Friday 2 March 2018

आशुतोष सिंह की कविताएँ


                            1


जब दुनिया युद्ध की तैयारियों से सजी होगी
जब समय के चक्र में गोलियाँ आकर फँस जाएंगी
जब शहरों के भीड़ में लौट आएंगी उदासियाँ
और जब हमारी बस्तियों पर उड़ा जाएगा
कोई खून के छींटे !
ठीक उसी वक़्त
देवदार के घने जंगलों को चीरती हुई एक धूप
उस आधी नंगी औरत के बालों पर पड़ेगी
धरती सोने की तरह दमक उठेगी
वो उस वक़्त किसी महारानी की तरह
महुआ उठा रही होगी
बच्चे दूर पहाड़ियों से आती एक
काले धूल को देख कर मुस्कुरा रहे होंगे !
जब संसद के मेज़बान भाग जाएंगे
जब टीवी के चित्र धुँधले पड़ जाएंगे
जब दुनिया की मशीनें ठप पड़ जायेंगी
सारी गाड़ियाँ रुकी होंगी हरी बत्ती के
इंतज़ार में
ठीक उसी बीच
संथाल सोरबा,मुंडा लाकिया, गुण्डाधुर
तेंदू के पत्तों को समेट रहे होंगे
धान के बचे खूँटे काट रहे होंगे
शाम होते ही ज़िंदगी का ज़श्न मना रहे होंगे
उनके बच्चे सड़कों से आती अनजान चीखो को सुनकर हँस रहे होंगे !
जब महानता की मूर्तियाँ टूट जाएगी !
जब सारे दस्तावेज जला दिए जाएंगे !
जब नए भविष्य की खोज में
अतीत के हर रास्ते बंद कर दिए जायंगे
ठीक उसी बीच
पहाड़ियों से निकलती नदी
चाँदी की तरह चमक उठेगी
हवाएं बेफ़िक्र होकर गुनगुनायेंगी
सदियों पुराने गीत
जंगलों में जलने लगेंगे जीवन के दिये
जिसकी रौशनी में फीकी पड़ जाएगी
हर चकाचौंध
एक बच्चा अँधेरों में छोड़ आएगा
सभ्यताओं का पतंग
और जाकर सुनाने लगेगा हमारे वक़्त का इतिहास
अपने पूरे समाज को !
जब सारे आदर्श झुठला दिए जाएंगे !
जब हर सिद्धांत सड़ाकर फेंक दिए जाएंगे
जब दुनिया के विश्वास किसी उदास पतझड़
में टूट कर जमी पर कुचल दिए जाएंगे
ठीक उसी बीच !
उनके सुरजमुखी के खेत दमक उठेंगे
आसमान से ईश्वर लौट रहे होंगे
जीवन नशे में झूम रहा होगा
लोग आराम से चुप होकर
हमारे घावों को पढ़ रहे होंगे
वो बच्चा यूँ निकल जाएगा अपने गाँव मे कही
और दूर सड़कों पर जल रहे शहरों को
देखने लगेगा
जब प्रेम के आख़िर पत्र लिखे जाएंगे
जब धर्म के हर मंत्र अर्थहीन हो जाएंगे
जब इंसानियत के शब्द फ़िज़ूल रह जाएंगे
जब शांति के गीत थोथे पड़ जाएंगे
ठीक उसी वक़्त !
साल के बागानों में
काजू के मैदानों में
बाँस के धीमे छावं में
पहाड़ियों के गाँव मे,
जंगलों के ताह में,
कोई सुन रहा होगा
एक दूसरे की ख़ामोशी
एक दूसरे की चुप्पियाँ
एक दूसरे के गीत
जिसके धुनों में रहेगी
वक़्त की कहनियाँ
सभ्यतायों की निशानियां
जब दुनिया सूरज के धूप से जल जाएगी
जब दुनिया समंदर के लहरों से बह जाएगी
जब दुनिया परमाणु से अणुवों में टूट जाएगी
जब दुनिया युद्ध की मृत्युशय्या पर सो जाएगी
ठीक उसी बीच
हाँ ठीक उसी बीच
एक बूढ़ी औरत निकल आएगी
और पूरी हिम्मत से
बची हुई दुनिया को चीख चीख कर
अपनी आदिवासी चेतना को कहेगी !
जीवन का अंत मतलब सृष्टि का अंत है !
वो कहेगी की उसकी चेतनाओं में
प्रकृति साँस लेती है !
नदियाँ ,पहाड़ ,जंगल आवाज़ देते हैं !
वो बार बार कहेगी अपनी
दुनिया के बारे में पूरी शक्ति से !
और वो लौट आएगी
एक बार फिर से
उन मिट्टी के घरों में जहाँ
वो सदियों से रहती आ रही है !
_____________




                     2


संभोग की कहानियाँ बाज़ार में
खुलेआम सुनाए जाते हैं !
हर बार बोलने वालों से ज्यादा
सुनने वाले मौज़ूद होते हैं !
दिमाग मे शरीर की गंध फैल जाती है !
नशा सा चढ़ जाता है !
हॉर्मोन खून में उबाल भरने लगता है !
कल्पनाएं कौंध जाती है
सूखे बाल चोट करते हुए मालूम पड़ते हैं !
उनके होंठ आग भरते हैं !
पैरों में जलन होती है
लड़की फिर लड़की की तरह
नज़र नही आती !
सबकुछ धुंधला पड़ जाता है !
इज़्ज़त के ऊपर भूख की परत
चढ़ जाती है !
अस्मिता की दीवारें सिलवटों से
बिखर जाती है
हमारे भीतर की सारी साँस
आवाज़ दे जाती हैं !
हम बिखर कर टुकड़ों टुकड़ों
में बंट जाते हैं !
ऐसी कहानियाँ हमे भीतर
तक गूँथ देती है !
जिसके एक पोर पे
प्रेम होता है !
दूसरे पर इच्छा !
इच्छा और प्रेम के बीच
में वो लड़की
उदास बैठे हमे देखती रहती है !

_____________
©आशुतोष सिंह

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