Friday 31 August 2018

देश इमरजेंसी से भी बदतर दौर में पहुंच गया है- मनोज वर्मा

मंगलवार को तकरीबन एक दर्जन के आस-पास कवियों, लेखकों, वकीलों, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार और दलित कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे पड़े और उनमें से पांच को गिरफ्तार कर लिया गया। ये राष्ट्रव्यापी छापे और गिरफ्तारियां बताती हैं कि देश इमरजेंसी से भी बदतर दौर में पहुंच गया है। इमरजेंसी में कम से कम लोकतंत्र भंग होता है। लेकिन यहां तो पूरे संविधान को ही भंग कर दिया गया है। और लोकतंत्र की हत्या कर तानाशाही लागू कर दी गयी है। प्रोफेसर अपूर्वानंद से शब्दों को उधार लें तो पूरा देश ही जेल में तब्दील हो गया है।

             कवियों और लेखकों के खिलाफ असहिष्णुता के मुद्दे से शुरू हुआ मौजूदा सत्ता का सफर इस कार्रवाई के साथ अपना एक चक्र पूरा कर लिया। दाभोलकर, कलबुर्गी और पनसारे की हत्याओं के परोक्ष समर्थन के बाद अब सरकार ने इस तबके के उत्पीड़न की कार्रवाई खुद अपने हाथ में ले ली है। इसके साथ ही मौजूदा सत्ता और उसकी राजनीति एक दूसरे चरण में प्रवेश कर गयी है। इसके साथ ही इस बात की भी गारंटी हो गयी है कि पूरे देश की राजनीति कम से कम बीजेपी के सत्ता में बने रहने तक इसी तरह से गरम रहने वाली है।

            इन कार्रवाइयों के पीछे तात्कालिक तौर पर दो-तीन कारण गिनाए जा सकते हैं। पहला दाभोलकर, कलबुर्गी और पनसारे की हत्या को सीधे-सीधे आतंकी कार्रवाई के तौर पर देखा जाने लगा था। और सनातन संस्था के लोगों के सीधे शामिल होने के चलते हिंदू संगठनों की छवि को करारा झटका लगा था। इस मुद्दे को दरकिनार करने के लिए भी इस तरह की किसी बड़ी कार्रवाई की जरूरत पड़ गयी थी।

            दूसरा, एक और मामला है जिससे खुद बीजेपी के आधार के बीच ही अंतरविरोध खड़ा हो गया है। वह है एससी-एसटी एक्ट और पिछड़ा आयोग का मुद्दा। पार्टी का सवर्ण आधार इसको लेकर बेहद सशंकित है। उसके बीच पार्टी के समर्थन को लेकर फिर से बहस शुरू हो गयी थी। उस आधार को फिर से भरोसा दिलाने के लिहाज से भी सरकार के लिए ये कार्रवाई बेहद मुफीद दिखी।

          तीसरा, कारपोरेट समूह में भी सरकार को लेकर एक बहस शुरू हो गयी थी। जिसके भरोसे को पुख्ता करना सरकार की तात्कालिक जरूरत बन गयी थी। दरअसल ये सारे कार्यकर्ता ऐसे आंदोलनों और संगठनों से जुड़े हुए हैं जो जमीनी स्तर पर जनता की लड़ाइयों की अगुवाई कर रहे हैं। जिसमें कारपोरेट द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ ये जगह-जगह लिखने से लेकर जमीनी स्तर पर लड़ाई के योद्धा बने हुए हैं। लिहाजा इनके खिलाफ कार्रवाई कर मोदी सरकार कारपोरेट को ये संदेश देना चाहती है कि उसका भी भविष्य उसी के हाथ में सुरक्षित है।

        सबसे प्रमुख और इन सबसे ऊपर बीजेपी की आने वाले चुनावों में दिख रही हार है। जिसके चलते बौखलाहट में भी इस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं। हालांकि अभी किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी लेकिन आगामी आम चुनाव और लोकतंत्र के लिए ये शुभ संकेत नहीं है। अभी सरकार ने इस कार्रवाई को ऐसे लोगों के साथ शुरू किया है जो लेखक, बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता हैं और जिनका कोई बड़ा सामाजिक और संगठित आधार नहीं है। लेकिन अपनी गतिविधियों से वो सरकार को बड़ा नुकसान पहुंचाते रहे हैं।

           लिहाजा ये उन्हें चुप कराने और बैठा देने की कोशिश का हिस्सा है। और इसके जरिये अपने पक्ष में एक ध्रुवीकरण कराने की मंशा भी इसमें शामिल है। लेकिन अगर चीजें फिर भी सफल होती नहीं दिखीं तो समाज के दूसरे हिस्सों और फिर राजनीतिक तबके से जुड़े लोगों की बारी आएगी। और फिर आखिरी तौर पर लोकतंत्र को कुछ दिनों के लिए बंद कर देने का भी फैसला हो जाए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। उसके लिए एक ऐसी स्थिति खड़ी की जा सकती है जिसमें कहा जाए कि देश में चुनाव संपन्न कराने के हालात ही नहीं हैं।

         जिस भीमा-कोरेगांव के नाम पर देशभर में ये छापेमारी और गिरफ्तारियां हो रही हैं उसका सच बिल्कुल आइने की तरह साफ है। उस हिंसा के लिए मुख्य तौर पर संभाजी भेड़े जिम्मेदार हैं जो आरएसएस के घनिष्ठ सहयोगी हैं और पीएम मोदी के साथ उनके गहरे रिश्ते जगजाहिर हैं। लिहाजा अगर सचमुच में किसी ईमानदार जांच या फिर कार्रवाई की बात हो तो उसकी शुरुआत भेड़े से होगी। लेकिन उन्हें तो अभयदान मिला हुआ है। लिहाजा भीमा-कोरेगांव सरकार के लिए एक ऐसा जादुई चिराग बन गया है जिससे देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले किसी भी शख्स को घेरे में लिया जा सकता है। भले ही उसका उस कार्यक्रम से कोई दूर-दूर तक रिश्ता न हो।

            इस पूरे मामले में सबसे खास बात ये है कि इस कार्रवाई को भले ही सत्ता और उसकी पुलिस संचालित कर रही है। लेकिन ऐसा लगता है कि इसकी कमान नागपुर हेडक्वार्टर के हाथ में है। वहीं सूची बन रही है और कार्रवाई के आदेश भी वहीं से दिए जा रहे हैं। जिसमें फड़नवीस और पीएम मोदी महज सहयोगी की भूमिका में हैं।

            अगर अब भी किसी को फासीवाद के आने का इंतजार है तो उसे बैठे ही रहना चाहिए। क्योंकि जो समझ पाता है वही लड़ता है। सच ये है कि उसका राक्षस इस समय देश की गली-गली में घूम रहा है। और कब किसका दरवाजा खटखटा दे कुछ कहा नहीं जा सकता है। इसलिए ये नौबत आए उससे पहले ही सड़क पर निकल पड़ने की जरूरत है।

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