Sunday 4 March 2018

आइए , चलें व्यास घाटी की सैर करें - Er S. D. Ojha

                    आइए , चलें व्यास घाटी की सैर करें ..

वेदों का व्यास करने वाले ऋषि वेद व्यास कहलाए । कहते हैं कि वेद व्यास ने हीं अठारह पुराणों की रचना भी की थी । विश्व प्रसिद्ध महाभारत की रचना उन्हीं के द्वारा की गई थी । महर्षि वाल्मीकि के बाद संस्कृत के कवियों में वही थे जो अलौकिक प्रतिभा के धनी थे ।
वे ऋषि परासर व सत्यवती के पुत्र थे । उन्होंने बचपन से हीं जप तप करने को ठान लिया था। माता सत्यवती से आज्ञा लेकर उन्होंने वन गमन किया । यमुना के तट पर कहीं उनका आश्रम था । माता सत्यवती को जब भी किसी परामर्श की जरूरत होती वे उन्हें राजमहल में बुला लेतीं थीं । वे माता सत्यवती को उचित परामर्श दिया करते थे । उनके योगबल से हीं धृतराष्ट्र , पाण्डु और विदुर का जन्म हुआ था । उन्होंने हीं संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी, जिससे वे धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा हाल सुना पाए । महर्षि वेद व्यास को विष्णु का रूप माना गया है ।
व्यासाय विष्णु रूपाय , व्यास रुपाय विष्णवे ।
नमो वै ब्रह्म निधये , वशिष्ठाय नमो नमः ।।

( व्यास विष्णु के रुप हैं , तथा विष्णु हीं व्यास हैं । वशिष्ठ मुनि के वंशज को मैं नमन करता हूं )

वेद व्यास ने जिस घाटी से होकर कैलाश मान सरोवर की यात्रा की थी , उस घाटी को व्यास घाटी कहा जाता है । महर्षि व्यास ने आज से साढ़े तीन हजार साल पहले जिस रूट से कैलाश मान सरोवर की यात्रा की , वह रूट आज भी विद्यमान है । भले हीं आज सड़कें बन गयीं हैं , पर उस रूट की प्रासांगिकता आज भी उतनी हीं है , जितनी उन दिनों थी । 2010 के आस पास जब कुमाऊं मण्डल की अधिकांश सड़कें बर्षा से क्षतिग्रस्त हो गयीं थीं । ऐसे में सबको महर्षि व्यास द्वारा ईजाद किए गये रूट की  याद आयी । रूट जो कच्चा था , पर पैदल चलने वालों के मन माफिक था । ऐसे में इस रूट की पुनः खोज शुरू हुई । खोज की जिम्मेदारी आई टी बी पी को सौंपी गयी । आई टी बी पी ने अपने सतत प्रयत्न से उस रूट को खोज निकाला है। अब जब कभी इस तरह की दिक्कत होगी तो यह रूट बखूबी इस्तेमाल किया जा सकता है  ।
कहते हैं कि मान सरोवर यात्रा के क्रम में वेद व्यास ने कुमाऊं मण्डल के जौलजीबी नामक जगह पर कुछ दिनों के लिए विश्राम किया था । जौलजीबी पिथौरागढ़ से 68 किलोमीटर की दूरी पर है । यह काली व गोरी ग॓गा के संगम तट पर स्थित है । स्कंद पुराण के अनुसार कैलाश मान सरोवर यात्रा करने वालों को इस संगम में स्नान करने के बाद हीं आगे की यात्रा करनी चाहिए । काली व गोरी नदी के संगम पर शिव का एक मंदिर बना है , जिसमें एक छड़ी रखी गयी है । जनश्रुति के अनुसार यह छड़ी वेद व्यास की है । इतने सालों बाद भी यह छड़ी जस की तस है । इसका कोई बाल बांका नहीं हुआ है । आज भी कैलाश मान सरोवर के यात्री इस मंदिर में पूजा अर्चना करने आते हैं । इस पवित्र छड़ी के दर्शन लाभ का सुयोग उठाते हैं । जौलजीबी से 10 किलोमीटर की दूरी पर "काला पानी की पहाड़ी " है , जहां गरम पानी का स्रोत है । यह स्रोत औषधीय गुणों से भरपूर है । सैलानी इस पानी को केनियों में भरकर अपने साथ ले जाते हैं  ।
वेद व्यास की याद में जौलजीबी में एक भव्य मेले का आयोजन होता है ।आजकल यह मेला मकर संक्रांति को लगता है । जौलजीबी का यह मेला भारत नेपाल की साझा संस्कृति का एक हिस्सा है । इस मेले में पहले तिब्बत के व्यापारी भी शिरकत करते थे । वे अपने यहां से शाल व कालीन लाते थे । जब से भारत चीन का युद्ध हुआ , यहां तिब्बती व्यापारी नहीं आते । मेले में कुमाऊं से सम्बंधित सांस्कृतिक कार्यक्रम , नृत्य व संगीत का आयोजन होता है । पहली बार इस मेले का आयोजन 01 नवम्बर 1914 को हुआ था । इसकी शुरूआत गजेंद्र बहादुर पाल ने की थी ,  जो अस्कोट के महाराज के ताल्लुक दार थे । लोग काली व गोरी गंगा के संगम पर स्नान कर संगम तट पर बने शिव मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं ।
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जौलजीबी से गोरी नदी के साथ साथ बढ़ते हुए आप मुनस्यारी तक पहुंच जाएंगे । मुनस्यारी और उसके आगे का पूरा इलाका जोहर घाटी कहलाता है । चूंकि अभी हम व्यास घाटी की बात कर रहे हैं तो हाल फिलहाल उसी की चर्चा करें । यही श्रेयस्कर होगा अन्यथा विषयांतर हो जाएगा । व्यास घाटी में काली नदी के साथ अगर हम चलेंगे तो धारचुला पहुंच जाएंगे । धारचुला जो जौलजीबी से मात्र 28 किलो मीटर हीं दूर है । बताते चलें कि धार पहाड़ को कहते हैं । चूल्हा को यहां चुला कहते हैं । वही चूल्हा , जिसमें हमारा भोजन पकता है । अतः धारचुला का मतलब हुआ पहाड़ का चूल्हा । एक और धारचुला का कंस्पेट बनता है । धार से धारण करना भी होता है । जो चूल्हा धारण करता है उसे धारचुला कहा जाएगा । वैसे भी धारचुला की शकल ऊपर से चूल्हे जैसी दिखती है , इसलिए इसका धारचुला नाम हीं सार्थक है ।
कैलाश मानसरोवर के यात्री यहां विश्राम करते हैं । यहां कुमाऊं विकास निगम का गेस्ट हाऊस है । काली नदी के उस पार नेपाल पड़ता है । नेपाल में भी एक धारचुला है । इस धारचुला का नेपाली उच्चारण दार्चुला है । धारचुला और दार्चुला को जोड़ने के लिए काली नदी पर एक पुल बना है । पुल झूला पुल है । इस झूला पुल से हम दार्चुला में जाकर खरीददारी करते थे । यहां ओरिजनल कोरियन कम्बल सस्ते दामों पर मिलते हैं । धारचुला और दार्चुला के लोगों में बेटी रोटी का रिश्ता चलता है । कभी पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल(बंगला देश ) में यह नारा लगता था - एपार बांगला ओपार बांगला ( इस पार बंगाल , उस पार बंगाल )। आज उसी तर्ज पर हम एपार धारचुला ओपार दार्चुला कह सकते हैं । यहां धारचुला और दार्चुला के लोग दोनों हीं मिल जुलकर रहते हैं । किसी के यहां बे रोक टोक जा सकते हैं । कोई मनाही नहीं है । दार्चुला से बड़ी संख्या में विद्यार्थी धारचुला में अध्ययन के लिए आते हैं ।
कुछ दिनों के लिए धारचुला और दार्चुला के हालात बहुत हीं खराब हो गये थे । माओवादियों ने धारचुला व दार्चुला को जोड़ने वाले पुल पर गोलीबारी करनी शुरू कर दी थी । यहां वहां के लोगों के मिलने जुलने पर रोक लगा दी थी । सब कुछ भगवान भरोसे रह गया था । माओवादियों के मुखिया प्रचंड ने आम जन का जीना मुहाल कर दिया था । मैंने खुद दार्चुला में भारत विरोधी नारे लिखे हुए देखे थे । जब हम व्यास घाटी की अग्रिम चौकियों के लिए निकलते थे तो काली नदी के पार एक लाइन से लगे माओवादियों के टेण्ट नजर आते थे । हर समस्या का समाधान होता है । इसका भी समाधान हुआ । माओवादी राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़े । धारचुला और दार्चुला में फिर एक बार एका हुआ । लोगों के बेटी रोटी का रिश्ता फिर जनम लिया । आज एपार धारचुला ओपार दार्चुला है । बीच में झूला पुल है दोनों को बखूबी जोड़ता हुआ ।
धारचुला चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ है । धारचुला पहले एक व्यापारिक केंद्र था । यहां मण्डियां लगती थीं । तिब्बत से यहां व्यापारी आते थे । मण्डी में भेड़ बकरियों की खरीद फरोख्त होती थी । यहां से मसाले व नमक तिब्बती ले जाते थे । 1962 के बाद यह व्यापार बंद हो गया । यह व्यापार भारत चीन की लड़ाई को भेंट हो गया । व्यापार को ग्रहण लग गया । व्यापार बरबाद हो गया । अब 1991 से व्यापार शुरू हुआ है तो वह लिपुलेख दर्रे से । धालचुला अब भी अछूता है । धारचुला की अर्थ व्यवस्था को बहुत गहरा धक्का लगा है । इस धारचुला का अस्तित्व 6ठी शताब्दी से है । इतिहास में यहां नंद वंश और मौर्य वंश के शासन का जिक्र मिलता है । राजा विंदुसार के समय में खासों ने अच्छा खासा विद्रोह कर दिया था । वे अपना स्वतंत्र शासन चलाने लगे थे । सम्राट अशोक ने बाद में इस विद्रोह को दबा दिया था । विद्रोह करने वालों को चुन चुन कर मृत्यु दण्ड दिया था । उस दौर के स्थानीय खासों राजा मनदीप का जिक्र आया है ।
धारचुला की पहाड़ों पर जब बर्फ पड़ती है तो धारचुला वासी पहाड़ों की तरफ रूख करते हैं । अधिकांश घरों में ताले लग जाते हैं । लोग एक खास तरह के कीड़े की खोज करते हैं । यह कीड़ा " यारसा गम्बू " कहलाता है , जिससे पुंसत्व की दवा बनती है । यह कीड़ा वर्फ में दबा होता है । इसे खोदकर निकाला जाता है । धारचुला के लोगों के लिए इससे बहुत आर्थिक मदद मिलती है । कहते हैं कि यह कीड़ा 25- 30 लाख रूपए किलो बिकता है । इस बात में कितनी सच्चाई है , यह तो नहीं मालूम ; लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि पुंसत्व के लिए लोग एक मोटी रकम खर्च करने को सदैव तत्पर रहते हैं ।
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धारचुला से तवाघाट की सड़क चौड़ी और दोष रहित है । तवाघाट में धौली गंगा काली नदी से मिलती है । पहले कैलाश मान सरोवर यात्रा के लिए तवा घाट से खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती थी । यह चढ़ाई 14 किलोमीटर दूर नारायण आश्रम पर खतम होती थी । अब रास्ता बदल गया है । सड़क मार्ग बन गया है । अब आप आसानी से मांगती तक कार से पहुंच सकते हैं । सड़क बन जाने की वजह से नारायण आश्रम में आने वाले सैलानियों में बहुत कमी आ गई है । फिर भी अभी बहुत से सैलानी आत्मिक शांति के लिए यहां आते हैं । रात भर ठहरकर अपने गंतव्य को चल पड़ते हैं । यहां आश्रम की तरफ से खाने व सोने की व्यवस्था है । आश्रम आपसे बहुत कम चार्जेज लेता है । आप स्वेच्छा से आश्रम को कुछ दान भी दे सकते हैं । यह दान आश्रम के रख रखाव में खर्च होता है । आश्रम में 40 कमरे हैं ।
नारायण आश्रम समुद्र तल से 2734 मीटर की ऊंचाई पर है । यह पिथौरागढ़ से 116 किलोमीटर की दूरी पर सोसा ग्राम के निकट है । सोसा ग्राम के स्वर्गीय कुशाल सिंह हयांकी ने आश्रम हेतु जमीन दान में दी थी । इस दान की हुई जमीन पर नारायण स्वामी ने यह भव्य आश्रम बनवाया । बात 1936 की है । कुछ और जमीन भी ली गयीं । जो दान देने में सक्षम नहीं थे , उनकी जमीन की कीमत उन्हें दी गयी । अब इस आश्रम में सड़क मार्ग से जाया जा सकता है । जब मैं यहां गया था , तब सड़क कच्ची थी । ड्राइवर जरा भी चूकता तो गाड़ी सीधे हजारों फीट नीचे गिरती । आश्रम का रख रखाव बड़े ढंग से किया गया है । यहां बहुत हीं सुंदर उद्यान है , जिसमें गुलदाउदी और डेहलिया के फूल खिले रहते हैं । यहां से दूर दूर तक पहाड़ों का नयनाभिराम दृश्य आपको बांध कर रखता है ।
स्थानीय लोग यहां गुरू पूर्णिमा और जन्मष्टमी को एकत्र होते हैं । उस दिन लंगर लगता है । सबको भोजन कराया जाता है । सारा खर्च स्थानीय लोगों का होता है । आश्रम प्रशासन से ये लोग कुछ नहीं लेते । इस आश्रम में एक बहुत बड़ा पुस्तकालय भी है , जिसमें हिंदी अंग्रेजी की पुस्तकें भरी पड़ी हैं । अभी यहां मेडिकल सुविधा मुहैय्या नहीं हो पाई है । किसी आकस्मिक हारी बीमारी पर धारचुला जाना पड़ता है । यहां आने के लिए सितम्बर अक्टूबर का महीना सबसे मुफीद होता है । बरसात के मौसम में कीचड़ भरे रास्तों से कार में यात्रा करना निरापद नहीं होता ।
नारायण आश्रम के संस्थापक नारायण स्वामी ने अस्कोट के समीप मिर्थी में एक डिग्री कालेज भी बनवाया है । यह पूरा क्षेत्र नारायन नगर के नाम से मशहूर है । मिर्थी में हीं आई टी बी पी का वाहिनी मुख्यालय भी है । नारायन स्वामी का जन्म 1908 में कर्नाटक में हुआ था । इनके बचपन का नाम राघवेंद्र था । बचपन में हीं इनके पिता का निधन हो गया । इनका लालन पालन इनके चाचा के यहां रंगून में हुआ । बड़े होने पर इनका मन सांसारिक कामों में नहीं रमा । इन्हें बैराग सताने लगा । ये हरिद्वार आ गये । यहां विधिवत दीक्षा लेकर ये राघवेंद्र से नारायन स्वामी बन गये । नारायन स्वामी उत्तरकाशी में रहकर भगवत भजन के साथ साथ सामाजिक कल्याण के काम भी करते रहे ।
उत्तरकाशी से एक दल कैलाश मान सरोवर यात्रा के लिए निकल रहा था । स्वामी जी भी उस दल में शामिल हो गये । यह दल जोहर घाटी से कैलास मान सरोवर यात्रा पर निकला था । आते समय दल व्यास घाटी होते हुए सोसा पहुंचा ।सोसा पहुंचकर नारायण स्वामी ने दल का साथ छोड़ दिया । उन्होंने यहां आश्रम बनवाया । यह आश्रम नारायण आश्रम के नाम से मशहूर हुआ । बाद के दिनों में उन्होंने मिर्थी में एक महाविद्यालय भी बनवाया । यहां एक मंदिर भी है । भगवान को भी उनकी जरूरत आन पड़ी । नारायन नगर में हीं उनकी तवियत खराब हुई थी । कलकत्ता में इलाज हुआ । इलाज के दौरान उनकी मौत हो गयी । मौत कैंसर से हुई थी ।

