Wednesday, 19 September 2018

सिद्धार्थ की कविता इक छोटी सी हँसी

इक छोटी सी हँसी

अगर तुम खरीद सकते हो कुछ
तो खरीदना इक छोटी सी हसी

उस नन्ही लड़की के लिये
जो किसी बड़े महानगर की चौड़ी सड़क पर
लाल गुलाब लिये दौड़ रही है
इस उम्मीद के साथ
कि सिगनल के  लाल होते ही
तुम्हारी जिंदगी ठहर सी जायेगी
चंद सेकंड्स के लिये ही सही
और तुम देख सकोगे
बचपन कैसे भागता है
जल्दी-जल्दी

तुम खरीद लेना उसके हाथों से बस एक गुलाब
मोल-भाव मत करना
दस-बीस -पचास से कही महगी है
उसकी उम्मीद
जो बस आज और आज में जीती है
गुलाब से गेहूँ खरीदती है
और भरती है परती पेट
कल उसके शब्दकोष में नहीं है

तुम खरीद लेना बस एक गुलाब
झिझकना मत उसके गंदे-फटे फ्राक को देखकर
मत सोचना अपनी बस्साती गंध में डुबो दिया होगा उसने
तुम्हारे गुलाब को

सोचना तुम खरीद रहे हो
कोई एक गुलाब नहीं
इक छोटी सी हसी
सोचना तुम खरीद रहे हो
इक छोटी सी हसी
जो खिलेगी तुम्हारी प्रेमिका के सुर्ख-लाल होंठों पर
जो फैलेगी तुम्हारे मन तक
जो फिर दौड़ेगी सड़को पर
उस लाल गुलाब वाली लड़की के साथ
जो जोहेगी हर रोज तुम्हे उसी चौराहे पर
ठीक उसी समय
उसी मन से
कि तुम हर दिन खरीदोगे एक छोटी सी हसी
उसके लिये भी

सिद्धार्थ

विष्णु खरे की एक कविता 'चुनौती'

चुनौती / विष्णु खरे 

इस क़स्बानुमा शहर की इस सड़क पर
सुबह घूमने जाने वाले मध्यवर्गीय सवर्ण पुरुषों में
हरिओम पुकारने की प्रथा है

यदि यह लगभग स्वगत
और भगवान का नाम लेने की एकान्त विनम्रता से ही कहा जाता
तब भी एक बात थी
क्योंकि तब ऐसे घूमने वाले
जो सुबह हरिओम नहीं कहना चाहते
शान्ति से अपने रास्ते पर जा रहे होते

लेकिन ये हरिओम पुकारने वाले
उसे ऐसी आवाज़ में कहते हैं
जैसे कहीं कोई हादसा वारदात या हमला हो गया हो
उसमें एक भय एक हौल पैदा करने वाली चुनौती रहती है
दूसरों को देख वे उसे अतिरिक्त ज़ोर से उच्चारते हैं
उन्हें इस तरह जांचते हैं कि उसका उसी तरह उत्तर नहीं दोगे
तो विरोधी अश्रद्धालु नास्तिक और राष्ट्रद्रोही तक समझे जाओगे
इस तरह बाध्य किये जाने पर
अक्सर लोग अस्फुट स्वर में या उन्हीं की तरह ज़ोर से
हरिओम कह देते हैं
शायद मज़ाक़ में भी ऐसा कह देते हों

हरिओम कहलवाने वाले उसे एक ऐसे स्वर में कहते हैं
जो पहचाना-सा लगता है

एक सुबह उठकर
कोठी जाने वाले इस ज़िला मुख्यालय मार्ग पर
मैं प्रयोग करना चाहता हूं
कि हरिओम के प्रत्युत्तर में सुपरिचित जैहिन्द कहूं
या महात्मा गांधी की जय या नेहरू ज़िन्दाबाद
या जय भीम अथवा लेनिन अमर रहें
- कोई इनमें से जानता भी होगा भीम या लेनिन को? -
या अपने इस उकसावे को उसके चरम पर ले जाकर
अस्सलाम अलैकुम या अल्लाहु अकबर बोल दूं
तो क्या सहास मतभेद से लेकर
दंगे तक की कोई स्थिति पैदा हो जाएगी इतनी सुबह
कि इतने में किसी सुदूर मस्जिद का लाउडस्पीकर कुछ खरखराता है
और शुरू होती है फ़ज्र की अज़ान
और मैं कुछ चौंक कर पहचानता हूं
कि यह जो मध्यवर्गीय सवर्ण हरिओम बोला जाता है
वह नमाज़ के वज़न पर है बरक्स

शायद यह सिद्ध करने का अभ्यास हो रहा है
कि मुसलमानों से कहीं पहले उठता है हिन्दू ब्राह्म मुहूर्त के आसपास
फिर वह जो हरिओम पुकारता है उसी के स्वर अज़ान में छिपे हुए हैं
जैसे मस्जिद के नीचे मन्दिर
जैसे काबे के नीचे शिवलिंग

गूंजती है अज़ान
दो-तीन और मस्जिदों के अदृश्य लाउडस्पीकर
उसे एक लहराती हुई प्रतिध्वनि बना देते हैं
मुल्क में कहां-कहां पढ़ी जा रही होगी नमाज़ इस वक़्त
कितने लाख कितने करोड़ जानू झुके होंगे सिजदे में
कितने हाथ मांग रहे होंगे दुआ कितने मूक दिलों में उठ रही होगी सदा
अल्लाह के अकबर होने की लेकिन
क्या हर गांव-क़स्बे-शहर में उसके मुका़बिले इतने कम उत्साहियों द्वारा
हरिओम जैसा कुछ गुंजाया जाता होगा

सन्नाटा छा जाता है कुछ देर के लिए कोठी रोड पर अज़ान के बाद
होशियार जानवर हैं कुत्ते वे उस पर नहीं भौंकते
फिर जो हरिओम के नारे लगते हैं छिटपुट
उनमें और ज़्यादा कोशिश रहती है मुअज़्ज़िनों जैसी
लेकिन उसमें एक होड़ एक खीझ एक हताशा-सी लगती है
जो एक ज़बरदस्ती की ज़िद्दी अस्वाभाविक पावनतावादी चेष्टा को
एक समान सामूहिक जीवन्त आस्था से बांटती है
वैसे भी अब सूरज चढ़ आया है और उनके लौटने का वक़्त है

लेकिन अभी से ही उनमें जो रंज़ीदगी और थकान सुनता हूं
उस से डर पैदा होता है
कि कहीं वे हरिओम कहने को अनिवार्य न बनवा डालें इस सड़क पर
और फिर इस शहर में
और अन्त में इस मुल्क में.

