Sunday, 3 April 2016

मुल्क लीलाधर मंडलोई



ख़बरें जो सुनी नहीं गई ध्यान से जैसे

किसान आत्महत्या कर रहे हैं

मजदूर आत्मदाह

कामकाजी औरतें

बलात्कार से खुद को बचा नहीं पा रहीं

भ्रष्टाचार की आग

गोल इमारत में भी

चैनल गुप्त रूप से

नए नए ऑपरेशन में सक्रिय

और लेन- देन का

विलम्ब प्रसारण

मुल्क यक़ीनन बदल रहा है

..................



पृष्ठ ९८ लिक्खे में दुःख

देहगाथा अरुण कमल


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कोई चीज़ थी जो पहले
जैसे रोओं से झरती थी
जैसे भुट्टे की तरह गसी रहती थी
जैसे तारों की तरह थाल में भरी रहती थी
जैसे मछलियों की तरह खलबली करती थी
और बिना हवा के नदी को जोड़ती रहती थी
अब इतना कम कि बहुत फूंकने पर गुब्बारा जरा सा फूले
फिर बैठ जाय
एक बीघा खेत में सेर भर धान

  पृष्ठ ९५ पुतली में संसार अरुण कमल

शहर लीलाधर मंडलोई



शहर में जब नहीं मिले

सोगहक नरम मूली

बथुआ का साग

पापड़

और चूल्हे से उतरते गरम-गरम फुल्के

गाँव से आये पिता

लौट गये बाज़ार ऐसा ना था कि रोक सके



पृष्ठ ७१ लिक्खे में दुःख

बिजूका - लीलाधर मंडलोई



मैं खेत के बीच खड़ा बिजूका हूँ

सब जानते हैं

झूठ बड़े काम का है

यह सिर्फ किसान जानता है



पृष्ठ २२ बीजूका / लिक्खे में दुःख

शैलजा पाठक की कविता



हमें कौन सा विषय पढ़ना चाहिए
का फैसला हमारे घर के आँगन में बैठ
घर वालो ने कर दिया
हमे तीन विषय में ढाला गया

समाज शास्त्र
हम पढ़ते रहे कैसे कैसे समाज बदला
युगों कालों समय के साथ
किताबों के पन्ने भरे थे
हम उसी समाज में अपनी सुरक्षा में
नंगे हाथ खड़े
तुम के हथियार से हमें
अपने अनुसार तरास रहे थे
हम किताब का समाज शास्त्र पढ़ रहे थे

दूसरा गृह विज्ञान था
मेरा अपना ही घर मेरी चाहत से अनजान था
मैंने दर्शन शास्त्र के ऊपर से अपनी ऊँगली मोड़ ली थी
और गृह विज्ञान की हो गई थी
घर रहन सहन पाक कला के पन्ने ही नही पलटे गए
बाकायदा गेहूं के पिसे जाने से गरम तवे तक का
सफ़र तय किया
पहली बार आग की भाषा समझी
नमक से नजरें मिलाई
मीठे डब्बों में वन्द किये अपने तमाम करतब
तुम्हारी जुबान पर मुस्कराई
मैंने गृह विज्ञान की सारी रस्में निभाई

तुमने सबसे आसान विषय चुना हिंदी
तुम्हे पता ही नही था
तुमने कौन से सपने की डोर मेरी हाथ में थमाई
मैं पहली बार मुस्कराई
रेत को डोरियों पर सुखाने का सुख तुम जान भी नही सकते
हम रश्मि रथी लेकर सोने लगे
हम सरोज स्मृति में आँखे भिंगोने लगे
हम बिहारी की नायिका बन गढ़ते कितने रूप
हम कालिदास के पागल प्रेम में बादल बनने लगे
परियों की कहानियां हमसे ही होकर गुजरी
हमारी गुम हुई चप्पल को लेकर चल पड़ा होगा
वो सुदर्शन राजकुमार

एक पैर की हकीकत वाली चप्पल पर आज भी खड़े हैं
सपनों की खातिर सपनों से लड़े हैं
आँगन के ठीक बीच बैठकर तुम आज भी तय कर रहे हो हमारे विषय

