Thursday, 21 March 2013

प्रेम कविता 3

आधी रात को

जब मैं

टटोलता हूँ तुम्हें

या फिर

मेरा विश्वास

मेरी उंगलियों  को  पाँव बना

ढूंढता है तुम्हे

मेरे पास मेरे बिस्तरे पर

मगर तुम वहां नहीं मिलती

मैं हड़बडाया सा उठता हूँ

उठ बैठता हूँ

फिर पागलों की तरह

नोचना चाहता हूँ।

खुद को या बिस्तरे को

मगर मैं

ऐसा नहीं कर सकता

शायद मेरे पढ़े लिखे होने की टीस

मुझे ऐसा करने नहीं देती

मैं मुस्कुराता हूँ

अपनी भूल पर

और सोचता हूँ क्या तुमने

क्या तुमने कभी महसूस किया होगा

इस बेचैनी को

इस छटपटाहट को

हंसी आती है अब

खुद पर

की मैं यह कैसे भूल सकता हूँ की

तुम्हें क्यों याद रहे कुछ भी

तुम्हें तो घेरे होंगीं

किसी की बाहें

कुछ देर पहले ही तो

काफी कमर तोड़ मेहनत के बाद

उसके सीने के जंगल में

नाक घुसाए

तुम हमेशा की तरह

सो रही होगी

और मेरा प्यार

कहीं रिस रहा होगा।

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