(परिकल्पना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'लालटेन जलाना' से साभार)

Sunday, 16 September 2018

वे डरते हैं/गोरख पाण्डेय

वे डरते हैं/गोरख पाण्डेय

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और ग़रीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे ।

(रचनाकाल:1979)

-गोरख पाण्डेय

Monday, 10 September 2018

महाराज अजेय हैं / पंकज चतुर्वेदी

महाराज अजेय हैं
------------------------

नेतृत्व निरर्थक
साबित हुआ :
जब यह स्वीकार करने का
समय आया
राजा ने
दूसरे संकट की ओर
ध्यान दिलाया :
हमारा विपक्ष
प्रतिभाहीन है

सभासदों ने दोहराया :
महाराज का
कोई विकल्प नहीं है

उन्होंने जय-जयकार की :
महाराज अजेय हैं
अजर हैं
अभी आधी सदी तक
राज करेंगे

विधान के मुताबिक़
प्रत्येक पाँच साल पर
जनमत-संग्रह की भी
ज़रूरत नहीं
क्योंकि राज्य में
योग्यता का अभाव है

कारण कुछ ऐसा था
कि अकाल की
ख़बर की तरह
सुन पड़ती थी
यह मुनादी

कविता कादंबरी की कविताएँ

            1

इस शोर से भरी दुनिया में
मैं ओठों से तुम्हारी देह पर चुप्पियाँ बो रही हूँ
और तुम्हें शब्दों की कमी टीसती है!

शssss
चुप रहो न
करवट बदलो
और सुनो चुप्पी की आवाज़

तुम अनुभव करोगे
कि शब्द अर्थ भ्रष्ट हो चुके हैं
सुंदर कोमल शब्दों को
भीतर से चाट गए हैं दीमक
जिनमें अगर कुछ है, तो बस
खोखलेपन का उथला शोर है

तुम अनुभव करोगे चुप्पी का शुद्ध व्याकरण और भाव गाम्भीर्य का विस्तार

तुम अनुभव करोगे
कि चुप्पियों ने बचा रखी है भाव और भाषा की गहराई और माधुर्य

तुम अनुभव करोगे
कि बेमानी है बोलना

और एक दिन तुम अनुभव करोगे मिट्टी होना,धरती होना और होना आकाश भी
कि तुम्हारी देह पर बोई गई चुप्पियों में उतनी ही चुप्पी से उग आएंगे सतरंगी फूल
जिनकी बेलें धरती से आकाश तक फैल रही होंगी
और अनहद हो रही होगी जिनकी सुगंध की अलिखित भाषा

Sunday, 9 September 2018

कविता कादंबरी की कविताएँ

            1

इस शोर से भरी दुनिया में
मैं ओठों से तुम्हारी देह पर चुप्पियाँ बो रही हूँ
और तुम्हें शब्दों की कमी टीसती है!

शssss
चुप रहो न
करवट बदलो
और सुनो चुप्पी की आवाज़

तुम अनुभव करोगे
कि शब्द अर्थ भ्रष्ट हो चुके हैं
सुंदर कोमल शब्दों को
भीतर से चाट गए हैं दीमक
जिनमें अगर कुछ है, तो बस
खोखलेपन का उथला शोर है

तुम अनुभव करोगे चुप्पी का शुद्ध व्याकरण और भाव गाम्भीर्य का विस्तार

तुम अनुभव करोगे
कि चुप्पियों ने बचा रखी है भाव और भाषा की गहराई और माधुर्य

तुम अनुभव करोगे
कि बेमानी है बोलना

और एक दिन तुम अनुभव करोगे मिट्टी होना,धरती होना और होना आकाश भी
कि तुम्हारी देह पर बोई गई चुप्पियों में उतनी ही चुप्पी से उग आएंगे सतरंगी फूल
जिनकी बेलें धरती से आकाश तक फैल रही होंगी
और अनहद हो रही होगी जिनकी सुगंध की अलिखित भाषा

Thursday, 6 September 2018

अरुण शीतांश की कविताएँ

देखना तो ऐसे देखना

मेरी बच्ची सुबह सुबह उठना
लेकिन कसाई का मुँह मत देखना

देखना तो कसाई की बेटी को देखना
खून न देखना

मेरी बच्ची उस ठेहे को बिल्कुल मत देखना
बेहोश मत होना

लाईन में लगे उन जीवों पर दया करना
जैसे एक चिड़िया अपने बच्चे को समय से चोंच में दाना भर उड़ जाती है

तुम कुछ भी मत देखना
जिससे तुम्हारे गर्भ में पल रहे बच्चे पर
असर हो

एक पिता होने के नाते तुम्हें कह रहा हूँ

लेकिन तुम कसाई के भूख को जरुर जानना

जिसके बच्चे देश के भविष्य हैं ...

रात: २ बजे
५ सितम्बर १६

फूल के पौधे

मेरे पास दो फूल है
तीसरा फूल तुम हो

दरअसल फूल के पौधे
जगमग करते
गमकते हुए
जंगल से
मेरे आँगन में हैं आज

तुम पृथ्वी में समेटे बीज
हो
चाँदनी की रौशनी में
सोने की ताबीज

मेरे दोनो कंधे और
दोनो पैर में बल अतिरिक्त आ चुका है

रंग और स्वर
ताल और नाद
समय और सोपान के बीच नहीं
पुरी शक्ति हो

आओ !
बाँहो में भर जावो
मेरी गुस्सैल प्रेमिका

नदी के छोर को छोड़ दो
और बाँह पकड़ लो
पार कर
हँसेगे जोर से
जैसे बच्चे हँसते हैं
जी भर

कैमरा मैन
.............

कितना अच्छा था
कुछ भी ले जाने का
झंझट नही था

कितना अच्छा था

अब घर से पहनकर जाओ
तब खिंचो या खिचवाओ

सेल्फी है अब
रिश्ते बदल गए

अब कोट पहनो तब जाओ
जूते पॉलिस करो
पाउडर लगाओ

पहले सबकुछ वहाँ मिल जाता रहा
कंघी ऐनक मुस्कुराहट

कैमरा मैन!!!