हम उनमे से ही कोई धागा उठा कर रंग बुन लेते हैं
हम खिड़की को आसमान ख्वाब को इतराता चाँद
और इन्तजार को सुदर्शन राजकुमार की बेचैनी में छोड़ आये हैं

अभी अभी हमने अग्रेजी और दर्शन शाश्त्र पर ऊँगली रखी देखना ये भी पढ़ जायेंगे कभी
की हम जानते हैं मुशिकल से चुभती रात हो जब
फूलों वाली चादर बिछाने का हुनर
चादरों पर मोर सावन बादल टांक आते हैं

तुम जब भी तय करते हो विषय
हम आँगन में चुपके से झाँक आते हैं ....

(कमाल हैं लड़कियां दीवारों के पीछे छुपी महलों को सुई धागों में बाँध लेती है )

जरा सी बची जिन्दगी में जरा सी बची औरत - शैलजा पाठक

जरा सी बची जिन्दगी में जरा सी बची औरत -

जीना चाहती थी जरा सा !


जरा सी बची हुई औरतों ने ,

संभाल कर रखा है खर्च का पैसा !

अपनी गाँठ से खोलती है आकाश तुम्हारी हथेली पर ,

रखती हैं जरा सी तसल्ली !

तुम जरा कम बचे आदमी -

कितना कम समझ पाते हो औरत को !!


जरा सी बीमार पड़ती है औरत -

जरा सी दवाई में हो जाती है ठीक !

जरा जरा सी जल जाती है तवे कडाही से ,

जरा सा खुरचती है भगोना !

जरा सा खा कर गठरी बन जाती है !

तुम जरा भी नही देखते कि -

जरा जरा सी देर में उठ कितना पानी पी जाती है !


जरा सी पर्ची में रखती है सारे हिसाब ,

जरा से तेल में चलाती है काम ,

जरा जरा करके खंघलती है कपड़े ,

जरा सी आँख में चुभती है नैहर की याद ,

जरा जरा सुबकती है औरते ,

तुम जरा भी नही जान पाते !


जरा सा डाक खाने की दहलीज पर बैठी हुई औरत -

जरा से पोस्ट कार्ड पर निचोड़ देगी अपना अचरा !

जरा से याद रह गये पते पर पहुचना चाहेगी !

जरा सा ही सही !


मौत आखिरी हिचकी के साथ नही मारेगी !

औरत जरा सा रंग देख लेने की चाह में ,

जरा सा खुली आँख से -

उस खाली पन्ने पर गडाएगी नजरें ,

जहाँ वो दर्ज करती रही मिलने की तारीखें ,

बदल बदल कर !


हैरान होती हुई मरेगी औरत ,

उसका जरा सा मन तुम जरा भी ना समझ पाए !

किसान कवितायेँ -शंकरानंद



१.



पेड़


-------

ओ किसान!

तुम नहीं रोंपो बीज धरती के गर्भ में
नहीं जोतो खेत
अब मत बहाओ पसीना
ये तुम्हारे दुश्मन हैं
कुछ और सोचो जो तुम्हें जिन्दा रहने का मौका देगा
तुम कुछ और करो जो दो वक्त की रोटी दे तुम्हें
ये लोकतंत्र है
जिसके सामने रोओगे
वही उठ कर चल देगा
जिससे माँगोगे मदद
वही सादे कागज पर अँगूठा लगवा लेगा
तुम जिस पौधे को रोपोगे विदर्भ में
वह दिल्ली में पेड़ बन कर खड़ा मिलेगा
वह सबको छाँह देगा और तुम्हें धूप में जलना पड़ेगा
तुम्हें ध्यान खींचने के लिए
उसी पेड़ की टहनी में फाँसी लगा कर मरना पड़ेगा
भरी सभा में हजारों लोगों के बीच
और सब इसे तमाशे की तरह देखेंगे
इसलिए कहता हूँ कि मत रोंपो बीज.


......................परिकथा मार्च अप्रैल २०१६


२.


भाव

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सबसे सस्ता खेत
सबसे सस्ता अन्न
सबसे सस्ता बीज
सबसे सस्ती फसल और
उससे बढ़ कर सस्ता किसान
जिसके मरने से किसी को जेल नहीं होता
जिसके आत्महत्या करने से किसी को फाँसी नहीं होती.

