Sunday 3 April 2016

किसान की खुदकुशी पर पाणिनी आनंद की कविता...



किसान की खुदकुशी पर पाणिनी आनंद की कविता...

· April 22, 2015
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Panini Anand : यह नीरो की राजधानी है. एक नहीं, कई नीरो. सबके सब साक्षी हैं, देख रहे हैं, सबके घरों में पुलाव पक रहा है. सत्ता की महक में मौत कहाँ दिखती है. पर मरता हर कोई है. नीरो भी मरा था, ये भूलना नहीं चाहिए.


खून रोती आंखों वाली माँ,
बेवा, बच्चे और खेत,
सबके सब तड़पकर जान दे देंगे
फिर भी नहीं बदलेगी नीयत
इन भूखी आदमखोर नीतियों के दौर में
कैसे बचेगा कोई,
किसान
जब नियति का फैसला
बाज़ार के सेठ को गिरवी दे दिया गया हो
और चाय बेचनेवाले की सरकार
ज़हर और फंदे बेचने लगे

मौत किसे नहीं आती
कौन बचा है
पर कोई सोचता है,
कि मौत के सिवाय अब कोई रास्ता नहीं
और कोई सोचता है
वो मरेगा नहीं.
लोगों को लगातार मार रहे लोग
अपने को अमर क्यों समझते हैं
अपने मरने से पहले
दूसरों को मारना
बार-बार मारना
लगातार मारना
मरने पर मजबूर करना
किसी की उम्र नहीं बढ़ाता
न ही खेतों में सहवास से,
अच्छी होती है फसल
न गंगा नहाने से,
धुलते हैं पाप
न जीतने से,
सही साबित होता है युद्ध

हत्यारा सिर्फ हत्यारा होता है
भेष बदलने से
वो नीला सियार लग सकता है
साहूकार लग सकता है
कलाकार लग सकता है
बार-बार ऐसा सब लग सकता है
लेकिन हत्यारा, हत्यारा होता है
चाहे किसान का हो,
किसी मरीज़ का,
किसी ग़रीब का,
किसी हुनर का, पहचान का
कृति का, प्रकृति का
हत्या किसी को नहीं देती यौवन
न शांति, न अभ्युदय
मौत फिर भी आती है
मरना फिर भी होता है

खौलकर उठती मरोड़,
सूखती जीभ, बंधे गले,
और रह-रहकर चौंकते हाथों में
जो विचार
अंतिम अरदास हैं
वो चाहते हैं
कि
भाप हो जाएं
ऐसे नायक, सेवक
प्रतिनिधि
जिनके रहते आत्महत्या करे अन्नदाता
शीशे की तरह टूटकर बिखर जाएं
ऐसी आंखें
जो देखती रहीं मौत को लाइव
सूख जाएं दरख्त
कागज़ों की तरह फट जाएं राजधानी की वे सड़कें
जहाँ मरने के लिए मजबूर होकर आए एक किसान
किसान मरा करे,
देश तमाशा देखता रहे,
ऐसे लाक्षागृह की सत्ता
लहू के प्यासी नीतियां
और लड़खड़ाते गणतंत्र में
आग लगे.
मुर्दा हो चुकी कौमें
हत्यारी सरकारें
और देवालयों के ईष्ट
सबका क्षय हो.
प्रलय हो.

हा रे
हा



पाणिनि आनंद
22 अप्रैल, 2015. नई दिल्ली (एक किसान की राजधानी में आत्महत्या की साक्षी तारीख)

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