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नारायण आश्रम से उतराई पड़ती है । यात्री जल्द हीं गाला
पहुंच जाते थे । गाला में कुमाऊं विकास निगम का गेस्ट हाऊस है । यहां यात्री ठहरते हैं । आजकल गाला पहुंचना बहुत आसान है । तवाघाट से मांगती नाला तक सड़क मार्ग बन गया है । मांगती नाला से गाला तक पैदल चढ़ाई है , जो पौने घंटे में पूरी होती है । फिर आगे की यात्रा के लिए वापस मांगती नाला आना पड़ता है । यहां से शांति वन तक अब शायद सड़क बन गयी है । शांति वन से आगे मालपा पड़ता है । यहां भी कुमाऊं विकास निगम का गेस्ट हाऊस है । ऊपर गेस्ट हाऊस , नीचे सिविलियनों की दूकानें हैं । इन दूकानों में जरूरत का हर सामान मिलता है । दूकानों के पास हीं पहाड़ टूटने का टनों मलबा पड़ा है। 12 अगस्त 1998 की रात को यहां पहाड़ टूटा था , जिसमें सैकड़ों जिंदगियां खत्म हो गईं थीं ।

12 अगस्त 1998 को कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए जा रहा 12 वां बैच मालपा में रुका था । इस बैच में प्रसिद्ध नृत्यांगना और अभिनेता कबीर बेदी की पत्नी मोनिका बेदी भी थीं । खूब आमोद प्रमोद नाच गाना हो रहा था । कुछ लोगों ने दिन में हीं ऊपर का पहाड़ खिसकते हुए देखा था । उन लोगों ने 12 वें बैच से यहां से आगे चले जाने के लिए कहा था । भगवत् भजन में मगन तीर्थ यात्रियों ने कोई ध्यान नहीं दिया । मोनिका बेदी का नृत्य चल रहा था । तबले की थाप व घूंघरू की छनछन से वातावरण खुशगवार हो रहा था । रात्रि का प्रथम प्रहर था । तभी अचानक पहाड़ टूटा । जोर की आवाज हुई । जब तक कोई समझे बूझे तब तक पहाड़ नीचे आ गया था । उस मलवे की नीचे सैकड़ों जिंदगियां जमीनदोंज हो गयीं ।
12 वें बैच में 80 तीर्थ यात्री थे । उनके साथ घोड़े खच्चर वाले और कुली भी थे । तकरीबन डेढ़ सौ लोग काल कवलित हुए होंगे । आई टी बी पी का कैम्प भी यहां से कुछ दूरी पर था । छः जवान थे । वे भी मोनिका वेदी का नृत्य देखने के लिए आए थे । गनीमत थी कि वे उस समय अपनी बैरकों में जा चुके थे । पास के दूकानदारों और आई टी बी पी के जवानों ने रात को हीं रेस्क्यू आपरेशन चलाया । कहते हैं कि सुबह तक मोनिका बेदी व कुछ अन्य की लाशें मिल गयीं । तभी अचानक काली नदी का जल स्तर बढ़ा और ये लाशें उसमें समा गयीं । कुछ नहीं किया जा सका । काली नदी मालपा से बिल्कुल सट कर बहती है । आगे का रेस्क्यू अभियान बड़े पैमाने पर चला । आई टी बी पी की एक पूरी कम्पनी लगायी गयी । लेकिन मलवा इतना ज्यादा था कि उसे हटाना सम्भव नहीं हो पाया । सड़क पक्की नहीं थी । आधुनिक मशीनें वहां नहीं भेजी जा सकीं । उम्मीद है कि अभी भी बहुत सी लाशें इस मलवे में दबी हुई हैं ।
मालपा कांड के बाद आई टी बी पी का कैम्प और आगे लामारी में शिफ्ट कर दिया गया । जब मैं 2002 में वहां गया तो बैरकों का सामान वहां पहुंचा दिया गया था । बैरकें नये सिरे से खड़ी की जा रहीं थीं । मालपा में अब भी हमारी जमीन है , जिसे कुमाऊं विकास निगम इस्तेमाल कर रहा है। इस जमीन में कुमाऊं विकास निगम के यात्रा के समय टेंट गड़े होते हैं , जिनमें यात्री विश्राम करते हैं । यात्रा पर आने या यात्रा पूर्ण कर जाने वाले यहीं कुछ देर के लिए रुकते हैं । चाय पानी या भोजन करने के बाद आगे को प्रस्थान करते हैं । लामारी में बहुत कम जमीन है । एक छोटी सी पगडंडी किनारे यह काली नदी के स्तर से थोड़ा ऊपर बसा है । यहां खच्चरों की लीद व उनके मूत्र विसर्जन से जमीन कीचड़मय व दुर्गंध युक्त रहती है । यहां आई टी बी पी के अतिरिक्त कुछ सिविल परिवार भी रहते हैं ।
शांति वन से आगे मालपा व लामारी तक की यात्रा काफी तकलीफ देह है । कदम एहतियात से रखने पड़ते हैं । जरा सी चूक होने पर सीधे आदमी काली नदी में जा सकता है । काली नदी बहुत शोर करती है । शोर कर यह बताती है कि सम्भल जा कि वक्त है अब सम्भलने का । कई खच्चर हर साल काली नदी में गिर जाते हैं । रास्ते में ऊपर से पत्थर भी गिरते रहते हैं । उन पत्थरों की जद में आकर बहुत लोग चोटिल हो जाते हैं । कई का स्वर्ग का परवाना भी कट जाता है । कई जगह ऊपर से पानी गिरता रहता है , जिनसे बचते बचाते हमें निकलना पड़ता है । फिर भी पानी की धार पड़ के हीं रहती है । रास्ता बेहद पथरीला , संकरा व फिसलन भरा है । इस पर चलना सिर हथेली पर लेकर चलना है । बावजूद इसके इस पर तीर्थ यात्री चलते हैं आस्था के वशीभूत होकर । आई टी बी पी चलती है कर्तव्य के वशीभूत होकर । सिविलियन चलते हैं अपने घर के लिए , रोटी पानी के चक्कर के वशीभूत होकर ।

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लामारी से बुधी का रास्ता चौड़ा , पत्थर कम मिट्टी का
ज्यादा होता है । चलने में आसानी होती है । काली नदी भी थोड़ी दूर होकर बहने लगती है । काली नदी में गिरने का भय अब जाता रहता है । लामारी से बुधी जाने में घंटा डेढ़ घंटा लग जाता है । पार नेपाल के पहाड़ हाय हेलो बोलते रहते हैं । हमने पार माओवादियों के कैम्प भी देखे हैं । वे हथियारों से लैस हो घूमते नजर आते हैं । बुधी पहुंचने में यात्री पसीने पसीने हो जाते हैं । बुधी में एक पी डब्लू डी का गेस्ट हाऊस है । इस गेस्ट हाऊस में आई टी बी पी के आफिसर ठहरते हैं । वैसे किराए की बिल्डिंगों में आई टी बी पी का एक ट्रांजिट कैम्प भी रन करता है । कुमाऊं विकास निगम के हट भी हैं , जिनमें यात्री ठहरते हैं । जब मैं पहली बार गया था , तब पी डब्लू डी गेस्ट हाऊस खाली नहीं था । मैं अपने ट्रांजिट कैम्प में ठहरा । नेपाल के अन्नपूर्णा पहाड़ बड़ा हीं अद्भुत नजारा पेश करता है ।

दूसरे दिन नाश्ता कर छियालेख के लिए सुबह सुबह हीं निकलना पड़ता है । यहां से 3 किलोमीटर छियालेख है । खड़ी चढ़ाई है । इस खड़ी चढ़ाई को सुबह के वक्त पार करने में कम पसीना आता है , बरना बाद में तो सिर का पसीना पांव तक आता है । इस खड़ी चढ़ाई पर हीं मेरी मुलाकात मेरे अजीज मित्र धनजीत सिंह विष्ट से हुई थी । तकरीबन 20 साल बाद । वे आई टी बी पी से रिटायर्ड होकर इस मार्ग पर व्यापार करने में लग गये थे । छियालेख पहुंचकर ऐसा लगता है कि हम किसी फूलों की घाटी में पहुंच गये हैं । यहां रंग विरंगे फूल आप रुपी खिले होते हैं । यहां कुमाऊं विकास निगम द्वारा चाय पानी का इंतजाम किया जाता है । आई टी बी पी का भी यहां एक कैम्प है , जो अपने कर्मियों को चाय पानी पिलाता है । मैंने यहां एक पोस्ट कमांडर हट बनवाना शुरू किया था । अब तक तो वह बनकर पुरान चिरान भी हो गया होगा । बात 2005 की है ।