..............................................................................

कविता संग्रह 'पदचाप के साथ'बोधि प्रकाशन जयपुर से 2015 में भी शामिल है.पृष्ठ-31

३.
अब

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घर के सारे लोग उदास हैं
टूट गए हैं धीरे धीरे
लेकिन मैं देख रहा हूँ कि वह लड़का खेत में है और
कंधे पर संभाले है कुदाल
एकदम अकेला है वह
लेकिन डरा हुआ नहीं
वह नहीं है जरा भी उदास
जबकि खेत में दरार पड़ गई है
फटी हुई है दूर दूर तक धरती
कहीं नहीं है कोई बीज
वह रूका हुआ नहीं है
बल्कि चल रहा है दरार पर
वह देख रहा है खेत का हरेक कोना
जैसे खोज रहा हो वह जगह
जहाँ से शुरूआत करना अब जरूरी है.
४.
किसान

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पूरी पृथ्वी का अधिकांश उसके बीज के लिए बना
हुआ यह कि सब गायब होने लगा धीरे धीरे हिस्सा
जैसे बच्चे का खिलौना कोई गायब कर देता है
वह सरकार हुई
जिसके लिए किसान बीते मौसम का उजड़ा हुआ दिन था
कोई बंजर जिसका होना न होना कोई मायने नहीं रखता
कोई खंडहर कोई खर पतवार
यह एक किसान का जीवन तय हुआ
जिसके मरने पर भी कोई आँसू नहीं बहाता था.

..............जनसत्ता २६ जुलाई २०१५

-शंकरानंद











































रोटीयाँ जानती है किसान का दर्द- नवनीत सिंह



रोटीयाँ जानती है किसान का दर्द:-


उनके बनियान और धोतियो की किस्मत मे,
नही लिखा है टीवी वाला सर्फ एक्सल,
परन्तु सुनायी देती है,
विज्ञापन के नेपथ्य से सतुंष्टी की आवाजे,
अच्छाई मे लगे दाग अच्छे ही होते है,

वे देखते है सपने लहलहाते हुये फसलो मे,
पालते है उम्मीदे खुदगर्ज मौसमो से,
धान,गेहूँ की बालियाँ बनाती बिगाङती है जिनकी तकदीर,
वे किसान है और आज भी किसान है,
फर्क बस इतना कि,
कुछ जमीने छीन ली है महँगाई ने,
उनके सपनो को छोङकर,
जो आशा की पहली किरण के साथ निकलती है सुबह,
शायद इस महीने चुका देगे बैंक का कर्ज,
भर देगे ब्याज, जो बढ रहा है लगातार,
जवान होती बेटीयो की तरह ,
छीनते हुये नीद, सिवान के सुकून,

उनके माथे से टपकता पसीना,
जब गिरता है खेतो मे,
तब घुलती है रोटीयो मे मिठास,
दरअसल रोटीयाँ कृतघ्न नही है,
वो जानती है अपने सघर्ष का इतिहास,
किसी खेत की मेङ पर खङा किसान,
कर रहा है जद्दोजहद,
खाद पानी के लिये सङक पर खा रहा है
पुलिस की अनगिनत लाठीयाँ,
रोटीयाँ यह भी जानती है,
अभावो के खून-पसीने को सोखकर वो बनी है ऊर्जावान,
इसलिये भर देती है भूखे का पेट बिना किसी स्वार्थ मे,

---नवनीत सिंह



यह कविता कुछ वर्ष पहले संवदिया पत्रिका मे छपी थी

अपमान-लीलाधर मंडलोई

अपमान

....
एक किसान और मर गया

इसे आत्महत्या कहना अपमान होगा

मरने के समय वह बैंक का दरवाजा खटखटा रहा था


पृष्ठ ५२ लिक्खे में दुःख

खरपतवार



खरपतवार


...................


मेरा कोई खेत नहीं

मैं दोस्तों के खेत में

करता था काम

जैसे माँ

फसल आने पर

मैं खेत से बाहर था

जैसे खरपतवार

.............................



