गद्य कविता का इतिहास सौ वर्षों से अधिक की उम्र तय कर चुका है, परन्तु अभी तक इसकी कोई सुगठित सैद्धान्तिकी,कोई व्याकरण या मान्य नियम तय नहीं हुआ है।एक तरह से बेनियम व्याप्त है-गद्य कविता के परिदृश्य में।इसका परिणाम है-घोर सृजनात्मक अराजकता।जिसका खामियाजा हिन्दी ही नहीं, भारत और विश्व की तमाम भाषाओं को भुगतना पड़ रहा है। यह लेख गद्य कविता के कद को खड़ा करने का एक प्रस्ताव है।उसके ढांचे में जोड़ घटाव लाकर एक चमकदार ,आकर्षक स्वरूप देने का मंथन है। यह लेख एक स्वप्न देना चाहता कि क्या गद्य कविताई के गौरव को क्लासिकी की ऊंचाई तक पहुंचाया जा सकता है???【】【】【】बेलीक राहों की तलाश में!!【】【】【】【】समय-समय पर अभिव्यक्ति की शैलियों में परिवर्तन मनुष्य के मस्तिष्क में आई बदलाहट की सूचना है। बिल्कुल अचानक यह बदलाव घटित नहीं होता, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ और दैनिक घटनाएं भी अभिव्यक्ति की मानसिकता पर निरन्तर दबाव बनाती रहती हैं। लम्बे समय तक यह दबाव जब पुकार बन जाता है, तब किसी न किसी नवोन्मेषी, मौलिक और दुस्साहसी सर्जक के माध्यम से प्रकट होता है। प्रायः हर अभिनव प्रयोग अस्वीकृत होता है, निंदित होता है और महत्वहीन घोषित होता है, क्योंकि पिछली अभिव्यक्ति की शैलियाँ जो आदत बन चुकी हैं, जो सृजन के श्रेष्ठ मानक स्थापित कर चुकी हैं, इतनी आसानी से नहीं बदलतीं। न केवल साधारण मनुष्य बल्कि सर्जक, विचारक और प्रखर प्रतिभाएं भी न्यूनाधिक मात्रा में मन में लीक बना चुकी आदतों के अधीन होती हैं। न केवल सोचने, व्यवहार करने और बोलने की एक तय आदत पड़ जाती है, बल्कि किसी खास वस्तु, घटना या व्यक्ति के बारे में निर्णय लेने की भी एक आदत पड़ जाती है। आदत पकड़ लेना मनुष्य का आदिम स्वभाव है, जबकि परिवर्तन आदतें तोड़ने की शर्त पर संभव होता है। पूजा-पाठ, प्रार्थना, नमाज, सिजदा, कर्मकांड सभी धर्म के द्वारा इजाद आदतें हैं। चरणस्पर्श, अभिवादन या अलविदा कहना सामाजिक जीवन के लिए इजाद आदतें। इसी तरह सृजन के क्षेत्र में अभिव्यक्तिगत आदतों का जन्म हुआ। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण, निबंध, जीवनी या आत्मकथा जिसे हम साहित्य की नायाब विधाएं मानते हैं, एक प्रकार की सृजनात्मक आदतें ही हैं, जिन्हें हम परम्परागत विधाएं कह सकते हैं। मौजूदा वक्त में गद्यात्मक कविता-भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर कविता की मान्य और स्थापित विधा है, जिसे स्थापित होने के पहले इंकार और घोर आलोचना की कठिन आग से गुजरना पड़ा। निराला ‘छंदों के बंधन को तोड़ने’ की वकालत करते हुए गद्य कविता के आगामी युग की ही घोषणा कर रहे थे। छंदबद्ध कविता जिसकी हजार साल या उससे भी ज्यादा की बेहद समृद्ध, गहरी और श्रेष्ठ परम्परा रही है, अचानक गैर प्रांसगिक मानी जाने लगी। छंद की मर्यादा में कविताएं रचना गैर आधुनिक कहा जाने लगा, किन्तु जिस गद्यशैली में हम कविता को खड़ा करने जा रहे थे, उसकी न कोई मर्यादा थी, न नियम, न व्याकरण और न ही सैद्धांतिकी। काव्यशास्त्रियों ने छन्दशास्त्र का अपूर्व विकास करते हुए लगभग 55 प्रकार के छंदों का निर्माण किया और उनकी तथ्यपरक, बारीक परिभाषाएं सुनिश्चित कीं। आचार्य पिंगल द्वारा रचित ‘छन्दशास्त्र’ छन्दों के व्याकरण का सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ है। इसे ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहते हैं।आश्चर्यजनक रूप से गद्य कविता का सम्यक् व्याकरण या मानक सैद्धांतिकी निर्मित न हो सकी, इसीलिए काव्य सृजन की इस शैली में अराजकता, बेतरीका और मनमानापन व्याप्त है। यह तो सुनिश्चित है कि तीव्र गति से करवट बदलते वक्त ने कविता पर जो दबाव बनाया है, उसको कुशलतापूर्वक संभालने में गद्यात्मकता सर्वाधिक सक्षम और सशक्त है। गद्य की मूल शक्ति है- वैचारिकता, स्पष्टता, बोधगम्यता ओर हस्तक्षेप। ये गुण छन्दबद्ध कविताओं में भी रहे हैं, किन्तु मूल उद्देश्य की तरह नहीं- विशेष गुणों की तरह। जबकि गद्य कविता के मूलभूत लक्ष्य हैं ये। किन्तु वैचारिकता के घोर आग्रह ने कविता की तासीर को लगभग समाप्त कर दिया, स्पष्टता और बोधगम्यता खांटी भावहीन सपाटबयानी का पर्याय बन गयी और हस्तक्षेप के नाम पर केवल तीर मारते रहना कवियों का फैशन बन गया। इसीलिए कविता की गद्य शैली को आकंठ स्वीकार करने के बावजूद इस पर दायित्वपूर्ण चिंतन करना अनिवार्य है कि उसकी व्यापक लोकप्रियता को पुनः स्थापित करने के लिए क्या परिवर्तन लाया जाय ? वह कौन सी संरचनात्मक समृद्धि लायी जाए कि समकालीन गद्य कविता हृदयाकर्षक ऊँचाई और अर्थवत्ता हासिल कर सके। बेशक यह चुनौतीपूर्ण है, परन्तु असंभव नहीं, क्योंकि समाधान भी प्रश्न की कोख से जन्म लेते हैं। हर चिन्ता अपने भीतर अभिनव विवेक का रत्न छिपाए हुए है। रास्ते जहाँ समाप्त होते हैं, वहीं से नये रास्तों का चिंतन शुरू होता है। पहले तो गद्य कविता को सपाटबयानी से मुक्त करना अनिवार्य है। नैरेशन, बतकही, संवाद या वर्णनबाजी नहीं है-कविता। वह अपनी मौलिक प्रकृति में मंत्र, बीज, गूंज और संगीत है। संकेतधर्मी स्वभाव की होती है श्रेष्ठ कविता। यद्यपि स्पष्टता, वर्णनात्मकता और संवादधर्मिता भी समसामयिक कविता के गुण बनते चले गये। यह मंत्रधर्मिता, गूंजपन और संगीतात्मकता क्यों ? यह प्रतीकात्मकता का आग्रह किसलिए ? क्योंकि ये ही वे मौलिक तत्व रहे हैं, जिनके बल पर कविता ने लगभग एक हजार सालों तक अपना शिखरत्व कायम रखा। मंत्र में अविस्मरणीयता की शक्ति होती है, जो ‘गागर में सागर’ की क्षमता धारण करता हुआ चित्त पर चढ़ जाता है। इसी तरह कवितार्थ की गूंज यदि हृदय में स्थिर हो गयी तो अपना प्रभाव जीवनपर्यन्त बरकरार रखती है। इसी तरह कविता की बीजधर्मिता। बीज में जिस तरह वृक्षत्व, छायापन, सुगंध, हरियाली और फल देने की संभावना अनिवार्यतः मौजूद है- उसी तरह अत्यन्त सघन, सूक्ष्म और मितभाषी कविता में भी। कविता की यदि एक पंक्ति है- ‘मनुष्य का व्यक्तित्व मन के समुद्र में उठा हुआ द्वीप है’ तो यह बीज कविता है। इसी तरह यह वाक्य कि ‘पकना अनिवार्य है फल बनने के लिए।’ ‘सुगंध बनना है तो शून्य में मिटना सीखो’। कविता चाहे छन्दबद्ध हो या गद्यात्मक- दोनों की प्राणशक्ति है- नवोन्मेष, अभिनवदृष्टि, जिसे हम मौलिक उद्भावना, ताजा विचार या मार्मिक चेतना भी कह सकते हैं। आधुनिक गद्यबद्ध कवियों में मुक्तिबोध से लेकर रघुवीर सहाय, शमशेर, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, कुंवर नारायण, धूमिल और केदारनाथ सिंह तक जितने भी स्थायी महत्व के नाम हैं- सबमें यह शक्ति काव्यस्थ है। सवाल है- यह अभिनव दृष्टि आती कहाँ से है ? कैसे इसका जन्म संभव होता है ? लीक त्यागने के साहस से अभिनव दृष्टि जन्म लेती है, नये प्रयोग का खतरा उठाने से मौलिकता संभव होती है, बनी-बनाई राह इंकार करने और दर हकीकतों से गहनतः टकराने, मथने, आत्मसंघर्ष करने से नयेपन का बीज कविता में अंकुरित होता है। इसके अतिरिक्त अंतःसंवाद का अनेक आयामीपन इस अनछुई, अज्ञात किन्तु बेमिसाल दृष्टि का रहस्य है। वस्तु को देखते, सोचते, चाहते, आत्मस्थ करते-करते कवि की एक मनोदशा वह भी आती है- जब वह वस्तु के मूल्य को समयबद्ध होकर नहीं, कालातीत होकर देखता है। न्यूनाधिक मात्रा में इस परम सूक्ष्म दृष्टि की सक्रियता के बगैर मौलिक दृष्टि असंभव है। जब कवि सांसारिक परिभाषाओं को चुनौती देता है, तब अपने श्रेष्ठ रूप में होता है। जब दुनियावी पहचान, मानव जनित नियम, शास्त्र, सिद्धांत में उलटफेर करने को कमर कसता है-तब सृजन के श्रेष्ठ स्वरूप में है। आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि निजी जीवन में भी कवि बेहद परिवर्तनशील मानस, हृदय और जिद का धनी हो। बासी, खोखले और समाज-घातक संस्कारों, मर्यादाओं और षट्कर्मों से चिपका हुआ या सिर पर ढोता हुआ कवि नवोन्मेषी निगाह का अभय उद्घोषक नहीं बन सकता। व्यक्तित्व और कलम की फाँक कवि के सृजन की ऊँचाई या बौनेपन का निर्धारक है। चूंकि समकालीन कवि सफलता का आकाश चूमने के लिए दिनरात पेशेवर होते चले गये, इसीलिए बलखाती भावधारा से शून्य हमारा कवि बेमिसाल मौलिकता से लबरेज सृजनशक्ति खो बैठा। मौजूदा हिन्दी कविता से क्लासिकी समाप्त हो जाने का मूल कारण भी यही है। अन्वेषी मानसिकता, संकल्प और कल्पनाशीलता का व्यक्ति बहुत सहजतापूर्वक मौलिक सृजन का सूत्रधार बन जाता है- इसके दो उदाहरण हैं- निराला और मुक्तिबोध। बहुदिशात्मक सृजन क्षमता से सम्पन्न। रवीन्द्रनाथ और खलील जिब्रान इन दोनों कवियों से भी आगे। नैसर्गिक अभिनव दृष्टि से सम्पन्न कवि चित्रात्मक कल्पना शक्ति की विलक्षण प्रतिभा होता है। वह ऐसी अनजानी, नयी किन्तु बहुमूल्य कल्पना कर लेता है- जो सामान्य स्तर के सर्जकों के लिए दूर-दूर तक असंभव है। उसके लिए समूची सृष्टि मानो सृजन की प्रयोगशाला हो। वह गोताखोर की तरह उतरता है-सृष्टि के समुद्र में। वह चींटी की तरह निकल पड़ता है- बेलीक राहों के फासलों में। वह मकड़ी की प्रकृति का है-जो अपनी हुनर के बल पर हृदयाकर्षक तानाबाना बुनता है- सृजन का। नित नये अर्थों की खेाज में रमा हुआ कवि मन में उठे हुए भावों को चित्र का आकार देता है- वेदना का चित्र, प्रतिरोध का चित्र, समर्पण का चित्र, प्रतिबद्धता का चित्र, अपराजयेता का चित्र। किन्तु यह रचनात्मक चित्रमयता सामान्य मस्तिष्क का चित्र नहीं, बल्कि सृजनावेशित परम जागरूक और उर्जस्वित मानस का चित्र है- एक प्रकार से बादल के स्वभाव का, जो अर्थसिक्त श्ब्दों और वाक्येां की बारिश करने के लिए लबालब भरा हुआ है। मानस में उठा हुआ यह काव्य चित्र कई रचनात्मक युक्तियों से मिलकर बना है- जिसमें हैं- सर्जक के रैशनल विचार, प्रखर और पारगामी संवेदनशीलता, सुई की नोक से भी बारीक तीक्ष्ण एकाग्रता और जड़ सत्ता में प्राण भरने वाली करुणा। यदि सृजन का चित्र निर्मित करने वाली यह दुर्लभ योग्यता कवि या लेखक में आ जाय, तो वह नायाब कृतियाँ खड़ा कर सकता है- संदेह नहीं।सृजन का समयजयी तानाबान केवल चित्रात्मक क्षमता के बूते खड़ा नहीं होता। उसके लिए चाहिए अनजाने प्रतीकों की श्रृंखला, नये से नये उपमानों की बानगी और अनछुए, कोरे, ताजा सौन्दर्य का रस। कविता का वाक्य जादू की छड़ी जैसा होना चाहिए, जिसमें शब्द-शब्द मंत्र की तरह पिरोए गये हों, जो मुँह से उच्चरित होते ही- मोहक अन्तध्र्वनि बन जाएं, चिपक जाएँ आत्मा से, मथने, विचलित करने लगें समूचे वजूद को। एक-एक वाक्य में इतने नायाब और गहरे मर्म कसे हुए हों- मानो वह कोई स्थापत्य की नींव-दर-नींव हो। ऐसा मर्ममय वाक्य संभव होता है- सार्थक किन्तु नये प्रतीकों से, अज्ञात उपमानों से और अपरिचित-बेमिसाल बिम्बों से। जैसे उदाहरण के लिए- ‘‘मानस क्षितिज में कल्पना का सूर्य सदा अमिट चमकता है।’’ ‘‘मौन में पुकारती ऐसी माँ है प्रकृति, जिसे भीतरी कानों से ही सुना जा सकता है।’’ ‘‘परिवर्तन का चक्र अदृश्य है, किन्तु कितना सार्वभौमिक और कालजयी ?’’कविता में अन्तर्दृष्टि की यह बेमिसालियत बहुगामी भाव-प्रवणता से संभव होती है, जिसमें अहैतुक प्रेम, सर्वग्राही करुणा और अपराजेय उदारता घुलीमिली रहती है। अन्तःव्यक्तित्व की विशालता और दृश्य-दृश्य में, रूप-कुरूप में, गुमनाम-प्रसिद्ध में, जीव-निर्जीव में, रोचक-अरुचिकर में घुसपैठ लगाने की जिद और संकल्पी आकांक्षा के चलते यह मौलिक अन्तर्दृष्टि हासिल होती है। फिर तो अभिव्यक्ति चाहे अनगढ़ हो या गद्यात्मक, साहित्यिक भाषा में हो या सामान्य व्यवहार की भाषा में- वह चित्ताकर्षक ही होगी, टिकाऊ और उम्रदार होगी। कविता वह अस्तित्व है, जो शरीर की तरह पंचभूतों से निर्मित होती है। वे पंचभूत हैं - संवेदना, कल्पना, रससिक्त विचार, रसमय भाषा और प्राणवान शिल्प। शेष-प्रतीक, बिम्ब, रूपक इत्यादि सहायक तत्वों की भूमिका निभाते हैं।नयी सदी की कविता अपनी अस्थिर सैद्धांतिकी के कारण संकटग्रस्त है ही, स्वाध्याय के अकाल के कारण और भी शक्तिहीन है। समकालीन विश्व-कवियों में नाजिम हिकमत, ब्रेख्त, शिंबोस्र्का, पाब्लोनेरुदा, महमूद दरवेश, रिल्के, यहूदा अमीखाई जैसे अनेक हस्ताक्षर हैं- जिन्होंने बिना सुनिश्चित व्याकरण दिए अपनी कविताओं के द्वारा गद्य कविता का मानक तय किया। जिसमें जागरण, आह्वान, प्रतिरोध, पक्षधरता और पराजित जनहृदय की पुकार गूंजती है। ऐसे शीर्षस्थ कवियों की कलम में उन्मुक्त चेतना ही कविता का नियम है, कहने का बेखौफ साहस ही कविता का व्याकरण है और अलक्षित मर्मों का सशक्त प्रकाशन ही कविता का सिद्धांत है, मौलिक चिंतन को संवादधर्मी पंक्तियों में उड़ेल देना कविता की नींव है। समकालीन हिन्दी कविता में धूमिल, गोरख पांडे, कुंवर नारायण, मंगलेश डबराल, भगवत रावत और राजेश जोशी अपनी गद्यबद्ध कविताई के द्वारा एक सृजन सैद्धांतिकी का अनजाने में ही निर्माण कर रहे थे। विनोद कुमार शुक्ल अपने ढंग के अलहदा गद्य कवि सिद्ध हुए। नयी सदी की युवा पीढ़ी एक दिशाहीनता के दौर से गुजर रही है- दो मत नहीं। अभी-अभी चंद रोज पहले कोई नवकवि दस-बीस कविताएं खालिस गद्यात्मक अंदाज में परोसते हुए स्टार बन सकता है। कोई युवा कवि शाब्दिक रहस्यों का भ्रमजाल रचते हुए अचानक प्रतिभा का अपूर्व अवतार घोषित हो सकता है। यहाँ तक कि पाठकों के हृदय में हलचल मचाए बगैर अचानक कोई कवि परिदृश्य में छा सकता है और यह सब गैर साहित्यिक तौर तरीके से होना शुरु हो चुका है। सोशल मीडिया के प्रभुत्व ने सृजन की धारा को गजब का मटमैला बनाया है, जिसमें अनुशासन, स्तर, मानक और विजन गायब है। जहाँ कविताएं दैनिक समाचार जैसी हवाहवाई घटनाएं बन गयी हैं, और कवि अपनी-अपनी कला और करतब दिखाने के लिए तैनात अभिनेता।