छियालेख से गर्ब्यांग तक का रास्ता 4 किमी हीं है । हवाई दूरी तो केवल एक किलोमीटर की हीं होगी । पहाड़ों के टेढ़े मेढ़े रास्ते वास्तविक दूरी को बहुत बढ़ा देते हैं । आश्वस्त होने की बात यह है कि गर्बयांग जाने के रास्ते में कहीं भी चढ़ाई नहीं है । हम खरामा खरामा आराम से गर्ब्यांग पहुंच जाते हैं । दुःख के बाद सुख आता है । इसी तर्ज पर छियालेख की चढ़ाई के बाद गर्ब्यांग की उतराई आती है । गर्ब्यांग एक गांव है , जहां की आबादी करीब 300 थी कभी । अब यहां के बहुत से लोग टनक पुर में बस गये हैं । टनकपुर में पूरे गर्ब्यांग के लोगों को सरकारी जमीन आवंटित हुई है । दरअसल गर्ब्यांग के मकान झुकते जा रहे हैं । जांच से पता चला है कि यह गांव एक ग्लेशियर पर खड़ा है । ग्लेशियर जैसे जैसे पिघल रहा है वैसे मकान अपनी स्थिति छोड़ते जा रहे हैं । झुकते जा रहे हैं । यहां के घरों के दरवाजे नक्काशीदार हैं । गांव में पतली पतली गलियां हैं । ढेर सारे घरों में ताले बंद हैं । टनकपुर से यहां के लोग साल में एक बार आते हैं । अपनी गलियां और चौबारा देखकर चले जाते हैं । कुछ बड़े बुजुर्गों का मन यहीं रमा है । वे गरमी जाड़ा बरसात यहीं काटते हैं । जन्म भूमि से उनका मोह छूटे नहीं छूट रहा है ।
गर्ब्यांग में भी आई टी बी पी की एक पोस्ट है । यहां कैलाश मान सरोवर यात्रियों के कागजात चेक किए जाते हैं । कुमाऊं विकास निगम का यहां कोई गेस्ट हाऊस नहीं है । एक पी डब्लू डी का गेस्ट हाऊस है , जो आई टी बी पी के चार्ज में है । सभी यात्री यहां से 10 किलोमीटर दूर गुंजी में रात्रि विश्राम करते हैं । गर्ब्यांग से नेपाल का छांगरू गांव नजर आता है । दोनों गांवों का आपस में शादी व्याह होता रहता है । दोनों गांवों को जोड़ने के लिए एक पुल है काली नदी पर । इस पुल को सीता पुल कहते हैं । सीता ने राम से व्याह कर कभी उत्तर प्रदेश और बिहार को रिश्ते की डोर में बांधा था । अब यहां गर्ब्यांग का सीता नाम का पुल भारत व नेपाल को रिश्ते की डोर में बांधता है ।
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गर्व्यांग पोस्ट पर एस टी डी की सुविधा थी । नेपाल पुलिस के लोग भी हमारे यहां फोन करने आते थे । मेरी उन लोगों से बात चीत होती रहती थी । एक सब इंस्पेक्टर थे । उनका पूरा नाम अब मुझे याद नहीं । सभी उन्हें जोशी कहते थे । जोशी साहब के साथ कुछ सिपाही भी आते थे । जोशी साहब कहते थे कि उनके यहां भी ओझा होते हैं । बड़े उत्तम बाभन होते हैं । बाभन शब्द भोजपुरी का है । एक नेपाली से भोजपुरी का शब्द सुनकर मैं रोमांचित हुआ । उन पुलिस वालों की ड्यूटी सीता पुल पर लगी थी । माओवादियों की गतिविधियों पर कंट्रोल करने के लिए उनको वहां तैनात किया गया था । वे अक्सर ड्यूटी खत्म होने के बाद इस पार आ जाते । आई टी बी पी के पोस्ट कमांडर के साथ जोशी साहब की गहरी छनती । दोनों साथ में शाम को कुछ दूर टहलने के बाद इस पार उस पार हो जाते ।
एक सुबह मैं नाश्ता करने के बाद गुनगुनी धूप में बैठा हुआ था । उस दिन मैं वाहिनी मुख्यालय जाने वाला था । खच्चर पर मेरा सामान लोड हो रहा था । मेरा गर्ब्यांग का काम खतम हो गया था । मैंने यहां के निर्माण कार्यों की पैमाइश ले ली थी । मैं जाने को उद्दत हुआ तभी वहां नेपाली पुलिस का एक सिपाही भागता हुआ आया । उसकी सांस बहुत तेज चल रही थी । मैंने उसे बिठाया । पानी मंगवाया । उसके परेशान होने का सबब पूछा । सिपाही ने जो बताया उसका लब्बोलुआब यह था कि रात को माओवादियों ने नेपाल पुलिस कर्मियों पर हमला किया था । सबइंस्पेक्टर जोशी और एक सिपाही जगह पर हीं खतम कर दिए गए थे । एक सिपाही को खुखरी मारकर घायल कर दिया था । जो यह बच गया था , वह रात के अंधेरे का फायदा उठाकर भाग निकला था । सुबह लौटकर उसने जोशी व एक अन्य सिपाही की लाश देखी । खुखरी से घायल सिपाही को तड़पता हुआ देखा । उसने मुझे बताया कि छांगरू गांव के लोग उस घायल को यहां ला रहे हैं ।
घायल को मेडिकल एड देने के लिए भारत होकर वे जाना चाहते थे । नेपाल का रास्ता बहुत हीं कठिन था । मैंने पोस्ट कमांडर से उसके चाय पानी का इंतजाम करने के लिए बोला । छांगरू वाले तब तक घायल को लेकर आ गये थे । मेडिक्स नया था । वह भागता हुआ मेरे पास आया । वह परेशान हो रहा था । मैंने उससे कहा कि आपके पास जो भी जीवन रक्षक दवा है दे दो । उसके पास डेकाड्रान था । उसने घायल को डेकाड्रान का इंजेक्सन लगाया । मैंने वाहिनी मुख्यालय को इस बावत संदेश भेजा । छांगरू गांव के लोग घायल को छोड़ कर चले गये थे । अब यहां से उसे भेजने की जवाबदारी हमारे कंधों पर आ गयी । मैंने निर्माण कार्य कर रहे ठेकेदार से यह जिम्मेदारी उठाने को कहा । काफी सोच विचार के बाद वह माना । घायल को लकड़ी के स्ट्रेचर पर ले चले । मैं भी उनके साथ चल पड़ा ।
जब हम बुधी पहुंचे तो वहां पर इस बात की पहले हीं खबर पहुंच गई थी । लोग घायल के इंतजार में खड़े थे । पता चला कि घायल बुधी गांव का दामाद था । जो लोग उसे उठाकर लाए थे वे बुधी से हीं वापस जाना चाहते थे । उनसे आगे धारचुला तक ले जाने का पुनः ठेका किया गया । घायल के स्ट्रेचर के चारों तरफ बरसाती बांध दी गयी ताकि रास्ते में ऊपर से गिरने वाले पानी से उसका बचाव हो सके । घायल को यहां भी आई टी बी पी के मेडिक्स ने दवा दी । उसे ग्लूकोज पीने को दिया । फिर घायल को लेकर काफिला धारचुला रवाना हो गया । घायल को ले जाने वाले बड़े एक्सपर्ट थे । जिस पथरीली फिसलन भरे मार्ग पर अकेले आदमी का चलना दुश्वार था , उस राह पर आठ आदमी सामान्य ढंग से घायल के स्ट्रेचर को कंधा देते हुए चल रहे थे । पहले चार कंधा लगाते थे फिर उनके थक जाने पर चार रिजर्ब वाले कंधा देते थे ।
काफिला के साथ नेपाल पुलिस का सुरक्षित बचा हुआ जवान भी चल रहा था । आगे जाकर मालपा के आगे नेपाल पुलिस के कुछ जवान हमें मिले , जो मरे हुए पुलिस कर्मियों ( जोशी व अन्य एक जवान ) की लाशों को लेने जा रहे थे । मैं ड्रेस में था । उन लोगों ने मुझे सैल्यूट मारा । रास्ता छोड़कर एक किनारे खड़े हो गये ताकि मैं आराम से निकल सकूं । उनकी आंखों में हमारे प्रति कृतज्ञता झलक रही थी । स्नेह का प्रतिदान हमेशा स्नेह होता है । उन्होंने जबां से कुछ नहीं कहा , पर उनकी आंखें बहुत कुछ कह रहीं थीं । सूरज अस्ताचलगामी हो रहा था । हमने अपने कदम मंजिल की तरफ और तेज कर दिए ।
       