लिक्खे में दुःख  लीलाधर मंडलोई पृष्ठ २१

आश्विन - अरुण कमल



ऐसा क्या है इस हवा में


जो मेरी मिटटी को भुरभुरी बना रही है


धूप इतनी नाम कि हवा उसे


सोखती जाती है पोर-पोर से

सिंघाड़ों में उतरता है धरती का दूध

और मखानों के फूटते लावे हैं हवा में

धान का एक-एक दाना भरता है

और हर तरफ धूम है

एक प्यारा शोरगुल रोओं भरा

इसी दिन का तो इंतज़ार था मुझको

इसी नवरात्र के प्रहर का

आकाश इतना नीला गूँज भरा

शरीर इतना साफ़ निथरा ,

ये हवा जो रोओं को उठा रही है

ये हवा जो मुझे खोल रही है

जैसे मैं फूल हूँ अगस्त्य का

इतनी इच्छाएँ ऐसा लालसा

मैं भर जाता हूँ जौ के अंकुरों से


आश्विन/पुतली में संसार / पृष्ठ ९३

रोता रहा किसान

बेटा पढ लिख कर गया, बन गया वो इंसान
देख उजडती फसल को, रोता रहा किसान

सारी उम्र चलाया हल, हर दिन जोते खेत.
बूढा हल चालक हुआ, सूने हो गए खेत.

दो बेटे थे खेलते इस आंगन की छांव.
अब नहीं आते यहां नन्हें नन्हें पांव.

बुढिया चूल्हा फूंकती सेक रही थी घाव.
अबके छुट्टी आएंगे बच्चे उसके गांव.

बडा बनाने के लिये क्यों भेजा स्कूल.
बूढा बैठा खेत पर कोसे अपनी भूल.

खेत बेच कर शहर में ले गया बेटा धन.
बूढे बूढी का इस घर में लगता नहीं है मन.

जब शहर वाले फ्लैट में गये थे बापू राव.
हर दिन उनको वहां मिले ताजे ताजे घाव.

आज पार्क में राव जी की आंखें गयी छलक.
देख नीम के पेड को झपकी नही पलक.



http://www.sahityashilpi.com/2008/11/blog-post_04.html

बिके हुए खेत की मेड़ पर बैठे एक किसान का शोक गीत प्रदीप जिलवाने

कि सब बातें तय हो गई
कि सौदा-चिट्ठी हो गई
कि खेत नहीं, यह मौके की जमीन थी

कि मैंने तो लगाया था कपास खरीफ में,
कि मैंने रबी में बोया था गेहूँ
कि लहलहाती फसलें नहीं, कौन दबा धन दिखा ?

कि आखिरशः मैं टूट गया किसी तरह
कि धन से लकदक रहूँगा कुछ महीने साल
कि न लौटकर आऊँगा कभी इस तरफ भी
कि न हल, न बक्खर, न छकड़ा होगा

कि भाई जैसे बैल भी अब बिक जाएँगे
कि मेरे घर भी अनाज अब आएगा बाजार से
कि खेत अब तब्दील हो जाएगा कंकरीट में

कि क्या कभी भूल पाऊँगा इस मिट्टी की गंध
कि मेरे पूर्वजों का पसीना है इसमें घुला-मिला






http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3234&pageno=1

किसान की खुदकुशी पर पाणिनी आनंद की कविता...



किसान की खुदकुशी पर पाणिनी आनंद की कविता...

· April 22, 2015
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Panini Anand : यह नीरो की राजधानी है. एक नहीं, कई नीरो. सबके सब साक्षी हैं, देख रहे हैं, सबके घरों में पुलाव पक रहा है. सत्ता की महक में मौत कहाँ दिखती है. पर मरता हर कोई है. नीरो भी मरा था, ये भूलना नहीं चाहिए.


