Wednesday 14 September 2022

मौलिक होने की शर्त - अभिषेक कुमार वर्मा

मौलिक होने की शर्त
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किसी पर भी बातचीत करने के दौरान उससे जुड़े पहलुओं को खोजकर प्रकट करना एक बात है और उन्हीं पहलुओं को स्वयं से ख़ोज लेना दूसरी बात। पहली कोटि मात्र संपादन या किसी विकिपीडिया की नकल मात्र है और दूसरी स्वतंत्र चिंतना की। अनेकानेक संदर्भो को जुटाकर अपनी बात कहने के रूप में जो ढोंग का सिलसिला चल पड़ा है, ध्यान से देखने पर उसमें मौलिकता कुछ भी नहीं मिलेगी। क्योंकि उसके मूल में ही मौलिकता का अभाव होता है और उपस्थिति होती भी है तो मात्र एक खाली जगह को जैसे-तैसे भर देने की। 

कई कूड़ा-कबाड़ लेख इसी तरह के हैं जो विषयाबद्ध धरती का बोझ बने पड़े हैं। इनका सफ़ाया होना चाहिए। इनमें स्थूलता, वह भी औपचारिकता मात्र, कूट-कूट कर भरी है। सूक्ष्म विश्लेषण और उसकी परिणति के रूप में नवीन ख़ोज का नितान्त अभाव है। कोई यदि इसी पर शोध कर डाले तो बड़ी क्रांतिकारी सफलता उसके हाँथ लगेगी। लगे भी क्यों न ? हमारे शोधक अब कबाड़ बीनने वाली बोरिया मात्र जो बन गए हैं।

ख़ैर अब हमारी स्वतंत्र चिंतना का विकास अवरुद्ध हो गया-सा नज़र आता है। मानो ऋषि चिन्तन की उस मौलिक परंपरा ने सरकारी छुट्टी पा ली हो, जिसके पास ठोस आधार के रूप में यदि कुछ न भी होता तो भी चिन्तन के कई आयाम प्रतिपादित कर लेने का सामर्थ्य जिसमें था। कुछ लोग सोचते होंगे कि मैं हवा में चिंतन और उसके बाद ख़ोज प्रकट कर देने की बात कह रहा हूँ। ऐसा कतई नहीं। चिंतन कभी हवा में नहीं हो सकता। यहाँ तक कि हवा में प्रतीत होने-सी वाली बात में भी ठोस आधार हो सकते हैं। कोई न कोई आधार तो चाहिए, किन्तु वह आधार दूसरे का खोजा गया ही क्यों हो? दूसरे की जूठन को ही हम अपनी थाली में क्यों लें ? हम क्यों उसी के पिछलग्गुआ बनें ? यदि हमको आधार चुनना भी है तो मूल को ही क्यों न चुनें ?  इने-गिने प्रतिपादित आयामों को ही क्यों चुने ? भले ही हाँथ कुछ न लगे। बात थोड़ी समझदारी की नहीं है पर है तो किसी बड़ी समझ हासिल करने की। कौन-सी ? 

बहुत ज़्यादा यही तो होगा कि समय लगेगा और चुनौतियाँ बेमतलब के सिर पर आ धमकेंगी। पर,वह तो सहना ही होगा। यदि चिन्तन की स्वतंत्र परंपरा डालना है तो होम में हाँथ जलाने ही होंगे। कोई करे न करे, तुम्हें तो करना ही है। यह तुम्हारे होने की शर्त भी हो सकती है। नहीं ? एक बार अपने अस्तित्व को सामने लाकर खड़ा करो। शायद कुछ हाँथ लग जाए।

बात यही है कि सम्पादन जैसा डिब्बा बनके चलना कहाँ तक उचित है ? (ध्यान रहे कि मैं उस सम्पादन की बात कतई नहीं कर रहा जो लेखक लोग करते हैं अपितु उस प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहा हूँ जिसकी आड़ लेकर कूड़ा-करकट भरा जा रहा है ) तो डिब्बा बनके चलने के क्या लाभ ? एक ख़ासा शब्दकोष हो जाना क्या तुम्हारी चिंतना का परिचय होना चाहिए ? किसी संग्रहपात्र की तरह मात्र चीज़ें सुरक्षित रखने की पहचान होनी चाहिए ? विचार करो। 

एक विशाल विकीपीडिया का बहुत भरा हुआ डिब्बा होने से कहीं अधिक अच्छा है एक छोटी-सी तनिक-सी भरी मौलिक विषयवस्तु का होना। हममें से कितने लोग ऐसे हैं, ज़रा सोचें। सबके सब तो गूगल की तरह संग्रहक बने पड़े हैं। गूगल तो फ़िर भी अपने संपादन के मामले में मौलिक-सा जान पड़ता है। पड़ेगा ही क्योंकि जब स्वतंत्र चिन्तना पलायन करेगी तो कृत्रिम पात्र उसका स्थान लेंगे ही।

क्यों ऐसा न हो कि चिन्तन के व्यापक आयामों को खोजने के लिए इधर-उधर की बातचीत हासिल करने के जो प्रयास किये जाते हैं उनके स्थान पर वही बातचीत हम स्वयं खोज निकालें ? बगैर किसी दूसरे के खोजे गए आधार के आधार पर। चार लेखों की महती सामग्री सामने पड़ी है। हम क्यों उठाएं ? चिन्तना को ही वहाँ तक पहुँचाये कि चार लेखों की सामग्री उसके एक कोने में पड़ी मिल जाए। इसके लिए संपादकत्व का डिब्बा बनने के स्थान पर स्वतंत्र चिंतक बनने की परंपरा डालनी होगी। कितनों का यह भाएगा, कहना मुश्किल है। शायद बहुत कम। क्योंकि बेमतलब की पेचीदगी क्यों हाँथ लगाई जाए ? पर, कुछ तो होने ही चाहिए। उनकी ख़ोज भी क्या करूँ। वो अपने रास्ते पर होंगे और मैं अपने रास्ते। पर, कुछ तो ऐसे होंगे ही जो आर्यभट्ट को पढ़ने के बाद अपनी बातचीत न निकालेंगे अपितु गहन स्वतंत्र चिन्तन के बाद निकाले गए निष्कर्षों से आर्यभट्ट के निष्कर्ष से मिलान करेंगे और तुलना से स्वयं की मौलिक खोज का आनंद लूटेंगे।

                       -अभिषेक कुमार वर्मा 
" परास्नातक हिन्दी साहित्य अध्येता,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय"

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