लय, नाद, रस और संगीत का विलुप्त हो जाना गद्य कविता की दुर्बलता का कारण बना ही, गूढ़ार्थ पैदा करने की शक्ति का लोप होना सबसे मूल कारणों में सिद्ध हुआ। गूढ़ार्थ में दर्शन खिलता है, वेदना की रागिनी झंकृत होती है, दूर-दूर तक जाने वाली चेतना गूंजती है। यह गूढ़ार्थ छिपाने से प्रकट है और प्रकट करने से मुरझा जाता है। यह गूढ़ार्थ शब्दों के गैप में मौजूद होता है, कवि जहाँ कहते-कहते चुप हो जाता है, ठीक वहीं गूढ़ार्थ जन्म लेता है। दैनिक जीवन में हम जैसे बेलगाम, बेफिक्र बोलते हैं, सविस्तार वर्णन करते या कचहरी करते हैं- कविता में ठीक ऐसा नहीं कर सकते। परन्तु कुयोग से यह खालिस, सपाट वर्णनधर्मिता बढ़ती ही जा रही है। ऐसी एकरेखीय सीधी कविता में दरसत्य की आहट है, मर्म को छूने वाले दृश्य हैं, मस्तिष्क पर चोट करती असह्य घटनाओं की आंच है और समय की धीमी धड़कन है- फिर भी इसे ‘आजजीवी’ कविताएं ही कहा जाएगा। जिस तरह हवा का झोंका तत्काल रोमांचित कर देता है, जिस तरह सामने दिखते चेहरे की मौन पुकार हृदय को खींच लेती है, जिस तरह रेाज-रोज घट रही घटनाएं हमारे मस्तिष्क को सोचने, बोलने को विवश किए रहती हैं- उसी तरह ये आजजीवी कविताएं, जो माह भर बाद कहाँ विलुप्त हो गयीं- न कवि को ख्याल रहा, न भूरि-भूरि प्रशंसक को, न परिदृश्य में उछालने वाले आलोचक को। प्रतिदिन शताधिक संख्या में गढ़ी, तराशी जा रही ‘दैनिकजीवी’ कविताओं की यही नियति है।जबकि होना यह चाहिए था कि हम गद्य कविता को अन्तर्दृष्टि, गहन वेदना, विलक्षण कल्पनाधर्मिता, अभिनव बिम्बात्मकता और सार्वभौमिक चेतना के बूते अक्षय आयु सौंपते। उसमें अचूक दृष्टि की ऐसी गहराई लाते जो काल को भेदती हुई असंख्य हृदयों का मार्गदर्शन, करती। कविता कोई आजमाइश नहीं, वह तो सभ्यता, समाज, मनुष्यता को गढ़ने, तराशने चमकाने और सुरक्षित करने वाले समर्पित शिल्पकारों का लौह-शस्त्र है।सदी के नवसर्जक को सीखना होगा कि दृश्य को दृष्टि में, ज्ञान को संवेदना में और अनुभव को अनुभूति में कैसे रूपान्तरित किया जाय। इसका सूत्र है- गहनतम एकाग्रतापूर्वक सुमिरन। यदि दृश्य को ध्यानस्थ अवस्था में बार-बार याद किया जाय, अपने प्राण में प्रतिष्ठित किया जाय, तो वह दृष्टि का प्रकाश बन जाता है। इसी तरह हम जो भी ज्ञान अर्जित करते हैं- यदि उसमें अन्वेषक आत्मा को शामिल कर लें, हृदय से आप्लावित कर लें, चेतना से संवार लें- वह केवल बुद्धिबद्ध न रह जाय तो- स्थायी रूप से शरीर के कोने-कोने में तरंगित होने वाली वेदना हो जाएगा- ज्ञान। हमारा अनुभव अधकचरा है, अधूरा और अपरिपक्व है- यदि अनुभूति में तब्दील नहीं हो जाता। अनुभूति में रूपान्तरण का अचूक उपाय है- अनुभूत तथ्य, सत्य, चरित्र या घटना को अपना बना लेना। भेद, पृथकता, अजनबीपन का भाव हद दर्जे तक मिटा देना, स्वयं उसका हिस्सा बन जाना। दर्शक नहीं भोक्ता की भूमिका में तत्पर होना। हमारा कवि विषयों से आत्माकार होने की कला न सीख सका, यह उसके सृजन की असफलता का कारण है। सृजन की परिधि में मृत, निर्जीव, मूल्यहीन कुछ भी नहीं। सब प्राणवान हैं, अमूल्य हैं- चाहे कंकड़ हो, पीला पत्ता हो, कूड़ा हो या प्रकृति का प्रलयंकर स्वरूप। व्यक्ति सही-गलत, श्रेष्ठ-निकृष्ट का निर्धारण हमेशा अपने स्वार्थवादी चश्मे से करता है, जबकि सर्जक या कवि यह निर्धारण निरपेक्ष, स्वार्थमुक्त विवेक के शिखर पर बैठकर। कवि की असीम सहानुभूति, करुणा और आत्मीयता वहाँ भी बरसती है- जहाँ स्नेह की एक बूंद गिराना भी सामान्य मनुष्य बेकार समझते हैं। कई बार सृजन की यात्रा वहाँ से आरंभ होती हैं, जहाँ से संसारवादी आदमी पीछे लौट चलते हैं। इसीलिए अपनी असाधारण संवेदना शक्ति के दम पर दृश्य-दृश्य में, बेनाम, गुमनाम में, अजनबी, पराए में प्राण-प्रतिष्ठा करना सबसे पहली अनिवार्यता है- वर्तमान कवि के लिए। जिसके हृदय में बीता कुछ भी नहीं, जो है- सब वर्तमान है, चाहे हजार साल पुराना हो- वह सिद्ध सर्जक है। ‘बेलीक राहों की तलाश’ का भूखा होना पड़ेगा हमारे कवि को। ‘एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं।’ यह मुक्तिबोध की घोषणा मात्र नहीं, परम सजग चित्त का आत्म संकल्प भी है। जब कवि लिखने की पूर्व शैली को इंकार करता है- तो वह अपना मार्ग पाने की ओर है। जब वह सृजन की पुरानी भाषा को छोड़ रहा है, तोड़ रहा है - तब वह अपनी काव्य भाषा अर्जित करने वाला है। एक समय में सर्वप्रचलित और स्वीकृत काव्य परम्परा को बदलना, मोड़ पैदा करना, निर्णायक परिवर्तन लाना बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण है, किन्तु सर्जक कहलाने की सार्थकता इसी में छिपी है। लगभग पचास वर्षों से गद्य शैली का साम्राज्य कायम है, जिसमें अत्यंत सार्थक बदलाव लाना अनिवार्य बन चुका है। छन्द की ओर लौटना न केवल असंभव बल्कि सृजन-घातक भी है। तो क्या मार्ग होगा- भविष्य की कविता का ? वह मार्ग है- लय का धारा प्रवाह, वह पथ है- मौलिक दृष्टि और ताजा संवेदना से लबरेज तरंग कौशल, वह उपाय है- शब्द-शब्द के साथ मंत्र जैसा बर्ताव करता हुआ गद्य-लाघव। असंभव नहीं कि नयी सदी की कविताई छायावाद के शिखरत्व को पाले, किन्तु हमारे कवि को अपनी खोई, सोयी और निष्क्रिय मनुष्यता को प्रज्ज्वलित करना होगा। स्थापना, प्रसिद्धि, प्रशंसा, पुरस्कार से बहुत ऊपर और ऊँची है- सृजन के समर्पित कवि की मनुष्यता। बड़ी से बड़ी कलाकृति का जन्म इस असीम, अपरिभाषेय मनुष्यता के बिना असंभव है। कहना जरूरी है अपने वक्त के कवियों से कि मात्र कवि बनने के लिए कविता लिखना बंद कीजिए, सृष्टि के मस्तक पर, गुमनाम के चेहरों पर स्थायी चमक लाने के लिए कलम को सुमिरिए। भक्तिकाल खुद आकर उपस्थित नहीं हो गया। जब उसे कबीर जैसे फक्कड़ साधक, सूर जैसी जाग्रत आत्मा और तुलसी जैसी सुसंगठित प्रतिभा मिली, तब जाकर खड़ा हुआ है- भक्तिकाल। रहस्य स्पष्ट है, जिस दिन हमारा कवि अपने व्यक्तित्व को वह दुर्लभ तराश देने में संलग्न हो जाएगा, एक और मानक युग साकार होगा।अक्टूबर, 2021भरत प्रसादहिन्दी विभागपूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालयशिलांग
Monday, 1 November 2021
बेलीक राहों की तलाश में: भरत प्रसाद
Saturday, 9 October 2021
फ़िदेल के लिए एक गीत / चे ग्वेवारा
फ़िदेल के लिए एक गीत / चे ग्वेवारा
आओ चलें,
भोर के उमंग-भरे द्रष्टा,
बेतार से जुड़े उन अमानचित्रित रास्तों पर
उस हरे घड़ियाल को आज़ाद कराने
जिसे तुम इतना प्यार करते हो ।
आओ चलें,
अपने माथों से
--जिन पर छिटके हैं दुर्दम बाग़ी नक्षत्र--
अपमानों को तहस--नहस करते हुए ।
वचन देते हैं
हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे ।
जब पहले ही धमाके की गूँज से
जाग उठेगा सारा जंगल
एक क्वाँरे, दहशत-भरे, विस्मय में
तब हम होंगे वहाँ,
सौम्य अविचलित योद्धाओ,
तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से डटे हुए ।
जब चारों दिशाओं में फैल जाएगी
तुम्हारी आवाज़ :
कृषि-सुधार, न्याय, रोटी, स्वाधीनता,
तब वहीं होंगे हम, तुम्हारी बग़ल में,
उसी स्वर में बोलते ।
और जब दिन ख़त्म होने पर
निरंकुश तानाशाह के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई
पहुँचेगी अपने अन्तिम छोर तक,
तब वहाँ तुम्हारे साथ-साथ,
आख़िरी भिड़न्त की प्रतीक्षा में
हम होंगे, तैयार ।
जिस दिन वह हिंस्र पशु
क्यूबाई जनता के बरछों से आहत हो कर
अपनी ज़ख़्मी पसलियाँ चाट रहा होगा,
हम वहाँ तुम्हारी बग़ल में होंगे,
गर्व-भरे दिलों के साथ ।
यह कभी मत सोचना कि
उपहारों से लदे और
शाही शान-शौकत से लैस वे पिस्सू
हमारी एकता और सच्चाई को चूस पाएँगे ।
हम उनकी बन्दूकें, उनकी गोलियाँ और
एक चट्टान चाहते हैं । बस,
और कुछ नहीं ।
और अगर हमारी राह में बाधक हो इस्पात
तो हमें क्यूबाई आँसुओं का सिर्फ़ एक
कफ़न चाहिए
जिससे ढँक सकें हम अपनी छापामार हड्डियाँ,
अमरीकी इतिहास के इस मुक़ाम पर ।
और कुछ नहीं ।
अनुवाद : नीलाभ
साभार : कविताकोश
रामविलास शर्मा को आप कितना जानते हैं? - अजय तिवारी
रामविलास शर्मा (१० अक्तूबर १९१२-२९ मई २०००) की यह थोड़ी अनपहचानी छवि है। गठा हुआ कसरती बदन, सलीक़े से पहनी हुई पैंट-क़मीज़, कमर में बेल्ट, यह सब तो ठीक, लेकिन हाथ में जलती हुई सिगरेट! तो यह जान लेने की बात है कि १९७२ तक सिगरेट पीते थे। रिटायरमेंट के बाद छोड़ी। कब पीनी शुरू की, ठीक याद नहीं; पर कम्युनिस्ट पार्टी में आने के बाद शुरू हुई और प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव बनने के बाद अधिक हो गयी, यह सही है। आगरे में रहने पर तीन या चार सिगरेट दिन में, लेकिन मीटिंगों में ज़्यादा। मीटिंगें देर रात तक चलतीं तो सिगरेट भी पूरी डिब्बी पियी जाती।
कसरती रामविलास को पहलवान रामविलास भी कहा जाता था। दाँव लड़ाने में भी कम नहीं थे। निराला से पंजा लड़ाने का वर्णन खुद ही किया है ‘साहित्य साधना’ में। अखाड़े में कसरत के साथ साथ कुश्ती भी लड़ते रहे हैं, यह सर्वविदित है। एक बार प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में एक नामी आलोचक को किसी महिला रचनाकार ने चेतावनी दी कि उसके साथ वे लालायित व्यवहार बंद कर दें वरना वह महामंत्री रामविलास शर्मा से शिकायत कर देंगी। आलोचक अपने महत्व के गुमान में थे। नहीं माने। रामविलास जी के सामने बात आयी। उन्होंने चेतावनी दी कि अब कोई शिकायत न मिले अन्यथा यहीं दो घूँसे मारूँगा! अखाड़िया पहलवान की धमकी रंग लायी।
पहलवानी का असर यह था कि १९८१ में दिल्ली आने के बाद मालिश करने के लिए लोग नहीं मिलते थे। लगभग ११-१२ साल बाद जब नीरज और जसबीर त्यागी दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में एक साल आगे-पीछे एम. फ़िल में आये, तब अपने गुरु डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी के कहने पर वे समय-समय पर उनकी मालिश करने जाते थे। एक तो रामविलास जी सहज बहुत थे, दूसरे युवाओं के प्रति सदय भी थे, तीसरे नीरज-वेदप्रकाश-जसबीर आपस में मित्र थे और शालीन, प्रतिभाशाली भी। रामविलास जी इन सबको बहुत स्नेह देने लगे।
एक बार रामविलास जी से मैंने किसी काम के लिए कहा था। शायद जनवादी लेखक संघ (जलेस) की पत्रिका ‘नया पथ’ के लिए कुछ लिखना था। उन दिनों ‘नया पथ’ का संपादन चंद्रबली सिंह करते थे। रामविलास जी जलेस के कुछ नेताओं के बर्ताव से क्षुब्ध थे। लिखने के लिए सहमत नहीं थे। मैंने उन्हें जो समय दिया था, उस दिन नीरज (अब जामिया में हिंदी के प्रोफ़ेसर) को साथ लेकर उनके घर पहुँचा। चाय के दौरान ही किसी बात पर बहस छिड़ गयी। बहस तीखी हो गयी। तर्क-वितर्क कुछ वक्र भाषा में होने लगा। जिसमें उत्तेजना मिली हुई थी। नीरज बहुत सशंकित और कुछ कुछ भयभीत हो गये। आधे घंटे की बहस के बाद मैंने कहा कि यह समस्या अभी तो सुलझने वाली नहीं है, इसपर फिर बात करेंगे; आप उठिए, काग़ज़-क़लम लाइए और लिखकर दीजिए। उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, उठे, राइटिंग पैड और फ़ाउंटेन पेन लेकर आये, जो सामग्री देनी थी, वह लिखकर दी और फिर थोड़ी देर हँसी-मज़ाक़ हुआ और हम विदा हुए। नीरज ने बाहर आकर कहा कि वह बहुत डर गये थे। पर धीरे-धीरे वे भी समझने लगे कि बहस और मतभेद से रामविलास जी को दिक़्क़त नहीं थी। वे चालाकी और तिकड़म पसंद नहीं करते थे।
सिगरेट पीना तो उन्होंने रिटायरमेंट के बाद छोड़ा था, चाय पीना १९९४-९५ के आसपास छोड़ी। पहले चाय बनाकर भी पिलाते थे। ख़ास तौर पर सुबह जाने पर, जब उनके पुत्र विजय मोहन शर्मा (जिनका कुछ दिनों पहले सिंगापुर में अपने बेटे के पास निधन हो गया) और संतोष भाभी अपने-अपने काम पर गये होते थे। चाय बड़े मनोयोग से और बहुत अच्छी बनाते थे। मुझे दर्जनों बार उनकी बनायी चाय पीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
एक बार तो कहकर कि तुम्हें निराला की ‘शक्ति-पूजा’ और शेक्सपीयर के कुछ सॉनेट पढ़ाऊँगा। उस दिन हथपोई भी खिलाऊँगा। हथपोई—हाथ से पाथकर बनायी गयी मोटी रोटी। शेक्सपीयर पढ़ने का समय तो दुर्भाग्य से नहीं निकाल सका, ‘राम की शक्ति-पूजा’ पढ़ने का सौभाग्य मिला। घंटे भर में उन्होंने प्रारंभिक एक तिहाई अंश पढ़ाया। रिकॉर्डिंग तो नहीं कर पाया लेकिन नोट्स लेता गया। वे नोट्स अब भी मेरे पास हैं। उस दिन का अनुभव जैसा था, उसी के लिए “दिव्य” की अवधारणा बनी है। जितना आनंद रामविलास जी से निराला पढ़ने का था, उससे कम आनंद उन्हें आटा गूँथकर रोटी बनाते और तवे पर सेंकते हुए देखने का नहीं था। मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए इतना स्नेह कि तीखी बहस करने से लेकर निराला पढ़ाने और हथपोई खिलाने तक सब इतने सहज भाव से कि अपने को ही विश्वास न हो!