अब सबकुछ होते हुए
कुछ नहीं मिलता

लड़की चुपके से आ जाती बैठ जाती धीरे से
कैमरा मैन दोनो का बाँह पकड़कर डाल देता गले में
पसिना होकर भी
धड़कन बढने पर भी
चुपचाप लौट जाते घर
और तकिए के नीचे फोटू छूपा रोते पूरजोर

अब हमारा कोई नहीं  कैमरा मैन

न वैसी कुर्सी
न वैसा जीवन
न वैसा गुलदस्ता
न स्टुल
न वैसा बस्ता

न वैसा विचार
न वैसा घर
न वैसा क्रोध
एक फोटो देखकर सोच रहा हूँ
मुक्तिबोध..

  ०६ ०९.२०१४ (आरा)

दोनों

फूल पर बारिश हुई।
कुछ बचा
कुछ गिरा
अब दोनो सुख रहे हैं
फूल झड़ रहा है

बूँदें हवा में समा गईं

वहाँ एक बच्चा हँस रहा
एक बच्ची रो रही है!

आज फिर बारिश होनेवाली है।...

Tuesday, 4 September 2018

कविताएं अंत तलाशती हैं / सूरज सरस्वती

कविताएं अंत तलाशती हैं / सूरज सरस्वती
अज्ञात युगल तलाशता है स्नेह
स्नेह जिसमें छिपा होता है प्रेम प्रेम के पश्चात विरह का आगमन
तलाशता है प्रेम की नवीनतम परिभाषा
सूरज सरस्वती
दो देह तलाशते हैं एकांत
और एकांत तलाशता है एकात्मा
उन दो देहों के आपसी स्पर्श में
सिंदूरी वर्ण तलाशता है रिक्त मांग
अनामिका तलाशती है मिलन की अंगूठी
दो जोड़ी नेत्र तलाशते हैं सम्मान
ईश्वर तलाशते हैं भक्त
जो करें आराधना पवित्र मन से
भक्त तलाशता है ईश्वर में जीवन
जो कवच बन सके उस भक्त का
चंचरीकों की काम क्रीडा तलाशती है
वर्णित पुष्प परागों की सुगन्ध
कहानियां तलाशती हैं नए क़िरदार
काव्य रसों से अवगत कराने को
कविताएं अंत तलाशती हैं
सूरज सरस्वती

Monday, 3 September 2018

प्रभात मिलिंद की कविता / एक कॉमरेड का बयान

प्रभात मिलिंद की कविता / एक कॉमरेड का बयान

(गोरख पांडेय की स्मृति में)

हम ऐसे शातिर न थे
कि इस तरह से मार दिए जाते
हमारे मंसूबे ख़तरनाक तरीके से बुलंद थे
इसलिए हमारा मारा जाना तय था ...
हमें कुछ ख़्वाब को अंजाम देना था
बचे हुए वक़्त में बची हुई ईंट-मिट्टी से
हमें बनानी थी एक मुख़्तलिफ़ दुनिया
हम इसलिए भी मारे गए
कि हमने उन फरेबियों का एतबार किया
जिन्होंने खींच कर पकड़ रखी थी रस्सी
और उकसाया हमको बारम्बार
उसपर पांव साध कर चलने के लिए
लेकिन वे तो तमाशबीन लोग थे
उनको क्या ख़बर होती
कि नटों के इस खेल में
धीरे-धीरे किस तरह दरकता जाता है
आदमी के भीतर का हौसला
और बाहर जुम्बिश तक नहीं होती.
मारे जाने के वक़्त
जिनकी आंखों में खौफ़ नहीं होता
वे नामाक़ूल किस्म के लोग माने जाते हैं
वे मारे जाने के बाद भी
संशय की नज़र से देखे जाते हैं.
इसके बावजूद अगर हम चाहते
तो मारे जाने से शर्तिया बच सकते थे..
अगर हम नहीं होते इतना निर्द्वन्द्व और भयमुक्त
अगर हम नहीं करते इस विपन्न समय में प्रेम
अगर हम नहीं खड़े होते वक़्त के मुख़ालिफ़
अगर हम खुरच फेंकते आंखों के ख्वाब
अगर हम ढीली छोड़ देते अपनी मुट्ठियाँ
और गुज़र जाते पूरे दृश्य से.. निःशब्द
नेपथ्य से बोले गए उन जुमलों पर
होंठ हिलाने का उपक्रम करते हुए
जो दरअसल किसी और के बोले हुए थे
तब शायद हम मारे जाने से बच जाते.

प्रभात मिलिंद
Prabhat Milind

मोहे श्याम रंग दईदे / शैलजा पाठक

आज बात पर बात याद आई। ये रंग को लेकर कितनी तकलीफें झेली लड़कियों ने ।
जब घर में दो बहनें हो एक बहुत गोरी एक सांवली । तो बातें घर से ही शुरू हो जाती। मेरे रंग को लेकर अम्मा कैफियत देती कि वो प्रेग्नेंसी में बहुत पपीता खाती थी इसलिए मैं
सांवली हुई । जबकि भरम अम्मा को ये भी था कि नैनीताल रानीखेत वाली जगह पर जहाँ टमाटर जैसे गाल वालियां ही होती थी मैं भी कोई अप्सरा ही जनमु लेकिन पपीता वाली बात सही निकली। बधाई देने आये लोगों ने मेरी बन्द मुठ्ठी में तबसे सहानुभूति बांध दी ।
घर के लोग कई बार नही परहेज कर पाते कि जो बात वो यूँ ही कर रहे हैं उसका असर किसी बच्चे के मन पर बुरा हो सकता। चाचियाँ सामने से कहती रहीं "ए बबुनी बड़की बहिन त दूध जइसन बाड़ी रउवा काहे सांवर हो गइली "
मैंने अपने हिस्से कुछ भी बेहतर होगा की कल्पना भी नही की । मुझे जो मिलेगा वही हासिल होगा मेरा। आखिर मेरे रंग को लेकर शादी व्याह की बात भी अटक सकती थी । रंग की पूर्ति बड़े फ्रिज को देकर करनी पड़ती।
तो बस गुनहगार वाली फिलिंग आती रही। सपनें गोरी लड़कियाँ देखती होंगी। उनके दूल्हे सुंदर मिल सकते हैं दहेज कम हो सकता उनका। उन्हें कोई भी।दोस्त बना सकता है । नाते रिश्तेदारों में जाते ही हाथोहाथ पूछ होती उनकी। कोई जीजा का भाई ऐसी गोरियों पर दिल हारे बैठ सकता होगा । जो अच्छा होगा गोरी लड़कियों के साथ ही होगा।
स्कुल में मैं कभी परी नही बनी न रानी न स्टेज के मध्य में रही कभी प्रार्थना में पीछे और क्लास में पीछे ही जगह तय रही।
मेरे सांवली यादों के कुछ पन्ने लम्बे नाख़ून से है । खच्च से छील देते हैं मुझे । ऐसी लड़कियाँ डायरी में सपनें लिखती खुद को ही गुलाब देती अपने ही खाली पन्ने पर अपने होठ के निशान लगाती ।
और यूँ के जब नूतन गाती है" मेरा गोरा रंग लै लो मोहे श्याम रंग दै दो "
जब यही मुस्कराता सा मन करता अरे मुर्ख मत बदल रंग हमने इस रंग के लिए कितने जतन किये फिर भी न मिला .......