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गर्ब्यांग से गुंजी 10 किमी की दूरी पर है । रास्ता सम गम है । न ज्यादा उतराई न ज्यादा चढ़ाई । रास्ता आराम से कट जाता है । गुंजी कुट्टी यांगती व काली नदी के संगम पर बसा है । गुंजी में प्रवेश करने से पहले गांधी चौक के नाम से एक व्यू प्वाइंट बना है , जहां गांव के बड़े बुजुर्ग बैठते हैं । आपस में बतियाते हैं पेपर पढ़ते हैं । पेपर दो दिन बाद यहां पहुंचता है । लोग उसी को ताजा मानकर बासी खबरों को चाव से पढ़ते हैं । उन पर बहस करते हैं । टी वी हर घर में है । पिक्चर से लेकर समाचार सब देखते हैं लोग । लेकिन पेपर पढ़ने का अपना अलग हीं क्रेज है । कैलाश मान सरोवर यात्रा के राही गांव से होकर गुजरते हैं । गांव से निकलने के बाद सपाट मैदान आता है । इस मैदान को मनीला कहते हैं । मनीला में पहाड़ के साथ व्यास जी का मंदिर बना है । साथ में कुछ स्थानीय देवताओं की भी मूर्तियां हैं , जो शिव जी के गण कहे जाते हैं ।
मनीला से उतराई आती है । पहले कुमाऊं विकास निगम की हटें आती हैं । उसके बाद आई टी बी पी का कैम्प । मनीला में एक खण्डहर नुमा मकान आता है । यहीं पर हमारे एक सुवेदार साहब का प्यार परवान चढ़ा था । वे काला पानी से रात को पैदल चलकर यहां पहुंचते थे । उनका प्यार यहां उनका इंतजार करता मिलता । दोनों साथ जिएंगे , साथ मरेंगे की कसमें खाते । फिर सुबह होने से पहले ये इश्क व हुस्न अलग हो जाते । सुबेदार साहब पौ फटने से पहले काला पानी पोस्ट पर पहुंच जाते । सब कुछ सामान्य हो जाता । बाद में इश्क और हुस्न मिल गये । उनकी शादी हो गई । दोनों सुख पूर्वक जिंदगी देहरादून में जी रहे थे । अब वे किस हालत में है । पता नहीं । यह खण्डहर उनके प्यार की निशानी के तौर पर आज भी खड़ा है । यह दो दिलों की मिलन की कहानी बता रहा है । लोगों ने इसका नाम हीं “निशा ( कल्पित) मिलन हाऊस ” रख दिया है ।
गर्ब्यांग की एक लड़की है । नाम है सरोज । उसने अपनी मां की देख भाल के लिए शादी नहीं की थी । उस समय हीं उसकी उम्र 30 के आस पास थी । भाई शादी करके टनकपुर में रह रहे थे । मां ने घर नहीं छोड़ा । वह उनके साथ नहीं गई । सरोज भी मां के साथ हीं यहीं रह गई । सरोज क्या जाड़ा क्या गर्मी क्या बरसात , हर मौसम में गर्ब्यांग से गुंजी चली रहती है । वह हमारे जवानों के लिए बीड़ी सिगरेट मुहैय्या कराती है । विशेषकर जब कि बर्फ गिरने से हमारी कैंटीन फेसिलिटी बाधित होती है । वैसे में सरोज बर्फ के लम्बे जूते पहने , पीठ पर रूकशैक डाले हुए गर्ब्यांग से गुंजी और गुंजी से गर्ब्यांग का अप एण्ड डाऊन करती रहती थी । वह कभी काला पानी तो कभी कुट्टी भी चली जाती थी । सरोज के कारण जवानों को तेल , साबुन या बीड़ी सिगरेट की कभी किसी पोस्ट पर कमी नहीं हुई । सरोज की इस कर्मठता पर खुश होकर हमारे एक डी आई जी महोदय ने कहा था कि इस घाटी का नाम सरोज घाटी रख देते हैं ।
आजकल जवानों को जरूरी सामानों की कभी कमी नहीं होती । बर्फ के दिनों में हवाई जहाज से सामान यहां पहुंचाया जाने लगा है । यात्रा के दिनों में धारचुला से गुंजी तक हेलिकाॅप्टर सेवा भी रन कर रही है । पिछले साल (2017) की यात्रा के दौरान इस हेलीकाॅप्टर सेवा से काफी मदद मिली थी । भारी वर्षा के कारण कैलाश मनोसरवर के यात्री रास्ते में फंस गये थे । मार्ग पहाड़ धंसने के कारण बंद हो गये थे । ऐसे में हेलिकाॅप्टर सेवा की मदद से यात्रियों को गुंजी से धारचुला पहुंचाया गया था । कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जाने वाले यात्रियों को भी सीधे तौर पर गुंजी में ड्राॅप किया गया था । अब पहले के हिसाब से सुविधाएं ज्यादा हो गईं हैं । पहले जब यात्री आते थे तो सिर हथेली पर लेकर आते थे । मार्ग की दुश्वारियों का भय हमेशा बना रहता था । हेलिकाॅप्टर सेवा लागू हो जाने के बाद अब आप एक उड़ान में हीं तीन दिनों की यात्रा पूरी कर सकते हैं ।
गुंजी की ऊंचाई समुद्र तल से 3500 मीटर है । इस ऊंचाई पर पेड़ पौधे बहुत कम विकसित होते हैं । ऐसे में गुंजी में एक वन विकसित करने का प्रोजेक्ट तैयार किया गया है , जो कि आजकल प्रगति पर है । इस वन का नाम “मानसरोवर वन “रखा गया है । इसे बनाने का आईडिया आई टी बी पी के सेनानी एस पी निम्बाडिया के जेहन में 2007 में आया था । उन्होंने स्वर्गीय कुंअर दामोदर के संस्थान से सम्पर्क किया । आजकल इस संस्थान की संचालिका स्वर्गीय कुंअर दामोदर की बेटी हैं । वे हर साल आई टी बी पी को यात्रा के दौरान 1000 पौधे देती हैं , जिन्हें कैलाश मानसरोवर के यात्रियों से लगवाया जाता है । यात्री भी खुशी खुशी इस काम को अंजाम देते हैं । ये पेड़ अपनी निशानी के तौर पर वे छोड़ जाते हैं । बाद में इनमें खाद पानी देने का काम आई टी बी पी करती है ।
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गुंजी से काली नदी के साथ चलेंगे तो हम काला पानी पहुंचेगे । कुट्टी यांगती के साथ चलेंगे तो कुट्टी गांव पहुंच जाएंगे । यांगती यहां की स्थानीय भाषा में नदी को कहते हैं । हमने कुट्टी नदी कहने की बनिस्पत इसे कुट्टी यांगती कहना शुरू कर दिया । वास्तव में सर्वे करने वालों को स्थानीय लोगों ने इसका नाम कुट्टी यांगती ही बताया होगा । तब से इसका नाम कुट्टी यांगती हो गया । वैसे काली नदी को भी काली यांगती कह सकते हैं । गुंजी से कुट्टी गांव होते हुए छोटा कैलाश के लिए रास्ता जाता है । छोटा कैलाश भारत में पड़ता है , जब कि बड़ा कैलाश चीन में । अभी हम आपको छोटा कैलाश की यात्रा कराएंगे । गुंजी से केवल 3 किमी चलने पर नाभी गांव आता है । नाभी गांव के एक बड़े बुजुर्ग ने मुझे बताया कि व्यास जी ज्यादातर नाभी और गुंजी में हीं रहते थे । उन्होंने स्थानीय लोगों को फाफर की खेती कराना सिखाया था । फाफर की रोटी बनती है । आटे का घोल तैयार कर उसे गरम तवे पर फैला दिया जाता हैं । थोड़ा पक जाने पर इसे पुनः पलट दिया जाता है । पूर्णरूपेण पक जाने पर रोटी तैयार हो जाती है । इसे आप दाल या सब्जी के साथ खा सकते हैं ।
नाभी के आगे फर्लांग भर का बीहड़ रास्ता आता है । रास्ता तंग है । लोहे की रेलिंग लगी हुई है । रेलिंग न हो तो सीधे कुट्टी यांगती में जाने का खतरा रहता है । यदि एक तरफ से भेड़ बकरियां आ रही हैं तो आपको अपनी तरफ रूकना पड़ेगा । अन्यथा उनके भेड़ चाल की वजह से आपको धक्का लग सकता है । और आप कुट्टी यांगती के प्यारे हो सकते हैं । इसलिए इस रास्ते पर चलने से पहले आप पूरी तरह देख भाल के चलें । सही रहेगा । कोई अनहोनी नहीं होगी । बाज दफा आपने आधा रास्ता हीं पार किया तभी भेड़ बकरियां भी आ गयीं । ऐसे में भेड़ बकरियों का काफिला दूसरी तरफ रूक जाता है । आपका काफिला निकलेगा तब भेड़ बकरी वाले अपना काफिला लेकर चलेंगे । यह अघोषित समझौता है , जो दोनों तरफ से मान्य होता है । आप आगे बढ़िए । रास्ता आपके साथ चलेगा । पहाड़ में उतावली बर्जित है । कहते हैं कि पहाड़ में रास्ते का रस लेते हुए चलना चाहिए ।
सुबह के चले शाम को कहीं तीन बजे कुट्टी पहुंचते है । चित्र में जो रास्ता कुट्टी गांव में जाते हुए देख रहे हैं उसके शुरुआत में बायीं तरफ एक छोटी सी टेकरी है । उस पर एक मकान का खण्डहर है । कहते हैं कि इस मकान में कुंती समेत पांचो पाण्डव कुछ दिन ठहरे थे । कुट्टी गांव की प्रधान 2005 में एक महिला थीं । उन्होंने मुझे बताया कि इसी मकान में रहते हुए कुंती की तबियत खराब हो गयी थी । भीम गुंजी जाकर व्यास जी से दवा ले आए थे । मैंने इस टेकरी पर चढ़कर पांचों पाण्डवों के बैठने का स्थान देखा है । बैठने की जगह पत्थरों की बनाई हुई है । इन पत्थरों को टेकरी तक ले जाना भीम के हीं वश की बात रही होगी । इस खण्डहर को स्थानीय भाषा में खर कहा जाता है । कुंती के नाम पर हीं इस जगह को कुंती कहा जाने लगा , जो कालांतर में कुंती की जगह कुट्टी हो गया।
कहते हैं कि स्वर्गारोहण इसी रास्ते से पाण्डवों ने किया था । भीम ,अर्जुन ,नकुल ,सहदेव और द्रोपदी सभी मारे गये थे । केवल युधिष्ठिर और उनका कुत्ता सीधे जिन्दा स्वर्ग पहुंचे थे । युधिष्ठिर के एक पैर का अंगूठा गला था ” अश्वथामा मरो , नरो वा कुंजरो ” कहने के अपराध के कारण । यहां पांच पहाड़ियों के बीच एक पहाड़ी नजर आती है । लोगों ने उनका नाम पांच पाण्डव व कुंती रखा है । कुट्टी गांव से सटा आई टी बी पी का कैम्प है । यहां भी पी डब्लू डी का एक हट है , जो आई टी बी पी के चार्ज में है । यहां से आगे मण्डी लगती थी । इस मण्डी को निखुर्च मण्डी कहते थे , जिसमें तिब्बत से व्यापारी आते थे । 1962 के बाद से यह मण्डी वीरान पड़ी है । अब तिब्बत से व्यापार इस रास्ते नहीं होता ।
कुट्टी से एक रास्ता दारमा वैली को जाता था । कभी एक स्थानीय महिला का बच्चा इस रास्ते पर जाते हुए नीचे गिरकर मर गया था । उस महिला ने तभी इस रास्ते को श्राप दिया था जा अब तुझ पर आज से कोई नहीं चलेगा । तब से यह रास्ता वीरान पड़ा है । कोई इस रास्ते पर नहीं चलता । यह अपनी इस बेकद्री पर जार जार रो रहा है । कौन सुनेगा इसका क्रंदन ? कोई सुनता नहीं खुदा के सिवा । खुदा भी तो मौन है ।
यहां के प्राकृतिक सौंदर्य और यहां के इतिहास को जानकर मैंने शाम को विजिटर बुक में लिखा था –
सब कुछ तो पा लिया है तुझे देखने के बाद ।
अब क्या खुदा से मांगू , तुझे देखने के बाद ।