तब लगा, मजदूर बस्ती में रहकर, मेहनतकश की तरह श्रम करते हुए बीसवीं शताब्दी की इस महान हस्ती ने जो पाया था, वह श्रम, सृजन, चिंतन, सहृदयता और दृढ़ता का एक ऐसा आचरण था जिसमें अहंमन्यता नहीं, ऐसी सहजता थी जिसे साधना से ही पाया जाता है और सामान्य लोगों के लिए जो एक आदर्श है। इस आदर्श तक पहुँचने का संघर्ष हमारा है।
Thursday, 7 October 2021
'मेरा अज़्म इतना बलन्द है के पराए शोलों का डर नहीं': बेगम अख्तर - वंदना चौबे
बेग़म अख़्तर के जन्मदिवस पर दो साल पुराना यह संक्षिप्त लेख!
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शास्त्रीयता के सिरों को अतिक्रमित करती यथार्थबोध से उपजी एक जुझारू आवाज़ बेग़म अख़्तर की!
'मेरा अज़्म इतना बलन्द है के पराए शोलों का डर नहीं'
◆◆
बेग़म अख़्तर पर बारहा लिखने का मन हुआ करता था लेकिन 'और फिर तल्ख़िए एहसास ने दिल तोड़ दिया' जैसा हाल हो गया।कमउमरी में उन्हें सिर्फ़ उनकी मक़बूलियत के कारण सुना था इसलिए ज़हन और ज़िन्दगी पर उनका कोई ख़ास असर नहीं पड़ा।
थोड़ा संगीत सीखा तो है!संगीत मर्मज्ञ नहीं हूं लेकिन बहुत बाद में लगातार और बार बार अख़्तरी को सुनते हुए सबसे पहले उनके बारे में यह मिथ टूटा कि वे मख़मली और जादुई आवाज़ की मल्लिका हैं!न मुझे वे जादुई लगती हैं न मख़मली!मेरे सुनने में वे मुझे लगभग रूखी लगती हैं!!
वे गंवई तीखी दुपहरी की गायिका हैं।उनकी गायिकी में सम्मोहक सुकून और आराम नहीं मिलता बल्कि मिलता है एक कठोर यथार्थबोध।कोठे और बैठकी के ख़्याल और ग़ज़ल गायिकी में ही नहीं लुभावनी अदाकारियों वाली ठुमरियों और दादरे तक में वे अपनी आवाज़ से अपने दिल के इर्द-गिर्द जैसे एक किला बनाती हैं।उनकी गायिकी सुनने वाले के दिल मे खिंचती तो है लेकिन उनके दिल तक पहुँचने का रास्ता रोक देती है।
बेग़म अख़्तर के समकाल और उनके आगे तलक भी बैठकी की लुभावनी गायिकी इस तरह यथार्थबोध से टकराती नज़र नहीं आती।आज भी नहीं।कलात्मक गंभीरता और पवित्रता किशोरी अमोनकर में है।एक साफ़ और गरिमामयी आवाज़!
विविधता के आधार पर दूसरे छोर पर मैं आबिदा परवीन को देखती हूँ!सूफ़ियाने फ़लसफ़े से दुनयावी भरम को तोड़ने की मुक्त आवाज़!
बेग़म अख़्तर की आवाज़ इन दोनों छोरों को अतिक्रमित करती है।जिस ज़मीन पर वे खड़ी थीं वहाँ वे सूफ़ियाना रस्ते से वे पलायन नहीं कर सकती थीं और जिस दुनिया मे वे जी रही थीं वह कला का क्षेत्र होकर भी प्रतिष्ठित नहीं माना जाता था इसलिए सम्भ्रांत पवित्रतावाद भी उनके इर्द-गिर्द नहीं टिकता था।
उन्होंने खड़ी बैठकी तक की भी प्रस्तुतियां दी।खड़ी बैठकी में नृत्य की भंगिमा के साथ सुनने वालों तक घूम घूम कर नाच के साथ गायन पेश किया जाता था।वे न ही सूफ़ी मुक्त हो सकती थीं न ही एलीट शुचितावादी!कठोर जीवन की ज़मीन पर रिश्तेदारों और उनकी बच्चियों के परवरिश की ज़िम्मेदारी भी थी उन पर और ग़ज़ल के रंजक रूप और शास्त्रीयता शुचितावाद से मुक्त कर किसी जगह ले जाती हैं वे।
अपनी माँ मुश्तरी बाई का रूपांतरित जीवन अख़्तरी बाई ने जिया।मां-बेटी में जाने कौन रिश्ता था कि मुश्तरी की मौत के बाद बेग़म अख़्तर दर्द और नशे के इंजेक्शन लेने लगीं।कहा जाता है कि उनके लिए बड़े बड़े आलीशान लोगों के प्रेम-प्रस्ताव आते रहे।वे जीवन को मज़े में देखतीं रहीं और हँसती रहीं , गाती रहीं क्योंकि जानती थीं कि यह प्रेम नहीं है।ये आलीशान लोग उन्हें अपनी कोठियों में एक नगीने की मानिंद सजावटी पत्थर की तरह सजाना चाहते हैं।उन्होंने किसी की दूसरी, तीसरी या चौथी बीवी बनना स्वीकार नहीं किया।बाद में किन्हीं विधुर वकील साहब से उन्होंने शादी की लेकिन अपनी स्वतंत्र तबीयत की वजह से परिवार में वह रह न पायीं।गायिकी की खोज ,दोस्ताने, महफिलें और शराब-सिगरेट की लत ने उन्हें सांसारिक स्थिरता न दी।परिवार में रहकर वे जान गईं कि स्वतंत्र-चेतना की क़ीमत देनी होती है।
कहीं कभी पढा था और यूट्यूब पर देखा है कि 13 साल की उम्र में बेग़म अख़्तर के साथ किसी राजा ने ज़बरदस्ती की।रेप अटेम्प्ट किया और उस छोटी उम्र में ही उन्हें उन्हें एक बेटी हुई लेकिन बहुत बाद तक बेग़म उस बच्ची को अपनी बहन बताती रहीं।आधिकारिक रूप से इस घटना की कोई पुष्टि नहीं मिलती।यतीन्द्र मिश्र द्वारा संपादित किताब 'अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना' में कुछ पुराने गुणीजनों के लेख हैं।वहां भी ऐसा कोई उल्लेख नही है।उनके जीवन पर आधारित दूरदर्शन के कार्यक्रमों और विविध भारती के आर्काइव्स में भी कोई उल्लेख नहीं है। कहना चाहती हूँ कि यदि यह घटना सत्य है तो यतीन्द्र मिश्र जी के संपादकीय या लेख में या कहीं तो इसका उल्लेख होना चाहिए और यदि यह घटना निर्मूल है तो यूट्यूब और ऐसे दूसरे माध्यमों पर एक आपत्ति नोट भेजी जानी चाहिए।यह यतीन्द्र जी को देखना चाहिए।
जीवन के अनुभवों से अख़्तरी का जीवन कठोर तरीके से बदल गया।रियाज़ी तो वे थीं लेकिन पारम्परिक- बनावटी रियाज़ उन्होंने कभी नहीं किया।
अर्से बाद किसी फ़नकार से गायिकी की इतनी सच्ची और कसी हुई परिभाषा दी कि गायिकी के लिए रियाज़ से ज़्यादा ज़रूरी चीज़ 'तासीर' और 'सचाई'।बेग़म अख़्तर कहती हैं- 'इंसान ईमानदार हो तो उसके गाने में तासीर पैदा होती है।गाने पर असर ईमान से पड़ता है।सच बोलने, मेहनत करने, दिल पर बोझ न रखने और दिल मे सफ़ाई रखने से सुर सच्चे लगते हैं और आवाज़ खुलती है।'
अपने सुनने-समझने के आधार पर मेरा यह मानना है कि बेग़म अख़्तर ख़रज और 'गमक' तो लेती हैं लेकिन 'मीड़' उनकी गायिकी में बेहद कम है और यह मुझे मुग्ध करता है।छोटी-छोटी मीड़ लेती हैं।लम्बी मीड़ लगाना सब पर अच्छा नहीं लगता।उसमे बनावटी होने का ख़तरा रहता है।बेग़म की गायिकी में 'मीड़' उनके गले की ख़राश और ख़लिश है।
ग़ालिब की ज़बाँ में 'ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता'
इस ख़लिश को बरक़रार रखने के लिए दर्द को बेग़म ने लाइलाज किया।गाती हुई वे अद्भुत ढंग से स्वाभाविक होती हैं।दुनियायावी आत्मस्थ!
ग़ालिब को जितना बेहतर और वैचारिक ऊंचाई से बेग़म अख़्तर ने गाया वैसा शायद किसी ने नहीं गाया।
उनके गाए दादरों के बोल एक ओर लुभावने और दूसरी ओर विरही हैं।किसी और गले में ज़रा सी असावधानी से वे सस्ती-लोकप्रियता में तब्दील हो सकती थीं।बेग़म ने ग़ज़लों में ही नहीं.. ठुमरी-दादरे में विरह की पुकार में दर्प और मनोरंजक आस्वादन वाले आकर्षक बंदिशों में अपनी गायिकी के बल पर गंभीरता भरी है।ऐसी गम्भीरता जो एक ख़ास किस्म के कलावाद से अलग है।एक दादरा जिसे सैकड़ो बार सुना है!
'मोर बलमुआ परदेसिया मोर'
कई-कई बार सुना ..सिर्फ़ 'परदेसिया' और 'मोर' के बीच लगने वाले सुर के लिए।
सिर्फ़ इसी सुर पर शास्त्रीयता जैसे बिखर जाती है और ठेठ 'लोक' रूपाकार ले लेता है।
अख़्तरी बाई ने कला के लिए 'उस्तादी' मेहनत नहीं की इसलिए ऊपरी सुर लगाने में उनका गला टूटता था.. आवाज़ ख़राश देती थी लेकिन ऐसे शास्त्रीय दोषों की चिंता उन्होंने नहीं की।छोटी बहरें वे ख़ूब मन से गाती हैं।आज तो 'ख़राश' एक ग्लैमर बन चुका है।सोच-समझकर ख़राश बनाई जाती है लेकिन बेग़म के समय यह बड़ा दुर्गुण था।बाद में इसी ख़राश उन्हें मौलिकता दी।
'दीवाना बनाना है दीवाना बना दे' ग़ज़ल में गले की टूट और ख़राश सुनने बड़े बड़े गुणी आते थे और उनके मुरीद होते थे।
भावना में बहते हुए भरे मन को एक आंतरिक गाढ़ापन बेग़म को सुनकर मिल सकता है।इस रूप में ऐसी कठोर, निस्संग और निर्लिप्त गायिकी कम हुआ करती है।बेग़म अख़्तर की आवाज़ में कलावादी सम्मोहन नहीं है जो आपको बेवजह बहा ले जाए।भावना के साथ वह एक निस्संग सम्बल देती है इसलिए बेग़म को सुनते बहुत भावुक नहीं हुआ जा सकता।उनकी आवाज़ भीतर स्थिर करती है।तकलीफ़ देती हुई अपनी आवाज़ से जैसे धूप में खड़ा रखती हैं; फिर बाहर निकाल लाती है, आगे बढ़ा देती है!बहलाती और पुचकारती नहीं है !भटकाती नहीं है।इस अर्थ में एक स्तर पर बेग़म अख्तर की गायिकी वैचारिक गायिकी की ओर जाती है।
कठोर उत्तर भारतीय पितृसत्ता के शिकंजे में कोठी की गायिकी कला को इस दर्ज़े पर पहुँचाना उन्हें भारत के दुर्लभ उस्तादों की श्रेणी में खड़ा करता है।
उनके क़रीबी रहे सलीम किदवई द्वारा खींची एक अच्छी तस्वीर!