खून रोती आंखों वाली माँ,
बेवा, बच्चे और खेत,
सबके सब तड़पकर जान दे देंगे
फिर भी नहीं बदलेगी नीयत
इन भूखी आदमखोर नीतियों के दौर में
कैसे बचेगा कोई,
किसान
जब नियति का फैसला
बाज़ार के सेठ को गिरवी दे दिया गया हो
और चाय बेचनेवाले की सरकार
ज़हर और फंदे बेचने लगे

मौत किसे नहीं आती
कौन बचा है
पर कोई सोचता है,
कि मौत के सिवाय अब कोई रास्ता नहीं
और कोई सोचता है
वो मरेगा नहीं.
लोगों को लगातार मार रहे लोग
अपने को अमर क्यों समझते हैं
अपने मरने से पहले
दूसरों को मारना
बार-बार मारना
लगातार मारना
मरने पर मजबूर करना
किसी की उम्र नहीं बढ़ाता
न ही खेतों में सहवास से,
अच्छी होती है फसल
न गंगा नहाने से,
धुलते हैं पाप
न जीतने से,
सही साबित होता है युद्ध

हत्यारा सिर्फ हत्यारा होता है
भेष बदलने से
वो नीला सियार लग सकता है
साहूकार लग सकता है
कलाकार लग सकता है
बार-बार ऐसा सब लग सकता है
लेकिन हत्यारा, हत्यारा होता है
चाहे किसान का हो,
किसी मरीज़ का,
किसी ग़रीब का,
किसी हुनर का, पहचान का
कृति का, प्रकृति का
हत्या किसी को नहीं देती यौवन
न शांति, न अभ्युदय
मौत फिर भी आती है
मरना फिर भी होता है

खौलकर उठती मरोड़,
सूखती जीभ, बंधे गले,
और रह-रहकर चौंकते हाथों में
जो विचार
अंतिम अरदास हैं
वो चाहते हैं
कि
भाप हो जाएं
ऐसे नायक, सेवक
प्रतिनिधि
जिनके रहते आत्महत्या करे अन्नदाता
शीशे की तरह टूटकर बिखर जाएं
ऐसी आंखें
जो देखती रहीं मौत को लाइव
सूख जाएं दरख्त
कागज़ों की तरह फट जाएं राजधानी की वे सड़कें
जहाँ मरने के लिए मजबूर होकर आए एक किसान
किसान मरा करे,
देश तमाशा देखता रहे,
ऐसे लाक्षागृह की सत्ता
लहू के प्यासी नीतियां
और लड़खड़ाते गणतंत्र में
आग लगे.
मुर्दा हो चुकी कौमें
हत्यारी सरकारें
और देवालयों के ईष्ट
सबका क्षय हो.
प्रलय हो.

हा रे
हा



पाणिनि आनंद
22 अप्रैल, 2015. नई दिल्ली (एक किसान की राजधानी में आत्महत्या की साक्षी तारीख)

गाँव का दक्खिन हो गया है "आखिरी आदमी" जितेंद्र श्रीवास्तव

मौसम बदल रहा है
गाँव में सुगबुगाहट है चुनाव की
अब प्रधानी में बहुत पैसा है

खड़ंजा हो बाँध हो बिजली हो बाढ़ हो अकाल हो
प्रधान की पौ-बारह रहती है

अब भी दफ्तरों में टँगती हैं
महात्मा गांधी और डॉक्टर अंबेडकर की तसवीरे
पर कोई ताकना भी नहीं चाहता
महात्मा गांधी के "आखिरी आदमी" की तरफ
डॉक्टर अंबेडकर के सपनों की तरफ

इन दिनों लोकतंत्र में
गाँव का दक्खिन हो गया है "आखिरी आदमी "

पिछली बार पाँच लोग मारे गए थे मेरे गाँव में
प्रधानी के चुनाव में
निकलने नहीं दिया था जबरों ने
दलितों को उनकी बस्ती से
उनके वोट खा गए थे वे
सरकारी योजनाओं की तरह

किसान बदहाल हैं
मर रहे हैं भरी जवानी में
जो बचे हैं उनकी जेबें इस कदर खाली हैं
कि वे भर नहीं सकते बच्चों की फीस
उनके घर में नहीं हैं
किसी के बदन पर साबूत कपड़े

लड़कियाँ भी महफूज नहीं हैं
गाँवों में

अब फिर चुनाव सिर पर है
धीरे-धीरे गर्म हो रही है हवा
लोग अकन रहे हैं एक दूसरे की कानाफूसी
मैदान में उम्मीदवार भी कई हैं
पर "आखिरी आदमी" को
"कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नजर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती।

