Friday, 10 August 2018

लक्ष्मी यादव की कविता अनंत प्रेम

अनंत प्रेम
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मैं आज अपने भीतर बैठी मुझसे मिलने आयी हूँ
इसके साथ ही बाहर जाऊंगी.
आज अपने खुरदरे छिले ,फटे,कटे बेरंग स्याह होठों पर,
किसी भी रंग की लिपस्टिक नही लगाउंगी.
न ही अपनी उदास आँखों में जिनमे बसे हैं घने अँधेरों के महासागर,
उसके मुहानों पर सुरमयी कोई लक़ीर खींचूंगी.
मेरी उलझी हुई ज़िन्दगी की तरह उलझनों में सिमटी,
गुथी और ऐंठी हुई लटों को नही सवारूंगी.
सर्द हवाओं के झोंके जब स्मृतियों में जाग उठते हैं,
तब मेरे बिखरे बाल सहम कर मेरी अधखुली चोटी में सिमट जाते है.
आज नही लगाउंगी नारियल तेल मटमैले बालों में.
और न ही कोई भी शैम्पू कर सुखाऊँगी इन्हें.
आज अपने बालों को कंधे पर नही सजाऊंगी.
आज पुराने लबादे को बदल,
आसमानी रंग का तुम्हारी पसंद का सूट नही पहनूँगी.
रहूंगी आज अपने बीते हुए कल जैसी,
आज तुम्हारी हर बात पर हाँ में हाँ नही मिलाउंगी,
बल्कि कहूँगी अपने मन की.
आज कोई नाटकीयता नही होगी मुझमे.
हाँ तुमसे मिलूंगी आज लेकिन वैसे नही जैसे तुम चाहते हो,
मिलूंगी वैसे जैसे मेरे भीतर का मैं चाहता है.
फिर देखूंगी मुझे देख तुम कौन सी शायरी कहोगे,
कौन सा गीत मुझे देखकर तुम गाना चाहोगे,
देखूं क्या फिर भी तुम्हारे अंदर का चित्रकार मेरी तस्वीर बनाना चाहेगा,
तुम्हे कुछ सच कहूँगी देखूं क्या मेरे रूप रंग के प्रेम में डूबा तुम्हारा मन,
मेरे भीतर के सच्चे किस्से सुनना चाहेगा,
ये आज एक पैंतरा है एक खेल है जानलेवा,
जो तुम्हारे काल्पनिक प्रेम की जान ले सकता है,
हाँ मैं हमारे बीच के इस तरह के प्रेम की हत्या को तैयार हूँ.
क्योंकि इस प्रेम की मृत्यु के बाद शायद समझ सकूँ अनंत प्रेम.
जो किसी सजावट से परे है जिस्मों से परे है,जन्मों से परे है.
मैं चखना चाहती हूँ उस असीम, अनंत प्रेम का स्वाद.
मैं अपनी जिंदगी को कोई गणित नहीं बनाउंगी.
इसलिए तुमसे आज मिलूंगी अपने उस अनंत प्रेम को खोजती हुई.
मेरे भीतर की मैं के रूप में.
देखू तो ज़रा उसके बाद कल मुझे तुममें वह अनंत प्रेम मिलेगा या नही.

- लक्ष्मी

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