Wednesday, 6 October 2021
यह लौंगलता है: आवेश तिवारी
यह है लौंगलता। इसका नाम पहले अमृत रखा जाना था लेकिन बाद में किसी मनचले ने लौंगलता रख दिया। गुनांचे हमने दो बरस से नही खाया।
देश मे सबसे अच्छी लौंगलता यूपी के चंदौली जिले में रेलवे स्टेशन के बाहर मिलती रही। लौंगलता की खासियत इसके भीतर भरा खोया और उसमे मिला लौंग होता है।
प्रेमिका को खिला दो तो कभी धोखा नही देगी पत्नी को खिला दो कभी कोई सवाल नही पूछेगी। महिलाएं ,पुरुषों के सामने इसे नही खाती। पुरुष, मित्रों के साथ कम खाते हैं।
लौंगलता की एक खासियत और है यह पत्ते पर लकड़ी के चम्मच से आंख बन्द करके खाने में ही मजा देता है। आंख खोल करके खाएंगे सूक्ष्म आनंद से वंचित रह जाएंगे।
लौंगलता वैसे तो बनारस में बीएचयू गेट पर भी मिलता रहा लेकिन वो गड्ड होता था।
लौंगलता समोसा के फूफा का बेटा है। दोनों को साथ लिया जाना सुंदर है।
लौंगलता ख़ाकर पानी नही पीना चाहिए। थोड़ी देर टहलिए और एक नींद सो जाइये। अच्छा लगेगा।
Tuesday, 5 October 2021
देवव्रत मजूमदार : एक शख्सियत- चंचल बीएचयू
- तुम भूमिहार हो ?
- भूमिहार होना गलती है ? आपके पास अनेक भूमिहार हैं ,और आपकी खूब छनती है ।
- अबे ! हमे तुम्हारी जाति से नही मतलब बस यूं ही । कहकर देबू दा उन मूछों पर ताव देने लगे जो अभी तक उगी ही नही थी । यह उनकी अलग की अदा थी । देबू का मतलब देवव्रत मजूमदार ।
( उन्हें हमारे भूमिहार होने का भरम इसलिए हुआ कि हमारी पुस्तैनी जमींदारी की कुछ जमीन लेने के लिए गांव से कुछ लोग विश्विद्यालय आये थे । ये लोग हमें गांव में, हमे हमारे परिवार को राय साहब बोलते हैं । राय साहब हमारी जाति नही उपाधि है )
काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ का पूर्व अध्यक्ष । अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का हीरो , युवाजनों का अलम्बरदार । शुरुआती दिनों में हम देबू दा के साथ तो हो चुके थे ,लेकिन बेबाकी और बे तकुल्फ़ी तक पहुचने में थोड़ा वक्त लगा । मोहन प्रकाश
( छात्र संघ के अध्यक्ष हुए फिर कांग्रेस के सचिव बने , प्रवक्ता हैं , ) से हमारी जमती और छनती थी । विषयांतर है पर संक्षेप में - जब हम बनारस पहुंचे 71 में तबतक समाजवादी युवजन सभा दो फांक हो चुकी थी । बनारस सयुस और हैडराबक़द सयुस । बनारस गुट के नेता थे भाई मार्कण्डेय सिंह और हैदराबाद गुट के नेता थे मोहन सिंह लेकि बनारस में हैदराबाद गुट का नेतृत्व देबू दा ही करते थे । हम काशी विद्यापीठ के छात्र थे इसी बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह ने एक फरमान जारी कर छात्र संघ भंग कर दिया । आंदोलन शुरू हुआ और हम जेल चले गए । जेल तो अनगिनत लोग गए लेकिन हम चर्चा में इसलिए आये कि मुख्यमंत्री चरण सिंह के मंच पर चढ़ कर उनसे माइक खींच लेना और उन्हें जनतंत्र का हत्यारा कहना , मीडिया में कुछ ज्यादा ही जगह दे दिया । शुक्र की सरकार गिर गयी और नई सरकार आयी पंडित कमलापति त्रिपाठी की । पंडित जी ने छात्रनेताओं पर से मुकदमे हटा लिए हम जेल से छूटे ।
एक दिन भाई मार्कण्डेय सिंह जो उस समय काशी विश्व विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे विद्यापीठ आये और हमे लेकर विश्व विद्यालय चले गए । उसी दिन उन्हें जापान जाना था वे पंद्रह दिन के लिए विदेश रवाना हुए और हम BHU आ गए । खेल किया मोहन प्रकाश जी ने हमे इतना नजदीक कर लिए कि भाई मार्कण्डेय खेमे को यह लग गया कि चंचल फंसा मोहन के जाल में । बहरहाल हम मोहन से मजूमदार तक पहुंचे ।
एक दिन हमने पांडे जी (रामवचन पांडे ) से पूछा - देबू दा बात बात में अपनी मूछ ऐंठते रहते हैं लेकिन मूछ तो है नही ?
- मार्कण्डेय सिंह को देखा है न ? वो इंसान है कि लेलैंड की ट्रक ? सिगरेट सुलगाया नही कि लगते है एक्सीलेटर छोड़ने ? यह प्रकृति के मनोविज्ञान का असर है । मार्कण्डे जितना खींचते हैं उससे ज्यादा छोड़ते हैं , नही समझे ? अगर।कोई मार्कण्डे के साथ आधा घन्टा भी रह ले तो वह समाजवाद समाजवाद बोलने लगेगा । बिष्मार्क हो मुसोलनी आधे घंटे में सब समाजवादी बन जांयगे और अगर कहीं रात भर मार्कण्डे के साथ गुजारनी पड़ जाय तो बिलिब्रान्ट, जार्ज या राजनारायण भी समाजवाद को सल्यूट देकर भाग खड़े होंगे । और वह बेंगाली ? ऐसा भविष्य गढनेवाला इस पृथ्वी पर नही मिलेगा । उसे मालूम हौ एक दिन इसी जगह से मूछ निकलेगी ,जहां वह ताव देता रहता है । वह जिसके कंधे पर हाथ रखदे , समझो वह आजीवन किसी काम का नही रहेगा , केवल राजनीति करेगा । यह बंगाली उसे कहीं भी पहुंचा सकता है ।
- दोनो के बीच का रिश्ता ?
- हाल्ट । हाल्ट बुझते हो ? बरटेंड रसेल की फिलासफी है दोनो एक ही हैं फर्क है दोनो के बीच एक गैप है उसे हाल्ट कहते हैं ।
दो साल के अंदर हम देबू दा के प्रिय लोंगो में हो गए । बनारस और आसपास यह मुहावरा चल पडा ,-
देबू दा की तिकड़ी के तीन खम्बे - राधे, चंचल , मोहन प्रकाश । आपातकाल लगा हम जेल गए तो वहां भी देबू दा हाजिर । गजब की जिंदगी रही । देबू दा बरगद था । सारे अंधड़ , बवंडर खुद झेलता था लेकिन अपनी साख में जुम्बिश तक नही होने दिया ।
आप याद रहोगे देबू दा । भुलाए जाते हैं खोखले ओहदे , तामझाम की तरक्की और पखण्डी दम्भ । मजूमदार तो जीते जी शख्सियत बन गया था , मजूमदार घर घर , सड़क दर सड़क मुहावरा हो चुका था । ये मुहावरे , ये शख्सियतें लम्बी उम्र लेकर चलते है इन्हें पीढियां जिंदा रखती हैं ।
देवब्रत मजूमदार की याद में : सुरेश प्रताप
स्मृति
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देवब्रत मजूमदार की याद में
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मैं उस देवब्रत मजूमदार यानी दादा को जानता हूं जो नब्बे के दशक में बनारस में लगभग प्रतिदिन अस्सी पर आते थे और चुपचाप अपनी स्कूटर पर बैठकर आते-जाते लोगों को देखते रहते थे. तब उनसे मिलने या बातचीत करने वाले लोग कम होते थे. एक जमाना था, जब डाॅ. राममनोहर लोहिया द्वारा चलाए गए "अंग्रेजी हटाओ आंदोलन" के वह नायक थे. तब बीबीसी से उनकी खबरें प्रसारित होती थीं. आज उनकी 16वीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.
यह दुनिया उसी की गीत गाती है जो संघर्ष करते-करते सफल हो जाए. जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गए लोगों की कोई याद नहीं करता.
दौड़ते हुए लोग सामने से आगे निकल जाते हैं. मतलब के सब साथी हैं. उस दौर में मैंने बहुत नजदीक से दादा को देखा है. मैंने उनका वह दौर भी देखा है, जब उनकी एक आवाज पर बीएचयू में छात्र आंदोलन शुरू हो जाता था. फिर विश्वविद्यालय की अनिश्चितकाल बंदी.
दौड़ते हुए लोग सामने से आगे निकल जाते हैं. मतलब के सब साथी हैं. उस दौर में मैंने बहुत नजदीक से दादा को देखा है. मैंने उनका वह दौर भी देखा है, जब उनकी एक आवाज पर बीएचयू में छात्र आंदोलन शुरू हो जाता था. फिर विश्वविद्यालय की अनिश्चितकाल बंदी.
आज स्थिति यह है कि "अंग्रेजी हटाओ आंदोलन" अब अंग्रेजी पढ़ाओ आंदोलन में चुपचाप तब्दील हो गया है. शहर के प्रत्येक मुहल्ले में कांवेंट स्कूल खुल गए हैं. तब कक्षा पांच के बाद स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी और अब नर्सरी से ही abcd.. xyz की पढ़ाई शुरू हो गई है. स्कूल जाने वाले बच्चों के बैग का वजन भी बढ़ा है. हां, कोरोना के कारण इधर स्कूलों में पढ़ाई बाधित हुई तो विकल्प आॅनलाइन का शुरू हो गया है. पहले की अपेक्षा जीवन में प्रतियोगिता बढ़ गई है. उसी के साथ आपस में अविश्वास भी बढ़ा है. परिणाम यह है कि अवसाद अपना पांव धीरे-धीरे बढ़ाते हुए दिल और दिमाग दोनों को अपनी गिरफ्त में समेटता जा रहा है.
यह आश्चर्य की बात है कि जिस कांग्रेस के खिलाफ अपनी नौजवानी में देबू दा संघर्ष किए, उसी में फिर शामिल हो गए. बनारस में शहर दक्षिणी से विधानसभा का चुनाव भी लड़े. जमानत भी नहीं बची. आपातकाल में भी सरकार के खिलाफ लड़े और जेल गए. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी प्रिय लोगों में थे. उ.प्र. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की कमान उन्हीं के हाथ में थी.
जब वे कांग्रेस में शामिल हुए तो उनके साथी ही उनकी आलोचना करते रहे. वह चुपचाप सब कुछ सुनते रहे. यह आश्चर्य की बात है कि बाद के दिनों में सयुस के उनके वही साथी व बीएचयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चंचल कुमार और मोहन प्रकाश भी कांग्रेस का दामन थाम लिए. मोहन तो अब कांग्रेस के प्रवक्ता भी बन गए हैं. समाजवादी आंदोलन जो डाॅ. लोहिया के नेतृत्व में शुरू हुआ था बिखरा तो उससे जुड़े साथी भी इधर-उधर चले गए.
अस्सी पर एक जनरल स्टोर की दुकान के सामने अपनी स्कूटर खड़ा करके कभी स्कूटर पर तो कभी बेंच पर बैठे चुपचाप लोगों को निहारते दादा को मैं देखा हूं. उस दौर को याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उन्हें देखकर लगता था जैसे जंग में हारा हुआ कोई योद्धा हो. हार-जीत तो जिंदगी में लगी रहती है. बाद के दिनों में उनके कई मित्र और शिष्य लोकसभा और विधानसभा तक पहुंच गए. मंत्री भी बने लेकिन दादा बीएचयू कैम्पस से लेकर लंका और अस्सी के बीच ही चक्कर लगाते रहे. यथार्थ में जिंदगी ऐसे ही चलती है.
आदर्श तो किसी आभूषण की तरह होते हैं, जब मन करे उसे पहनकर चल दीजिए या फिर अपने गहने ही बदल लीजिए. अब बाजार में कई डिजाइन के गहने आ गए हैं. उसी तरीके के राजनीतिक दल भी हैं. संघर्ष की राजनीति अलविदा हो गई है. दस महीने से दिल्ली बाॅर्डर पर तीन कृषि बिलों के खिलाफ धरना पर बैठे किसानों को देख ही रहे हैं. उनका क्या हस्र हो रहा है और उनके बारे में मीडिया का क्या कहना है. जब तक संकट आपके दरवाजे पर आकर दस्तक न देने लगे, तब तक चुपचाप दुबके रहिए.
तब अस्सी पर देबू दा सड़क की एक पटरी पर और सामने वाली पटरी पर बीएचयू छात्रसंघ के ही पूर्व अध्यक्ष रामबचन पांडेय खड़ा रहते थे. दोनों अपने जीवन के अंतिम समय में वर्तमान राजनीतिक परिवेश में अप्रासंगिक हो गए थे. आपस में भी इन दोनों नेताओं की बातचीत कम ही होती थी लेकिन देश-दुनिया की राजनीति को लेकर उनकी एक समझ थी. मेरी उनसे अक्सर बातें होती थीं और कभी-कभी मैं उसे अखबार में खबर बनाकर देते भी रहते थे. अब ये दोनों नेता हमारे बीच नहीं हैं. उनकी स्मृतियों को याद करते हुए इन दोनों समाजवादी योद्धाओं को मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.
~ सुरेश प्रताप
Wednesday, 29 September 2021
बेगूसराय के मालिक,दादा,कम्पनी,भगवान,तस्करसम्राट उर्फ कामदेव सिंह - प्रेम कुमार
बेगूसराय के मालिक,दादा,कम्पनी,भगवान,तस्कर
सम्राट उर्फ कामदेव सिंह.
नब्बे के दशक में कोलंबिया के सबसे बड़े ड्रग्स के स्मगलर पाब्लो एस्कोबार के धंधे का सूत्रवाक्य था Plata o Plomo(चांदी या सीसा) मतलब पैसा या गोली शायद उसे यह पता भी नहीं रहा होगा कि उससे बीस साल पहले 1970 के दशक में ही बिहार के बेगूसराय में कामदेव सिंह नामक एक भूप ने इसी सूत्र पर उत्तर भारत का सबसे बड़ा स्मगलिंग का साम्राज्य खड़ा किया था.
जिसके संपर्क सीधे प्रधानमंत्री से मुख्यमंत्री तक थे और वो अपने समय में बिहार का राजनीतिक रुप से सबसे प्रभावशाली बाहुबली माना जाता था.
इंडिया टुडे के पत्रकार फरजंद अहमद ने कामदेव सिंह के बारे में लिखा था कि "उसकी हनक इतनी थी कि वह जिसे चाहते उसके उपर हाथ रखकर माननीय विधायक बनवा सकते थे वह अगर चाहते तो एक चूहे को भी विधानसभा में कानून बनाने के लिए विधायक बनवा कर भिजवा सकते थे."
बेगूसराय को उसकी अनोखी पहचान देने का जनक कामदेव सिंह को ही निर्विवाद रुप से माना जा सकता है.
कामदेव सिंह 1930 में मटिहानी के गंगा दियारा में स्थित नयागांव स्थानीय बोली में लावागाँव में पैदा हुए थे. एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे कामदेव सिंह ने पिता के साथ बैलगाड़ी चलाने से शुरुआत की कहते हैं तत्कालीन मुँगेर जिले में स्थित वर्तमान बेगूसराय के चट्टी बाजार में पल्लेदारी का भी उन्होंने काम किया देर सबेर डकैतों के संपर्क में आए और वहाँ से होते हुए गाँजे की स्मगलिंग के बेताज बादशाह बन बैठे.
उनका नाम गाँजा, इलेक्ट्रॉनिक सामान, स्टील से लेकर यूरेनियम तक की तस्करी में आया था. एक बार पूर्णिया के जोगबनी से यूरेनियम बरामद किया गया जिसकी गहराई से जाँच के बाद यह सामने आया कि वो 'कम्पनी' का था.
कम्पनी मतलब कामदेव सिंह का गिरोह तब दाऊद शायद कच्छे में ही घूम रहा होगा जिसके नाम पर सिनेमा वालों ने कम्पनी शब्द को उपलब्धि के तौर पर बेचा.
