ऐसा क्या है इस हवा में
जो मेरी मिटटी को भुरभुरी बना रही है
धूप इतनी नाम कि हवा उसे
सोखती जाती है पोर-पोर से
सिंघाड़ों में उतरता है धरती का दूध
और मखानों के फूटते लावे हैं हवा में
धान का एक-एक दाना भरता है
और हर तरफ धूम है
एक प्यारा शोरगुल रोओं भरा
इसी दिन का तो इंतज़ार था मुझको
इसी नवरात्र के प्रहर का
आकाश इतना नीला गूँज भरा
शरीर इतना साफ़ निथरा ,
ये हवा जो रोओं को उठा रही है
ये हवा जो मुझे खोल रही है
जैसे मैं फूल हूँ अगस्त्य का
इतनी इच्छाएँ ऐसा लालसा
मैं भर जाता हूँ जौ के अंकुरों से
आश्विन/पुतली में संसार / पृष्ठ ९३
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