Friday, 31 August 2018

मंजूषा नेगी पाण्डेय की कविताएँ

कविता का कालखण्ड पुराना  हो चला है।हम भारतीय समाज में रह रहें हैं।वैसे में कविता क्या करती है।कविता स्वत: ऑबजर्ब करती है उन चीजों को। उसमें प्रेम घृणा विद्रोह संघर्ष से लेकर आत्महत्या तक की बातें हैं।
हमारा जन्म मनुष्य में हुआ है।नेक काम के लिए। और हम वह करने की कोशिश करते हैं।मंजूषा नेगी पाण्डेय उन विरल रचनाकरों में हैं।जिनकी कविता मे़ वह सब है। मंजूषा की कविता संवेदनशील शब्दों से लबरेज़ हैं।इसलिए लिखती हैं -नदी हो गयी स्त्री /और मैं हो गयी प्रकृति/नदी का होना नदी पर निर्भर था/और मेरा मुझ पर...।यहाँ दो स्थिति बनी ।एक नदी का प्रवाह।दूसरा खूद का बहते रहना नदी की तरह।इसलिए मंजूषा अन्य से इतर हैं।काव्य भाषा की रचाव बेहतर है. एक परिपक्व रचनाकार की तरह मंजूषा कविता लिखती हैं।हैं तो पहाड़न।लेकिन मैदानी भागों को भी जानती हैं।चंडीगढ से बिहार तक। राजस्थान तक।यह अनुभूति बड़े काम की चीज है।जो रचना की शब्द संपदा में वृहत कार्य कर सकती है। - अरुण शीतांश

कितने ही नक्षत्र”

बिस्तर की सिलवटों में दर्द की गहरी पैठ है

सुबह का आँगन नन्ही चिड़िया के लिए है
हवा दिखाई नहीं देती
मगर जीवित रहने का दारोमदार उसी पर है
रात का वो भयानक सपना
उजले आकाश में विलीन हो गया है
हम कर रहे होंगे
एक शहर बसाने की कल्पना
तब तक दूसरा शहर उजड़ चुका होगा
कितने ही नक्षत्र हथेली में किस्मत की रेखा पर आ गिरते हैं
और हम चल देते हैं
एक अनिश्चित भविष्य की और  
—————————————————————
धूप का कटोरा”
आजकल नींद रहती है आँखों में
दुःस्वपनों की भरमार सी है
कविता पर छिपकली आ गिरी
जिसे कल ही लिखा था
हाथ पैर काम नहीं कर रहे
उबासी लेते ही पानी से धो देती हूँ चेहरा
मगर साफ़ नहीं होता
कितनी तरह की मैल तन पर चढ़ चुकी है
ओना पौना सा समय सशंकित कर रहा है मन को
फिर भी शुभ का प्रभाव जीवन में ओस की भांति है
मैं सोचती हूँ
चाँद उदास होता होगा
जब ओस गिरती होगी
सुबह के कोहरे में एक उदासी सदैव रहती है
परन्तु छटने वाली बेला तक
फिर धूप का कटोरा बीने हुए बादलों के संग
मुस्कान और गर्माइश बिखेरने आ ही जाता है
क्या धूप की उजली मुस्कान से मन की और दिन की
उदासी हटती है?
ये प्रश्नों का दौर न जाने कब ख़त्म होगा
—————————————————
अपनी देह से”
पुरानी हो गयी
इस पृथ्वी से पूछो
क्यों नहीं हुई तुम नई
क्यों नहीं उतारे तुमने पुराने कपड़े
क्यों नहीं उतारी लगी काई 
क्यों नहीं घिसा बदन रगड़ रगड़ कर
मैल की तरह
क्यों नहीं उतार फेंका हमें
अपनी देह से
दूर कहीं आकाश में...

———————————————
आत्महत्या”
वो धरती का बेटा
वो किसान
बस टूटा
और टूटा
फिर टूट ही गया
वापिस कभी जुड़ा ही नहीं
मुझे संकट दिखता है उस देश पर
जो भरपेट खाना खाता है
जिसका किसान भूखे मरता है
आत्महत्या करता है  
——————————

संस्कारों की बिंदी
कविता लिखने के बावजूद मेरा जीवन से भी वास्ता है
चाय बनाती हूँ
रोटी बेलती हूँ
नाजुक मन की ओर एक पत्थर ठेलती हूँ
रात भर सोने का ड्रामा जारी रहता है
ओर इत्मीनान करती हूँ
भयावह सपनों से   
सुबह उठती हूँ
घर भर को जुड़े में समेटती हूँ
मर्यादा की चुनर ओढ़ती हूँ
संस्कारों की बिंदी लगाती हूँ
और पहनती हूं पावों में चप्पल
ठोकरों से बचने के लिए
जो लोग स्वपन में आने से बच जाते हैं
उनसे आग्रह करती हूं
पास बिठाती हूं
समझाती हूं
नहीं है कुछ भी ऐसा
जो अंतत: घटित न हो
इस कुचक्र में निर्माण हो जाता है किले का
परिलक्षित हो रहे कंगूरे कभी भी फैहरा सकते हैं ध्वजा
 

देश इमरजेंसी से भी बदतर दौर में पहुंच गया है- मनोज वर्मा

मंगलवार को तकरीबन एक दर्जन के आस-पास कवियों, लेखकों, वकीलों, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार और दलित कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे पड़े और उनमें से पांच को गिरफ्तार कर लिया गया। ये राष्ट्रव्यापी छापे और गिरफ्तारियां बताती हैं कि देश इमरजेंसी से भी बदतर दौर में पहुंच गया है। इमरजेंसी में कम से कम लोकतंत्र भंग होता है। लेकिन यहां तो पूरे संविधान को ही भंग कर दिया गया है। और लोकतंत्र की हत्या कर तानाशाही लागू कर दी गयी है। प्रोफेसर अपूर्वानंद से शब्दों को उधार लें तो पूरा देश ही जेल में तब्दील हो गया है।