कहते हैं उनके साथ एक से डेढ हजार तक लोगों का closely knit समूह था जिसके सदस्य आपस में एक दूसरे को कम्पनी कह के संबोधित करते थे.अप्रत्यक्ष रुप में उनके लिए काम करने वालों की गिनती नहीं थी.
हमने भी अपने लड़कपन में बेगूसराय में लोगों को एक दूसरे को "कि हो कंपनी की हालचाल छौ" कह कर गौरवान्वित होते देखा है.
कम्पनी के पास कारों,ट्रकों,मैटाडोर जैसी गाड़ियों का काफिला था साथ ही कम्पनी के पास दुनाली,बंदूक, राइफल, स्टेनगन जैसे हथियारों और रंगदारों की फौज थी.
सुनने में आता था कि बिहार और नेपाल के बॉर्डर पर कई गांव उनके लोगों से भरे पड़े थे जो सिर पर ही गाँजा ढोकर बॉर्डर पार करा कर गोदाम तक लाते गोदाम में बाकी प्रतिबंधित सामानों को भी जमा किया जाता रहता था. फिर वहाँ से ट्रक द्वारा ये सामान सीधे कलकत्ता तक ले जाया जाता था और वहाँ से आगे.
ट्रक के सामने उपर बने बक्से में उनके लोग बंदूक और नोट लेकर बैठे होते थे संयोगवश रोके जाने पर रुपये या गोली दोनों में एक के दम पर मामला सलट लिया जाता था.हलांकि ऐसा होता कम था क्योंकि कामदेव सिंह की पैठ प्रशासन और पुलिस में सरकार से ज्यादा थी एक अनुमान के अनुसार तब सैकड़ों सरकारी अधिकारी कर्मचारी उनके लिए pay roll पर काम करते थे. सरकारी तनख्वाह से ज्यादा और पहले हरेक के पास कम्पनी का लिफाफा महीने की पहली तारीख को पँहुच जाता था.
बिहार विधानसभा की एक समिति ने अपनी 1974 की रिपोर्ट में कहा था,
"सरकार के विभाग एक दूसरे के खिलाफ काम करते थे पुलिस कामदेव गिरोह को अगर खत्म करना चाहती तो दूसरे कई लोग और विभाग उसे मजबूत करने में लगे थे."
बिहार,नेपाल, उत्तर प्रदेश, बंगाल, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक उनका आपराधिक साम्राज्य फैला हुआ था. उनके outpost विराटनगर, काठमांडू, कलकत्ता, जयपुर और मुंबई में बने हुए थे.मुंबई अंडरवर्ल्ड में उनकी गहरी पैठ थी.
कहा जाता है उन्होंने अपने जीवन में एक सीनियर ब्यूरोक्रेट सहित सौ लोगों की हत्या कराई थी. उनके आपराधिक साम्राज्य के खिलाफ खड़े हुए कस्टम कलेक्टर एस एन दासगुप्ता की जयपुर में हत्या कर दी गई थी.
सरकारी अधिकारी से नेता जो उनके साथ आया उसकी किस्मत चमकी खिलाफ गया तो खत्म हुआ.
कम्युनिस्टों के खिलाफ उनकी नफरत का सानी नहीं था कहा जाता है कि सिर्फ बेगूसराय में कामदेव सिंह ने 40 के करीब कम्युनिस्ट लोगों की हत्या कराई थी सत्तर के दशक के पहले से उनके समय से ही बेगूसराय में वर्चस्व के लिए काँग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच खूनी खेल शुरु हुआ था जिसमें एक पीढी के सैकड़ों नौजवान बेगूसराय जिले में मारे गए.
1970 के दशक में बिहार में काँग्रेस की सरकार थी और सरकार में कामदेव सिंह के लिए काम करने वाले और उनसे जुड़े लोगों की गिनती निश्चित नहीं की जा सकती थी.
दूसरी तरफ कामदेव सिंह अपने इलाके के गरीब लोगों के लिए भगवान का रुतबा रखते थे कहा जाता है कि हर साल सौ गरीब लड़कियों की शादी अपने खर्चे पर कराते थे.हारी बीमारी, दुर्घटना, आपदा झेल रहे अपने इलाके और उनसे जुड़े लोगों के लिए वो पैसा पानी की तरह बहाते थे इसी वजह से अपने इलाके के लोगों के लिए वो रॉबिनहुडीय आभामंडल रखते थे.
लोगों का हुजूम और गांव के गांव उनके लिए स्लीपर सेल के रुप में काम करते थे.
यही कारण है कि वो अपने मरने तक येति की तरह एक अदृश्य शक्ति बने रहे. जीते जी एक ही बार गिरफ्तार हुए वो भी नेपाल में और वहीं नेपाल सरकार से डील कर निकल भी गए.
क्रमशः
(उनकी मौत के समय मैं नौ दस बरस का था घर में रविवार, दिनमान,माया जैसी पत्रिकाएं बड़े भाई लगातार लाते थे बाकी सारे संबंध और जीवन बेगूसराय से ही जुड़े हैं सो इनके बारे में हक से लिखना सामान्य बात है.)
सम्राट के मौत की दंतकथा: प्रेम कुमार
सम्राट के मौत की दंतकथा- प्रेम कुमार
मार्च 1995 में हुए विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद सम्राट के जलवे और गतिविधियों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा था,वे पहले की ही भांति अपनी पसंदीदा सवारी मारुति वैन पर 47 के साथ पूरे बिहार में दनदनाते घूमते और अपने बेतहाशा बढ़ चुके रंगदारी के साम्राज्य की देखरेख करते थे.
लेकिन उन्हें इस बात का थोड़ा अंदाजा भी हो गया था कि नए निजाम के मसीहा लालूजी की हुक्मउदूली के बाद उनके लिए आगे आने वाला समय कठिन होता जाने वाला था.
इसी वजह से उस दौर के मुजफ्फरपुर में भूमिहार रंगदारों के बरक्स उभरे पिछड़ों के खेमे के रंगदार बृजबिहारी प्रसाद से उन्होंने हाथ मिला लिया था.
इसका एक कारण यह भी था कि मिनी नरेश की हत्या में चंद्रेश्वर सिंह के साथ मुजफ्फरपुर के छोटन शुक्ला भी शामिल थे जो चंद्रेश्वर सिंह की हत्या के बाद मुजफ्फरपुर में बेगूसराय के रंगदारों की खिलाफत वाले गुट का नेतृत्व कर रहे थे ऐसे में दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाला भाव भी था.
दूसरे बृजबिहारी प्रसाद से लालू जी की करीबी छुपी बात नहीं थी,कहा जाता है कि बृजबिहारी प्रसाद के द्वारा सम्राट ने लालूजी तक एक पुल बनाने की कोशिश भी की थी.
चूंकि लालूजी उस समय अपने उठान के दौर में थे सो उनके लिए भी अपनी इमेज को बूस्ट करने के लिए तत्कालीन बिहार के सबसे बड़े भूमिहार बाहुबली को गिराना ज्यादा मुफीद था क्योंकि ऐसा होने पर मैसेज जरा लाऊड एंड क्लियर होता सो उन्होंने बृजबिहारी की पेशकश ठुकराते हुए शायद कहा था,न हो एकरा त जाहीं के पड़ी.
इन सूरतेहाल में भी सम्राट अपने रेलवे के गोरखपुर से लेकर बंगाल तक के ठेकों को मैनेज करते हुए दनदनाते फिर रहे थे.
बृजबिहारी द्वारा भेजे गए अपने फीलर पर नकारात्मक उत्तर के बावजूद शायद उनका यकीन था कि अपने 47 के जखीरे के दम पर वो पाँच साल निकाल ले जाएंगे और फिर 2000 के विधानसभा चुनावों में कुछ खेल किया जा सकता है सो उन्होंने अपने आप पर कोई खास रिस्ट्रीक्शन नहीं लगाया ये अतिआत्मविश्वास ही रहा होगा.
ऐसे में ही मई 1995 में रेलवे के सोनपुर डिवीजन में एक बड़ा टेंडर होने वाला था जिसे मैनेज करने वो अपने दल बल के साथ गए.
उसी दौर में हाजीपुर के रामा सिंह भी खासे बाहुबली का रुतबा हासिल कर चुके थे.सम्राट और रामा सिंह में कहा जाता है अच्छी दोस्ती थी लेकिन रामा सिंह सम्राट के साए से हटकर कुछ ज्यादा बड़ा खेलना चाहते थे और ये भी कहा जाता है कि लालूजी के अदृश्य टहोके ने भी रामासिंह के पीठ पर जलन पैदा कर रखी थी सो रामासिंह ने सम्राट के सोनपुर आने की खबर सत्ता को लीक कर एक लीक से दो निशाने साध लिए.
इसी परिदृश्य में 5 मई 1995 को सम्राट अपने दलबल सहित हाजीपुर इंडस्ट्रियल एरिया की अपनी बैठकी से मारुति वैन में निकलते हुए दलबल सहित घेर लिए गए सामने रिवाल्वर, पिस्टल और थ्री नॉट थ्री राइफल से लैस पुलिस जीप अड़ी थी.
थोड़ी देर तक आँखों में आँखें डालने वाले रोमांटिसिज्म के बाद मारुति वैन के अंदर से ऑटोमेटिक राइफल, कारबाइन और 47 से फायरिंग शुरु कर दी गई.
सम्राट के काफिले की खासियत ये कही जाती थी कि वो गोलियां चलाने में कतई कंजूसी नहीं बरतते थे सो थोड़े ही समय में वैन निकाल लेने में कोई खास परेशानी उन्हें नहीं हुई.
अब बिहार पुलिस की जीप पीछे और आगे फायरिंग करती मारुति वैन हाजीपुर के रजौली के पास छितरौरा गांव तक आ पँहुची यहाँ वैन बंद हो जाने के कारण सब उतर कर भागने लगे लेकिन फायरिंग बेतहाशा करते रहे उसमें भी 47 सबसे ज्यादा प्रयुक्त हो रही थी सो चार पांच गांव वालों को भी गोली लग गई जिनमें एक की मौत हो गई.
ऐसे में गांववालों का मॉब भी इनके पीछे लग लिया और पुलिस तो पीछे थी ही. भागाभागी के दौरान बचने के लिए सब एक झोपड़ी में घुस गए और चूंकि अंदर से लगातार फायरिंग कर ही रहे थे सो गांववालों ने झोंपड़ी में आग लगा दी और इस तरह झोंपड़ी के अंदर लोग जल कर मर गए काफी देर बाद पुलिस ने स्थिर किया कि मरने वालों में सम्राट भी थे.
5 मई 1995 के बारह बजे दिन से शुरु हुआ यह खेल चार साढ़े चार बजे तक खत्म हुआ.
गौरतलब है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक व्यक्ति पुलिस के हाथ लगा बताया जाता है और एक भागने में सफल रहा जो बहुत दिनों तक बेगूसराय की धरती पर जिंदा रहा था और सम्राट सहित तीन लोग मारे गए थे.
हम जैसे लोग जो 1995 में बीए पास कर चुके थे ने तब से सम्राट की मौत का यही वर्सन बेगूसराय की अनेक बैठकियों में सुना.
यूट्यूब आने के बाद के दौर में हमने शशिभूषण जी जो उस समय इंस्पेक्टर थे के माथे सम्राट को मारने का सेहरा सजाए जाते देखा.
उनका एक इंटरव्यू बिहार के स्वनामधन्य तथाकथित एक बड़े पत्रकार द्वारा लिया जाता देखा जिसमें हम जैसे मोटी बुद्धि वालों को भी ये लगातार अहसास होता रहा कि पत्रकार महोदय इंस्पेक्टर साब से ज्यादा उत्साहित हैं और उनके आगे आगे चूना गिराने वाले की भूमिका निभा रहे हैं जिसपर इंस्पेक्टर साब को इंटरव्यू के दौरान चलना है.
बाकी सम्राट के घरवालों ने बॉडी क्लेम की थी उनका भी यही मानना था कि शरीर तो बुरी तरह झुलसा हुआ था वो जल कर मरे उन्हें न अपराधी मार पाए न पुलिस.
मार्च 1995 से 5 मई 1995 के बीच ही पटकथा लिखी गई,मंचन भी हुआ और पर्दा गिर भी गया.
बकिए सत्ता सरकार तो चमत्कारी चीज होती है वो तो सरंग में भी सीढी बाँधने का टेंडर निकाल कर उसे पूरा कर देने वाले ठेकेदार को पेमेंट भी कर सकती है.
सम्राट की मौत को सोचते हुए अँग्रेजी राज में शेर का शिकार कर उसके शरीर के पीछे ऊँची कुर्सियों पर बैठे ढ़ेर सारे कुलीन दावेदारों के चेहरे दिमाग में कौंध जाते हैं जबकि हाथी पर हौदे में सुरक्षित बैठे इन कुलीनों के बरक्स जंगल की जमीन पर दौड़ दौड़ कर हांका लगाने, भाला चलाने वाले साधारण लोग फ्रेम में कहीं दूर दूर तक नजर नहीं आते.
सनद रहे की उस जमाने में एके 47 का पूर्ण उदारता से प्रयोग कर रहे बिहार के सबसे बड़े डॉन और रंगदारों से चार घंटे तक चली मुठभेड़ में शायद एक भी पुलिसकर्मी हलाक नहीं हुआ था.
ये मेरे द्वारा बेगूसराय की तरफ मुँह कर के देखा और जीया गया सच है इससे सहमति बिल्कुल जरुरी नहीं पर प्रतिक्रिया देते हुए संयम रखना बहुत जरुरी है.
#सम्राटकथा7
- प्रेम कुमार
सम्राट से राजनेता तक का अपशकुनी सफर- प्रेम कुमार
सम्राट से राजनेता तक का अपशकुनी सफर.
सम्राट बेगूसराय में उस दौर की पैदाइश थे जब यहाँ की राजनीति काँग्रेस वर्सेस कम्युनिस्ट के इर्दगिर्द चलनेवाला खूनी खेल बनी हुई थी.
उनका परिवार तो कहा जाता है कि कम्युनिस्ट समर्थक था लेकिन सम्राट खुद काँग्रेस के प्रति झुकाव रखते थे.
अपने जलवे के उठान के समय सम्राट तत्कालीन बिहार की लगभग आठ से नौ जिलों के चुनाव को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करने की कुव्वत रखते थे और अप्रत्यक्ष तौर पर तो वर्तमान झारखंड तक गहराई से चुनाव की दिशा बदल देते थे.
बेगूसराय जेलकांड में काँग्रेस के बड़े बाहुबली किशोर पहलवान की हत्या के बाद काँग्रेस के लिए सम्राट ही तारणहार थे जो तत्कालीन कम्युनिस्ट खेमे में गोलबंद हुए ढेर सारे रंगदारों को अकेले संतुलित कर पा रहे थे उनका होना ही विपक्षी खेमे की रीढ़ में झुरझुरी पैदा करने के लिए काफी था.
मुजफ्फरपुर के काँग्रेसी नेता हेमंत शाही से सम्राट के बड़े गहरे रिश्ते थे.
सम्राट काँग्रेस के लिए चुनाव में सारे धतकरम कर रहे थे और उनके दम पर बेगूसराय,समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, हाजीपुर, खगड़िया, पटना, नवादा, लखीसराय से लेकर कई सारे जिले काँग्रेसी गढ़ बने हुए थे ऐसे में उनकी महत्ता स्वयंसिद्ध थी.
रंगदारी के साथ उनकी रॉबिनहुडीय छवि की वजह से भी उनके समर्थकों की एक विशाल संख्या थी.
गौरतलब है कि 1990 में लालू यादव जी के सामाजिक न्याय का युग बिहार में शुरु हो गया था फलतः बिहार में भूमिहार और राजपूत जैसी जातियों के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ पिछड़ी जातियों की प्रतिसंतुलनकारी प्रक्रिया पूरे जोर पर थी जिसे सत्ता का समर्थन स्वाभाविक ही था क्योंकि नई सत्ता शक्तियों को भी सभी क्षेत्र में अपने लोग तो चाहिए ही थे.
