रोटीयाँ जानती है किसान का दर्द:-
उनके बनियान और धोतियो की किस्मत मे,
नही लिखा है टीवी वाला सर्फ एक्सल,
परन्तु सुनायी देती है,
विज्ञापन के नेपथ्य से सतुंष्टी की आवाजे,
अच्छाई मे लगे दाग अच्छे ही होते है,
वे देखते है सपने लहलहाते हुये फसलो मे,
पालते है उम्मीदे खुदगर्ज मौसमो से,
धान,गेहूँ की बालियाँ बनाती बिगाङती है जिनकी तकदीर,
वे किसान है और आज भी किसान है,
फर्क बस इतना कि,
कुछ जमीने छीन ली है महँगाई ने,
उनके सपनो को छोङकर,
जो आशा की पहली किरण के साथ निकलती है सुबह,
शायद इस महीने चुका देगे बैंक का कर्ज,
भर देगे ब्याज, जो बढ रहा है लगातार,
जवान होती बेटीयो की तरह ,
छीनते हुये नीद, सिवान के सुकून,
उनके माथे से टपकता पसीना,
जब गिरता है खेतो मे,
तब घुलती है रोटीयो मे मिठास,
दरअसल रोटीयाँ कृतघ्न नही है,
वो जानती है अपने सघर्ष का इतिहास,
किसी खेत की मेङ पर खङा किसान,
कर रहा है जद्दोजहद,
खाद पानी के लिये सङक पर खा रहा है
पुलिस की अनगिनत लाठीयाँ,
रोटीयाँ यह भी जानती है,
अभावो के खून-पसीने को सोखकर वो बनी है ऊर्जावान,
इसलिये भर देती है भूखे का पेट बिना किसी स्वार्थ मे,
---नवनीत सिंह
यह कविता कुछ वर्ष पहले संवदिया पत्रिका मे छपी थी