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कुट्टी की बात हो तो शांति काकी जरूर याद आती हैं । वे असमय हीं विधवा हो गयीं थीं । जब कुट्टी में आई टी बी पी का कोई आफिसर पहुंचता तो शांति काकी उससे जरूर मिलतीं। शांति काकी अक्सर याक की सवारी करती थीं । एक बार याक से गिरने पर उनका एक पांव जख्मी हो गया था। वे लंगड़ा के चलने लगीं थीं । लाठी के बगैर उनका चलना दुश्वार था । वे बतातीं थीं कि किस तरह 1962 से पहले चीनी अधिकारी यहां आकर राजस्व की उगाही करते थे । राजस्व न देने पर प्रताड़ित भी कर जाते थे । पहले पहल यहां के पूरे चारागाह पर चीन का कब्जा था । 1962 में आई टी बी पी खड़ी हुई थी । 1962 के बाद से चीनी अधिकारी इधर का रुख नहीं करते । शांति काकी अब इस दुनिया में नहीं हैं । उनका एक पोता है , जो कभी कुट्टी कभी धारचुला में रहता है । मुझसे एक बार मिला था । वह उस समय किसी पौधे पर रिसर्च कर रहा था ।
कुट्टी से अलसुबह हम केवल चाय पी कर निकले थे । कमाण्डेंट सालिग राम शाह ज्यादातर घोड़े पर बैठते थे । मुझे घोड़े की सवारी पसंद नहीं थी । पीठ की रीढ़ में दर्द होने लगता था । इसलिए मैं पैदल हीं चला । हर 2-3 किमी के बाद ए टी ( एनिमल ट्रांसपोर्ट ) का जवान घोड़े को पकड़कर खड़ा हो जाता कि शायद अब मैं चढ़ना चाहूं । कई बार तकलीफ होने के बावजूद मैं उसके अनुरोध को टाल नहीं पाता । घोड़े पर चढ़ जाता । कुछ किलोमीटर का फासला तय कर उतर जाता । इसी क्रम में हम जालिंगकोंग पहुंच गये । छोटा कैलाश का नयनाभिराम दृश्य देख मन को बहुत शांति मिली । बताते हैं कि अब शिव का यहां वास नहीं है । वे अब बड़े कैलाश पर रहते हैं । बड़े कैलाश पर उनकी ससुराल है । शिव अब ससुराल के वाशिंदे हैं जानकर कुछ भी अजीब नहीं लगा मुझे । आज भी तो लोग ” इन लाॅज” को महत्व देते हैं । सिस्टर इन लाॅ , मदर इन लाॅ , फादर इन लाॅ , ब्रदर इन लाॅ पर हीं तो जान छिड़कते हैं ।
जोलिंगकोंग में सेनानी के दरबार का आयोजन था । सालिग राम सर ने दरबार लिया । उसके बाद लंच हुआ । गरम गरम दाल चावल का सुस्वादु भोजन थके होने पर और रुचिकर लगा । यहां से आगे पार्वती कुंड है । पार्वती कुंड में छोटा कैलाश पर्वत का बड़ा सुंदर अक्स उभरता है । यहां एक मंदिर भी बना है । श्रद्धालु कुंड में डुबकी लगाते हैं । मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं और वापस चल पड़ते हैं । लौटते वक्त मैंने ए टी के जवान से कह दिया था कि वह मेरे लिए बिल्कुल न रुके । अब मैं बिल्कुल हीं नहीं घोड़े पर बैठूंगा । ए टी के जवान ने हुक्म की तामील की । वह अब मेरे लिए वह घोड़ा नहीं रोकता था । लेकिन घोड़े को यह बात समझ में नहीं आयी । वह कुछेक दूरी गुजर जाने पर अपने आप रुक जाता । मैं जब उसे इग्नोर करके आगे बढ़ जाता तब वह फिर चलने लगता । ए टी वाला जवान मेरी तरफ से लापारवाह हो चला था , पर घोड़ा नहीं । घोड़ा पीछे मुड़कर मुझे देखता । हिनहिनाता । जब मैं करीब आता तब हीं आगे बढ़ता । उसका कर्तव्य बोध गजब का था ।
शाम को हम कुट्टी वापस पहुंचे । मैंने एस टी डी से घर बात की । कुशल क्षेम का आदान प्रदान हुआ । टेलिफोन पर ज्यादा बात करना मुझे कभी रास नहीं आता । जब सब कुछ ठीक ठाक है तो बात को लम्बा गढ़ना मुझे बिल्कुल हीं पसंद नहीं । रात को खाने के बाद जब सोये तब सेनानी सालिग राम सर के रेडियो पर गाना आ रहा था –
पंछी नदिया पवन के झोंके ,
कोई सरहद ना इन्हें रोके ।
सोचो तुमने और मैंने ,
क्या पाया इंसां होके ।

