Sunday 3 April 2016

किसान (कविता)

किसान (कविता)

बंजर धरती पर टिकी है ,
दो हसरत भरी निगाहें।
तो कभी आसमान की और ,
देखती उम्मीद भरी निगाहें।
की शायद कोई कतरा सा ,
बादलों से होकर ज़मीन पर गिर जाए।
बस कुछ बूंदें !
जिससे इस धरती की प्यास मिट जाये.
बादल आये भी ,
मगर नियति की हवा ने उन्हें उड़ा दिया.
और फिर तेजस्वी सूरज अंगारे बरसाने लगा।
बादल ने तो क्या बरसना था।
उसकी बेबस ,बेज़ार आँखों से टपक पड़ी ,
आंसुओं की चंद बूंदें।
निर्बल ,निस्तेज काठ से बदन से टपक पड़ी,
पसीने की बूंदें।
ना बादल बरसा ,
ना खेत लहलहाए।
बंजर धरती पर लेकिन टिकी है ,
अब भी वह दो निगाहें।
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इस लिंक से साभार 

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