Sunday 3 April 2016

जरा सी बची जिन्दगी में जरा सी बची औरत - शैलजा पाठक

जरा सी बची जिन्दगी में जरा सी बची औरत -

जीना चाहती थी जरा सा !


जरा सी बची हुई औरतों ने ,

संभाल कर रखा है खर्च का पैसा !

अपनी गाँठ से खोलती है आकाश तुम्हारी हथेली पर ,

रखती हैं जरा सी तसल्ली !

तुम जरा कम बचे आदमी -

कितना कम समझ पाते हो औरत को !!


जरा सी बीमार पड़ती है औरत -

जरा सी दवाई में हो जाती है ठीक !

जरा जरा सी जल जाती है तवे कडाही से ,

जरा सा खुरचती है भगोना !

जरा सा खा कर गठरी बन जाती है !

तुम जरा भी नही देखते कि -

जरा जरा सी देर में उठ कितना पानी पी जाती है !


जरा सी पर्ची में रखती है सारे हिसाब ,

जरा से तेल में चलाती है काम ,

जरा जरा करके खंघलती है कपड़े ,

जरा सी आँख में चुभती है नैहर की याद ,

जरा जरा सुबकती है औरते ,

तुम जरा भी नही जान पाते !


जरा सा डाक खाने की दहलीज पर बैठी हुई औरत -

जरा से पोस्ट कार्ड पर निचोड़ देगी अपना अचरा !

जरा से याद रह गये पते पर पहुचना चाहेगी !

जरा सा ही सही !


मौत आखिरी हिचकी के साथ नही मारेगी !

औरत जरा सा रंग देख लेने की चाह में ,

जरा सा खुली आँख से -

उस खाली पन्ने पर गडाएगी नजरें ,

जहाँ वो दर्ज करती रही मिलने की तारीखें ,

बदल बदल कर !


हैरान होती हुई मरेगी औरत ,

उसका जरा सा मन तुम जरा भी ना समझ पाए !

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