             कवियों और लेखकों के खिलाफ असहिष्णुता के मुद्दे से शुरू हुआ मौजूदा सत्ता का सफर इस कार्रवाई के साथ अपना एक चक्र पूरा कर लिया। दाभोलकर, कलबुर्गी और पनसारे की हत्याओं के परोक्ष समर्थन के बाद अब सरकार ने इस तबके के उत्पीड़न की कार्रवाई खुद अपने हाथ में ले ली है। इसके साथ ही मौजूदा सत्ता और उसकी राजनीति एक दूसरे चरण में प्रवेश कर गयी है। इसके साथ ही इस बात की भी गारंटी हो गयी है कि पूरे देश की राजनीति कम से कम बीजेपी के सत्ता में बने रहने तक इसी तरह से गरम रहने वाली है।

            इन कार्रवाइयों के पीछे तात्कालिक तौर पर दो-तीन कारण गिनाए जा सकते हैं। पहला दाभोलकर, कलबुर्गी और पनसारे की हत्या को सीधे-सीधे आतंकी कार्रवाई के तौर पर देखा जाने लगा था। और सनातन संस्था के लोगों के सीधे शामिल होने के चलते हिंदू संगठनों की छवि को करारा झटका लगा था। इस मुद्दे को दरकिनार करने के लिए भी इस तरह की किसी बड़ी कार्रवाई की जरूरत पड़ गयी थी।

            दूसरा, एक और मामला है जिससे खुद बीजेपी के आधार के बीच ही अंतरविरोध खड़ा हो गया है। वह है एससी-एसटी एक्ट और पिछड़ा आयोग का मुद्दा। पार्टी का सवर्ण आधार इसको लेकर बेहद सशंकित है। उसके बीच पार्टी के समर्थन को लेकर फिर से बहस शुरू हो गयी थी। उस आधार को फिर से भरोसा दिलाने के लिहाज से भी सरकार के लिए ये कार्रवाई बेहद मुफीद दिखी।

          तीसरा, कारपोरेट समूह में भी सरकार को लेकर एक बहस शुरू हो गयी थी। जिसके भरोसे को पुख्ता करना सरकार की तात्कालिक जरूरत बन गयी थी। दरअसल ये सारे कार्यकर्ता ऐसे आंदोलनों और संगठनों से जुड़े हुए हैं जो जमीनी स्तर पर जनता की लड़ाइयों की अगुवाई कर रहे हैं। जिसमें कारपोरेट द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ ये जगह-जगह लिखने से लेकर जमीनी स्तर पर लड़ाई के योद्धा बने हुए हैं। लिहाजा इनके खिलाफ कार्रवाई कर मोदी सरकार कारपोरेट को ये संदेश देना चाहती है कि उसका भी भविष्य उसी के हाथ में सुरक्षित है।

        सबसे प्रमुख और इन सबसे ऊपर बीजेपी की आने वाले चुनावों में दिख रही हार है। जिसके चलते बौखलाहट में भी इस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं। हालांकि अभी किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी लेकिन आगामी आम चुनाव और लोकतंत्र के लिए ये शुभ संकेत नहीं है। अभी सरकार ने इस कार्रवाई को ऐसे लोगों के साथ शुरू किया है जो लेखक, बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता हैं और जिनका कोई बड़ा सामाजिक और संगठित आधार नहीं है। लेकिन अपनी गतिविधियों से वो सरकार को बड़ा नुकसान पहुंचाते रहे हैं।

           लिहाजा ये उन्हें चुप कराने और बैठा देने की कोशिश का हिस्सा है। और इसके जरिये अपने पक्ष में एक ध्रुवीकरण कराने की मंशा भी इसमें शामिल है। लेकिन अगर चीजें फिर भी सफल होती नहीं दिखीं तो समाज के दूसरे हिस्सों और फिर राजनीतिक तबके से जुड़े लोगों की बारी आएगी। और फिर आखिरी तौर पर लोकतंत्र को कुछ दिनों के लिए बंद कर देने का भी फैसला हो जाए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। उसके लिए एक ऐसी स्थिति खड़ी की जा सकती है जिसमें कहा जाए कि देश में चुनाव संपन्न कराने के हालात ही नहीं हैं।

         जिस भीमा-कोरेगांव के नाम पर देशभर में ये छापेमारी और गिरफ्तारियां हो रही हैं उसका सच बिल्कुल आइने की तरह साफ है। उस हिंसा के लिए मुख्य तौर पर संभाजी भेड़े जिम्मेदार हैं जो आरएसएस के घनिष्ठ सहयोगी हैं और पीएम मोदी के साथ उनके गहरे रिश्ते जगजाहिर हैं। लिहाजा अगर सचमुच में किसी ईमानदार जांच या फिर कार्रवाई की बात हो तो उसकी शुरुआत भेड़े से होगी। लेकिन उन्हें तो अभयदान मिला हुआ है। लिहाजा भीमा-कोरेगांव सरकार के लिए एक ऐसा जादुई चिराग बन गया है जिससे देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले किसी भी शख्स को घेरे में लिया जा सकता है। भले ही उसका उस कार्यक्रम से कोई दूर-दूर तक रिश्ता न हो।

            इस पूरे मामले में सबसे खास बात ये है कि इस कार्रवाई को भले ही सत्ता और उसकी पुलिस संचालित कर रही है। लेकिन ऐसा लगता है कि इसकी कमान नागपुर हेडक्वार्टर के हाथ में है। वहीं सूची बन रही है और कार्रवाई के आदेश भी वहीं से दिए जा रहे हैं। जिसमें फड़नवीस और पीएम मोदी महज सहयोगी की भूमिका में हैं।

            अगर अब भी किसी को फासीवाद के आने का इंतजार है तो उसे बैठे ही रहना चाहिए। क्योंकि जो समझ पाता है वही लड़ता है। सच ये है कि उसका राक्षस इस समय देश की गली-गली में घूम रहा है। और कब किसका दरवाजा खटखटा दे कुछ कहा नहीं जा सकता है। इसलिए ये नौबत आए उससे पहले ही सड़क पर निकल पड़ने की जरूरत है।