ऐसे में ही 28 मार्च 1992 को गोरौल में अंचलाधिकारी के कार्यालय पर विधायक व काँग्रेसी नेता हेमंत शाही की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई.
हेमंत शाही की हत्या में नामजद जयमंगल राय को कुछ ही दिनों बाद लालूजी ने भरी सभा में सामाजिक कार्यकर्ता बताया,मतलब आने वाले भविष्य की आहट समझने का वक्त आ चुका था.
1993-94 के आसपास सम्राट की शादी के बाद उन्होंने धीरे धीरे राजनीति के टूल बने रहने की बजाय खुल कर खुद ही राजनीति में आने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरु कर दिया था.
परिस्थितियाँ भी 360 डिग्री पर घूम चुकी थीं.
लालूजी के साथ गठबंधन के बाद 1990 के चुनावों में ही कम्युनिस्ट पार्टी बेगूसराय की सातों सीटें जीत चुकी थी फलतः बेगूसराय में कम्युनिस्टों का मनोबल सातवें आसमान पर था और उनसे जुड़े रंगदार आसमानी सुरक्षा भी महसूस कर रहे थे.
कहा जाता है कि लालूजी को तत्कालीन बिहार में सम्राट का प्रभाव भी बड़े गहरे तक खटक रहा था,वे बाहुबली चाहते तो थे लेकिन खुद का गढ़ा बनाया हुआ.
सो इसी दौर में गुप्तेश्वर पांडे बेगूसराय के एसपी बना कर भेजे गए जिले में 42 एनकाउंटर करने के बावजूद वो सम्राट की छाया को भी छू न पाए इसी से तब भी सम्राट के जलवे का अंदाजा लगाया जा सकता है.
ऐसे में ही तत्कालीन Telegraph अखबार में 1994 के अंत के आसपास सम्राट का साक्षात्कार छपा जिसमें उन्होंने कहा था,
"नेता हमारी मदद से बूथ कैप्चर कराते और कमजोरों को डराते हैं लेकिन जीतने के बाद उन्हें सामाजिक सम्मान और सत्ता मिल जाती है उसे भोगते हुए भी वो अलोकप्रिय ही रह जाते हैं और फिर अगले चुनाव में हमारी ही शरण में आते हैं जबकि हम क्रिमिनल के तौर पर ही ट्रीट किए जाते हैं.
हम क्यों उनकी मदद करें जब हम खुद ही चुनाव लड़ कर वही हथियार अपने लिए अपना कर जीतने के बाद एम एल ए ,एम पी बनकर सामाजिक सम्मान, सत्ता इंजॉय करते हुए उनसे बेहतर काम कर सकते हैं.
इसलिए मैंने राजनीतिज्ञों को मदद देना बंद कर के खुद ही चुनाव लड़ने का मन बनाया है."
ऐसा माना जा सकता है कि लालूजी की मर्जी के बगैर ऐसा बाहुबली सर उठा रहा था जो सीधे राजनीति में प्रवेश चाह रहा था. बाहुबली से विधायक बनने का कायदे से सूत्रपात सम्राट ने ही कर दिया था ऐसे में इस नवप्रवर्तन को परंपरागत सत्ता संस्थान कैसे बर्दाश्त करती.
बेगूसराय में तो वामपंथियों ने लालूजी के साथ गठबंधन में पूरी फील्डिंग सेट कर रखी थी और 90 के चुनाव में ही सातों सीट हथिया लिया था.
ऐसे में 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों में सम्राट ने मुजफ्फरपुर के कुढ़नी विधानसभा सीट का रुख किया जहाँ उनकी ससुराल भी थी.
तत्कालीन अगड़ों की राजनीति के नए उभरे हीरो आनंद मोहन सिंह ने अपनी नई बनाई बिहार पीपुल्स पार्टी से उन्हें टिकट का वादा भी किया लेकिन कहा जाता है ऐन वक्त पर लालूजी के अदृश्य टहोके से पीठ दिखा मुकर गए.
सम्राट ने कहा जाता है कि ऐलान किया पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं है.
सो मार्च 1995 के विधानसभा चुनावों में बेगूसराय के सम्राट मुजफ्फरपुर जिले की कुढ़नी सीट से निर्दलीय ही अपने मूल नाम अशोक शर्मा के साथ चुनाव में उतरे.
उस इलाके के लोगों का भी कहना है कि परंपरागत राजनेताओं की तुलना में ज्यादा संभावनाएँ उनके बात व्यवहार में नजर आती थी.
गरीबों के प्रति पैसा बहा देने वाली प्रवृत्ति के साथ ही युवाओं को चुंबक की तरह आकर्षित करने का गुण शायद उनमें जन्मजात था.
लेकिन चुनावों के परिणाम के बाद निर्दलीय अशोक शर्मा उर्फ सम्राट 25124 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर थे और लालूजी की जनता दल के बसावन प्रसाद भगत 56604 वोटों के साथ जीते.
चुनाव के परिणाम खतरे की घंटी के साथ ही आए,कोप अब सम्राट को प्रत्यक्ष तौर पर झेलना था क्योंकि नए निजाम के मसीहा की सरेआम हुक्मउदूली हो चुकी थी.
क्रमशः
#सम्राटकथा6
सम्राट इश्क से शादी तक :प्रेम कुमार
सम्राट इश्क से शादी तक.
अशोक शर्मा से सम्राट बनने के सफर में उनका पारिवारिक जीवन जैसा जो भी कुछ था वो करीब करीब पूरी तरह खत्म सा ही हो गया था,परिवार से नाममात्र का संपर्क रहता था.
सम्राट के लिए रंगदारी पैशन थी सो उनके सहयोगियों और मित्रों के बीच ही उनके उस जीवन का पूरा समय गुजरता था.
उन्हें किसी भी चीज के बारे में इतमीनान से पूरी तफसील से योजना बनाने और फ्रंट से लीड कर के बिल्कुल टू द प्वाइंट उसे क्रियान्वित करने का जुनून सा था.
सम्राट बिल्कुल आधुनिक वेशभूषा रखने वाले अपने समय के बड़े सजीले से नौजवान थे,कहते हैं उनसे मिलने और बात करनेवाले को कतई यकीन नहीं होता था कि वही उस समय के बिहार के सबसे बड़े डॉन थे.
मेरे बचपन का जिगरी दोस्त जो मुजफ्फरपुर में रहता था और उन्हें बहुत प्रिय था के साथ मैं जब पहली बार 92-93 के लगभग एल एस कॉलेज के न्यू हॉस्टल में उनसे मिला था तो उन्होंने सीधे पूछा
'काहे भेंट करयले चाहय रहीं हमरा सै'
मेरे थोड़ा झिझकने पर उन्होंने जो कहा उसका लब्बोलुआब यही था कि बढ़िया घर से हो बाहर पढ़ते हो जाओ पढ़ो लिखो इन सबसे जितना दूर रहोगे उतना ही बेहतर जीवन होगा.
इस आधे घंटे की मुलाकात में पहली और आखिरी बार ए के 47 को हाथ में लेकर देखने के रोमांच के साथ उनका सजीलापन आज भी मेरी आँखों में जीवंत है एक पल के लिए भी लगा ही नहीं कि वो इतने बड़े क्रिमिनल थे.
1992-93 के आसपास ही कहते हैं सम्राट को प्यार हुआ चूंकि वो सामान्य सी जिंदगी तो जीते नहीं थे सो इस बहुत सामान्य सी चीज के बारे में भी बड़ी असामान्य सी थ्योरियाँ कही सुनी जाने लगी थीं.
जबकि बात बस इतनी सी थी कि तत्कालीन पटना के श्रीकृष्णापुरी मुहल्ले में रहने वाले किसी विभाग के एक्जक्यूटिव इंंजीनियर साहब के यहाँ उनका ठेकों के सिलसिले में अक्सर आना जाना था.
इंंजीनियर साहब की पटना वीमेंस कॉलेज में पढ़ रही बेटी की नजरें सम्राट से मिलीं और वो दिल हार बैठीं.
जाहिर है इंजीनियर साहब विरोध में थे और कहते हैं सम्राट ने भी टालने की भरसक कोशिश की लेकिन कन्या उनपर बुरी तरह रीझ गई थीं.
इंजीनियर साहब मूलतः मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी प्रखंड के चन्द्रहट्टी कमतौल गांव के रहनेवाले थे.कुढ़नी विधानसभा से ही सम्राट ने शादी के बाद 1995 का इलेक्शन भी लड़ा था.
बहरहाल 1994 के शायद फरवरी मार्च के आसपास सम्राट ने उस लड़की (दिव्या) से शादी कर ली.
शादी कुछ बेहद करीबी लोगों के बीच सादे तरीके से हुई और बदले में एक भव्य रिसेप्शन का आयोजन उनके पार्टनर और मित्र रतनसिंह के बेगूसराय तिलरथ स्थित आवास पर हुआ था.
मैं अपने जिगरी दोस्त के साथ वहाँ भी गया था.
उनके रिसेप्शन में मैंनें तत्कालीन बिहार की राजनीति में उनके प्रभाव को साफ साफ महसूस किया था.
तिलरथ में रतनसिंह के घर के सामने वाली सड़क पर बरौनी ब्लॉक की तरफ जाने वाली दिशा में लालबत्ती लगी सफेद एंबेसडर कार जो उस समय सत्ता की प्रतीक हुआ करती थी की लाइन लगी थी जो करीब करीब डेढ दो किलोमीटर तक चली गई थी,वैसे ही बेगूसराय शहर की तरफ आने वाली दिशा में वर्तमान जुबिली पंप तक गाड़ियों की वैसी ही रेलपेल थी.
सम्राट लकदक सफेद सूट में सजे रतनसिंह की घर के सबसे उपरी छत पर सामने पोर्टिको वाले हिस्से के उपर रेलिंग के पीछे चार पांच हथियारबंद सहयोगियों से घिरे हाथ हिलाते हुए खड़े थे.
नीचे मेनगेट से घुसते ही उपर खड़े होकर वेव करते सम्राट पर नजर जाती थी लोग कृतार्थ महसूस करते हुए सामने मजबूत रॉड की घेरेबंदी के पीछे बने मंच पर बैठी दुल्हन के सम्मुख पँहुचते रॉड के बीच से हाथ घुसा कर बड़े से टेबल पर नजराने रखते और दाहिनी तरफ बने विशाल पंडाल के अंदर भीड़ में गुम हो जाते.
उस दिन तत्कालीन बिहार और बेगूसराय के राजनीति और प्रशासन के न जाने कितने ही अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को मैंने सम्राट के हाथों की जुंबिश मात्र से कृतकृत महसूस करते हुए भीड़ में गुम हो कर आम हो जाते देखा था.
पार्टी और विचारधारा की सारी बंदिशें टूट गई थीं लोग बस उनकी एक नजर पड़ जाने को ही उपलब्धि मान बाकी के रस्म रिवाज निभा लौट रहे थे.
ऐसा करीब चार पाँच घंटों तक तो मैंनें देखा था,अगर कागज कलम ले नोट करने पर आ जाता तो उस दिन तत्कालीन बिहार के VVIP's की who's who की लिस्ट बन जानी थी.
ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि तत्कालीन बेगूसराय, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, खगड़िया, लखीसराय से लेकर अन्य ढ़ेर सारे जिलों में इलेक्शन को वो गहरे तक प्रभावित करने की कुव्वत रखते थे.
सनद रहे की ये लालूजी के उठान का दौर था.
शादी उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई क्योंकि इसके बाद ही उन्होंने एकाएक खुलकर राजनीति में आने का फैसला किया जो उन्हें तो नहीं फला लेकिन उसके बाद अनगिनत लोगों ने क्राइम से पॉलिटिक्स का सफर धूमधाम से तय किया,इस मामले में भी वो ट्रेंडसेटर ही थे.
क्रमशः
#सम्राटकथा5
सम्राट का इकलौता बदला: प्रेम कुमार
सम्राट का इकलौता बदला.
सम्राट शुद्ध रंगदार थे और उनमें बस रंगदारी के लिए ही एक जबरदस्त पैशन था वो किसी अन्याय और दमन से मजबूर हो कर इस लाईन में नहीं आए थे.
सो इस मामले में वो बिल्कुल ईमानदार थे इसी वजह से उन्होंने छुटभैय्यों वाले अपराध की जगह हमेशा उस समय की प्रचलित लीक से हट कर बड़ा सोचा.
इसलिए वो कभी बदला,इंतकाम जैसी बकवाद भी नहीं करते थे उन्होंने अपनी बैठकी में भी इस बारे में कई बार खुल कर कहा था कि शुद्ध बदले की भावना से तो मैंने बस एक ही खून किया चंद्रेश्वर सिंह का.
लेकिन उनके बदले की भावना कितनी इंटेंस थी ये बस इसी से समझा जा सकता है कि साल भर से अपने पास मौजूद ए के 47 का पहली बार प्रयोग उन्होंने खुलकर इसी में किया और ये बिहार पुलिस के फाइलों में इतिहास बन कर दर्ज हो गया क्योंकि ये तत्कालीन लगभग पूरे उत्तर भारत में पहली बार किसी क्रिमिनल एक्टिविटी में 47 का प्रयोग था नहीं तो इसके पहले तक आतंकवादी घटनाओं में ही इस हथियार के प्रयोग किए जाने के समाचार थे.
मुजफ्फरपुर में अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध मे बेगूसराय के रंगदारों का स्वर्ण काल था.
मिनी नरेश एल एस कॉलेज के पी जी ब्वॉयज हॉस्टल पाँच(न्यू हॉस्टल)से अपने रंगदारी का साम्राज्य चलाते थे. चूंकि उनके पहले मोंछू नरेश का जलवा था इसलिए उनके बाद आए नरेश को मिनी नरेश कहा जाने लगा था.
मिनी नरेश बेगूसराय के रहाटपुर गांव के थे और जबरदस्त रोबीले व्यक्तित्व के धनी आदमी थे.
हँसी आती है,कई जगह स्वनामधन्य पत्रकारों द्वारा सम्राट को मिनी नरेश का आका कहते या लिखते देखा है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं था.
सम्राट उस समय बेगूसराय से उभरे बिहार के सबसे बड़े डॉन जरुर थे लेकिन मिनी नरेश से उनका रिश्ता 'भैय्यारी' वाला था.
ये शब्द हमारे बेगूसराय में तकरीबन एक उम्र के भाईयों के बीच याराने जैसे रिश्ते के लिए प्रयोग किया जाता है.
सम्राट ने जब मुखिया से दुश्मनी के बाद कुछ समय के लिए बेगूसराय छोड़ा था तो उस दौर में मिनी नरेश के साथ मुजफ्फरपुर के एल एस कॉलेज न्यू हॉस्टल में ही ज्यादातर रहते थे और फिर तो वह हमेशा उनका पसंदीदा अड्डा रहा जो मिनी नरेश की हत्या के बाद ही उखड़ा.
बेगूसराय वालों की रंगदारी के साम्राज्य के विरोध में समानांतर मुजफ्फरपुर के स्थानीय रंगदारों को मोतिहारी से मुजफ्फरपुर के छाता चौक पर आ कर बसे चँद्रेश्वर सिंह ने अपने झंडे के नीचे जमा किया था जिसमें छोटन शुक्ला भी थे.
छोटन,भुटकुन और मुन्ना शुक्ला तीन भाई थे जिनमें अब मुन्ना ही बचे हैं.
न्यू हॉस्टल में तब मिनी नरेश की सरपरस्ती में जबरदस्त सरस्वती पूजा होती थी सो उसी की गहमागहमी का फायदा उठा कर चंद्रेश्वर सिंह ने पूरे दलबल और तैयारी के साथ बमों से जबरदस्त हमला किया और ऐन सरस्वती पूजा के दिन 1989 में मिनी नरेश की हत्या कर दी.
