात्मक एकता होती है और कृति के समग्र मूल्यांकन के लिए उसके अवयवों का विश्लेषण करने के बाद ही संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है। रचना सुन्दर होकर भी नुकसानदेह हो सकती है। बकौल तुलसी–- 'विष रसभरा कनक घट जैसे'। स्वयं लेखक भी, मुक्तिबोध की ही तरह, सौन्दर्य की अचेतनकारी भूमिका की चर्चा कर चुका है, लेकिन संगति की अपेक्षा करना ही सम्भवतः उसके साथ ज़्यादती है।

कुल मिलाकर यह किताब तमाम देशी और विदेशी लेखकों के उद्धरणों और उनकी उबाऊ व्याख्याओं को बटोरकर हिन्दी में शास्त्र-निर्माण के नाम पर चलनेवाले कुंजी-लेखन का अच्छा नमूना है। इसका जो भी महत्व है वह इसमें सावधानीपूर्वक गूंथे गए मन्तव्यों के कारण है, जिनका थोड़ा परिचय यहाँ दे दिया गया है। इन विचारों का व्यावहारिक प्रयोग शमशेर की कविता पर जिस हल्के ढंग से किया गया है वह अपने आत्मविश्वास के कारण हास्यास्पद है। शमशेर की कविता के बारे में इससे शायद ही कोई अन्तर्दृष्टि मिलती है। हाँ, कवि के ही शब्दों और उनके शब्दकोषीय अर्थों के सहारे उनकी व्याख्या का छद्म ज़रूर रचा गया है, जिसकी परिणति प्रायः गूँगे के गुड़ जैसी अनुभूति में होती है। बहरहाल, सौन्दर्यशास्त्र में रुचि रखनेवाले प्रत्येक लेखक और पाठक को एक बार इस किताब को ज़रूर पढ़ना चाहिए ताकि पता लग सके कि सौन्दर्यशास्त्र पर बात किस तरह नहीं करनी चाहिए। नकारात्मक रूप में ही सही, लेकिन यह भी इस किताब का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

साभार

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