Monday, 27 August 2018

युवा कवि अनंत ज्ञान की कविताएँ

                 1
आँख पर पट्टी या पट्टी पर आँख ?
अनंत ज्ञान

ओह ! गांधारी !!
यह क्या किया तुमने !
क्यों बांध ली अपने नेत्रों पर पट्टी तुमने ?
क्या सिर्फ इसलिए की तुम्हारे पति धृतराष्ट्र नेत्रहीन थे ?
या कारण कुछ और भी था?
अब कैसे देखोगी तुम हस्तिनापूर का वैभव, सुख, समृद्धि ?
कैसे देखोगी  तुम अपने उन सपनों को ?
जो ब्याह के पूर्व संजोए थे तुमने,
देखो जरा हस्तिनापूर की पुष्प वाटिका देखो,
कहते हैं यहाँ स्वर्ग की अप्सराऐं भी पुष्प चुराने आती हैं,
और यह देखो, तुम्हारा शयनकक्ष,
कितनी बेहतरीन साज सज्जावट करवाई है तुम्हारे पतिदेव ने,
देखो हस्तिनापूर की प्रजा को,
तुम्हारे स्वागत व तुम्हारी एक झलक पाने हेतू कैसे नैन बिछाऐं है,
देखो जरा अपने इन आभूषणों को तो देखो,
कुबरे के खजाने में भी ऐसे आभूषण नहीं होंगे,
देखो अपना समृद्ध  राजदरबार देखो,
दुनिया के नामी वीर व विद्वान इसकी शोभा बढ़ाते हैं,
और अपने महल के उद्यान में स्थित अपने इस सरोवर को देखो,
देखो न कैसे सारे हंस क्रीडाऐं कर रहे हैं,
यहीं पास में मयूर पंख पसारे इनकी क्रीडा का आनंद उठा रहे हैं,
अब तुम कहाँ से उठा पाओगी इन सब का आनंद,
ओह ! गांधारी !
यह क्या किया तुमने!!
...............................................................
वाह! गांधारी ! वाह!
अच्छा  किया तुमने,
जो बांध ली तुमने अपनी आँखो पर पट्टी,
नहीं तो अपने पुत्रों के कुकर्मों को देखकर,
शायद ही तुम्हारी आँखे विश्वास कर पाती,
द्रौपदी का चीरहरण क्या तुम्हारी आँखे सह पाती,
क्या तुम देख पाती पुत्र दुर्योधन की टूटी हुई जाँघ,
क्या देख पाती अपने पुत्रों द्वारा पांडवों का अपमान,
क्या देख पाती भीम का वह रौद्र रूप,
जब दुःशासन की छाती चीरने की कसम खाई थी उसने ,
क्या तुम देख पाती,
अर्जुन के बाणों से बींधे हुए अपने पुत्रों के शरीर,
कौरव वीरों के शीश कटे धड़ ,
क्या तुम देख पाती हस्तिनापूर की वीर विधवाओं का विलाप,
उनका छाती पीट पीट कर रोना,
और देखो तुम्हारे धृतराष्ट्र भी आज रो रहे हैं,
उनकी भी आँखे भर आई हैं,
पर तुम कैसे देखोगी,
तुमने तो बांध ली है अपनी आँखों पर पट्टी,
वाह ! गांधारी!  वाह!
बहुत अच्छा किया तुमने,
भगवान कृष्ण ने ठीक ही कहा है गीता में,
जो कुछ भी होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है!!

           2
"पत्थरलैस कश्मीर"
कश्मीर में एक मस्जिद के पास,
बहुत सारे छोटे बड़े पत्थर जमा हो गए थे,
सभी एक दूजे का मुँह ताक रहे थे,
एक दुसरे से सवाल कर रहे थे......
क्या यही उपयोग अब रह गया हमारा ?
अरे पत्थरबाज़ों कुछ तो शरम करो....
उनको मार रहे हो हमें फेंक कर !
जो आऐ हुए हैं मीलों दूर चलकर,
अपना सुख चैन नींद बेचकर,
रिश्ते नाते घर परिवार छोड़कर,
नई नवेली दुल्हन एंव नवजात शिशू से मुँह मोड़कर,
ताकि पड़ोसी देश तुम्हारे घरों पर पत्थर तो क्या,
नज़र तक न ड़ाल सके,
और लगे हो तुम उन्हीं पर पत्थर बरसाने !!
छिः ! छि : !
आज हमें खुद के पत्थर होने पर शर्म महसूस हो रही है,
तुम्हें शर्म नहीं आती क्या !! ....कि तुम इंसान होकर पत्थर हो,
और हम पत्थर होकर इंसान होना चाहते हैं !
जानत हो
कोई राह चलते जब हम पत्थरों पर पान की पीक फेंक देता है,
या अपनी गाडियों से बेदर्दी से रौंदते हुए आगे बढ़ जाता है,
तो भी हमें उतना कष्ट नहीं महसूस होता,
जितना आज भारतीय सैनिकों के ललाट को लहुलूहान करने पर हो रहा है,
इसलिए सुनों पत्थरबाजों,
हम सभी छोटे बड़े पत्थरों ने तय किया है,
अगर तुमलोग हमारा इस्तेमाल यूँ ही सैनिकों पर करते रहोगे,
तो हम सभी पत्थर कश्मीर छोड़ कर चले जाऐंगे,
फिर तुमलोग चलाते रहना पत्थर,
बहुत दिन से हमलोग चाह रहे थे आपलोगों से कहना,
बहुत कठिन है पत्थरों के देश में इंसान बन कर रहना,
तुम इंसान जाओ पत्थर बनों,
हम पत्थर चले इंसान बने !!
बाॅय  बाॅय कश्मीर !