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http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=6238&pageno=1

जब हँसता है कोई किसान जितेंद्र श्रीवास्तव

जब हँसता है कोई किसान 
जितेंद्र श्रीवास्तव

..................................
वह हँसी होती है
महज चेहरे की शोभा
जिसका रहस्य नहीं जानता हँसने वाला
सचमुच की हँसी
उठती है रोम-रोम से
जब हँसता है कोई किसान तबीयत से
खिल उठती है कायनात
नूर आ जाता है फूलों में
घास पहले से मुलायम हो जाती है
उस क्षण टपकता नहीं पुरवाई में दुख
पूछना नहीं पड़ता
बाईं को दाईं आँख से खिलखिलाने का सबब

.........................................
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=6180&pageno=1

बेटा किसान का (कविता)


बेटा किसान का (कविता)


हमारे देश की है जो आन
मेहनत है जिसकी शान
ऊँचा है जिसका मान
और नहिँ वो है हमारा किसान
कडी धूप मेँ तपके जिसने
बनाई बँजर हरि-भरी
गर्मी सर्दी सहि जिसने खरी-खरी
दुनिया का भरता है जो पेट
मुश्किले और संघर्ष साथ है जिसके घडी-घडी
बनना चाहते है इनके बच्चे भी
डाक्टर इंजिनियर और विग्यानिक
पर इन्हे मील नहिँ पाता समय पर पैसा
किसान को मील ना पाए
खाद बीज और भाव फसल का
लेना पडता है इन्हेँ
बनिये से भारी ब्याज दर पर पैसा
बाजार जाए तो...2
भाव सुनकर उड जाते हैँ हौँस
अब कैसे चले ये जीवन के दो कौस
अब कैसे चले ये जीवन के दो कौस
भगवान का कैसा है ये रौष
भुगतते है ये सजा बिना किसी दोष
जानु मैँ ये सब गहराई से
क्योँकि मैँ भी हूँ बेटा किसान का!
Writer: Ashish Ghorela

http://kundanpura.yn.lt/villages/mugalpura/index/__xtblog_entry/10054009-?

मेहनत किसान की कविता - रवि श्रीवास्तव



आखिर हम कैसे भूल गये, मेहनत किसान की,

दिन हो या रात उसने, परिश्रम तमाम की।

जाड़े की मौसम वो, ठंड से लड़े,

तब जाके भरते, देश में फसल के घड़े।

गर्मी की तेज धूप से, पैर उसका जले,


मेहनत से उनकी देश में, भुखमरी टले।

बरसात के मौसम में, न है भीगने का डर,


कंधों पर रखकर फावड़ा, चल दिये खेत पर।

जिनकी कृपा से आज भी,चलता है सारा देश,


सरकार उनके बीच में, पैदा होता मतभेद।

मेहनत किसान की, कैसे भूल वो रहे,


कर्ज़, ग़रीबी, भुखमरी से, तंग हो किसान मरे।

दूसरों का पेट भर, अपनी जान तो दी,


आखिर हम कैसे भूल गये , मेहनत किसान की।

खेतों का अस्वीकार जितेंद्र श्रीवास्तव

खेतों का अस्वीकार
जितेंद्र श्रीवास्तव 

...........................

आज ज्योंही मैं पहुँचा
गाँव के गोंइड़े वाले खेत में
उसने नजर उठाकर देखा पल भर
फिर पूछा
कहो बाबू, कहाँ से आए हो
कुछ-कुछ शहरी जान पड़ते हो?

लगता है
कोई जान-पहचान है इस गाँव में
इधर निकल आए हो शायद निवृत होने!