मैं सोचने लगा । पक्षी , नदी , हवा पर तो कोई रोक टोक नहीं है । सब के सब भारत और चीन के सरहद को नहीं मानते । वे बे रोक टोक एक दूसरे के यहां पहुंच जाते हैं । क्या ससुराल जाते समय शिव ने यह सोचा था कि उनकी ससुराल एक सरहद को भेंट चढ़ जाएगी । यहां आने के लिए उनके भक्तों को इनर लाइन परमिट , बीजा की जरुरत पड़ेगी । ऐसा वे सोचते तो वे कभी भी ससुराल में नहीं बसते । सोचते सोचते कब मैं नींद के आगोश में जा पहुंचा , पता हीं नहीं चला । दूसरे दिन हम दोपहर तक गुंजी पहुंच गये थे ।

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गुंजी से काला पानी पोस्ट पर जाने के लिए काली नदी के साथ साथ चलना पड़ता है । कुट्टी यांगती और काली नदी का जहां संगम होता है , वह एक तीर्थ स्थल सा बन गया है । यहां के स्थानीय लोग हर 12 साल पर कुम्भ मेले का आयोजन करते हैं । यहां की पूरी संस्कृति" रं " संस्कृति कहलाती है । रं संस्कृति को मानने वाले शिव भक्त होते हैं । ये शिव के अन्य गणों की भी पूजा करते हैं । काला पानी जाने का रास्ता सहज सुगम है । पत्थरों के बीच से पतला रास्ता बना है । रास्ते में पड़े बड़े बड़े पत्थर ऐसे सजते हैं कि जैसे किसी ने बड़ी चतुराई से इन्हें बो रखा है । काली नदी रास्ते से काफी दूर बहती है । आप बड़ी आसानी से दो ढाई घंटे में काला पानी पहुंच सकते हैं । मैं कई बार इस पोस्ट पर जा चुका हूं । यहां पर एक माइक्रोहाइडिल प्रोजेक्ट बना है , जिसे आई टी बी पी के इंजीनियर हयात सिंह पूर्निया और कमल सिंह रावत ने अपने अथक परिश्रम के बाद इंस्टाल किया है ।

जब मैं पहली बार काला पानी जा रहा था तो एक जगह विश्राम के लिए रुका था । मेरे साथ इंजीनियर श्याम लाल नेगी भी थे । जिस पेड़ के नीचे हम बैठे थे उसके बारे में नेगी जी ने बताया कि यह पेड़ अपने साथ एक इतिहास समेटा हुआ है । इसे " डाॅक्टर पेड़ " कहते हैं । आई टी बी पी एक डाॅ साहब ने मजबूरी में इस पेड़ पर एक रात बिताई थी । दरअसल में वे गुंजी पोस्ट से घूमने के लिए निकले थे । चश्मा लेकर नहीं गये थे । जूता सिविल पहने हुए थे । वे काला पानी की राह में काफी आगे बढ़ गये थे । जब वे लौटने लगे तो शाम गहरी हो चुकी थी । गुंजी पोस्ट से कुछ पहले बर्फ पर उनके पांव फिसलने लगे थे । उन्होंने मदद की गुहार लगायी । उनकी आवाज किसी को भी सुनायी नहीं दी । संतरी भी वहां से कुछ दूरी पर लगे थे । इसलिए किसी को भी कुछ पता नहीं चला । कोई उनकी मदद के लिए नहीं आया ।

मजबूर होकर डाॅक्टर साहब काला पानी की तरफ बढ़ चले । वे इस पेड़ पर चढ़ गये ताकि कोई जंगली जानवर उनका काम तमाम न कर दे । जब ठंड लगती तो वे नीचे उतरते । कसरत करते । कूद फांद करते । जब गरमाहट मिल जाती तो वे फिर पेड़ पर चढ़ जाते । पेड़ के पास हीं एक घोड़ा बर्फ में ढूंढ ढूंढ कर घास खा रहा था । उस घोड़े से उन्हें काफी हौसला मिला । एक से भले दो । बर्फ में दो प्राणी एक दूसरे के सम्बल बने । ठीक हीं कहा है -  खूब गुजरेगी जब मिल बैंठेगे दीवाने दो । रात बीती । सुबह का उजाला उनके लिए भगवान बन के आया । गुंजी पोस्ट से उनको ढूंढने के लिए पेट्रोलिंग भेजी गयी थी । उस पेट्रोलिंग को डाॅक्टर साहब मिल गये । उन्हें ससम्मान गुंजी पोस्ट पर लाया गया । पोस्ट पर पोस्ट कमांडर सहित सबके जान में जान आई । वाहिनी मुख्यालय को मेसेज भेज दिया गया कि डाॅक्टर साहब मिल गये हैं ।

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काला पानी पहुंचने पर सबसे पहले काली का मंदिर आता है ।
काली के मंदिर के नीचे से पानी का एक स्रोत निकलता है । यह स्रोत नाभीढांग से आने वाले एक नदी से जा मिलता है । यही नदी यहां के बाद काली नदी हो जाती है । काली मंदिर के नीचे से निकलने वाले पानी को तीर्थ यात्री बोतलों में भरकर घर ले जाते हैं । बताते चलें कि यह पानी बेहद हीं मीठा होता है । ऐसा लगता है कि कोई इस पानी में चीनी की बोरी खोल रखी है । जनश्रुतियों के अनुसार इस पानी में बला की रोग निवारण  प्रतिरोधक क्षमता होती है । अस्कोट के महाराज के पीने का पानी यहीं से लाया जाता था । महाराज के पेट का रोग इसी पानी को पीकर ठीक हुआ था ।

मंदिर के विपरीत पहाड़ की बेहद ऊंचाई पर कोई कोटर जैसा कुछ दिखता है । यह एक गुफा है । इस गुफा में व्यास जी ने कभी तपस्या की थी । हमारे आई टी बी पी का पुजारी हर साल वहां जाता है । एक नया पताका काली के नाम का फहरा के चला आता है । मुझे तो उस ऊंचाई को देख कर हीं झुरझुरी आने लगी थी । वहां जाना मेरे लिए हथेली पर दूब जमाने के बराबर था । वैसे जाने के लिए तो पुजारी के अतिरिक्त इंजीनियर कमल सिंह रावत भी वहां जा चुके हैं । कुछ और लोग भी होंगे जो वहां जा चुके होंगे । वहां जाना मेरे लिए " चढ़े तो चाखे प्रेम रस , गिरे तो चकनाचूर " वाली कहावत होगी । बताते हैं कि उस गुफा में आसन के रुप में एक पत्थर रखा गया है । एक लोटा व माला भी है । सुना है कि पहले काली नदी उसी ऊंचाई पर बहती थी । कालांतर में नदी कटान करती करती इस लेवल पर आ पहुंची है ।
काला पानी पोस्ट पर नेपाल भी अपना हक जताने लगा है । एक बार नेपाली लड़के लड़कियां भी इस पोस्ट पर आ गये थे । उन्होंने जम कर नारे लगाये थे । "काला पानी हमारा है , इण्डियन आर्मी वापस जाओ " के उद्घोष फिजा में तैरने लगे थे  । अभी तलक वे संयम से काम ले रहे थे । उम्मीद है कि आगे भी वे संयम से हीं काम लेते रहेंगे । इस घटना के बाद वे कभी भी काला पानी पोस्ट पर नहीं आए । काली माता के मंदिर के बाद आई टी बी पी का कैम्प आता है । उसके बाद कुमाऊं मण्डल विकास निगम के बैरकें आती हैं । तीर्थ यात्री काला पानी के मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं । उसके बाद वे कुमाऊं मण्डल विकास निगम में रात्रि विश्राम करते हैं ।
                                                   