            3
"सर्जिकल स्ट्राईक"
उस दिन जैसै ही माँ प्रकृति के दरबार का पट खूला,
शिकायतों का पिटारा खूला..
माँ प्रकृति के सारे दुलारे,
अपनी अपनी शिकायतें लेकर पहुँचे ।
आश्चर्य की बात सभी की शिकायतें थी, इंसानों के खिलाफ,
माँ प्रकृति से सभी आज माँगने पहूँचे थे इंसाफ ।
बुढा बरगद (वन प्रतिनिधि ) :
माँ, इंसान तो कुछ ज्यादा ही लालची होते जा रहा है,
हमारा पूरा वन परिवार उसके अत्याचार से त्राही माम कर रहा है ।
कल हमारे सामने सरेआम एक शीशम भाई की हत्या कर दी उन्होनें,
हम कैसे उन्हें रोकें ? बताओ माँ । बताओ ।
राजा शेर ( जानवर प्रतिनिधि):
ये क्या हो रहा है माते?
दिनप्रतिदिन इंसान अपनी क्रूरता की हदें पार कर रहा  है,
कभी हम जानवरों की छाल से अपने घर के दिवारों को सजाता है,
कभी हमारे परिवार की लडकियों को उठा कर ले जाता है...
ऐसा कब तक चलेगा माँ, कब तक ?
गंगा नदी (जल प्रतिनिधि)
ये क्या माँ, मेरा क्या हाल बना दिया है इंसानों ने?
अब तो मैं खुद को नहीं पहचान पा रही,
क्या मैं वही भागीरथी गंगा हूँ ?
रोको इन इंसानों को माँ, रोको इन्हें ।
कुछ देर गहन चिंतन करने के बाद माँ प्रकृति बोली...
"सर्जिकल स्ट्राईक "
क्या???
सब एक सूर में पुछ बैठे...
क्या है माँ यह सर्जिकल स्ट्राइक ?
प्रकृति माँ बोली...
जब नही समझे कोई प्यार से समझाने से,
तब बाज नहीं आती हूँ मैं, सर्जिकल स्ट्राइक आजमाने से ।
बुलाओ मेरी सारी सेना को...जाओ,
इंसानों को तूरंत सबक सिखाओ,
मेरे लोगों को यदि वे करेंगे तंग,
छिडेगा तब फिर हमारा जंग ।
कहाँ है मेरी सारी सेना...
थल सेना (भूकंप)
जल सेना (बाढ )
वायु सेना (आँधी ),
सभी को बुलाओ...
वक्त आ चूका है सर्जिकल स्ट्राईक करने का,
अब और इंतजार नही करने का.....

अनंत ज्ञान

अनंत ज्ञान झारखण्ड के हज़ारीबाग से हैं। स्थानीय साहित्यिक सस्था से जुड़े हैं। कई पुरस्कारों से पुरस्कृत हैं। हजारीबाग व्यवहार न्यायालय में सहायक पद पर कार्यरत हैं

Saturday, 25 August 2018

सुशांत कुमार शर्मा की कविता 'तेलिया मसान'

मदारी आता
खींचता सीवान
जिस हड्डी से
कहता उसे तेलिया मसान
कागज को करता रुपया
मिट्टी को करता सिक्का
तिनके को बना देता कबूतर
पानी में लगाता आग
तालियां बजतीं
तमाशा खूब जमता
समेटकर तिलस्मी बक्सा और झोला
मदारी चला जाता
रह जाते थे वहां पर
कागज़ , मिट्टी , तिनके , पानी
तेलिया मसान की हड्डी के घेरे में
बिखरे हुए ।
मदारी खूब जानता था
तेलिया मसान की हड्डी से
जिंदा हड्डियों को साधना
नजरबंद के खेल में
हाथ की सफाई में
तेलिया मसान की हड्डी
बड़े काम् की चीज़ है
हर दौर का मदारी यह जानता है
कि दधीचि को कैसे बनाना है
तेलिया मसान ।

सुशांत कुमार शर्मा

Friday, 17 August 2018

अरमान आनंद की कविता सुनो

आसमान से झड़ते हैं शब्द
धरती से टकरा कर
सन्तूर से बजते हैं

सुनना
किसी खाली रात में  जब तुम्हारा सीना
आसमान की तरह सजल बादलों से भरा हो

सुनना उसे
जैसे
पड़ोस की छत पर बजते रेडियो को सुनते हो

महसूस करना
जैसे न
होकर भी तुम्हारे पास कोई होता है

Thursday, 16 August 2018

अटलबिहारी वाजपेयी स्मृति - लेख / प्रेमकुमार मणि

अटल जटिल चरित्र के थे / प्रेमकुमार मणि
अंततः अटलबिहारी वाजपेयी नहीं रहे . यही होता है . जो भी आता  है एक दिन जाता है ,वह चाहे राजा हो या  रंक, या फकीर . अटलजी राजा भी थे और थोड़े फकीर भी . रंक वह कहीं से नहीं थे . वह राजनीति में थे ,उसके छल -छद्म से भी जुड़े थे ,लेकिन फिर भी उनमे कुछ ऐसा था ,जो दूसरों से उन्हें अलग करता था .
वह दक्षिणपंथी राजनीति में रहे . संघ ,जनसंघ फिर  भाजपा . इधर -उधर नहीं गए . अपने विरोधियों को कायदे से ठिकाने लगाया . दीनदयाल उपाध्याय केवल चौआलिस  रोज जनसंघ अध्यक्ष रह पाए . वाजपेयी जी के चाहने भर से मुगलसराय रेलवे स्टेशन के पास एक खम्भे किनारे उनकी लाश मिली . प्रोफ़ेसर बलराज मधोक की स्थिति से सब अवगत हैं . जिंदगी भर कलम पीटते रह गए कि देशवासियो , परखो इस पाखंडी को . मधोक की किसी से ने नहीं सुनी . गुमनामी में ही मर गए . गोविंदाचार्य तो आज भी कराह रहे हैं . कल्याण सिंह भाजपा  के लालू बनना चाहते थे ,उनपर लालजी टंडन और कलराज मिश्रा का विप्र फंदा डाला और अहल्या की तरह स्थिर कर दिया . भले  ही उनकी पार्टी  कमजोर हो गयी . आडवाणी को भी कुछ -कुछ ऐसा ही कर दिया . बोन्साई बना कर अपने ड्राइंग रूम में रखा .   हाँ ,गुजरात उनके लिए वॉटरलू बन गया . नरेंद्र मोदी पर हाथ फेरने की कोशिश की . गोधरा में सेना भेजने में 69 घंटे की देर कर दी और फिर वहां जाकर प्रेस के सामने राजधर्म सिखाने लगे . यह एक ब्राह्मण की घांची से टक्कर थी . पहली बार अटल विफल हुए . घाघ घांची ने पटकनी दे दी . वह भाजपा का स्वाभाविक नेता हो गया . बदली हुई भाजपा को अब ऐसे ही नेता की ज़रूरत थी .
   अटल इकहरे चरित्र के नहीं, जटिल चरित्र के थे . ब्राह्मण थे, और नहीं भी थे ; दक्षिणपंथी थे ,और नहीं भी थे ; काम भर कवि भी थे ,और राजनीतिक  आलोचक भी ; लेकिन न कवि थे ,न आलोचक ; अविवाहित थे ,लेकिन उनके ही  शब्दों में ब्रह्मचारी नहीं थे ; लोग जब समाजवाद को मार्क्सवाद से जोड़ रहे थे ,तब उन्होंने उसे गांधीवाद से जोड़ दिया . नेहरू के भी प्रिय बने रहे और इंदिरा गाँधी के भी . आप जो कहिये लेकिन यह विलक्षण चरित्र ही कहा जायेगा . एक दफा अटल जी के सामने होने का अवसर मिला तब उनके चेहरे में इस विलक्षणता को ही ढूंढता रह गया .

