Wednesday 8 August 2018

हरिओम राजोरिया की कविता गानेवाली औरतें

गानेवाली औरतें

वे रोते-रोते गाने लगीं
या गाते-गाते रो पड़ीं
ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है

घर से निकलीं तो गाते हुए
हाट-बाजार में गयीं तो गाते-गाते
चक्की पीसी तब भी गाया
आँगन बुहारते वक्त भी
हिलते रहे उनके होंठ

अकेले में आयी किसी की याद
तो गाते-गाते भर आया कण्ठ
गाते-गाते रोटियाँ बनायीं उन्होंने
पापड़ बेले, सेवइयाँ और बड़ी बनायीं गाते-गाते
गाते-गाते क्या नहीं किया उन्होंने
वे उस लोक से
गाते-गाते उतरीं थीं इस धरा पर

जन्मीं तब गाया किसी ने गीत
गीत सुनते-सुनते हुआ उनका जन्म
दुलहन बनीं तो बजे खुशियों के गीत
गाते-गाते विदा हो गयीं गाँव से
पराये घर की देहली पर पड़े जब उनके पाँव
गीत सुनकर आँखों में तैरने लगे स्वप्न
वे अगर कभी डगमगायीं तो
किसी गीत की पंक्तियों को गाते-गाते सम्हल गयीं

गाना कला नहीं था उनके लिए
वे कुछ कमाने के लिए नहीं गाती थीं
गीत उनकी जरूरत थे
और गीतों को उनकी जरूरत थी।

हरिओम रजोरिया

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