मिनी नरेश का शव बेगूसराय के उनके गांव लाया गया था और सिमरिया में उनका दाह संस्कार हुआ जिसमें सम्राट भी मौजूद थे. सम्राट का उसके बाद भी उनके जिंदा रहने तक मिनी नरेश के परिवार से प्रगाढ़ संबंध बना रहा.
कहते हैं मिनी नरेश की हत्या के एक डेढ़ महीने बाद सम्राट न्यू हॉस्टल गए थे और उनके ही कमरे में चार पांच दिन रुके भी. बताते हैं कि उस समय लड़कों के बीच बैठकियों में वो बार बार दुहराते थे
'साल पुरयत पुरयत मायर तै देबय'
(साल पूरा होते होते मार तो दूँगा ही)
ठीक 364 दिन बाद शाम को सम्राट मुजफ्फरपुर के छाता चौक स्थित काजीमोहम्मदपुर थाने के बिल्कुल उल्टी तरफ सौ डेढ़ सौ मीटर दूर मारुति वैन में कारबाईन लेकर बैठे थे और उनके सामने ही थाने के बगल स्थित अपने घर से निकल चँद्रेश्वर सिंह सड़क पर आए भी लेकिन सम्राट बिना गोली चलाए वापस न्यू हॉस्टल चले आए और पूछे जाने पर पहले तो कहा कारबाइन जाम हो गया था सो गोली नहीं चली.
लेकिन रात की बैठकी में कहा कल सरस्वती पूजा है कल एक साल पूरा होगा सो कल ज्यादे 'धूमधाम' सै मारबय.
अगले रोज 1990 की सरस्वती पूजा के दिन छाता चौक पर फिर उसी जगह सम्राट मारुति वैन में बैठे पर इस बार ए के 47 लेकर.
बताते हैं उस दिन झुटपुटा सा अँधेरा घिरने तक चँद्रेश्वर सिंह नहीं निकले और सम्राट इंतजार में,अचानक किसी ने वैन के शीशे पर दस्तक दी 'निकललौ' बोलता हुआ आगे बढ़ गया.
चंद्रेश्वर सिंह ने शायद सिगरेट जलाई थी जिसकी रोशनी में उनका चेहरा चमका और अगले ही पल 47 की तड़तड़ाहट से पूरा इलाका थर्रा गया.
डर से हड़कंप में काजीमोहम्मदपुर थाने के स्टाफ ने अपने आपको अंदर बंद कर लिया जो सब शांत होने के आधे घंटे बाद बाहर आए.
चँद्रेश्वर सिंह गोलियों से छलनी पड़े थे पोस्टमार्टम में बताया गया लगभग तीस के करीब गोलियां उन्हें मारी गई थीं.
ए के 47 के स्टैंडर्ड मैगजीन में तीस गोलियां ही आतीं हैं मतलब एक बर्स्ट में एक मैगजीन खाली की गई थी.
सरस्वती पूजा की धूम और ए के 47 की धाम में सम्राट का बदला पूरा हुआ.
इसके साथ ही बिहार पुलिस की फाईलों में बिहार में ए के 47 से पहली हत्या भी दर्ज हो गई थी.
क्रमशः
#सम्राटकथा4
बेगूसराय के सम्राट ने गंगा के पानी पर खींची थी अपने साम्राज्य की लकीर. :प्रेम कुमार
बेगूसराय के सम्राट ने गंगा के पानी पर खींची थी अपने साम्राज्य की लकीर.
नब्बे का आधा दशक अशोक सम्राट के जलवे का चरम था.सम्राट शुरु से ही बेगूसराय को अपने लिए अभेद्य दुर्ग के तौर पर बरतते रहे थे और इसी से उन्होंने बेगूसराय के प्राइड को भी जोड़ लिया था.
कहते हैं एक बार अपनी बैठकी में उन्होंने कहा था बेगूसराय मतलब गंगा के उपर बने राजेंद्र पुल से समस्तीपुर जिले के पहले स्थित बेगूसराय के आखिरी गांव रसीदपुर तक,यानि इस बीच के पूरे इलाके पर किसी भी बाहरी के पैर जमाने की तो बात दूर रही हस्तक्षेप भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा मतलब बेगूसराय बेगूसराय वालों के लिए.
इसी लाइन पर चलते हुए सम्राट का आमना सामना मोकामा के सूरजभान सिंह से हुआ.
अस्सी के दशक में मोकामा में छोटे मोटे अपराध से उभरे सूरजभान सिंह ने सबसे पहले अनंत सिंह के बड़े भाई कांग्रेस नेता दिलीप सिंह की सरपरस्ती हासिल की फिर अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत श्याम सुंदर सिंह धीरज के पाले में चले गए.
सूरजभान सिंह से सम्राट के टकराने के कई पुष्ट अपुष्ट कारण बताए जाते हैं.
जैसे मोकामा में हुई सूरजभान सिंह के भाई मोती सिंह की हत्या में सम्राट की सहमति का होना, तत्कालीन बेगूसराय के कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े शूटर और जेलकांड के नामजद अभियुक्त मनोज सिंह से सूरजभान सिंह के नजदीकी रिश्ते.
जबकि टकराव की जड़ में सूरजभान सिंह की अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने की स्वाभाविक इच्छा और दुर्भाग्य से सामने सम्राट जैसे दुर्दम्य व्यक्ति का होना ही था.
तत्कालीन उत्तर बिहार में रिफाइनरी से लेकर रेलवे तक काम करने वाली दो बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनियां बेगूसराय की ही थी.
पहली रीता कंस्ट्रक्शन जो भाजपा नेता बीहट के राम लखन सिंह की थी और दूसरी कमला कंस्ट्रक्शन जो तिलरथ के रतनसिंह की थी.
सारे भीमकाय ठेकों में इन्हीं दोनों कंपनियों का टकराव होता था.
रतनसिंह के साथ अशोक सम्राट थे सो जाहिर है कमला कंस्ट्रक्शन का डंका बज रहा था ऐसे में रीता कंस्ट्रक्शन वाले रामलखनसिंह ने सूरजभान सिंह को साथ खींचा वहीं सूरजभान भी अपनी उड़ान के लिए मोकामा से ज्यादा बड़ा आकाश ताक रहे थे सो वो भी साथ आए.
बस यहीं से तलवारें खिंचीं जो सम्राट के जीते जी सूरजभान सिंह पर भारी ही पड़ती रही.
सम्राट ने साफ कर दिया कि बेगूसराय में बाहर से रंगदार आ कर कुछ कर ले जाएँ ये उनके रहते संभव नहीं.
इसी बीच कुछ गुणा गणित बिठाने के चक्कर में बेगूसराय के मधुरापुर गांव में रामी सिंह की हत्या हुई नाम उछला सूरजभान सिंह और सहयोगियों का.
इसके पहले तक सम्राट ने सूरजभान सिंह को छोटे मोटे झटके दे कर ही गंगा के उस पार तक बाँध रखा था अब उन्होंने निर्णायक चोट करने की योजना बनाई.
सम्राट मेरे जानने में विरले ऐसे रंगदार थे जिन्होंने सबसे ज्यादा अपने हाथों पर ही भरोसा किया था और अधिकाँशतः किसी शूटर का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो खुद बेहतरीन शूटर थे.
कहते हैं मोकामा के अपने गांव में भी सूरजभान सिंह सम्राट की वजह से काफी चौकन्ने रहते थे और इस बार तो बात खुली ही थी सो वो भी खूब एहतियात बरत रहे थे.
जबरदस्त रेकी के बाद स्थिर किया गया कि एक नियत समय के आसपास रोज सूरजभान सिंह अपने गांव के सड़क किनारे स्थित एक चाय दुकान पर अमले खसले के साथ जरुर आते हैं,स्थान वही तय हुआ.
कहते हैं सम्राट खुद वेश बदल कर जगह देखने गए और चाय दुकान से ढ़ाई तीन सौ मीटर दूर एक उजाड़ सी झोपड़ी को अपने लिए तय किया चूंकि ए के 47 की इफेक्टिव रेंज तीन से चार सौ मीटर की दूरी तक होती है.
नियत दिन से एक रात पहले सम्राट उस झोपड़ी में छिपकर पोजीशन ले पड़ गए.
ऐसा स्नाइपर मूवीज में देखने को मिलता है और वो अपने समय से ज्यादा स्मार्ट तो थे ही वजह वही खुद पढ़ा लिखा होना और हॉस्टल की सोहबत.
उनके साथ एक व्यक्ति शायद और था या उसे कुछ और दूर लगाया गया था.
नियत दिन जिस समय सूरजभान सिंह अपने अमलों खसलों के साथ चाय दुकान पर आए,कहते हैं शुरुआती पहला फायर सम्राट ने ए के 47 को सेमी ऑटोमेटिक मोड पर रख कर सिर्फ और सिर्फ सूरजभान सिंह पर किया लेकिन गोली उनसे छूती हुई गच्चा देकर निकल गई और हड़कंप मच गया उधर से भी फायरिंग शुरु हो गई.
तब सम्राट ने ए के 47 को बर्स्ट मोड पर डालकर गोलियों की बारिश कर दी जब गोलियों का गुबार थमा तो सूरजभान सिंह के पैर में गोली लगी पाई गई उनके चचेरे भाई अजय और बेगूसराय के मनोज सिंह गोलियों से छलनी पड़े थे और एक गाय भी गोलियों से छलनी पड़ी थी कहते हैं इसी गाय के बीच में आ जाने की वजह से सूरजभान सिंह बच गए.
हमेशा की तरह सम्राट सही सलामत गंगा पार बेगूसराय पँहुच गए लेकिन उनकी दहशत जरुर पीछे छूट गई.
जबतक सम्राट जिंदा रहे सूरजभान सिंह को मोकामा से बेगूसराय की तरफ बढ़ने नहीं दिया.
विधि का विधान देखिए सम्राट के मरने के बाद वही सूरजभान सिंह भूमिहार होने के नाम पर बेगूसराय के बलिया से इलेक्शन लड़े और जीते क्योंकि तब तक बेगूसराय प्राइड हवा हो चुका था और जातीय प्राइड में सब मुक्ति तलाश रहे थे.
क्रमशः
(बेगूसराय के दुलारपुर गांव के एक धानुक जाति के व्यक्ति जो सम्राट के लंबे समय तक नजदीकी रहे थे और मेरा दिवंगत दोस्त सब उनसे ही जाना,सुना और जिया)
#सम्राटकथा3
कम्युनिस्ट, कन्हैया कुमार, काँग्रेस और बेगूसराय.
कम्युनिस्ट, कन्हैया, काँग्रेस और बेगूसराय.
बेगूसराय के लिए कम्युनिस्ट से काँग्रेस गमन कोई नई घटना नहीं है.
बेगूसराय की राजनीति के भीष्म पितामह माने जाने वाले स्व.भोला सिंह 1967 में वाम समर्थित उम्मीदवार के तौर पर निर्दलीय बेगूसराय विधानसभा का चुनाव जीते और उन्होंने 1972 में सीपीआई की टिकट पर भी बेगूसराय से विधानसभा का चुनाव जीता फिर तत्कालीन कम्युनिस्ट नेताओं और पार्टी से अपने मतभेदों के चलते कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ कर 1977 में काँग्रेस में शामिल हो गए उसके बाद भी लगातार विधायक बने,मंत्री रहे फिर लालू जी के जलवे के समय राजद में गए और अंततः भाजपा में आकर बेगूसराय से साँसदी भी जीते.
आठ बार वो बेगूसराय से विधायकी जीते.
लगभग पचास साल तक भोला सिंह बेगूसराय की राजनीति के केंद्रीय व्यक्तित्व बने रहे.
भोला सिंह संघर्षों में तपे और मँजे हुए विशुद्ध राजनीतिज्ञ थे न कि किसी नामी विश्वविद्यालय का टैग लगा कर टीवी कैमरों के रास्ते लाँच किए गए प्रीमेच्योर धूमकेतूनुमा नेता.
और तब से अब तक सिमरिया की गंगाजी में भी बहुत पानी बह चुका.
जब हमलोग जेएनयू से वास्ता रखते थे तब एक कहावत खूब चलती थी,
"जेएनयू का कम्युनिज्म गंगा ढाबे से शुरु होता है और प्रिया सिनेमा के इर्दगिर्द फैली रंगीनियों में दम तोड़ देता है".
(प्रिया सिनेमा जेएनयू के बिल्कुल पास बसंतकुँज में स्थित एक बेहद पॉश और हाईफाई रंगीनियों में डूबा मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स था)
उसी जेएनयू से उभरे और कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर बेगूसराय से डायरेक्ट साँसदी का चुनाव लड़ और हार चुके कन्हैया कुमार ने अपने ए सी सहित काँग्रेस का दामन थाम लिया है.
अपनी बदहाली से जूझती काँग्रेस को उनमें अपना मुक्तिदाता भले नजर आता हो लेकिन बेगूसराय के लोगों को कम से कम ऐसी कोई गलतफहमी नहीं होगी.
क्योंकि भोला सिंह के समय से लेकर आज तक राजनीति जिले में 360 डिग्री पर घूम चुकी है.
उस समय आजादी के बाद कुछ ही समय बीते थे सो कम्युनिस्टों में भी बदलाव और क्रांति का उफान था जिसमें आधा बेगूसराय उतराता रहता था बाकी का आधा बेगूसराय अपनी जर-जमीन पर कम्युनिस्टों से मँडराने वाले खतरे के मद्देनजर काँग्रेस को सर पर उठाए घूमता था.
उदारीकरण के बाद बीते लंबे अरसे में बाजार और पूँजी के हाहाकारी वेग ने बेगूसराय में भी लोगों का जीवन बदला, प्राथमिकताएँ बदलीं और जर-जमीन पर मँडराने वाले पुराने खतरों को अप्रासंगिक कर दिया.
ऊपर से इन सबों के मिले जुले प्रभाव ने आज बेगूसराय में भी राष्ट्रवाद और धर्म का ऐसा जलवा कायम कर दिया है जिसमें जिले की बहुसंख्यक आबादी आज भगवा में भगवान की ओर ही टकटकी लगाए है.
सो कन्हैया भी भोला सिंह की तरह बरास्ते काँग्रेस जबतक भाजपा में नहीं पँहुचते तबतक भविष्य कोई खास उजला तो नहीं कहा जा सकता है.
देखना दिलचस्प होगा कि ऐसा होता है और होता भी है तो कबतक.
बाकी काँग्रेस उनको अगर डायरेक्ट राष्ट्रीय नेता के तौर पर प्रोजेक्ट कर दे तो ये उनका भाग्य क्योंकि ऐसे में बेगूसराय उनके लिए कोई खास मायने नहीं रखेगा जो उनके लिए ज्यादा माकूल साबित होगा.