मैं अचरज में पड़ा हुआ
किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा हुआ
ताकने लगा निर्निमेष उसको
जिसकी मिट़्टी में लोट-लोट लहलोट हुआ
मैं बचपन में खेला करता था

मैं भागा तेज वहाँ से
पहुँचा नदी किनारे वाले चक में
चक ने देखा मुझको
कुछ चकमक-चकमक-सा लगा उसे
थोड़ी देर रहा चुप वह
फिर पूछा उसने
किसे ढूँढ़ रहे हो बाबू
इतनी बेसब्री से
यहाँ तो आँसू हैं
हत सपने हैं
अकथ हुई लाचारी है
लेकिन तुम कुछ अलग-अलग दिखते हो
कहाँ रहते हो?

इधर कहाँ निकल आए हो
यहाँ धूल है मिट्टी है
सड़क के नाम पर गिट्टी है
चारों ओर पसरा हुआ
योजनाओं का कीचड़ है

खैर छोड़ो, कहाँ से आए हो
क्या करते हो
आखिर इतना चुप क्यों हो
क्या कभी नहीं कुछ कहते हो?

मैं ठकुआया खड़ा रहा
बहता रहा आँखों का द्रव
मैं भूला
भूला रहा बरस-बरस बरसों-बरस जिन खेतों को

यही सोच-सोच कि मालिक हूँ उनका
उन खेतों ने सचमुच मुझको भुला दिया था

कुछ देर
मैं अवसन्न खड़ा रहा सच के सिरहाने

देवियो-सज्जनो
मालिक बनने को उत्सुक लोगो
आज उन खेतों ने
मुझे पहचानने से इनकार कर दिया है
जिनके मालिक थे मेरे दादा
उनके बाद मेरे पिता
और उनके बाद मैं हूँ
बिना किसी शक-सुब्हे के

आप सब अचरज में पड़ गए हैं सुनते-सुनते
यकीन नहीं कर पा रहे मेरी बातों का
पर सच यही है सोलह आना
कि मैं मालिक हूँ जिनका खसरा खतौनी में
उन खेतों ने
मुझे पहचानने से इनकार कर दिया है।

आत्महत्या के विरूद्ध अनुज लुगुन

आत्महत्या के विरूद्ध 
 
वे तुम्हारी आत्महत्या पर अफ़सोस नहीं करेंगे
आत्महत्या उनके लिए दार्शनिक चिंता का विषय है
वे इसकी व्याख्या में सवाल को वहीँ टांग देंगे
जिस पेड़ पर तुमने अपना फंदा डाला था
यह उनके लिए चिंता का विषय नहीं होगा
वे जानते हैं गेंहूँ की कीमत लोहे से कम है
और इस वक्त वे लोहे की खेती में व्यस्त हैं
लोहे की खेती के लिए ही उन्होंने आदिवासी गाँवों में
सैन्य छावनी के साथ डेरा डाला है
लोहे की खेती के विरूद्ध ही आदिवासी प्रतिघाती हुए हैं
उसी खेती के बिचड़े के लिए उन्हें तुम्हारी जमीन भी चाहिए
तुम आत्महत्या करोगे और उन्हें लगेगा
इस तरह तो वे गोली चलाने से बच जायेंगे
और यह उनकी रणनीतिक समझदारी होगी
वे तुम्हारी आत्महत्या पर अफ़सोस नहीं करेंगे
उन्हें सिर्फ़ प्रतिघाती हत्याओं से डर लगता है
और जब तुम प्रतिघात करोगे
तुम्हारी आत्महत्या को वे हत्याओं में बदल देंगे |
अनुज लुगुन
(
शीर्षक के लिए रघुवीर सहाय का आभार लेकिन यह ठीक उसी रूप में उद्धृत नहीं है |)


 http://www.haribhoomi.com/news/literature/anuj-lugun-poem-farmer-sucide/24012.html से साभार 

एक किसान का दर्द


एक किसान का दर्द (एक कविता जरुर पढ़े )



माना की मै एक चर्चित इंसान हू ...
एक जागता हुआ किसान हू ...

रात को जागना तो मेरी आदत है ...
किसान फसलो की करता हिफाजत है ....

किसान वो क्या जो सो जाए ....
अपनी ही पीड़ा में खो जाए ...

उसपर लाख बच्चो का भार है ...
चलता उससे बाजार है .....

किसान न जगे तो कौन जाग पायेगा ..
उसकी मेहनत कौन आक पायेगा ...

ये एक इसान ही है ..
जो मेहनत का धनवान है ...