वह विषम वक़्त में भाजपा के सर्वमान्य नेता बने . राजनीतिक हलकों में इस बात की कानाफूसी थी कि अटल अपनी पार्टी से खासे नाराज -उदास हैं और समाजवादियों के राजनीतिक मोहल्ले में अपना ठिकाना ढूँढ रहे हैं . तभी बाबरी प्रकरण हो गया और आडवाणी ने भावावेग में  नेता प्रतिपक्ष पद त्याग दिया . अटल की बांछें खिल गयीं . कुछ साल बाद ही हवाला प्रकरण हुआ और आडवाणी ने लोकसभा की सदस्यता भी त्याग दी . अटल की अब पौ -बारह थी . निराश आडवाणी ने अटल के नेतृत्व की घोषणा कर दी . अब अटल ही भाजपा थे .
  उनका अस्थिर अथवा ढुल-मुल चरित्र भाजपा के बहुत  काम आया .  देश उस वक़्त राजनीतिक अस्थिरता से ग्रस्त था . कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही थी . भाजपा की स्थिति भी बहुत ठीक नहीं थी . बाबरी प्रकरण के बाद वह राजनीतिक तौर पर अछूत पार्टी बनी हुई थी . खुद अटल ने 1996 के अपने भावुकता भरे भाषण में इसे स्वीकार किया था . राजनीतिक अस्थिरता ने दो साल बाद ही चुनाव करवा दिए . अटल ने एनडीए -नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस - बनाया . किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं था . राजनीति में इस बात की चर्चा चली कि सब से कम बुरा  कौन है . यह एक विडंबना ही है कि सब से अच्छे की प्रतियोगिता  में नहीं , सबसे कम बुरे की प्रतियोगिता में बाज़ी मार कर वह आये राजनेता थे . फिर अगले करीब छह साल वह मुल्क के प्रधानमंत्री रहे .  आते -आते एटम बम पटका और कारगिल में पटके भी गए .  जाते -जाते भारत को शाइनिंग इंडिया बताया . तय अवधि से छह माह पूर्व चुनाव करवाए .लेकिन पिट -पिटा गए .

पिछले बारह से  वर्षों से वह चेतना- शून्य थे . यह आयुर्विज्ञान का कमाल है कि उन्हें सहेज कर रखा . जो हो ,कुछ बातों केलिए वह याद आते रहेंगे . राजनीति में उन्होंने लम्बी पारी खेली . 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना से लेकर चेतना -शून्य होने तक वह सक्रिय रहे . मृदुभाषी ,खुशमिज़ाज़ , जलेबी कचौड़ी से लेकर दारू -मुर्गा तक के शौक़ीन अटलबिहारी कहीं से  कटटरतावादी नहीं थे . खासे डेमोक्रेट थे . इसीलिए वह नागपुर की संघपीठ को बहुत सुहाते नहीं थे . यह कहना गलत नहीं होना चाहिए कि वह कई व्यक्तित्वों और प्रवृत्तियों के कोलाज़ थे . उनमे श्यामाप्रसाद मुकर्जी भी थे ,और थोड़े से सावरकर - हेडगेवार भी ; नेहरू का भी  कोना था और लोहिया का भी ,थोड़े -से काका हाथरसी भी थे और थोड़े -से गोलवलकर भी . हाँ ,एक बात जरूर थी कि वह देशभक्त  थे और इंसानियत पसंद भी . वह तानाशाह नहीं हो सकते थे . सुनाना जानते थे ,तो सुनना भी उन्हें खूब आता था . 1999 में अप्रैल माह की कोई तारीख थी ,जब उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया था और बस एक वोट से उनकी सरकार गिर गई थी . संसद की दर्शक दीर्घा में मैं भी था . लालू प्रसाद उस रोज मूड में थे और  बोलने लगे तब लोग हँसते -हँसते लोटपोट होने लगे . वह अटल जी और उनकी सरकार की ही बखिया उधेड़ रहे थे ,लेकिन सबसे अधिक कोई लोटपोट था , तो वह अटल जी थे . उन्हें लुत्फ़ लेना आता था .
   अब मैं अपने किशोर -वय  का एक संस्मरण साझा  करना चाहूंगा . 1971 की बात है . लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हो रहे थे . हमारे पटना संसदीय क्षेत्र में जनसंघ के कद्दावर नेता कैलाशपति मिश्रा उम्मीदवार थे . उनकी टक्कर सीपीआई के जुझारू नेता रामावतार शास्त्री से थी . अपनी पार्टी के प्रचार में अटलजी नौबतपुर में आये . मैं तब  सीपीआई की नौजवान सभा से जुड़ा था . हम नौजवानों की एक टोली ने निश्चय किया था कि अटलजी को काले झंडे दिखाएंगे . सभास्थल पर हमलोग अपनी जेब में काळा कपड़े छुपाये तैनात थे . तभी सीपीआई के  अंचल सचिव रामनाथ यादव जी हमारे नज़दीक आये और किनारे ले जाकर बतलाया ,झंडा नहीं दिखलाना है ,शास्त्रीजी ने मना किया है . हमारा प्रोग्राम स्थगित हो गया . लेकिन आश्चर्य हुआ ,जब अटल जी मंच से उतर कर अपनी कार तक आये . (तब नेता हेलीकॉप्टर से नहीं चलते थे ) पता नहीं किधर से शास्त्रीजी आ गए और फिर अटलजी और शास्त्री जी ऐसे  मिले मानो बिछुड़े भाई मिल रहे हों . उनलोगों के बीच क्या बात हुई भीड़ के कारण  हम नहीं सुन सके . लेकिन कुछ मिनटों तक सब अवाक् थे . ऐसा भी मिलन होता है ! बाद में हमलोगों को बतलाया गया राजभाषा हिंदी की संसदीय समिति में दोनों थे  . आर्यसमाजी पृष्ठभूमि के शास्त्री जी भी व्यक्तिशः हिन्दीवादी थे और अटल जी तो थे ही . दोनों की मित्रता गाढ़ी थी  ,एक दूसरे के यहाँ खाने -खिलाने वाली . तो ऐसे थे अटल जी .
उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !

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