Friday, 20 August 2021
गौरव सोलंकी की प्रेम कविता इश्क़
इश्क़
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हमने इश्क़ किया
बन्द कमरों में
फ़िजिक्स पढ़ते हुए,
ऊँची छतों पर बैठकर
तारे देखते हुए,
रोटियाँ सेक रही माँ के सामने बैठकर
चपर चपर खाते हुए।
हमने नहीं रखी
बटुए में तस्वीरें,
किताबों में गुलाब,
अलमारियों में चिट्ठियाँ।
हमारे कस्बे में नहीं थे
सिनेमाहॉल, पार्क और पब्लिक लाइब्रेरी
हम तय करके नहीं मिले,
हमने इश्क़ किया
जिसमें सब कुछ अनिश्चित था,
कहीं अचानक टकरा जाना सड़क पर
और हफ़्तों तक न दिखना भी।
और उन लड़कियों से किया इश्क़ हमने
जिन्हें तमीज़ नहीं थी प्यार की।
जिनके सुसंस्कृत घरों की
चहारदीवारी में
नहीं सिखाई जाती थी
प्यार की तहज़ीब।
हमने उनसे किया इश्क़
जिन्हें हमेशा जल्दी रहती थी
किताबें बदलकर लौट जाने की,
मुस्कुराकर चेहरा छिपाने की,
मन्दिर के कोनों में
अपने हिस्से का चुंबन लेकर
वापस दौड़ जाने की।
उनकी भाभियाँ
उकसाती, समझाती रहती थीं उन्हें
मगर वे साथ लाती थी सदा
गैस पर रखे हुए दूध का,
छोटे भाई के साथ का
या घर आई मौसी का
ताज़ा बहाना
जल्दी लौट जाने का।
हमने डरपोक, समझदार, सुशील, आज्ञाकारी लड़कियों से
इश्क़ किया
जो ट्रेन की आवाज़ सुनकर भी
काट देती थी फ़ोन,
छूने पर काँप जाया करती थीं,
देखने वालों के आने पर
सजकर बैठ जाती थी छुईमुइयाँ बनकर।
कपड़ों के न उघड़ने का ख़याल रखते हुए
सारी रात सोने वाली,
महीने के कुछ दिनों में
अकारण चिड़चिड़ी हो जाने वाली,
अंगूठी, कंगन, बालियों
और गुस्सैल पिताओं से बहुत प्यार करने वाली
लड़कियों से किया हमने प्यार
जो किसी सोमवार, मंगलवार या शुक्रवार की सुबह
अचानक विदा हो गई
सजी हुई कारों में बैठकर,
उसी रात उन्होंने फूंका
बहुत समर्पण, बेसब्री और उन्माद से
अपना सहेज कर रखा हुआ
कुंवारापन।
चुटकी भर लाल पाउडर
और भरे हुए बटुए में
अपनी तस्वीर लगवाने के लिए बिकी
करवाचौथ वाली सादी लड़कियों से।
ऐसा किया हमने इश्क़
कि चाँद, तारों, आसमान को बकते रहे
रात भर गालियाँ।
खोए सब उन घरों के संस्कार,
गुलाबों में घोलकर पी शराब,
माँओं से की बदतमीज़ी,
होते रहे बर्बाद बेहिसाब।
:गौरव सोलंकी
Friday, 9 July 2021
Tuesday, 27 April 2021
बेगूसराय के अशोक शर्मा उर्फ सम्राट का साम्राज्य:प्रेम कुमार
बेगूसराय के अशोक शर्मा उर्फ सम्राट का साम्राज्य.
अशोक शर्मा भले ही मुजफ्फरपुर में एल एस कॉलेज के हॉस्टल के छात्रों द्वारा सम्राट घोषित किए गए लेकिन अपने रंगदारी का साम्राज्य उन्होंने सही मायनों में अपने दम,सूझबूझऔर बाहुबल पर बनाया था.
अपने समय में सम्राट बिहार के सबसे बड़े डॉन माने जाते थे,गौरतलब है कि तब झारखंड भी साथ ही था.
बेगूसराय और आसपास के छह सात जिलों में तो अपने समय में उनका सिक्का चलता ही था साथ ही गोरखपुर से लेकर बंगाल तक रेलवे के टेंडर उनके इशारे के बगैर नहीं खुलते थे.कोयले के कारोबार में भी उन्होंने हनक के साथ दखल दिया था.
मैं उन्हें इसलिए भी बेगूसराय का पहला मॉडर्न रंगदार मानता हूँ क्योंकि उनके पहले तक अपहरण,लूट,छिनतई और बहुत हुआ तो गाँजे की स्मगलिंग तक ही रंगदारों के कार्यक्षेत्र हुआ करते थे.
सम्राट ने कभी लूट,अपहरण, डकैती जैसे अपराध की तरफ पलट कर भी नहीं देखा और उन्होंने संगठित अपराध से ही अकूत पैसा पैदा करना सिखा दिया जिसे उनके आगे आनेवाले हर रंगदार ने अपनाया.
संगठित अपराध में भी खासकर रिफाइनरी के ठेकों और रेलवे के ठेकों पर ही उनकी खुद की दखल रहती थी बाकी ढ़ेर सारे अन्य विभागों के ठेके उनके इशारे पर उनके साथ रहनेवाले लोग उठाते थे.
सम्राट की खासियत यह रही कि उन्होंने बेगूसराय को अपने अभेद्य दुर्ग की तरह बरता.
इसलिए कभी यहाँ के लोगों को उन्होंने परेशान नहीं किया साधारण लोगों को उनसे कोई दिक्कत नहीं हुई शालीनता की वजह से लोग उन्हें जिले का बेटा मानते रहे.
वे खासे लोकप्रिय थे,अपनी छवि उन्होंने कमोबेश रॉबिनहुड सरीखी बनाई थी सो उनका एकछत्र राज था और कोई उन्हें चैलेंज नहीं कर पाया था.
उस समय जिले में चलनेवाले न जाने कितने ही गांवों के फुटबॉल, वॉलीबॉल, क्रिकेट जैसे टूर्नामेंटों के लिए वे खुले हाथों पैसा देते थे.
किसी भी जरुरतमंद की उनतक पँहुच हो जानी भर ही मदद के लिए काफी थी. गरीब गुरबा परिवारों को शादीब्याह, अगलगी जैसी घटनाओं के समय वे बिना सोचे समझे जैसे पैसा लुटा देते थे. कितने ही गांवों के पुस्तकालयों के लिए उन्होंने पैसा दिया होगा चूंकि वो खुद पढ़ेलिखे और जहीन थे सो उस समय एल एस कॉलेज में पढ़ने वाले कितने ही साधारण परिवार के लड़कों का खर्च बेहिचक उठा लेते थे शायद यही कारण रहा कि वे कभी भी पकड़े नहीं गए,उनकी कोई पहचान पुलिस के पास नहीं थी और कम से कम बेगूसराय जिले में उनपर कोई हमला नहीं हो पाया.
क्योंकि उनसे जुड़े और अनुगृहीत लोगों की ही इतनी बड़ी संख्या थी कि वो उनके लिए तगड़े इंटेलिजेंस का काम करते थे.
ऐसी कोलंबिया के ड्रग कार्टेलों के सरगनाओं की रणनीति में देखने को जरुर मिलता है लेकिन बेगूसराय में सम्राट ने ही इसे अपनाया.
93 में बेगूसराय के एस पी रहे और बाद में राज्य के डी जी रहे गुप्तेश्वर पाण्डेय ने भी कई इंटरव्यू में कहा है कि सम्राट राजा था, हीरो था उसकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता था.
कहते हैं जब सम्राट का काफिला निकलता था तो पुलिस प्रशासन रास्ते से हट जाते थे शायद उनके पास तब के लिए अजूबा मानी जाने वाली ए के 47 का होना भी इसकी एक वजह थी.
उनके पास ए के 47 के होने का भी बड़ा अजीब किस्सा है.बिहार में सबसे पहले सम्राट के पास ही ए के 47 की खेप पँहुची थी.
किंवदंतियाँ हैं कि तत्कालीन पंजाब के खालिस्तानी आतंकवादियों से होते हुए उन तक ए के 47 पँहुची थी.जबकि ज्यादा विश्वस्त थ्योरी ये है कि पंजाब के आतंकियों से जब्त ए के 47 को सरकारी मालखाने से उड़ा कर सम्राट तक पँहुचाया गया था.
कहते हैं सम्राट तक ए के 47 बेगूसराय के रामदीरी गांव के मुन्ना सिंह के माध्यम से पँहुची थी जिसका अपुष्ट सूत्रों के अनुसार पहला प्रयोग बरौनी के जीरोमाइल के पास एक ठेकेदार की हत्या में सम्राट ने किया. हाल में ही कुछ दिनों पहले मुन्ना सिंह मारे गए.
मुन्ना सिंह तक ए के 47 पँहुचने के पीछे का किस्सा उस समय के बहुत से लोगों को पता होगा पर आजतक उस पर कोई बात नहीं करता क्योंकि बेगूसराय में रामदीरी एक से एक भूपों की स्थली रही है सो इससे कन्नी काटना ही बेहतर है.
गुप्तेश्वर पाण्डेय ने बेगूसराय के एस पी रहते हुए खूब नाम कमाया जिले में 42 एनकाउंटर उनके नाम है लेकिन सम्राट ने उनको अपनी हवा तक लगने नहीं दी.
बहुत पीछे पड़ने पर सम्राट ने दो या तीन ए के 47 रायफल और दो सौ राउंड गोली बक्से में रख कर अपने आदमियों से रात में गुप्तेश्वर पाण्डेय के एस पी कोठी के सामने फेंकवाया था जिसकी बरामदगी ने एस पी साहब के जलते मर्मस्थल पर फाहे का काम किया.
जबकि सम्राट के पास के ए के 47 के जखीरे में कोई खास कमी नहीं आई क्योंकि उसके बाद भी वो 47 का प्रयोग बदस्तूर करते रहे.
क्रमशः
(मेरे बचपन का जिगरी दोस्त जिसकी 2011 में मौत हो चुकी है मुजफ्फरपुर में ही पढ़ता था और हॉस्टल में रहने के साथ ही मेरे जैसी प्रवृत्ति का ही होने की वजह से सम्राट से गहरे जुड़ा था सो उसका अहसान है मुझपर की उसके द्वारा ढ़ेरों फर्स्टहैंड जानकारियां मुझे आपसी बातचीत में ही मिलीं थीं)
Sunday, 28 March 2021
बेगूसराय के चीफ ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट के दरवाजे पर वकील की हत्या: प्रेम कुमार
बेगूसराय के चीफ ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट के दरवाजे पर वकील की हत्या.
1987 में बेगूसराय जेलकाँड हुआ जिसमें कम्युनिस्ट खेमे की तरफ से जेल में घुसकर काँग्रेसी खेमे के शूटर किशोर पहलवान की हत्या कर दी गई थी जिससे रंगदारी के मामले में काँग्रेस पर निर्णायक चोट पड़ी.
इसके बाद से ही लगातार कम्युनिस्ट खेमे पर तगड़ी चोट किए जाने की चर्चाओं का बाजार गर्म था.
लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में कम्युनिस्ट पार्टी के राजद से गठबंधन ने उन्हें लगातार मजबूत ही नहीं बनाया बल्कि उनके खेमे के बाहुबलियों को खरामाखरामा सुरक्षित माहौल भी कमोबेश मिला.
ऐसे माहौल में भी दांव बैठाने की जुगत में लोग लगे रहे.
ऐसे में ही बेगूसराय की इस खूनी राजनीति में एक जबरदस्त paradigm shift आया और राजनीतिक दलों के समर्थक समाज के कुछ संभ्रांत पेशों से जुड़े लोगों की तरफ रायफल की नाल घूमी.
तत्कालीन कम्युनिस्ट खेमे के बाहुबलियों के लिए कानूनी सहायता मुहैया कराने में कुछ वकीलों का खूब खुलकर नाम था.सीताराम महराज घोषित रुप से कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े वकील थे और तब के बेगूसराय में क्रिमिनल केसेज में उनका बड़ा नाम था वो खुलकर पार्टी के कार्यक्रमों में भी भाग लेते.
ऐसे ही एक और शख्स थे वकील चँद्रभानु शर्मा जो लंबी कद काठी के और बेगूसराय कचहरी परिसर के खूब मुखर लोकप्रिय वकीलों में से एक थे. शर्मा जी का कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ झुकाव कोई छिपी हुई बात नहीं थी और तुर्रा ये कि जेलकाँड के मुख्य नामजद अभियुक्तों में से एक मनोज सिंह के वो रिश्ते में मौसा भी थे.
सो बदले की राडार पर चँद्रभानु शर्मा अनायास ही नहीं आ गए थे.
90-91के आसपास एक दिन सामान्य दिनों की तरह बेगूसराय कचहरी का कारोबार शुरु हुआ.
बारह एक बजे के बीच वकीलों, पेशकारों,अभियुक्तों की भीड़भरी गहमागहमी के बीच शर्मा जी वकालतखाने से बाहर चाय पान के लिए दो तीन लोगों के साथ निकले.
कचहरी परिसर से बाहर निकल कर मस्जिद रोड स्थित शमसुल की पान दुकान तक पँहुचते पँहुचते उन्होंने अनहोनी का कुछ कुछ अंदाजा लगा लिया था क्योंकि चार पाँच संदेहास्पद चेहरे भीड़ भाड़ में भी उनसे एक सुरक्षित दूरी से उनपर नजर बनाए लगातार साथ चल रहे थे.
पान दुकान पर जब वो लोगों के साथ खड़े हुए तो भी उनकी निगाहें चौकन्नी ही थीं तभी उन्होंने एक शख्स को पिस्तौल निकालते हुए शायद देखा और आननफानन में बिल्कुल बीस पच्चीस मीटर की दूरी पर स्थित सी जे एम (chief judicial magistrate) के बँगले की तरफ भागे उनके दिमाग में ये रहा होगा कि शायद इतने बड़े साहब के बँगले पर तैनात सुरक्षा गार्ड उन्हें बचा लें लेकिन वो भूल गए कि ये बेगूसराय था.
चार पांच लोग पिस्तौल लिए उनके पीछे दौड़े.
शर्मा जी बँगले के कैंपस के अंदर दौड़ते हुए घुसे और कहते हैं बँगले के बंद दरवाजे की सिकड़ी जोर जोर से बजाने लगे चूंकि उन्होंने वकीलों वाला लिबास पहना था सो मेनगेट पर तैनात सुरक्षा गार्ड भी अचंभित हो उन्हें देखते भर रह गए. इसी बीच चार पांच पिस्तौल धारी युवकों ने गार्डों की तरफ पिस्तौल लहराकर उन्हें निष्क्रिय कर दिया और उनमें से दो ने बढ़कर बँगले के दरवाजे को पीट रहे शर्मा जी पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाईं शर्मा जी को लगभग सात आठ गोलियां मारी गई थी उन्होंने सीजेएम के दरवाजे पर ही दम तोड़ दिया.
कहते हैं इन दो लोगों में एक किशोर पहलवान का छोटा भाई भी था लेकिन वह डर के मारे काँप रहा था जबकि सारी गोलियाँ अर्जुनसिंह नामक शख्स ने ही मारी थी.
शर्मा जी की हत्या के बाद सभी आराम से पिस्तौल लहराते हुए मेन मार्केट होते हुए चट्टी जानेवाली रोड से गायब हो गए.
ये बेगूसराय में पहली ऐसी हत्या थी जिसमें राजनीतिक दल के व्हाइट कॉलर समर्थक को दिन दहाड़े मार दिया गया था और स्थान के लिहाज से ये तबतक का सबसे डेयरडेविल हत्याकांड था यानि बेगूसराय के चीफ ज्युडिशियल मैजिस्ट्रेट के बँगले का दरवाजा.
इस हत्याकांड के बाद डॉक्टर, वकील जैसे राजनीतिक दलों के समर्थकों में डर बैठना शुरु हो गया जो आगे चल कर डॉक्टर पी गुप्ता, डॉक्टर एम एन राय जैसे प्रख्यात डॉक्टरों के बेगूसराय से पलायन में फलीभूत हुआ इनकी कहानियां फिर कभी.
इसमें आप आज प्रचलित अर्बन नक्सल वाले फंडे का बीजरुप भी देख सकते हैं.
हलांकि न तब न अब, खुलकर किसी राजनीतिक दल ने बेगूसराय में पनपे इस नए ट्रेंड को स्वीकारा लेकिन थोड़ा कुरेदने पर सच के रुप में यही झाँकता रहा है.
(शर्मा जी मेरे ही गांव के थे और रिश्ते में चाचा होते थे इसलिए इस हत्याकांड की ढ़ेरों जानकारियाँ तो परिवार और गांव गोतिया से ही मिलती रहीं थी।)
नोट- हमने ऐसा ही बेगूसराय देखा था और इसी में बड़े हुए और ये कहने में रत्तीभर भी शर्म की बात नहीं है कि बेगूसराय की पहचान ऐसी ही धरती के रुप में रही है लिहाजन हम भी इसे गर्व भाव में ही लेते हैं इससे आपकी नैतिकता आहत होती हो तो ये आपकी समस्या है जिसका मेरे पास कोई इलाज नहीं.
प्रेम कुमार
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