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काला पानी से नाभीढांग के लिए हम सुबह सुबह निकल पड़े । यहां से मैं कभी घोड़े पर तो कभी पैदल चला । मेरी रीढ़ का दर्द अब सम्भल चुका था । कमाण्डेंट शालिग्राम का घोड़ा आगे चल रहा था । चढ़ाई मीठी थी । इसलिए हमें कोई   
विशेष परेशानी महसूस नहीं हो रही थी । रास्ते के दोनों तरफ छोटे छोटे पेड़ व झाड़ियां उगे थे । इनसे हमारी आक्सीजन की कमी पूरी हो रही थी । बहुत आगे चलकर हमें एक होटल नजर आया । होटल एक बड़े टेण्ट में चल रहा था । उसी होटल में बनारस से आए दो व्यापारी भी रुके थे । वे रेशम के व्यापार का जायजा लेने चीन जा रहे थे । ज्ञातव्य हो कि बनारसी साड़ियां रेशम से बनती हैं । हम भी उसी होटल के पास रुक गये । नाभीढांग से दो तीन लड़के हमारे लिए चाय लेकर आए थे । हमने भुने हुए काजू दो तीन खाए और शेष उन लड़कों और व्यापारियों को बांट दिए । चाय पीकर आगे बढ़े ।

यहां से नाभीढांग आधे घण्टे की दूरी पर था । ओम पर्वत का साक्षात् दर्शन हो रहा था । कहते हैं कि ओम पर्वत का दर्शन उन लोगों को हीं होता है , जिन्होंने अपनी जिंदगी में कभी कोई पाप नहीं किया हो । हमें दर्शन का लाभ मिला । खुशी हुई कि हमारे पाप को भगवान ने पाप की श्रेणी में नहीं रखा था । आम तौर पर यह पर्वत कोहरे की चादर में लिपटा रहता है । कई लोगों ने कई दिनों का यहां प्रवास भी किया था , पर उन्हें ओम पर्वत का दर्शन नहीं हुए । हम भाग्यशाली रहे कि 
हमें नाभीढांग पहुंचते हीं दर्शन मिल गया । ओम पर्वत पर ऊं  लिखा हुआ है । इस पहाड़ पर गड्ढे इस तरह से बने होते हैं कि बर्फ इनमें जब भर जाती है तो अपने आप कुदरती ऊं बन जाता है । नीचे का पहला चित्र ओम पर्वत का है । दूसरे चित्र में मैंने ऊं स्पष्ट करने के लिए लाल निशान चला दिया है ।

ओम पर्वत 6191 मीटर ऊंचा है । इस पर चढ़ने की बहुत बार कोशिश हुई , लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी थी । हर बार मौसम का खराब हो जाता था । एक बार तो चोटी केवल 660 मीटर हीं रह गई थी । आखिरी बार 8 अक्टूबर 2008 को फतेह हासिल हुई । पर्वतीय दल चोटी से 30 फीट पहले हीं लौट आया । ऐसा पर्वत को मान देने के लिए किया गया था । कई पर्वतारोहियों का कहना था कि उन्होंने चोटी पर ऊं शब्द की ध्वनि सुनी थी । ऊं सम्पूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है । इस पर बौद्ध और जैन धर्म की भी आस्था है । ऊं शब्द सर्वाधिक पवित्र शब्द है । इस पर्वत को देखकर यह सोचना पड़ता है कि इसे बनाने वाला कौन है ? हम जब काला पानी के लिए लौट रहे थे तो मेरे मन में मुकेश का एक गाया गीत गूंज रहा था -
कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो ।
इनके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो ।
चमका लो आज लालिमा अपने ललाट की ,
कण कण से झनकती तुम्हारी छवि विराट की ।
अपनी तो आंख एक है उसकी हजार  है ।
ये कौन चित्रकार है ? ये कौन चित्रकार है ?

दुःख इस बात का है कि इस ओम पर्वत को लेकर भारत व नेपाल में सीमा विवाद है । अगर इस पर्वत को नेपाल को दे भी दिया जाता है तो नेपाल से इस पर्वत का केवल पृष्ठ भाग हीं नजर आएगा । ऊं  देखने के लिए नेपाल से भारत आना पड़ेगा । समझ समझ का फेर है । बेकार में इसे झगड़े की जड़ बनाया जा रहा है । सियासत गंदी होती है । इसे धरम करम से दूर रखना चाहिए ।
समझने नहीं देती सियासत हमको सच्चाई ,
कभी चेहरा नहीं मिलता , कभी दर्पन नहीं मिलता ।

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नाभीढांग से लिपुलेख दर्रा 9 किलोमीटर की दूरी पर है। नाभीढांग से नाश्ता कर सुबह हीं चलना पड़ता है । चढ़ाई और ऑक्सीजन की कमी की वजह से 9 किलोमीटर का यह रास्ता 90 कीलोमीटर का जान पड़ता है । गर्मी के मौसम में भी यहां मौसम खराब हो जाता है । कई बार बर्फ भी पड़ जाती है । एक बार ऐसे हीं बर्फ पड़ने लगी । यात्रियों के लिए यह पहला अनुभव था । आई टी बी पी का डाक्टर भी नया नया था । वह समझ नहीं पा रहा था कि ऐसे में वह क्या करे । सारे यात्री उसकी तरफ याचक दृष्टि डाले हुए थे । अचानक डाक्टर के प्रत्युत्पन्न मति ने काम किया । उसने सभी यात्रियों से कदम ताल करने के लिए कहा । कुछ कदम ताल नहीं कर पा रहे थे , उनसे हिलते डुलते रहने की सलाह दी । हरकत करने से यात्रियों के शरीर में गरमाहट मिली । वे लिपुलेख की तरफ बढ़ते रहे । अंत तक वे लिपुलेख तक किसी तरह पहुंच गये । लिपुलेख समुद्र तल से 5334 मीटर ऊंचाई पर स्थित है । यहां पहुंचकर ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम हो जाती है ।
बर्फ पड़ जाने के बाद रास्ता नजर नहीं आता । चारों तरफ बर्फ की सफेद चादर विछी होती है । ऐसे में आई टी बी पी पहले से हीं लाल झण्डियां लगाकर रखती है , जिससे यात्रियों को रास्ता पहचानने में मदद मिलती है । 1991 में यह दर्रा तीर्थ यात्रियों एंव व्यापार के लिए खोला गया था । बाद में नाथू दर्रा ( नाथू ला ) भी खोल दिया गया । ज्यादातर व्यापार लिपूलेख दर्रे से हीं होता है । नाथू ला से व्यापार कम तीर्थ यात्रियों का काफिला ज्यादा चलता है । अब डोकोलाम विवाद के बाद नाथू ला चीन द्वारा बंद कर दिया गया है । चीन के इस कार्यवाही से लगभग 800 तीर्थ यात्री प्रभावित हुए हैं । अब केवल लिपुलेख दर्रा हीं बचा है , जहां से  व्यापार होता है । तीर्थ यात्रा होती है । लिपुलेख दर्रा एक साथ तीन देशों को जोड़ता है - भारत , नेपाल और तिब्बत ( अब चीन )। एक तरह से यह Tri junction दर्रा है । लिपुलेख दर्रा है तो भारत के कब्जे में , पर इस पर दावा नेपाल भी करता है । लिपुलेख दर्रे से न केवल हिंदू बल्कि जैन और बौद्ध मतावलम्बी भी कैलाश मान सरोवर की यात्रा करते हैं ।
लिपुलेख दर्रे के टाॅप पर पहुंचने के बाद उतराई आती है । तीन किलोमीटर चलने के बाद चीन की बसें यात्रियों का इंतजार करती हुई मिलती हैं । कई बार मौसम खराब होने के कारण यह बस इंतजार करके जा चुकी होती है । ऐसे में यात्रियों को पुनः नाभीढांग आना पड़ता है । रात्रि विश्राम नाभीढांग में करने के बाद वे अगली सुबह पुनः लिपुलेख की चढ़ाई चढ़ते हैं । चीन के बस में दो गाइड रहते हैं , जो अंग्रेजी के अलावा हिंदी भी जानते हैं । मेरे समय में एक गाइड तो भारत के देहरादून से पढ़ा था । बस में हिंदी गाने बजते रहते हैं । आपको बता दें कि चीन में हिंदी गानों का बहुत क्रेज है । बस जाकर सीधे तकलाकोट रुकती है । वहां यात्रियों के कागजात चेक किए जाते हैं । जांच में एक घंटा का समय लग जाता है । जांच के बाद यात्रियों को उनके विश्राम स्थल को ले जाया जाता है । तकलाकोट में यात्री दो दिन रुकते हैं । हमारे समय में यात्री लौटकर वहां के शौचालयों की गंदगी का हाल बताते थे । हो सकता है कि अब वहां के हाईजिन एण्ड सैनिटेशन के हालात सुधर गये हों ।
तकलाकोट की ऊंचाई 4755 मीटर है । यहां से भारत , नेपाल व चीन का व्यापार होता है । तकलाकोट को तिब्बती में पुरंग और चाईनीज में बुरंग कहते हैं । यहां राम जानकी का एक बहुत प्राचीन मंदिर है । जहां यात्री अपने प्रवास के दौरान भगवत भजन करते हैं  । भारत के नेपोलियन कहे जाने वाले जम्मू राज्य के जोरावर सिंह ने आक्रमण कर तकलाकोट नगर को भारत में मिला लिया था । जोरावर सिंह हिमाचल के रहने वाले थे । वे जम्मू कश्मीर के राजा गुलाब सिंह की सेना के सेनापति नियुक्त हुए थे । उन्होंने अपनी वीरता और अदम्य साहस से पूरा लद्दाख और तिब्बत के मानसरोवर का (तकलाकोट का ) इलाका जीत लिया था । उन्होंने  तिब्बतियों से लड़ते हुए तकलाकोट क्षेत्र में वीर गति प्राप्त किया था । जोरावर सिंह की समाधि तकलाकोट के समीप व्यू नामक स्थान पर बनाई गयी है । 1962 से पहले तकलाकोट को 90% भोजन की आपूर्ति भारत से की जाती थी ।

