पंकज विश्वजीत की कविताएँ
1
एक ज़माने में
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एक ज़माने में
चुल्हियाँ नहीं खिसकती थीं अपने दर से
तब बारिश का हिसाब लगाकर
साँझ होने से बहुत पहले ही
उठ पड़ता था मोहल्ले की तमाम चुल्हियों से धुँआ, और
छान्हियों से छनते हुए छा जाता था बादलों के ठीक नीचे
लगाए जाते थे और दिनों से अधिक और मोटे चईले
और दिनों से ज़्यादा तेज़ रखी जाती थी आँच
तेज़ चलाये जाते थे हाथ ......
2
अधूरी हँसी
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बहुत हँसने के बाद
याद आती है,
किसी की आधी अधूरी हँसी
वो जो कहा करता था,
कितना फ़रेब है, कितना दुःख है यहाँ
आख़िर कितना फ़रेब
कितना दुःख
ये मैंने जाना एक अधूरी हँसी के बाद
उतना ही ज़्यादा जितनी अधूरी हँसी .
3
छतों पर टंकियाँ
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दृश्य बदल चुका है,
अब छत से मैं
दूर की छतों तक निगाह दौड़ाता हूँ
महज़ पानी की टंकियों से टकराती है नज़र
और अपने छत तक आ जाती है
गलियों के वे लड़के
बहुत पहले ही छोड़ चुके हैं उम्मीद
कोई जो माउथ ऑर्गन पर बजाया करता था
आवारा और श्री 420 की अमर धुनें
जो नाले के ऊपर बनी सीढ़ियों पर खेला करते थे ताश
जो फ़ुटपाथ के खुले चायख़ाने पे पिया करते थे चाय
अब वो रुकते हैं महज़ चाय के ख़तम होने तक
क्योंकि उन्हें पता है
छतों से किसी भी शाम प्यार नहीं आएगा
छतों पर आतें हैं बाप
जो एक अरसे तक ऐसी ही किसी गली में
छतों से प्यार के इंतज़ार में लफंगे बने काटते रहे चक्कर
और तब भी छतों पर आते थे बाप
दृश्य बदल चुका है
अब छतों पर नहीं आती लड़कियाँ
ना ही छतों से गली या बगल की छत पर प्यार
अब हर शाम छतों पर दिखती हैं ओवरफ्लो हुई टंकियाँ .
4
जब तक
गड़ही नखनखाए नहीं
खड़ंजा बजबजाए नहीं
मेढक टरटाराए नहीं
फतिंगा उधियाए नहीं
जनता बिछिलाये नहीं
तो बरखा किस काम की!
5
जो जानते होंगे धूप,
तौंकती होगी जिनकी छत
जिन्हें पता होगा
चिड़ियों और घोसलों का ठिकाना
वो बचाएंगे पेड़ों को
और दम भर सुस्ताएँगे .
6
एक दिन,
निकलेंगे हम घर से
निकलेंगे शहर से
और पूछेंगे एक दूसरे से
किसी शजर का पता .
7
बारिश आने के बाद
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बारिश आने के बाद
हर कोई नहीं भागता घर की ओर
हर कोई नहीं तलाशता छान्ही छप्पर
कुछ ऐसे भी होते हैं जो
बारिश आने के बाद
तमाम छतों से बचते हुए
भागते हैं उसी दिशा की ओर
ये घंटों ग़ायब रहते हैं घरों से
ये खोजते हैं ताज़े जोते हुए खेत
ये दौड़ते हैं दूर तक हर गड्ढे को ठोकर मारते हुए
ये झोरते चलते हैं पेड़ों की कंछियों को
ये खोजते हैं बईरहवा आम का पेड़
ये बने रहते हैं बारिश के साथ उसके जान तक
और घर से बहुत दूर की पोखरियों में
ये फेंकते हैं चिक्का और दम भर खेलते हैं छिछिली .
8
चोरी के बाद -
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वो बचपन की ही आदत थी,
बड़ा नटखट
बड़ा भोला
बड़ा मासूम है मुन्ना
यही माँ-बाप कहते थे,
दुपहरी में निकलता वो
धांगते हुए खेतों को ककड़ी तोड़ लेता वो
टिकोरा मार लेता वो
बल्लफ फोड़ देता वो
कि वो पकड़ा भी जाता था
'धर धर धर' ध्वनि के गूंजते ही
भाग पड़ता वो,
पीछे उसके मलिकार, कुजड़ा भागते रहते
वो ऐसे दौड़ता रहता
कि बस ....
अब गिरेगा
तब गिरेगा
गिर पड़ेगा
पर न गिरता
बच निकलता
घर पहुँचता
बड़ा नटखट
बड़ा भोला
बड़ा मासूम है मुन्ना
यही माँ-बाप कहते थे
बड़ा चोरकट
बड़ा फरकट
बड़ा लतखोर है मुन्ना
ये पूरा गांव कहता था .
- Pankaj Vishwajit
- पंकज विश्वजीत
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