इसकी कुंडली में मौसम बलवान है ...
ये इंसान नही "भगवान् " है

जो पालता पेट है लाखो का ...
आज वो कितना परेशान है ...

इसकी आह सुनता सिर्फ भगवान् है ..
लूट रहा इसको शैतान है ....

दिल से निकली आह जिसके
समझो वो "कृष्णा " भी आज उदास है

माना की मै एक चर्चित इंसान हू ...
एक जागता हुआ किसान हू ...


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: कृष्णा की कलम से





http://kkrishanyadav.blogspot.in/2013/03/blog-post_3.html

कविता और फसल ओमप्रकाश वाल्मीकि

ठंडे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फसल
कोरे कागजों पर

फसल हो या कविता
पसीने की पहचान है दोनों ही

बिना पसीने की फसल
या कविता
बेमानी है
आदमी के विरुद्ध
आदमी का षडयंत्र-
अंधे गहरे समंदर सरीखा
जिसकी तलहटी में
असंख्‍य हाथ
नाखूनों को तेज कर रहे हैं
पोंछ रहे हैं उंगलियों पर लगे
ताजा रक्त के धब्‍बे

धब्‍बे : जिनका स्‍वर नहीं पहुंचता
वातानुकूलित कमरों तक
और न ही पहुंच पाती है
कविता ही
जो सुना सके पसीने का महाकाव्‍य
जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फसल की शक्‍ल में

किसान (कविता)

किसान (कविता)

बंजर धरती पर टिकी है ,
दो हसरत भरी निगाहें।
तो कभी आसमान की और ,
देखती उम्मीद भरी निगाहें।
की शायद कोई कतरा सा ,
बादलों से होकर ज़मीन पर गिर जाए।
बस कुछ बूंदें !
जिससे इस धरती की प्यास मिट जाये.
बादल आये भी ,
मगर नियति की हवा ने उन्हें उड़ा दिया.
और फिर तेजस्वी सूरज अंगारे बरसाने लगा।
बादल ने तो क्या बरसना था।
उसकी बेबस ,बेज़ार आँखों से टपक पड़ी ,
आंसुओं की चंद बूंदें।
निर्बल ,निस्तेज काठ से बदन से टपक पड़ी,
पसीने की बूंदें।
ना बादल बरसा ,
ना खेत लहलहाए।
बंजर धरती पर लेकिन टिकी है ,
अब भी वह दो निगाहें।
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इस लिंक से साभार 

Friday, 1 April 2016

दीवार में चुनवा दी गयी इक खिड़की

दीवार में चुनवा दी गयी है  इक खिड़की
खिड़की
जिस पर
हंस पर बैठ
उड़ आता था राजकुमार
और बढ़ जाता था फूलकुमारी का वजन

दिवार में चुनवा दी गयी वो खिड़की
जहाँ से पद्मिनी झांकती और हंस देती थी
अलाउद्दीन गश खा कर गिर जाता था

खिड़की जिसमें चिड़िया ही नहीं  पत्थर भी लाते थे खत और फोन नम्बर 

खिड़की के बाहर चकोरों की तादाद बताती है
खिड़की में एक चाँद जवां है

दहलीज
जब पाँव में बेड़ियाँ बनती है
खिड़की रास्ता  देती है
इश्क की बाँहों तक का पता बताती है

इसी चुनवा दी गयी खिड़की ने नीचे की मिटटी में ढूंढो
इक आशिक का खत दफन हैं
इक लैला की टूटी चप्पल मिलेगी
गाँव के बीचोबीच
बरगद के नीचे जो साफा बांधे चौधरी बैठा है  न
उसकी नाक भी यहीं कहीं घास में खोई मिलेगी

खिड़की होती है दिवार में
जैसे काँटों बीच  खिल ही जाता है गुलाब
खिड़की में उठती हैं जब दीवारें
गुसलखानों की छतों से रस्सियाँ झूलने लगती हैं

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खाली खिड़कियाँ नाकाम आशिकों को बहुत मुंह चिढाती हैं
इतना भी बुरा नहीं दीवार का उठ जाना ........
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अरमान आनंद

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