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दो दिन तकलाकोट में रुककर कैलाश माऊण्ट की तरफ बढ़ते हैं । सारे लगेज यहीं छोड़ कर । यात्रा बस से शुरु होती है । दोपहर तक दारचीन पहुंच जाते हैं । दारचीन कैलाश पर्वत का आधार शिविर है । यहां से कैलाश परिक्रमा तीन दिन में पूरी होती है । वैसे परिक्रमा की परिधि 45 किलोमीटर की है । इस पर्वत की ऊंचाई 18000 फीट (5486 मीटर ) है । मार्ग में जगह जगह रुकने की व्यवस्था है । जहां गर्म पानी नहीं मिलता है । ठण्डे पानी से हाथ अकड़ जाते हैं । कई यात्रियों की ठण्ड से मौत भी हो जाती है । ऐसी हीं एक घटना 2002 में हुई थी । एक महिला यात्री की परिक्रमा करते हुए मौत हो गई थी । उसकी सहेली ने भी परिक्रमा अधूरी छोड़ दिया था । वह उसकी लाश लेकर गुंजी आ गई । साथ में एक सुहृदय यात्री भी थे । उन्हें भी अपनी यात्रा अधूरी छोड़नी पड़ी थी । कैलाश के निकट पहुंच परिक्रमा से अपने को बंचित करना बड़े दिल वालों का काम होता है ।
अपने लिए जिए तो क्या जिए ।
तू जी ऐ दिल ! जमाने के लिए ।

गुंजी में उस महिला की लाश दो दिन पड़ी रही । मौसम खराब होने के कारण हेलीकाॅप्टर सेवा बाधित हो रही थी । आखिर में उसे सड़क मार्ग से ले जाया गया । स्थानीय मजदूरों ने इस काम के 36000/- रूपए लिए थे । मांगती नाला से उसे आई टी बी पी के गाड़ी में धारचुला ले जाया गया , जहां उसके पति पहले से इंतजार कर रहे थे । उन्हें क्या पता था कि सात भांवरों से बचन बद्ध पत्नी इस कदर साथ छोड़ जाएगी ।
मार्ग में घोड़े वालों का व्यवहार यात्रियों के साथ ठीक नहीं होता है । वे कई बार यात्रियों की नहीं सुनते । एक यात्री ने लौट कर अपना अनुभव सुनाते हुए कहा था कि चायनीज घोड़े के शरीर में जलता हुआ सिगार छुआ देते हैं । घोड़ा विदक कर भागता है । यात्री घोड़े से गिरते हैं । फिर इनका मनोरंजन होता है । हंसते हैं । भारत सरकार ने ऐसे मामले बार बार चायनीज अधिकारियों के समक्ष उठाए तब जाकर कहीं अब हालात सुधरे हैं । शौचालयों की भी हालत बदतर थी । अब उनकी साफ सफाई ठीक हो रही है ।
दारचीन से बस द्वारा हीं यम द्वार तक पहुंचते हैं । कहते हैं कि यम द्वार से आगे जाने वाले लोगों का हिसाब किताब स्वंय यमराज रखते हैं । यमद्वार पार कर जाने वाले लोग पुनः मर्त्य लोक में वापस नहीं आते । यम द्वार से पैदल रास्ता है । कुछ पैदल तो कुछ घोड़े पर चलते हैं । यम द्वार  से डेराफूंक 12 किलोमीटर की दूरी पर है । पोर्टर आपका जरुरी सामान ले जाते हैं । यात्रियों के लिए तो अपनी छड़ी , कैमरा या डायरी तक भी उठाना दुश्वार लगता है । यहां आकर ऑक्सीजन की भारी कमी हो जाती है । डेराफूंक का मात्र 12 किलोमीटर का यह रास्ता 4 घंटे में पूरा होता है । डेराफूंक से कैलाश पर्वत का भव्य नजारा दिखायी देता है ।
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कैलाश पर्वत माऊण्ट एवरेस्ट की ऊंचाई तो ग्रहण नहीं कर सकता  , पर ये भी निर्विवाद सत्य है कि माऊण्ट एवरेस्ट कैलाश पर्वत की भव्यता के पासंग में भी नहीं है । माऊण्ट एवरेस्ट पर बहुत लोग चढ़ गये , पर कैलाश पर्वत की शुचिता का ध्यान रखते हुए इस पर चढ़ाई निषिद्ध कर दिया गया है । कहते हैं कि 11वीं सदी में किसी तिब्बती योगी ने इस पर चढ़ने की कोशिश की थी , पर शिव के क्रोधित होने की आशंका से सहम कर उसने अपनी इस योजना का त्याग कर दिया था । आप चित्र में देख सकते हैं । ऊपर जहां बर्फ नहीं है , वहां शिव का चेहरा नजर आ रहा है । सिर से निकली एक लट बर्फ की शकल में नीचे तक लटकती हुई चली गई है । दूसरी तरफ उनका त्रिशूल पड़ा है । पूरा पर्वत हीं शिवलिंग के आकार में है । ऐसी भव्यता कहीं नहीं देखने को मिलेगी । यही कारण है कि 12 ज्योतिर्लिगों में यह ज्योतिर्लिंग सर्वश्रेष्ठ है । यहीं पर शिव अपने पूरे परिवार के साथ रहते हैं । तुलसीदास ने भी लिखा है -
परम रम्य गिरवर कैलासू ,
सदा जंह शिव उमा निवासू ।

कैलाश पर्वत से चार प्रमुख नदियां ( सिंध , ब्रह्मपुत्र , सतलज और घाघरा ) निकलती हैं जो भारत भूमि को शस्य श्यामला बनाती हैं । कहते हैं कि दिग्विजय के दौरान इस क्षेत्र में कुंती पुत्र अर्जुन ने अपनी विजय पताका फहराई थी । जब बर्फ पिघलती है तो ऊं ध्वनि पूरे क्षेत्र में गूंजती है । साथ हीं मृदंग की आवाज भी आती है। डोलमा पास से उतराई शुरू हो जाती है । गौरी कुण्ड इसी उतराई में पड़ता है । यहां यात्री डुबकी लगाते हैं । पूजा अर्चना करते हैं । फिर आगे बढ़ते हैं । गौरीकुण्ड से 7 किलोमीटर की दूरी पर राक्षस ताल आता है । कहते हैं कि रावण ने यहां घोर तपस्या की थी । शिव ने उसे अमरत्व का बरदान दिया था । राक्षस ताल को रावण ताल भी कहते हैं । राक्षस ताल का पानी खारा होता है ।  यहां राक्षस ताल और मानसरोवर दोनों की उपग्रह से खींची गई तस्वीर डाली गई है । मान सरोवर को सूर्य और राक्षस ताल को अर्धचंद्र का प्रतीक माना गया है ।
मानसरोवर का पानी बहुत हीं मीठा होता है । दोनों ताल एक पतली नदी से जुड़े हैं । किंतु इससे न तो मानसरोवर का पानी खारा होता है और न राक्षस ताल का मीठा । कहते हैं कि क्षीर सागर हीं मानसरोवर है । यहां विष्णु का निवास है । मान सरोवर का मतलब मन का सरोवर होता है । मन से चाहकर इसमें डुबकी लगाने वालों को मनोवांछित फल मिलता है । तभी तो यह सनातनी लोगों के अतिरिक्त बौद्ध और जैन मतावलम्बियों का भी प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है । यह 88 किलोमीटर की परिधि में फैला हुआ है । समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 4556 मीटर है।इसका कुल क्षेत्रफल 320 किलोमीटर है । इसकी विशुद्ध गहराई 90 मीटर है । इसकी 88 किलोमीटर की पेरीमीटर लम्बाई की परिक्रमा पैदल करना नितांत मुश्किल है । इसलिए परिक्रमा बस से कराई जाती है ।
मान सरोवर परिक्रमा पूरी होने के बाद यात्री बस से दारचीन पहुंचते हैं । दारचीन से तकला कोट । तकलाकोट में रात्रि निवास होता है । चीन के अधिकारी यात्रियों को रिसेप्शन देते हैं । खाना चाइनीज होता था । नूडल्स , मोमो से यात्रियों का पेट नहीं भरता । भारत सरकार ने इस मुद्दे को चीनी अधिकारियों के समक्ष उठाया , तब कहीं आज उन्हें दाल , चावल, चपाती और सब्जी खाने को मिल रही है । चीनी अधिकारी यात्रियों से फीड बैक लेते हैं । अगले दिन यात्रियों को लिपुलेख के लिए रवाना कर दिया जाता है । लिपुलेख से तीन किलोमीटर पहले चाइना की गाड़ी छोड़ जाती है । यहां से यात्री लिपुलेख तक पैदल आते हैं । लिपुलेख पास पर भारत तिब्बत सीमा पुलिस के एक ऑफिसर , एक डाक्टर और कुछ जवान उनका स्वागत करते हैं । यात्री भारत की धरती को प्रणाम करते हैं । साथ हीं भारत तिब्बत सीमा पुलिस और कुमाऊं मण्डल विकास निगम का आभार व्यक्त करते हैं । उनकी यात्रा अब भारत में उनके अपने अपने गंतव्य के लिए शुरू हो जाती है ।
                                           ।। इति ।।

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