Sunday, 3 April 2016

गाँव का दक्खिन हो गया है "आखिरी आदमी" जितेंद्र श्रीवास्तव

मौसम बदल रहा है
गाँव में सुगबुगाहट है चुनाव की
अब प्रधानी में बहुत पैसा है

खड़ंजा हो बाँध हो बिजली हो बाढ़ हो अकाल हो
प्रधान की पौ-बारह रहती है

अब भी दफ्तरों में टँगती हैं
महात्मा गांधी और डॉक्टर अंबेडकर की तसवीरे
पर कोई ताकना भी नहीं चाहता
महात्मा गांधी के "आखिरी आदमी" की तरफ
डॉक्टर अंबेडकर के सपनों की तरफ

इन दिनों लोकतंत्र में
गाँव का दक्खिन हो गया है "आखिरी आदमी "

पिछली बार पाँच लोग मारे गए थे मेरे गाँव में
प्रधानी के चुनाव में
निकलने नहीं दिया था जबरों ने
दलितों को उनकी बस्ती से
उनके वोट खा गए थे वे
सरकारी योजनाओं की तरह

किसान बदहाल हैं
मर रहे हैं भरी जवानी में
जो बचे हैं उनकी जेबें इस कदर खाली हैं
कि वे भर नहीं सकते बच्चों की फीस
उनके घर में नहीं हैं
किसी के बदन पर साबूत कपड़े

लड़कियाँ भी महफूज नहीं हैं
गाँवों में

अब फिर चुनाव सिर पर है
धीरे-धीरे गर्म हो रही है हवा
लोग अकन रहे हैं एक दूसरे की कानाफूसी
मैदान में उम्मीदवार भी कई हैं
पर "आखिरी आदमी" को
"कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नजर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती।

........................................................
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=6238&pageno=1

No comments:

Post a Comment

Featured post

कविता वो खुश नहीं है - अरमान आनंद

वो खुश नहीं है ---------------------- उसने कहा है वो खुश नहीं है ब्याह के बाद प्रेमी से हुई पहली मुलाकात में उदास चेहरे के साथ मिली किसी बाज़...