Tuesday, 6 March 2018

तुम्हारा स्तन उघड़ा कैसा : श्रुति अग्रवाल

                      तुम्हारा स्तन उघड़ा कैसा...


एक बहस चल रही है...मैग्जीन के कवर पेज पर गिलू जोसेफ नवजात को दूध पिला रही हैं। उनका स्तन उघारा है। ये उघारा स्तन कईयों के दिमाग की गंदगी को बजबजा रहा है। लोगों के मस्तिष्क में बसी गंदगी उल्टी के रुप में वापस आ रही है।
गिलू के, पत्रिका के खिलाफ नित नए मुकदमें दर्ज करा लोग अपनी पुरुषवादी मानसिकता को पोषित कर रहे हैं ।

       .....शुक्रिया! इस बहस ने मेरे अंदर कुछ भूले-बिसरे मीठे से दर्द को फिर जीवित कर दिया। वह दर्द जब मेरे बेटे ने पहली बार मेरे स्तन पर अपना मुख लगाया था...तड़प उठी थी...जब दूध से पेट भर जाता तो वह उस पर अपने मसूड़ों की रगड़ छोड़ जाता। "बच्चा छोटा है, दवाई ना लगइयों...ये टेर लगाती दाईमाँ सिर्फ घी लगाने देती"। स्तन के निप्पल से बूंद-बूंद दूध के साथ बूंद-बूंद रक्त निकलता, भयावह दर्द होता, तड़प जाती। फिर अपने लल्ला के चेहरे का संतोष और उसे मीठी नींद में खोया देख सारे दर्द औऱ तड़प गायब। जब उसके दांत आने वाले थे...तब ...दांत आने के बाद...दंतपक्तिंका ( एक दांत-दो दांत बाकी मसूड़े) स्तन पर साफ देखी जा सकती थी। ये सच्चा किस्सा तो हर माँ का सांझा होता है ना! वे पुरुष जो आज गिलू को ट्रोल कर रहे हैं वे इस तीखी-मीठे दर्द की दास्तां क्या जाने। उन्होंने अपने बच्चों को स्तनपान का सुख लेते देखा ही ना होगा! पत्नी ने पर्दा जो कर रखा होगा। माँ ने कैसे दूध पिलाया ये तो कब का बिसुर गए।

अब जरा मैग्जीन के किस्से पर आती हूं...क्या आपको स्वयं को सभ्य कहने में शर्म नहीं आती? कितना सैक्स और गंदगी भर रखी है दिमाग में? एक स्तनपान करा रही माँ की तस्वीर यदि आपके समाज के लिए खतरा है, तो नष्ट-भ्रष्ट हो जाने दीजिए ऐसे समाज को। मैं इस खोखले समाज का नाश ही चाहूंगीं। आपको हर बात में गंदगी मिलती है। आश्चर्य तो तब होता है जब पोंगा पंडित या फलां-फलां धर्म रक्षक उठ खड़ा होता है, संस्कृति बचाव के लिए। माफ कीजिए, उघारे स्तन से दुग्धपान करना हिंदू धर्म की परिपाटी है। जरा दिमाग को पोंगे पंडितों के अशुद्ध वचनों से हटाकर वेद-पुराण की और कीजिए। सति अनुसूईया का किस्सा याद आएगा। जिन्होंने ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों को बालक बना निःवस्त्र हो दूध पिलाया। आप शिव को दूध पिलाती तारा माँ को कैसे भूल सकते हैं या फिर अभी भी माँ अंजना में अटके हैं, जो पत्थर की आड़ से बाल हनुमान को दूध पिलाती थीं। किस दुनिया में जी रहे हैं? कभी अपने विचारों पर शर्म नहीं आती ? कभी घृणा नहीं होती आप माँ और बच्चे के संबंध पर अंगुली उठा रहे हैं? हम सब मिलकर एक घृणित समाज की रचना कर रहे हैं, जहां माँ का सार्वजनिक रुप से बालक को दूध पिलाना भी शर्म का विषय है।

विलन की कुटाई करते हुए आपने हीरो का डॉयलॉग सुना होगा- 'अपनी माँ का दूध पिया है तो सामने आ....।' मैंने अपनी माँ का दूध पिया है, अपने बेटे को दूध पिलाया है, इसलिए कह रही हूं इस बकवास को यही बंद कीजिए। एक माँ अपने बच्चे की परवरिश कैसे करे यह उसका हक है, कैसे उसे दूध रूपी अमृत पिलाए ये उसका हक है। वो दूध पिलाते समय आंचल ओढ़े, सार्वजनिक जगहों पर दूध ना पिलाए...दूध पिलाते समय शालीन रहे...ये बकवास अपने गंदे दिमाग तक ही सीमित रहे। यदि एक माँ के उघारे वक्षस्थल देख, कामांध होने का डर लगता है तो आपकी जगह यह समाज नहीं बल्कि पागलखाना है। डॉक्टर के पास जाएं, अपने दिमाग का इलाज कराएं। 

मैं माटी की नार...मैं क्या जानू मिटना। बस तड़कती हूं कभी, मेघों से इश्क किया है गहरा, चंद बूंदे ही मेरा शरीर महका देती हैं। हर दर्द भूल मैं फिर उर्वरा हो जाती हूं...माटी से ना जाने कब शस्यश्यामला धरा बन जाती हूं। मैं माँ हूं...धरा हूं...तुम अपने दिमाग की गंदगी के कीचड़ में धंसे रहो, मैं उसी कीचड़ में कमल बनकर मुस्कुराऊंगीं क्योंकि मैं माटी की नार...माँ बनना सिर्फ मेरा ही अधिकार, इस पर प्रश्न उठाने की अनुमति में किसी को भी नहीं दे सकती...कुछ समझ में आया।
श्रुति अग्रवाल

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