Sunday, 3 April 2016

किसान कवितायेँ -शंकरानंद



१.



पेड़


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ओ किसान!

तुम नहीं रोंपो बीज धरती के गर्भ में
नहीं जोतो खेत
अब मत बहाओ पसीना
ये तुम्हारे दुश्मन हैं
कुछ और सोचो जो तुम्हें जिन्दा रहने का मौका देगा
तुम कुछ और करो जो दो वक्त की रोटी दे तुम्हें
ये लोकतंत्र है
जिसके सामने रोओगे
वही उठ कर चल देगा
जिससे माँगोगे मदद
वही सादे कागज पर अँगूठा लगवा लेगा
तुम जिस पौधे को रोपोगे विदर्भ में
वह दिल्ली में पेड़ बन कर खड़ा मिलेगा
वह सबको छाँह देगा और तुम्हें धूप में जलना पड़ेगा
तुम्हें ध्यान खींचने के लिए
उसी पेड़ की टहनी में फाँसी लगा कर मरना पड़ेगा
भरी सभा में हजारों लोगों के बीच
और सब इसे तमाशे की तरह देखेंगे
इसलिए कहता हूँ कि मत रोंपो बीज.


......................परिकथा मार्च अप्रैल २०१६


२.


भाव

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सबसे सस्ता खेत
सबसे सस्ता अन्न
सबसे सस्ता बीज
सबसे सस्ती फसल और
उससे बढ़ कर सस्ता किसान
जिसके मरने से किसी को जेल नहीं होता
जिसके आत्महत्या करने से किसी को फाँसी नहीं होती.

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कविता संग्रह 'पदचाप के साथ'बोधि प्रकाशन जयपुर से 2015 में भी शामिल है.पृष्ठ-31

३.
अब

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घर के सारे लोग उदास हैं
टूट गए हैं धीरे धीरे
लेकिन मैं देख रहा हूँ कि वह लड़का खेत में है और
कंधे पर संभाले है कुदाल
एकदम अकेला है वह
लेकिन डरा हुआ नहीं
वह नहीं है जरा भी उदास
जबकि खेत में दरार पड़ गई है
फटी हुई है दूर दूर तक धरती
कहीं नहीं है कोई बीज
वह रूका हुआ नहीं है
बल्कि चल रहा है दरार पर
वह देख रहा है खेत का हरेक कोना
जैसे खोज रहा हो वह जगह
जहाँ से शुरूआत करना अब जरूरी है.
४.
किसान

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पूरी पृथ्वी का अधिकांश उसके बीज के लिए बना
हुआ यह कि सब गायब होने लगा धीरे धीरे हिस्सा
जैसे बच्चे का खिलौना कोई गायब कर देता है
वह सरकार हुई
जिसके लिए किसान बीते मौसम का उजड़ा हुआ दिन था
कोई बंजर जिसका होना न होना कोई मायने नहीं रखता
कोई खंडहर कोई खर पतवार
यह एक किसान का जीवन तय हुआ
जिसके मरने पर भी कोई आँसू नहीं बहाता था.

..............जनसत्ता २६ जुलाई २०१५

-शंकरानंद











































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